मंगलवार, 23 जून 2015

नहीं

एक सुबह का सूरज
दूसरी सुबह-सा नहीं होता
एक अंधेरा दूसरे की तरह नहीं होता।
संसार की सब पवित्रता
एक स्त्री की आंखें नहीं हो सकतीं
एक स्त्री के होंठ
एक स्त्री का प्यार।
तुम जब होती हो मेरे पास
मैं कोई और होता हूं
या कोई और स्त्री होती है शायद
जो नहीं होती है कभी।
मेरे भीतर की स्त्री खो गई है शायद
ढूंढता रहता हूं जिसे

संसार की सब स्त्रियों में।
निखिल आनंद गिरि

शनिवार, 20 जून 2015

कचरा


जिन्होंने ज़मीन पर घर बनाए
रहे ज़मीन पर
उनका हक़ है कि कचरा ज़मीन पर फेंके
जिनके घर आसमान में हैं
उनसे सविनय निवेदन है
आसमान में कचरा फेंकने की जगह ढूंढ लें।
ज़मीन पर अघोषित निषेधाज्ञा है
लिफ्ट से उतरने पर।
आसमान आत्ममुग्धता का शिकार होता जा रहा है
इन दिनों इतने घरों को देखकर
दरअसल वह कचरा फेंकने की असली जगह है।
ज़मीन पर नींव खोदी जा सकती है
आसमान से सिर्फ बचा जा सकता है

ओज़ोन की परतों के सहारे।

निखिल आनंद गिरि

मंगलवार, 16 जून 2015

चश्मा

 चश्मा कितना भी सुंदर हो
आंखे कितनी भी कमज़ोर
चश्मे का मतलब दो नयी आंखों का होना नहीं होता
इसके अलावा
सही नंबर का चश्मा जरूरी है
सही नंबर की आंखो पर
सही नंबर की दुनिया देखने के लिए
चश्मे से दुनिया साफ दिख सकती है
सुंदर नहीं
कई तरह के चश्मे लगाकर भी नहीं।
आंखे नहीं हो पहली जैसी
और दुनिया हो भी
तब भी नहीं। 

निखिल आनंद गिरि

शुक्रवार, 12 जून 2015

कुछ लोग

सबसे मीठी चाय ज़रूरी नहीं
सबसे अच्छी हो स्वाद में।
सबसे ज़्यादा ज़रूरी नहीं होता
सबसे पहले कहा गया वाक्य
सबसे ऊंची या बार-बार सुनी आवाज़
सबसे सच्ची या गहरी नहीं होती
सबसे ज़्यादा चुप्पी भी हो सकती है।

सबसे ऊंची जगहें नहीं होतीं,
सबसे ज़्यादा हवादार।
सबसे छोटी कील कर देती है
दीवार को आर-पार।
सबसे मज़बूत लोहे भी
खा जाते हैं ज़ंग अक्सर।
सबसे मोटे चश्मे
नहीं देख सकते सबसे दूर तक

सबसे पुरानी किताबों में
लिखा भी न मिले शायद
सबसे भयानक, असभ्य, काले
सबसे गरीब लोगों ने ही
उगाये सबसे पहले अन्न
बनाई सबसे लंबी सड़कें
सबसे ऊंची इमारतें
सबसे प्राचीन और समृद्ध सभ्यताएं।
सबसे ज़्यादा भुला दिए गए कुछ लोग

सबसे अधिक याद आते हैं अक्सर।

निखिल आनंद गिरि

सोमवार, 1 जून 2015

हैंगओवर

बारहमासा अमरूद की तरह नहीं

महामारी की तरह आते हैं
कभी-कभी अच्छे दिन

कभी नहीं जाने के लिए।
मक्खियां चखें तमाम अच्छी मिठाइयां

मच्छरों के लिए तमाम अच्छी नस्ल के ख़ून
चमगादड़ों के लिए सबसे दिलकश अंधेरे

और चूंकि जंगल नहीं के बराबर हैं
तो भेड़ियों-सियारों-लकड़बग्घों की रिहाइश के लिए

तमाम अच्छे शहर
गुजरात से दिल्ली से अमरीका से मंगल तक।


एक से एक रंगीन चश्मे इंडिया गेट पर
युवाओं के लिए हनी सिंह के सब देशभक्ति गीत,

सबसे तेज़ बुलेट कारें, सबसे अच्छी दुर्घटनाओ के लिए
सबसे मज़बूत लाठियां, सदैव तत्पर पुलिस के लिए

सबसे अच्छी हत्याओं का सीधा प्रसारण
सबसे रंगीन पर्दों पर।

सबसे अच्छे हाथी, कुलपतियों की तफरी के लिए
सबसे अच्छे पुरस्कार, अच्छे दिनों की याद में

लोटमलोट हुए राष्ट्रभक्तों, शांतिदूतों और साहित्यकारों के लिए।

 
सबसे अच्छे दिनों को हुड़-हुड़ हांकते

सबसे ज़्यादा मुस्कुराते लोग
बोरिंग सेल्फी की तरह

आत्ममुग्धता की बास मारते
प्रेम की तमाम संभावनाओं को ख़ारिज करते।

 
सबसे अच्छे नारे, मंदिर, शौचालय, बैनर

मूर्तियां, होर्डिंग और पोस्टर
शहर की सबसे सभ्य सड़कों पर

जिन पर इत्मीनान से लेंड़ी चुआते हो कौव्वे
और वहीं बीड़ी सुलगाने की जुगत में

कोई कवि या पागल
नाउम्मीदी की तमाम संभावनाओं के बीच

किसी चायवाले भद्रजन से मांगता हो माचिस
तो अच्छे दिनों के हैंगओवर में,

वह उड़ेल दे खौलती केतली से
किरासन या तेज़ाब जैसी कोई चीज़

और मुस्कुराकर कहे जय हिंद।
निखिल आनंद गिरि

गुरुवार, 21 मई 2015

रेखाचित्र

कोई कहीं दौड़ता नहीं
फिर भी हारता कई बार।
कई बार दौड़ते कुछ लोग
पहुंच जाते किसी और रेस में
मैदान हरे-भरे, कंक्रीट के।

आसमान से कोई दागता गोली,
दौड़ पड़ते सब
जो लाशें बचतीं
जीत जातीं।
जीत ख़बर बनती
पदक बंटते लाशों को।

खोते जाते मैदानों में कुछ लोग
मिलते आपस में,
नई दौड़ के लिए।
हारे हुए लोगों की रेस चलती अनवरत
अंतरिक्ष के मैदानों तक
हार जाने के लिए।
विलुप्त होते रहे
थक कर बैठे
सुस्ताते लोग
ख़बर नहीं बन सके
थके-हारे लोगों को
प्याऊ का पानी पिलाते लोग।

पहले पानी लुप्त हुआ समुद्रों से
फिर गहराई का नाता टूटा पृथ्वी से
जैसे छत्तीसवीं मंजिल का रिश्ता
अपार्टमेंट के ग्राउंड फ्लोर से।

निखिल आनंद गिरि
(पाखी के 'मई 2015' अंक में प्रकाशित)

रविवार, 17 मई 2015

अपने समय के बारे में

आप जब कहते हैं,

कि यह एक ख़राब समय है
तब आप कोस रहे होते हैं सिर्फ वर्तमान को

अतीत के पक्षपाती चश्मे से,
संभव है आपकी ख़राब घड़ी भर ही ख़राब हो समय।

दरअसल वह एक ख़राब समय था जो,

वीर्य की तरह बहता चला आया वर्तमान की नसों में।



जिस क़ातिल की सज़ा बदली सज़ा-ए-मौत में

(इसे रिहाई भी समझा जा सकता है)

उसने अतीत में झोंकी थी एक औरत तंदूर में।

समय तंदूर में झुलसा था तब

और आप अब काला बता रहे हैं।

अंधेरा पैदा करने के लिए

बहुत से धुंधले उजाले भी काफी हैं।


जिन चेलों ने आज बटोरे प्रशस्ति पत्र

उनके पत्रों पर कहीं दर्ज नहीं

कहां और कितने गुरुओं को बांटी थी कल कौन-सी बोतलें।


संभव यह भी है कि अच्छा समय ढंक दिया गया हो

किसी लोकतांत्रिक ढक्कन से।

जैसे आप खिड़कियां ढंकते हैं कमरों की,

और सुरक्षित महसूस करते हैं

आपकी बच्चियां लूडो खेलती हैं आराम से।

ठीक उसी लोकतांत्रिक समय खिड़की के बाहर,

जहां जब बच्चियां पैदा हुईं

तो मांओं ने छातियां ढंक दी उनकी

और आसमान की तरफ अश्लील और डरावनी संभावनाओं से देखा।


दरअसल यह एक अश्लील समय है,

हत्या की खबरों में सिबाका गीतमाला की तरह

दलित नरसंहार में सवर्णों की सकुशल रिहाई जैसे

दिल्ली में दम तोड़ता उत्तर-पूर्व जैसे

पृथ्वी की छाती पर उग आए मकान जैसे

बकरों की जगह उल्टे लटके मुसलमान जैसे।


इस वक्त आपके रंगीन चश्मे के भीतर

अगर दिख रहा है सच जैसा कुछ

तो सबसे अश्लील है भगवान
जिसे पसंद है समय का नंगा नाच।।


('पहल' पत्रिका (98वें अंक) में प्रकाशित
निखिल आनंद गिरि

मंगलवार, 10 मार्च 2015

मुझे चांद नहीं, दाग़ चाहिए

पुरानी डायरी में से कुछ दोबारा पढ़ना अलग तरह का अनुभव है। पुराने दुख नए लगते हैं तो आप मुस्कुराने लगते हैं। दुखों की यही ख़ास बात होती है। आपको हरदम ज़िंदा रखते हैं। सुख आलसी बनाते हैं। ज़िंदगी एक पुरानी होती डायरी से ज़्यादा कुछ भी नहीं। 

संसार के पहले दो लोग शायद इसीलिए प्यार कर पाए कि वो एक-दूसरे की नौकरी नहीं करते थे। नौकरी एक कमाल का आविष्कार है। आप एक ख़ास तरह से जीने के लिए तैयार होते जाते हैं। नौकरी में अगर आपसे कोई प्यार से बात कर रहा होता है तो वो एक चाल हो सकती है। नौकरी हमें शक करना सिखाती है। हमारा आना-जाना, मौजूद रहना ज़िंदगी से ज़्यादा एक रजिस्टर का हिस्सा होता है। कुछ लोग पैसा कमाने के लिए नौकरी करते हैं, कुछ लोग घर चलाने के लिए। मगर आखिर तक आते-आते वो सिर्फ नौकरी करते हैं। जैसे प्रेम विवाह या जुगाड़ विवाह कुछ सालों के बाद सिर्फ एक शादी ही होती है।  मुझे वो रिश्ते अक्सर याद आते हैं जो कभी बने ही नहीं। या जो बने और टूट गए, तोड़ दिए गए। शायद इसी को अहंकारी होना कहते हैं। जो नहीं है, उस पर अधिकार जमाने की कसक। 
मुझे चांद नहीं चाहिए। चांद का दाग़ चाहिए। इस तरह से चांद भी चाहिए। मुझे समुद्र की जगह खारापन मांगने वाला एक दिल चाहिए। इस तरह से भी मिलता सागर ही है। मुझे बारिश अच्छी नहीं लगती। गीली छत अच्छी लगती है। इस तरह से बारिश अच्छी लगती है। किसी का नहीं होना भी इतना अच्छा लगता है कि उसके होने की चाह में ज़िंदगी भली-पूरी गुज़ारी जा सकती है।
'कुछ नहीं चाहिए' भी एक तरह का चाहिए ही है। 
मुझे वो मासूमियत चाहिए जो मेरी चार साल की भतीजी के चेहरे पर दिखती है जब वो सबसे पूछती है - 'ये बचपन क्या होता है?'
निखिल आनंद गिरि

शनिवार, 14 फ़रवरी 2015

लौटना

किसी अनमने दोपहर की
लंबी चुप से निकली कई-कई आवाज़ें
अंतरिक्ष से टकराकर लौट आती हैं
सपनों में प्रवेश कर जाती हैं चुपके से
ऐसे ही लौटना है एक दिन।

जैसे लौटता है पलटू महतो
हर तीन फीट की खुदाई के पास
बहुत सारी सांसे लेकर
एक कश बीड़ी के लिए।

जैसे लौटता है पिटकर
भगीरथ डोम
थाने से हलफनामे के बाद
बीवी-बच्चों के लिए
सूजा हुआ समय लेकर।

लौट आती हैं नानी-दादियां
झुर्रियों से पहले वाले दिनों में
छुट्टियां बिताने आए नाती-पोतों के संग।

लौटते हैं अच्छे मौसम
या जैसे रेलगाड़ियां
बेसुध इंतज़ार के बाद।

जैसे लौटती है पृथ्वी
अपनी धुरी पर
युगों की परिक्रमा के बाद।

प्रेमिकाएं लौट आती हैं
कभी-कभी पत्नियों के चेहरे में ।
किसी अकेले कमरे में
लौट आते हैं चुंबन वाले दिन
आईना निहारती बड़ी बहू के।
लौट आता है उधार गया रुपया
किसी परिचित के बटुए से।

देखना हम लौटेंगे एक दिन
उन पवित्र दोपहरों में
तीन दिन से लापता हुई
अचानक लौट आई बकरी की तरह।

जैसे लौटती है आदिवासी औरत
तेंदु की पत्तियां बेचकर
दिन भर की थकन लेकर
अपने परिवार के पास

और लोकगीत मुस्कुराते हैं।

निखिल आनंद गिरि
(पहल पत्रिका में प्रकाशित)

शनिवार, 7 फ़रवरी 2015

'डॉली की डोली' उर्फ बाबा जी का ठुल्लू


कुछ फिल्में ऐसी होती हैं जिन पर लिखा जाना ज़रूरी नहीं होता, फिर भी लिखा जाता है। कुछ फिल्में ऐसी होती हैं जिन्हें देखा जाना ज़रूरी नहीं होता, फिर भी देखना पड़ता है। डॉली की डोलीदेखने की वजह भी फिल्म से ज़्यादा फिल्म के लेखक उमाशंकर सिंह थे जिन्हें मेरे अलावा हिंदी सर्किल का हर साथी ठीक से जानता है। वो फेसबुक पर मेरे दोस्त हैं और उनकी कुछ कहानियां भी मैंने पढ़ी हैं। एक युवा हिंदी साहित्यकार की लिखी पहली हिंदी फिल्म देखना उसे गुपचुप सम्मान देने जैसा था। इससे ज़्यादा कुछ नहीं। फन सिनेमा में मेरे अलावा सिर्फ सात लोग बैठे थे और ये समझ आ गया था कि फिल्म ने क्या बिजनेस किया है।

डॉली की डोलीजैसी फिल्म 1970 में भी रिलीज़ होती तो भी मूल कहानी में कोई फर्क नहीं आता। डॉली एक लुटेरी दुल्हनहै जो अमीर लड़के फंसाकर शादियां करती है और पहली ही सुबह ससुराल वालों को नशीला दूध पिलाकर सारा माल उड़ा लेती है। यह कहानी फिल्म के पहले बीस मिनट दर्शक को पता नहीं होती, तब तक दर्शक मज़े लेकर फिल्म देखता है। फिर डॉली और उसके गैंग की चालाक एक्टिंग पर आगे की पूरी फिल्म टिकी थी। मगर अफसोस, सोनम कपूर न तो रानी मुखर्जी हैं और न ही विद्या बालन। हम एक बोरिंग होती फिल्म के ख़त्म होने का इंतज़ार करते हैं। दो-चार आइटम नंबर सुनते हैं, तालियां बजने लायक डायलॉग भी, मगर फिल्म कहीं छूट जाती है।

अगर ये किसी किताब में छपी होती तो एक अच्छी कहानी कही जाती। मगर पर्दे पर निर्देशक असल लेखक होता है। फिल्म का स्क्रीनप्ले कई जगह बनावटी, बोवजह, लंबा और बोरिंग भी है। कुल मिलाकर एक ऐसी फॉर्मूला कॉमेडी फिल्म जिसमें सारे मसाले तो हैं, मगर वो बहुत बार चखे जा चुके हैं। डॉली की ख़ासियत है कि उसकी शादियों में उसकी फोटो किसी के पास नहीं आती। दिल्ली जैसे पिद्दी शहर को 10 लाख सीसीटीवी देने वाली राजनैतिक घोषणाओं के युग में बिना कैमरे की शादी बिल्कुल हजम नहीं होती। फिल्म का क्लाइमैक्स बेहद फिल्मी है। जो पुलिस अफसर डॉली और उसके गैंग को पकड़ने में जुटा है, वो डॉली का पहला प्रेमी होता है। मगर डॉली आखिर में उसे भी छोड़ देती है। इसे एक औरत की आत्मनिर्भर और आज़ाद उड़ान के तौर पर भी देखा जा सकता था, मगर डॉली एक बार दे देती यार..’, ‘शादियों के बाद बीवियां तो लूटती ही हैंजैसे कई डायलॉग फिल्म की नीयत वैसी बनने नहीं देते।

अच्छी बात ये है कि इस फिल्म में एक-एक पात्र को पूरा समय दिया गया है। वो किसी लिखी गई कहानी की तरह पूरे-पूरे डायलॉग कहता है और थियेटर की तरह अगले कैरेक्टर के बोलने का इंतज़ार  करता है। एडिटर कट लगाना भूल गया है, मगर ऐसे में पूरी फिल्म में बहुत ज़्यादा उतार-चढ़ाव नहीं हो पाता और हम ऊबने लगते हैं।

इससे ज़्यादा फिल्म पर लिखना ठीक नहीं है। डॉली आखिर में मुंबई की तरफ गई है और उसके हाथ में सलमान खान की फोटो है। मेरी दुआ है कि सलमान को वो सचमुच कंगाल कर डाले ताकि हम कुछ फूहड़ सिनेमा बॉलीवुड से कम कर सकें।
निखिल आनंद गिरि

सोमवार, 26 जनवरी 2015

उनका महान होना तय था

कोई गोत्र, कुल या नक्षत्र
तय होने से भी पहले
उनका महान होना तय था।



जंगल के जंगल काट दिए गए
उनका पलना बनाने में जुट गए गांव
जिन गांवों में बने उनके मुकुट
फुदने औऱ खिलौने भी
वहां आग लगा दी गई काम के बाद
और एक महल तैयार हुआ
गांव की राख पर।



तब दूध के दांत भी उगे नहीं थे
जब घर में आ गई थी गाय
और बहने लगी थी दूध-मलाई
जब वो बड़े हो रहे थे
तब तक तय हो चुका था
कोल्हू कौन होगा, बैल कौन?
पुट्ठे पर मलेगा तेल कौन?


तमाम किताबों पर उंगली फिरा दी उन्होंने
और उन्हें मान लिया गया,
ज्ञानी-ध्यानी, प्रकांड, छुट्टा सांड।


उनके मुंह से दुर्गंध आई,
तो वायु प्रदूषण एक गंभीर मुद्दा मान लिया गया



ऐसे तैयार हुए वो जीने के लिए,
न उन्हें किसी दुकान से आटा लेना था
न बस का नंबर पता करना था कभी
ख़ास तरह से तराशे गए कुछ लोग
जिनका पसीना तहख़ानों में रखा जाना था।
जिनके सफेद बालों पर शोध लिखे जाने थे
इस ग्रह पर सिर्फ राज करने के लिए आए थे।



उनके ज़बान पर नमक की तरह
चटा दिया गया विकास नाम का शब्द
और वो करते रहे जुगाली विकास की
अपनी पीठ घुमाकर ख़ुद ही देते रहे थपकी
घूमते रहे अमेठी, गुजरात से दिल्ली तक।



झूठ को इतना चिल्लाकर कहा,
इतना कलफ लगाकर,
कुतुब मीनार जितनी ऊंचाई से
कि सच ने ख़ुदकुशी कर ली।


निखिल आनंद गिरि
(पत्रिका 'पहल' के 98वें अंक में प्रकाशत)

ये पोस्ट कुछ ख़ास है

मृत्यु की याद में

कोमल उंगलियों में बेजान उंगलियां उलझी थीं जीवन वृक्ष पर आखिरी पत्ती की तरह  लटकी थी देह उधर लुढ़क गई। मृत्यु को नज़दीक से देखा उसने एक शरीर ...

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