गुरुवार, 21 मई 2015

रेखाचित्र

कोई कहीं दौड़ता नहीं
फिर भी हारता कई बार।
कई बार दौड़ते कुछ लोग
पहुंच जाते किसी और रेस में
मैदान हरे-भरे, कंक्रीट के।

आसमान से कोई दागता गोली,
दौड़ पड़ते सब
जो लाशें बचतीं
जीत जातीं।
जीत ख़बर बनती
पदक बंटते लाशों को।

खोते जाते मैदानों में कुछ लोग
मिलते आपस में,
नई दौड़ के लिए।
हारे हुए लोगों की रेस चलती अनवरत
अंतरिक्ष के मैदानों तक
हार जाने के लिए।
विलुप्त होते रहे
थक कर बैठे
सुस्ताते लोग
ख़बर नहीं बन सके
थके-हारे लोगों को
प्याऊ का पानी पिलाते लोग।

पहले पानी लुप्त हुआ समुद्रों से
फिर गहराई का नाता टूटा पृथ्वी से
जैसे छत्तीसवीं मंजिल का रिश्ता
अपार्टमेंट के ग्राउंड फ्लोर से।

निखिल आनंद गिरि
(पाखी के 'मई 2015' अंक में प्रकाशित)

रविवार, 17 मई 2015

अपने समय के बारे में

आप जब कहते हैं,

कि यह एक ख़राब समय है
तब आप कोस रहे होते हैं सिर्फ वर्तमान को

अतीत के पक्षपाती चश्मे से,
संभव है आपकी ख़राब घड़ी भर ही ख़राब हो समय।

दरअसल वह एक ख़राब समय था जो,

वीर्य की तरह बहता चला आया वर्तमान की नसों में।



जिस क़ातिल की सज़ा बदली सज़ा-ए-मौत में

(इसे रिहाई भी समझा जा सकता है)

उसने अतीत में झोंकी थी एक औरत तंदूर में।

समय तंदूर में झुलसा था तब

और आप अब काला बता रहे हैं।

अंधेरा पैदा करने के लिए

बहुत से धुंधले उजाले भी काफी हैं।


जिन चेलों ने आज बटोरे प्रशस्ति पत्र

उनके पत्रों पर कहीं दर्ज नहीं

कहां और कितने गुरुओं को बांटी थी कल कौन-सी बोतलें।


संभव यह भी है कि अच्छा समय ढंक दिया गया हो

किसी लोकतांत्रिक ढक्कन से।

जैसे आप खिड़कियां ढंकते हैं कमरों की,

और सुरक्षित महसूस करते हैं

आपकी बच्चियां लूडो खेलती हैं आराम से।

ठीक उसी लोकतांत्रिक समय खिड़की के बाहर,

जहां जब बच्चियां पैदा हुईं

तो मांओं ने छातियां ढंक दी उनकी

और आसमान की तरफ अश्लील और डरावनी संभावनाओं से देखा।


दरअसल यह एक अश्लील समय है,

हत्या की खबरों में सिबाका गीतमाला की तरह

दलित नरसंहार में सवर्णों की सकुशल रिहाई जैसे

दिल्ली में दम तोड़ता उत्तर-पूर्व जैसे

पृथ्वी की छाती पर उग आए मकान जैसे

बकरों की जगह उल्टे लटके मुसलमान जैसे।


इस वक्त आपके रंगीन चश्मे के भीतर

अगर दिख रहा है सच जैसा कुछ

तो सबसे अश्लील है भगवान
जिसे पसंद है समय का नंगा नाच।।


('पहल' पत्रिका (98वें अंक) में प्रकाशित
निखिल आनंद गिरि

मंगलवार, 10 मार्च 2015

मुझे चांद नहीं, दाग़ चाहिए

पुरानी डायरी में से कुछ दोबारा पढ़ना अलग तरह का अनुभव है। पुराने दुख नए लगते हैं तो आप मुस्कुराने लगते हैं। दुखों की यही ख़ास बात होती है। आपको हरदम ज़िंदा रखते हैं। सुख आलसी बनाते हैं। ज़िंदगी एक पुरानी होती डायरी से ज़्यादा कुछ भी नहीं। 

संसार के पहले दो लोग शायद इसीलिए प्यार कर पाए कि वो एक-दूसरे की नौकरी नहीं करते थे। नौकरी एक कमाल का आविष्कार है। आप एक ख़ास तरह से जीने के लिए तैयार होते जाते हैं। नौकरी में अगर आपसे कोई प्यार से बात कर रहा होता है तो वो एक चाल हो सकती है। नौकरी हमें शक करना सिखाती है। हमारा आना-जाना, मौजूद रहना ज़िंदगी से ज़्यादा एक रजिस्टर का हिस्सा होता है। कुछ लोग पैसा कमाने के लिए नौकरी करते हैं, कुछ लोग घर चलाने के लिए। मगर आखिर तक आते-आते वो सिर्फ नौकरी करते हैं। जैसे प्रेम विवाह या जुगाड़ विवाह कुछ सालों के बाद सिर्फ एक शादी ही होती है।  मुझे वो रिश्ते अक्सर याद आते हैं जो कभी बने ही नहीं। या जो बने और टूट गए, तोड़ दिए गए। शायद इसी को अहंकारी होना कहते हैं। जो नहीं है, उस पर अधिकार जमाने की कसक। 
मुझे चांद नहीं चाहिए। चांद का दाग़ चाहिए। इस तरह से चांद भी चाहिए। मुझे समुद्र की जगह खारापन मांगने वाला एक दिल चाहिए। इस तरह से भी मिलता सागर ही है। मुझे बारिश अच्छी नहीं लगती। गीली छत अच्छी लगती है। इस तरह से बारिश अच्छी लगती है। किसी का नहीं होना भी इतना अच्छा लगता है कि उसके होने की चाह में ज़िंदगी भली-पूरी गुज़ारी जा सकती है।
'कुछ नहीं चाहिए' भी एक तरह का चाहिए ही है। 
मुझे वो मासूमियत चाहिए जो मेरी चार साल की भतीजी के चेहरे पर दिखती है जब वो सबसे पूछती है - 'ये बचपन क्या होता है?'
निखिल आनंद गिरि

शनिवार, 14 फ़रवरी 2015

लौटना

किसी अनमने दोपहर की
लंबी चुप से निकली कई-कई आवाज़ें
अंतरिक्ष से टकराकर लौट आती हैं
सपनों में प्रवेश कर जाती हैं चुपके से
ऐसे ही लौटना है एक दिन।

जैसे लौटता है पलटू महतो
हर तीन फीट की खुदाई के पास
बहुत सारी सांसे लेकर
एक कश बीड़ी के लिए।

जैसे लौटता है पिटकर
भगीरथ डोम
थाने से हलफनामे के बाद
बीवी-बच्चों के लिए
सूजा हुआ समय लेकर।

लौट आती हैं नानी-दादियां
झुर्रियों से पहले वाले दिनों में
छुट्टियां बिताने आए नाती-पोतों के संग।

लौटते हैं अच्छे मौसम
या जैसे रेलगाड़ियां
बेसुध इंतज़ार के बाद।

जैसे लौटती है पृथ्वी
अपनी धुरी पर
युगों की परिक्रमा के बाद।

प्रेमिकाएं लौट आती हैं
कभी-कभी पत्नियों के चेहरे में ।
किसी अकेले कमरे में
लौट आते हैं चुंबन वाले दिन
आईना निहारती बड़ी बहू के।
लौट आता है उधार गया रुपया
किसी परिचित के बटुए से।

देखना हम लौटेंगे एक दिन
उन पवित्र दोपहरों में
तीन दिन से लापता हुई
अचानक लौट आई बकरी की तरह।

जैसे लौटती है आदिवासी औरत
तेंदु की पत्तियां बेचकर
दिन भर की थकन लेकर
अपने परिवार के पास

और लोकगीत मुस्कुराते हैं।

निखिल आनंद गिरि
(पहल पत्रिका में प्रकाशित)

शनिवार, 7 फ़रवरी 2015

'डॉली की डोली' उर्फ बाबा जी का ठुल्लू


कुछ फिल्में ऐसी होती हैं जिन पर लिखा जाना ज़रूरी नहीं होता, फिर भी लिखा जाता है। कुछ फिल्में ऐसी होती हैं जिन्हें देखा जाना ज़रूरी नहीं होता, फिर भी देखना पड़ता है। डॉली की डोलीदेखने की वजह भी फिल्म से ज़्यादा फिल्म के लेखक उमाशंकर सिंह थे जिन्हें मेरे अलावा हिंदी सर्किल का हर साथी ठीक से जानता है। वो फेसबुक पर मेरे दोस्त हैं और उनकी कुछ कहानियां भी मैंने पढ़ी हैं। एक युवा हिंदी साहित्यकार की लिखी पहली हिंदी फिल्म देखना उसे गुपचुप सम्मान देने जैसा था। इससे ज़्यादा कुछ नहीं। फन सिनेमा में मेरे अलावा सिर्फ सात लोग बैठे थे और ये समझ आ गया था कि फिल्म ने क्या बिजनेस किया है।

डॉली की डोलीजैसी फिल्म 1970 में भी रिलीज़ होती तो भी मूल कहानी में कोई फर्क नहीं आता। डॉली एक लुटेरी दुल्हनहै जो अमीर लड़के फंसाकर शादियां करती है और पहली ही सुबह ससुराल वालों को नशीला दूध पिलाकर सारा माल उड़ा लेती है। यह कहानी फिल्म के पहले बीस मिनट दर्शक को पता नहीं होती, तब तक दर्शक मज़े लेकर फिल्म देखता है। फिर डॉली और उसके गैंग की चालाक एक्टिंग पर आगे की पूरी फिल्म टिकी थी। मगर अफसोस, सोनम कपूर न तो रानी मुखर्जी हैं और न ही विद्या बालन। हम एक बोरिंग होती फिल्म के ख़त्म होने का इंतज़ार करते हैं। दो-चार आइटम नंबर सुनते हैं, तालियां बजने लायक डायलॉग भी, मगर फिल्म कहीं छूट जाती है।

अगर ये किसी किताब में छपी होती तो एक अच्छी कहानी कही जाती। मगर पर्दे पर निर्देशक असल लेखक होता है। फिल्म का स्क्रीनप्ले कई जगह बनावटी, बोवजह, लंबा और बोरिंग भी है। कुल मिलाकर एक ऐसी फॉर्मूला कॉमेडी फिल्म जिसमें सारे मसाले तो हैं, मगर वो बहुत बार चखे जा चुके हैं। डॉली की ख़ासियत है कि उसकी शादियों में उसकी फोटो किसी के पास नहीं आती। दिल्ली जैसे पिद्दी शहर को 10 लाख सीसीटीवी देने वाली राजनैतिक घोषणाओं के युग में बिना कैमरे की शादी बिल्कुल हजम नहीं होती। फिल्म का क्लाइमैक्स बेहद फिल्मी है। जो पुलिस अफसर डॉली और उसके गैंग को पकड़ने में जुटा है, वो डॉली का पहला प्रेमी होता है। मगर डॉली आखिर में उसे भी छोड़ देती है। इसे एक औरत की आत्मनिर्भर और आज़ाद उड़ान के तौर पर भी देखा जा सकता था, मगर डॉली एक बार दे देती यार..’, ‘शादियों के बाद बीवियां तो लूटती ही हैंजैसे कई डायलॉग फिल्म की नीयत वैसी बनने नहीं देते।

अच्छी बात ये है कि इस फिल्म में एक-एक पात्र को पूरा समय दिया गया है। वो किसी लिखी गई कहानी की तरह पूरे-पूरे डायलॉग कहता है और थियेटर की तरह अगले कैरेक्टर के बोलने का इंतज़ार  करता है। एडिटर कट लगाना भूल गया है, मगर ऐसे में पूरी फिल्म में बहुत ज़्यादा उतार-चढ़ाव नहीं हो पाता और हम ऊबने लगते हैं।

इससे ज़्यादा फिल्म पर लिखना ठीक नहीं है। डॉली आखिर में मुंबई की तरफ गई है और उसके हाथ में सलमान खान की फोटो है। मेरी दुआ है कि सलमान को वो सचमुच कंगाल कर डाले ताकि हम कुछ फूहड़ सिनेमा बॉलीवुड से कम कर सकें।
निखिल आनंद गिरि

सोमवार, 26 जनवरी 2015

उनका महान होना तय था

कोई गोत्र, कुल या नक्षत्र
तय होने से भी पहले
उनका महान होना तय था।



जंगल के जंगल काट दिए गए
उनका पलना बनाने में जुट गए गांव
जिन गांवों में बने उनके मुकुट
फुदने औऱ खिलौने भी
वहां आग लगा दी गई काम के बाद
और एक महल तैयार हुआ
गांव की राख पर।



तब दूध के दांत भी उगे नहीं थे
जब घर में आ गई थी गाय
और बहने लगी थी दूध-मलाई
जब वो बड़े हो रहे थे
तब तक तय हो चुका था
कोल्हू कौन होगा, बैल कौन?
पुट्ठे पर मलेगा तेल कौन?


तमाम किताबों पर उंगली फिरा दी उन्होंने
और उन्हें मान लिया गया,
ज्ञानी-ध्यानी, प्रकांड, छुट्टा सांड।


उनके मुंह से दुर्गंध आई,
तो वायु प्रदूषण एक गंभीर मुद्दा मान लिया गया



ऐसे तैयार हुए वो जीने के लिए,
न उन्हें किसी दुकान से आटा लेना था
न बस का नंबर पता करना था कभी
ख़ास तरह से तराशे गए कुछ लोग
जिनका पसीना तहख़ानों में रखा जाना था।
जिनके सफेद बालों पर शोध लिखे जाने थे
इस ग्रह पर सिर्फ राज करने के लिए आए थे।



उनके ज़बान पर नमक की तरह
चटा दिया गया विकास नाम का शब्द
और वो करते रहे जुगाली विकास की
अपनी पीठ घुमाकर ख़ुद ही देते रहे थपकी
घूमते रहे अमेठी, गुजरात से दिल्ली तक।



झूठ को इतना चिल्लाकर कहा,
इतना कलफ लगाकर,
कुतुब मीनार जितनी ऊंचाई से
कि सच ने ख़ुदकुशी कर ली।


निखिल आनंद गिरि
(पत्रिका 'पहल' के 98वें अंक में प्रकाशत)

बुधवार, 21 जनवरी 2015

विलोम का अर्थ

जहां से शुरू होती है सड़क,
शरीफ लोगों की
मोहल्ला शरीफ लोगों का
उसी के भीतर एक हवादार पार्क में
एक काटे जा चुके पेड़ की
सूख चुकी डाली पर
दो गर्दनों को षटकोण बनाकर
सहलाती है गौरेया अपने साथी को
और उड़ जाती है आसमान में
लीक तोड़ कर उड़ जाने में
मूंगफली तक खर्च नहीं होती।



एक ऐसी बात जो कही नहीं किसी ने
लोहे के आसमान में सुराख जैसी बात
आप सुनकर सिर्फ गर्दन हिलाते हैं
जुगाली करते हैं फेसबुक पर
छपने भेज देते हैं किसी अखबार में
और चौड़े होकर घूमते हैं सड़कों पर
जो सचमुच लड़ रहे होते हैं आसमानों से
कलकत्ता या छतीसगढ़ की ज़मीनों पर
आपके शोर में चुपचाप मर जाते हैं।



आप जिन दीवारों पर करते रहे पेशाब,
कोई वहां लिखता रहा था क्रांति
उसी दीवार के सहारे करता रहा आंदोलन,
भूखे पेट सोता रहा महीनों
एक दिन उसे पुलिस उठाकर ले गई
और गोलियों का ज़ायका चखाया
दीवारों ने बुलडोज़र का स्वाद चखा
और आप घर बैठे आंदोलन देखते रहे टीवी पर,


इस सदी का सबसे घिसा-पिटा शब्द है आंदोलन
अमिताभ बच्चन की तरह



जिस दिन आपके कुर्ते का रंग सफेद हुआ,
हमें समझ लेना चाहिए था
शांति और सत्ता विलोम शब्द हैं।



निखिल आनंद गिरि
(पहल पत्रिका के 98वें अंक में प्रकाशित)

रविवार, 4 जनवरी 2015

दो रुपये का लोकतंत्र..

बचपन की एक बात समझी,
लगभग तीस साल की उम्र में
एक आदमी चौबीस घंटे में,
तीस लोगों की डांट खाता है
तीन सौ लोगों की डांट से बचता है
तीन हज़ार बार 'सर सर' कहता है
सर झुकाकर खच्चर की तरह,
तीस हज़ार लोगो के साथ,
रोज़ाना धक्के खाते आता-जाता है
शनीचर को तेल चढ़ाता है,
आप कहते हैं मन से नौकरी करता है
कंपनी का बड़ा वफादार है
बीवी-बच्चों से सच्चा प्यार है
मैं तब समझा ये अतिशयोक्ति अलंकार है!


और ये भी कि,
सभ्यताओं के इतिहास में
सिर्फ दुम छोटी होती गई
दुम हिलाना होता गया,
सभ्य होने की पक्की गारंटी।

वो डॉक्टर जो नब्ज़ पकड़ता था
और झट पकड़ लेता बीमारी भी
एक दिन मरा लाइलाज बीमारी से
एक बिल्ली रास्ता काटती ही थी
कि कट गई गाड़ी के नीचे आकर
एक सरकारी अस्पताल खुलना ही था
मर गया महामारी में सारा गांव
दो रिश्ते एक होने को ही थे,
कि सरकारी योजनाओं की तरह
टूट गए भरम के सारे पुल।

जीवन की काली कोठरी में
जब चीख़ती हैं सवालों की परछाईयां
''और कितना डूबोगे सूरज
अंधेरे के बोझ तले
कितना और..?''
उम्मीद की अकेली किरण होती है-
जैसे-तैसे ली गई
एक अंधेरी, बोझिल सांस।
और तब समझ आता है
विडंबना का शाब्दिक अर्थ
दरअसल, व्याकरण की नहीं लिखी गई किताब में
प्यार लोकतंत्र का ही पर्यायवाची शब्द है.
और लोकतंत्र उस अश्लील कहकहे का
जिसका वज़न दो रुपये की क़ीमत चुकाकर,
किसी भी शाम तोला जा सके इंडिया गेट पर


निखिल आनंद गिरि
(कविताओं की पत्रिका 'सदानीरा', मार्च-अप्रैल-मई 2014 अंक में प्रकाशित)

गुरुवार, 25 दिसंबर 2014

एक 'लुल' दर्शक का मज़ाक उड़ाती एलियन आत्मकथा उर्फ 'पीके'

फिल्म के बारे में मेरी राय जानने से पहले इस बात के लिए दाद देनी चाहिए कि समस्तीपुर जैसे शहर में अपने घरवालों को बताकर’ सिनेमा ह़ॉल गया। इससे बड़ी दाद इस बात के लिए कि शहर के तीन बड़े सिनेमाघरों में से सिर्फ एक में ही ‘पीके’  लगी थी और वहां लगभग पांच किलोमीटर पैदल चलकर जाना पड़ा। फिल्म के पोस्टर पर कहीं भी शो का समय नहीं लिखा था मगर भला हो सुरेश जी पानवाले का जो मेरे बगल की सीट पर थे और  बिना पूछे ही बता दिया कि मैं जो पांच मिनट लेट पहुंचा हूं, उसमें ‘कोई मिल गया’ टाइप कोई जादू धरती पर उतरा है। मैं समस्तीपुर के अनुरूप टॉकीज के मालिक से अनुरोध करता हूं कि शो की टाइमिंग भी पोस्टर पर ज़रूर दिया करें कि मुझ-सा कोई एलियन भी आपके हॉल में बिना किसी पूर्व सूचना के टपक सकता है। अब बात पीके की..
एलियन कथाएं अचानक से ही बॉलीवुड की फेवरेट रेसिपी बन गई हैं, मगर आमिर खान भी इसमें कूद पड़ेंगे, उम्मीद नहीं थी। आप आमिर खान को ‘मिस्टर परफेक्शनिस्ट’ होने के लिए बेशक भारत रत्न’  दे डालिए मगर सच कहूं तो वो कहीं से इस रोल में जंचते नहीं हैं। अच्छा तो ये होता कि रणबीर कपूर ही शुरू में ‘जादू’ की गाड़ी से उतरते और अनु्ष्का से प्यार कर डालते मगर आमिर खान पता नहीं कैसे इस चक्कर में पड़ गए। जैसे संजय दत्त काम भर आए और चले गए। ‘सत्यमेव जयते’    के हैंगओवर से आमिर जितनी जल्दी बाहर आ जाते ठीक था। पूरी फिल्म देखकर यही लगा कि वो सत्यमेव जयते का ही कोई अगला एपिसोड कर रहे हों जिसमें नाटक थोड़ा ज़्यादा था और तथ्य बिलकुल कम। इतने लंबे प्रवचननुमा डायलॉग कि सुरेश जी पानवाले मेरे लिए बाहर से एक मीठा पान बनाकर ले आए और फिल्म वहीं की वहीं रही।
विश्व सिनेमा की एक बड़ी फिल्म है ‘BICYCLE THIEF’. इसमें नायक की साइकिल चोरी हो जाती है और पूरी फिल्म इस खोने की त्रासदी को लेकर ऐसी बनी कि मास्टरपीस बन गई। मगर इधर हिरानी एंड कंपनी को इतनी हड़बड़ी थी कि प्रेरणा लेने के लिए वो मास्टरपीस की तरफ न जाकर नाग-नागिन कथाओं की तरफ चले गए। एक एलियन किसी अनजान गोले (ग्रह) से उतरता है और उसका भी रिमोटकंट्रोल कही खो जाता है। इसके बाद की जो कॉमिक ट्रैजडी हम देखते हैं, वो पीके है। पागलों या बेवकूफों जैसी हरकतें और कान-मुंह लंबे करके एलियन बन जाना होता तो कपिल शर्मा से लेकर हनी सिंह सब एलियन होते। दिल्ली, भोजपुर या दुनिया का कोई ऐसा इलाका मुझे नहीं मिला जहां किसी बेवकूफ को झुंझलाकर पीकेकहते हों। कम से कम दर्शक तो एलियन नहीं है, बेवकूफ तो बिल्कुल नहीं। एक एलियन आपका हाथ पकड़ेगा तो आपकी भाषा उसके मेमरी कार्ड’  में उतर जाएगी, जैसे हिंदी सिनेमा का नाग आपकी आंखों में देखकर नागिन के कातिल का आधार कार्ड देख लेता था। ये हमारे समय के सिनेमा की Sci-fi  फिल्म है और आमिर खान जैसे महान अभिनेता उसके नायक हैं!  और एलियन ने भाषा भी सीखी तो क्या, मुंबई मिक्स भोजपुरी जिसका दूर-दूर तक बिहार या भोजपुरी की माटी से कोई संबंध नहीं। इतनी बुरी रिसर्च कि एक अंग्रेज़ी शब्द WASTE को बिगाड़कर भेस्ट’ कर दिया और पूरा गाना फिल्मा दिया। हमारे यहां V को ‘भ’ (जैसे ‘VIRUS’ को भायरस या FACEBOOK TRAVELS को ट्रैभल्स) चलता है मगर W को ज़्यादा से ज़्यादा ‘बकिया जा सकता था। कहां-कहां तक इस एलियन कॉमेडी पर हंसा जाए। पीके एक ऐसी कॉमेडी फिल्म (आमिर इसे सीरियस फिल्म कहें तो अलग बात) है जिसे देखने के बाद ही हंसी आती है। भोजपुरी इलाके का इतना भद्दा मज़ाक कि जिस सेक्स वर्कर से बिस्तर पर ये एलियन उसकी भाषा सीखता है उसे सुबह ‘सिस्टर’ कहता है। हमारे यहां प्रेम करने का कॉमन सेंस तो होता ही है सर।
दरअसल, मीडिया, न्यूज़ चैनल, एनजीओ, फेसबुक स्टेटस और आमिर खान टाइप समाज सुधारकों ने देश का भला करने के नाम पर इतना प्रवचन पहले ही दे दिया है कि इस पर कोई ओवरडोज़ प्रवचन करती फिल्म किसी मंचीय कविता जैसी लगती है। इस तरह की फिल्मों से जितना हो सके बचा जना चाहिए। कम से कम भगवान पर भरोसा करने वालों का मज़ाक उड़ाती ओ माई गॉडइस पीके से बेहतर इस मायने में थी कि फिल्म ईश्वर-अल्लाह से होते हुए भारत-पाकिस्तान की लव स्टोरी बनकर ख़त्म नहीं होती। ख़ुद भगवान पर इतना भरोसा करने वाली यह फिल्म दरअसल बाबाओं और मंदिरो-मस्जिदों से उनकी फैंचाइज़ी छीनकर ख़ुद हथियाना चाहती है।
जब कोई फिल्म तीन घंटे में ही सब कुछ पा लेना चाहती है तो या तो डायरेक्टर दर्शक को ‘लुल’ (पीके से उधार लिया शब्द) समझता है या फिर वो अपने हैंगओवर से बाहर नहीं आ सकने की बीमारी से ग्रस्त है। इस उपदेशात्मक फिल्म को अगर बच्चों की फिल्म कहकर प्रोमोट किया जाता तो ‘तारे ज़मीन पर’ के दीवाने बच्चे ज़रूर हॉल तक आ जाते मगर आपको तो राजस्थान के बीहड़ से लेकर दिल्ली की सड़कों तक डांसिंग कार (कार के भीतर लगे प्रेमी जोड़े) भी दिखानी है और इसे एक एडल्ट कॉमेडी बना देनी है। एलियन को सिर्फ उन्हीं कारों से कपड़े चुराने हैं। जिस मीडिया की गोद में बैठकर ज़रिए ये एलियन इन बाबाओं की खटिया खड़ी कर देता है, उस मीडिया पर भी सवाल उठाए होते तो मैं दोबारा पांच किलोमीटर चलकर आमिर खान साहब को देखने आता। चैनलों से पूछा जाता कि इन आसाराम-रामपाल-राम-रहीम बाबाओं का बिज़नेस आखिर जमाया किसने है। किसी सियावर रामचंद्र ने आशीर्वाद दिया है या ‘बाज़ार देवता की एजेंट मीडिया ने ही। मगर नहीं, पीके उर्फ आमिर खान को तो तीन घंटे में अपनी इमेज बनानी है, इंटरवल में स्वच्छता अभियान का एक विज्ञापन भी करना है और दर्शकों को ‘लुल बनाना है।
फिल्म के कुछ हिस्से बेहद अच्छे हैं मगर फिल्म कोई नींबू तो है नहीं कि निचोड़ कर रस निकाल लें और तरोताज़ा हो जाएं।  जहां मर्ज़ी गाना लगा दीजिए, कहीं बम ब्लास्ट करा दीजिए तो पब्लिक तो कनफ्यूजियाएगी ना कि हंसना किस पर है और सीरियस कहां होना है। हमारे हॉल में तो बम ब्लास्ट पर लोग हसते थे और हंसने वाली जगहों पर शांत रहते थे। दिल्ली पुलिस को इस फिल्म पर पांच सौ रुपये की मानहानि का केस ठोंक देना चाहिए। वो बिकती है मगर 2014 की किसी फिल्म की कहानी में इतने सस्ते में!!  छी.. अगर किसी दूसरे ग्रह से कोई एलियन इस लेख को पढ़ रहा हो तो उसे पीके की पूरी टीम पर मानहानि का केस कर देना चाहिए। वहां लोगों को पहनने के लिए आज भी कपड़े नहीं हैं मगर डिप्रेशन दूर भगाने के लिए लोग बॉलीवुड के ही स्टेप्स फॉलो करते हैं! देखिए न, फिल्म तब देखी और हंसी अब आ रही है। सारे कपड़े उतारने का मन कर रहा है। मैं कहीं एलियन न हो जाऊं।

नोट  जब फिल्म के क्लाइमैक्स में कोई ‘जग्गू साहनीअपनी कहानी सुनाए और बगल से कोई दर्शक पूछे- ‘ई साहनी कौन जात भेल’ (ये साहनी कौन-सी जात हुई) तो समझ लीजिए बिहार में फिल्म देखना् सफल हो गया। 

निखिल आनंद गिरि

गुरुवार, 18 दिसंबर 2014

पसीने की गंध

मैं भीड़ में पसीने से तर खड़ा था
आपने अचानक कार का दरवाज़ा खोल दिया
मैं थोड़े वक्त आपके साथ हो लिया
जैसे धूल चिपकी होती है चमकीली कार के साथ
जैसे अचानक एसी बंद हो जाने पर
पसीना होता है कलफ वाली कमीज़ के साथ।
जैसे कोई बीमा पॉलिसी बेच रहा एजेंट होता है
आपके एकदम साथ होने का भरम बेचते।
आप खामखा भरम में फूल गए जिस वक्त
कि मैं भी हो जाऊंगा आप जैसा
मैं अपने पसीने की गंध में
परिचय खोज रहा था अपना
मैं जिस भाषा में बात करता हूं
आपके नौकर, ड्राइवर या बहुत हुआ तो
गालियों का ज़ायका बढ़ाने के लिए आप भी,
टिशू पेपर की तरह इस्तेमाल करते हैं।
मेरे साथ लंबा वक्त गुज़ारना मुनासिब नहीं
हालांकि दरकिनार भी नहीं किया जा सकता
जूते पर पालिश की तरह
आपके बंगले तक पहुंचने के लिए
कचरे वाली आखिरी गली की तरह
देश के नक्शे पर उत्तर-पूर्व की तरह
आप सड़क पर गंदगी देखकर उबकाते हैं
ग़रीबी देखकर मुंह बिचकाते हैं
दुख देखकर बुद्ध हुए जाते हैं
सड़क की चीख-पुकार सुनकर
कार का स्टीरियो तेज़ चलाते हैं
मिली के दर्द भरे गाने बजाते हैं।
आपने मेरा पता पूछा था हंसते हुए,
और मैं हंसते हुए टाल गया था
दरअसल, आप जिस दिल्ली में मेरा पता ढूंढेंगे
उस दिल्ली में नहीं मिलते हम जैसे लोग
धूप का चश्मा पहनकर सूरज नहीं ढूंढते
हम दोनों साथ हैं
या हो सकते हैं
ये एक राजनैतिक भ्रम है
समानांतर रेखाएं कभी साथ नहीं हो सकतीं
लेकिन ऐसी रेखाएं होती ज़रूर हैं
जो कभी-कभी आपके माथे पर नज़र आ जाती हैं।


निखिल आनंद गिरि
(कविताओं की पत्रिका 'सदानीरा', मार्च-अप्रैल-मई 2014 अंक में प्रकाशित)

ये पोस्ट कुछ ख़ास है

मृत्यु की याद में

कोमल उंगलियों में बेजान उंगलियां उलझी थीं जीवन वृक्ष पर आखिरी पत्ती की तरह  लटकी थी देह उधर लुढ़क गई। मृत्यु को नज़दीक से देखा उसने एक शरीर ...

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