शनिवार, 9 अगस्त 2014
बर्थडे डायरी..
गुरुवार, 31 जुलाई 2014
'सबसे अच्छी हत्याओं' का सीधा प्रसारण देखिए
'लाइफ ओके है. हत्यारे टीवी पर हैं' |
एक चैनल है लाइफ ओके। जिस पर ज़िंदगी कहीं से भी ठीकठाक नज़र नहीं आती। चौबीस घंटे में कम से कम दस घंटे 'बेस्ट ऑफ सावधान इंडिया' चल रहा होता है। मतलब 'सावधान इंडिया' नाम के उन एपिसोड का दोबारा प्रसारण जिसने सबसे ज़्यादा टीआरपी बटोरी थी। इन एपिसोड्स में देश भर में घटी बड़ी वारदातों को मसालेदार बनाकर दिखाया जाता है। बचपन में सड़क किनारे की दुकानों पर बेस्ट ऑफ किशोर कुमार, मुकेश वगैरह बिकते थे और हम ख़रीदते भी थे। कुछ दिन बाद रेलेवे स्टेशन पर लाइफ ओके के सौजन्य से बेस्ट ऑफ मर्डर एपिसोड्स, बेस्ट ऑफ रेप एपिसो़ड् सड़क किनारे बिकते दिख जाएं तो ताज्जुब मत कीजिएगा। बाज़ार में जो चीज़ बिक जाए, वो ही सही।
सड़क पर चलते हुए या मेट्रो में सफर करते हुए अचानक किसी का पैर पड़ जाए या कंधे सट जाएं तो गाली-गलौज शुरु हो जाती है। अगली बार ऐसा हो तो सारा दोष उसे ही मत दीजिएगा। कुछ दोष उनका भी है जो इस लाइव टेलीविज़न की हिंसक होती बॉडी लैंग्वेज को जान-बूझकर शह दे रहे हैं। शुक् है रेडियो फिर भी बचा हुआ है। अपने आखिरी वक्त में अगर मेरे पास रेडियो या टीवी में से किसी एक को चुनने का मौका मिले तो मैं रेडियो चुनना चाहू्ंगा। इसके पास आंखे पहले से ही नहीं हैं और ज़बान अभी भी अश्लील नहीं हुई है।
निखिल आनंद गिरि
मंगलवार, 22 जुलाई 2014
मजबूरी का नाम प्रभाष जोशी
शनिवार, 12 जुलाई 2014
एक टीवी दर्शक का टाइमपास दर्द
मां दिखने में बहुत कमज़ोर है। बहुत दूर रहती है। उसका वजन 40 किलो के आसपास होगा। मगर उससे चालीस सेकेंड भी मोबाइल पर बात करके वज़न चालीस किलो बढ़ जाता है। भरोसा इसे कहते हैं..
मंगलवार, 1 जुलाई 2014
दुनिया से लड़ती अकेली लड़की
पत्थरों के हज़ारों देवता और एक अकेला याचक
सैंकड़ों सड़कें सुनसान, गाड़ियां, धुएं और एक विशाल पेड़
हज़ारों मील सोया समुद्र और एक गुस्ताख कंकड़
इन सबसे बहत-बहुत अकेली है एक लड़की
मुकेश के हज़ार दर्द भरे गानों से भी ज़्यादा..
फिलहाल जो सेमिनारों में व्यस्त हैं
स्त्रीवादी संदर्भों की सारगर्भित व्याख्याओं में
आंचल, दूध, पानी की बोरिंग कहानियों में
उनको बात करनी चाहिए
जो ज़माने को दो गालियां देकर ठीक कर देते हैं
क्रांति की तमाम पौराणिक कथाओं में खुद को नायक फिट करते हुए
इस सूत्र में भरोसा रखते हैं
उन्हें ब्रेक भर का समय देना चाहिए लड़की के लिए
लड़की के पास इतना भर ही है समय
जिसमें ठहर कर ली जा सकती है
एक गुस्से भरी सांस
और मौन को पहुंचाया जा सकता है
उस अकेली लड़की के पास
थोड़ा-थोड़ा घूरा था जिसे सब ने
पीठ पीछे गिनाए थे उसके नाजायज़ रिश्ते
मजबूरन जिसे करनी पड़ी थी आत्महत्या
आपकी दुआओं से बची हुई है आज भी
एफआईआर से लड़ते-लड़ते अचानक वो दुनिया से लड़ने लगी है
दुनिया उसे हरा देगी देखना
जो उसके खिलाफ गवाही देंगे
उसमें भी कई लड़कियां हैं
जो आज मजबूर हैं
कल अकेली पड़ जाएंगी
(मीडिया में और दबाव के हर पेशे में जूझ रही हर अकेली लड़की के लिए)
सोमवार, 23 जून 2014
धरती के सबसे बुरे आदमी के बारे में..
एक कहानी सुनिए. एक बुरे आदमी को ये तो पता था कि उसने कुछ ग़लत किया है मगर जज के सामने वो क़ुबूल करने को तैयार ही नहीं था. दरअसल जज पहले ही ये मान कर आया था कि इसे सज़ा सुनानी है तो सफाई में उस बुरे आदमी को कुछ भी कहने का मौका ही नहीं मिला. तो उसे बहुत कड़ी सज़ा सुनाई गई. इतनी कड़ी कि जज भी अपना फैसला सुनाकर रो पड़ा. ये जज का रोना सिर्फ बुरा आदमी ही देख पाया क्योंकि बुरा होने में रोने को समझना होता है. ख़ैर, सज़ा सुनाने के बाद जज और मुजरिम आपस में कभी नहीं मिले. बुरे आदमी को यकीन था कि जज कभी न कभी छिप कर उसे देखने ज़रूर आएगा.
जज इतना अच्छा था कि उसे हर मुजरिम बहुत प्यार करता था. जज के लिए सभी बुरे लोग एक जैसे थे जिनमें ये बुरा आदमी भी था. यही बात बुरे आदमी को नागवार गुज़रती थी और वो सबसे बुरा आदमी बन जाना चाहता था. यही बात जज को नागवार गुज़रती थी कि वो जिसे सबसे अच्छा आदमी बनाना चाहता था, वो सबसे बुरा होता जा रहा था. ये कहानी जज की नहीं उस बुरे आदमी की है इसीलिए जज के बारे में इतनी ही जानकारी दी जाएगी.
तो उस बुरे आदमी को अपनी सज़ा काटते कई बरस बीत गए. धीरे-धीरे वह भूलने लगा कि उसे किस बात की सज़ा मिली है. उसे लगा कि वह जब से जी रहा है, ऐसे ही जी रहा है. उसे अपने बुरे होने पर कोई मलाल नहीं था, कोई सज़ा उसे कतई परेशान नहीं करती थी. वह भूल गया था कि कोई था जो उसे धरती का सबसे अच्छा आदमी बनाना चाहता था. वह अपना चेहरा तक भूल गया था.
उसका आइना कहीं खो गया था और उसे यह भी याद नहीं था. वह धीरे-धीरे दुनिया का सबसे बुरा आदमी बनता जा रहा था. सारे मौसम, सारे फूल, सारे रंगों से उसे नफरत थी.उसके सपने सबसे बुरे थे. उसकी सुबहें बहुत बुरी थीं. अंधेरे में वह ज़ोर ज़ोर से चिल्लाता था. लोग उसके आसपास भी जाने से डरने लगे थे.
वह दरअसल दुनिया का सबसे अकेला आदमी होता जा रहा था.
(कहानी अभी ख़त्म नहीं होनी थी मगर बुरे आदमियों के बारे में किसी अच्छे दिन ज़्यादा नहीं पढ़ा जाना चाहिए)
निखिल आनंद गिरि
मंगलवार, 17 जून 2014
देने दो मुझको गवाही, आई-विटनेस के खिलाफ
बहुत पुराने मित्र हैं मनु बेतख़ल्लुस..फेसबुक पर उनकी ये ग़जल पढ़ी तो मन हुआ अपने ब्लॉग पर पोस्ट की जाए.आप भी दाद दीजिए.
अपने पुरखों के, कभी अपने ही वारिस के ख़िलाफ़
ये तो क्लीयर हो कि आखिर तुम हो किस-किस के ख़िलाफ़
इस हवा को कौन उकसाता है, जिस-तिस के ख़िलाफ़
फिर तेरा वो दैट आया है, मेरे दिस के ख़िलाफ़
मैंने कुछ देखा नहीं है, जानता हूँ सब मगर
देने दो मुझको गवाही, आई-विटनस के ख़िलाफ़
जब भी दिखलाते हैं वो, तस्वीर जलते मुल्क की
दीये-चूल्हे तक निकल आते हैं, माचिस के ख़िलाफ़
उस चमन में बेगुनाह होगी, मगर इस बाग़ में
हो चुके हैं दर्ज़ कितने केस, नर्गिस के ख़िलाफ़
कोई ऐसा दिन भी हो, जब इक अकेला आदमी
कर सके जारी कोई फरमान, मज़लिस के ख़िलाफ़
कितने दिन परहेज़ रखें, तौबा किस-किस से करें
दिलनशीं हर चीज़ ठहरी, अपनी फिटनस के ख़िलाफ़
हर जगह चलती है उसकी, आप गलती से कभी
दाल अपनी मत गला देना, कहीं उसके ख़िलाफ़
मनु बेतखल्लुस
रविवार, 8 जून 2014
दुनिया की आंखो से उसने सच देखा
दरवाज़े पर आया, आकर चला गया
सांसे मेरी सभी चुराकर चला गया.
मेरा मुंसिफ भी कैसा दरियादिल था,
सज़ा सुनाई, सज़ा सुनाकर चला गया.
दुनिया की आंखो से उसने सच देखा,
मुझ पे सौ इल्ज़ाम लगाकर चला गया.
अच्छे दिन आएंगे तो बुझ जाएगी,
बस्ती सारी यूं सुलगाकर चला गया.
उम्मीदों की लहरों पर वो आया था,
बची-खुची उम्मीद बहाकर चला गया.
ये मौसम भी पिछले मौसम जैसा था,
दर्द को थोड़ा और बढ़ाकर चला गया.
निखिल आनंद गिरि
सोमवार, 12 मई 2014
एक देश था, जहां मस्तराम की लहर भी थी..
शनिवार, 12 अप्रैल 2014
गुदगुदी
निखिल आनंद गिरि
बुधवार, 2 अप्रैल 2014
उदासी का गीत
उदास हो जाते हैं कई मौसम..
मछलियां भूल जाती है इतराना..
नावें भूल जाती हैं लड़कपन..
पनिहारिनें भूल जाती हैं ठिठोली..
मिट्टी में दब जाते हैं मीठे गीत...
गगरी भूल जाती है भरने का स्वाद..
सूरज परछाईं भूलता है अपनी,
पंछी भूल जाते हैं विस्तार अपना..
किनारे भुला दिए जाते हैं अचानक...
लाचार बांध पर दूर तक चीखता है मौन..
कुछ भी लौटता नहीं दिखता..
नदी के जाने के बाद..
कहीं कोई ख़बर नहीं बनती,
नदी के सूख जाने के बाद..
निखिल आनंद गिरि
रविवार, 23 मार्च 2014
कौन कहता है कि साला मुल्क ये मुश्किल में है..
कौन कहता है कि साला मुल्क ये मुश्किल में है..
गोलियां सीने पे खाने का ज़माना लद गया,
गोलियां खाने-खिलाने का मज़ा आई-पिल में है..
झोंपड़ी में रात काटें, बेघरों के रहनुमा,
कोठियां जिनकी मनाली या कि पाली हिल में है..
एक ही झंडे तले 'अकबर' की सेना, 'राम' की,
रंगे शेरों का तमाशा, अब तो मुस्तकबिल में है.
वक्त आया है मगर हम क्या बताएं आसमां,
कौन सुनता है हमारी, क्या हमारे दिल है..
रविवार, 2 मार्च 2014
बहुरूपिये पिताओं के बारे में
किसी विशाल और सजीव मूरत की तरह
खड़ा है जैसे कोई सदियों से।
मैं समंदर की तरह बहता हूं
और पांव छूकर लौट आता हूं।
पूछूंगा कभी उन पांवों से
भीतर तक महसूस हुआ कि नहीं।
सबसे अधिक बातें करना चाहता हूं पिता से
असंख्य तारों से भी ज़्यादा
उन-उन भाषाओं में जो गढ़ी नहीं गईं
उन लिपियों में जिनका नाम तक नहीं मालूम
ऐसे ही संभव हैं कुछ बातें
तुम्हारी आंखों में धंसे दुख के बारे में
जो उतर आता है मेरी नसों में भी
बिना किसी मुहूर्त के
मेरे माथे पर उग आती हैं
तुम्हारे चेहरे की सब झुर्रियां।
गले में कसकर हाथ डाले
बीच सड़क पर किसी नई फिल्म का
गाना गाते, भूलते बीच-बीच में।
सर्दियों में ज़बरदस्ती आइसक्रीम खिलाते
सबसे असभ्य गालियां बकते
सबसे सभ्य दिखते लोगों को
झट खड़े हो जाते मेट्रो में
किसी पिता जैसे चेहरे को देखकर
उम्र के सब मचान लांघते
तुम्हारे बेहद क़रीब आना चाहता हूं।
तुम शक्तिपुंज हो पिता मेरे लिए
किसी मैग्निफआइंग लेंस के सहारे
सहेज लूंगा तुम्हारी सब ऊर्जा
निखिल आनंद गिरि
(पिता के जन्मदिन पर..)
शनिवार, 1 मार्च 2014
नकली इंद्रधनुष
कि हमें सोना है आकाश तले..
उस नकली घास पर लेटकर
और ज़मीनें बिक जाने का दुख भूल जाएंगे
हम आते हैं डिग्रियां ही डिग्रियां लेकर
आपको मालामाल कर देंगे एक दिन
बारह घंटे धूप में बैठकर
और अपने प्रेम छुपा लेंगे कहीं
हम छुपा लेंगे आपकी ख़ातिर,
तमाम सिलवटें बिस्तर की
आखिरी चुंबन छिपा लेंगे कहीं..
कोई तोहफा जो ख़रीदा ही नहीं
इस बोनस में ख़रीदेंगे तोहफे
मंदी से ठीक पहले
छंटनी से ठीक पहले
हम सौंपेंगे अपनी पीढियों को..
उन्हें नहीं बताएंगे कभी भगवान कसम,
कि जिन्हें टिमटिम करता देख
तुतलाते रहे वो उम्र भर
और गाते रहे कोई किताबी धुन
वो दरअसल तारे नहीं बारूद हैं
फट पड़ेंगे किसी रोज़
वैज्ञानिकों की मोहब्बत में.
इससे पहले हमें सौंपने हैं उन्हें आसमान
नकली इंद्रधनुषों वाले..
('दूसरी परंपरा' पत्रिका में प्रकाशित)
निखिल आनंद गिरि
गुरुवार, 20 फ़रवरी 2014
दुनिया अब रात-रात लगती है..
आपको दाल-भात लगती है।
हम भी आंखों में ख़ुदा रखते थे,
अब तो बीती-सी बात लगती है।
एक ही रात लुट गया सब कुछ,,
दुनिया अब रात-रात लगती है।
आप कहते हैं डेमोक्रेसी है,
हमको चमचों की जात लगती है।
निखिल आनंद गिरि
मंगलवार, 18 फ़रवरी 2014
नई पीढ़ी
ये पोस्ट कुछ ख़ास है
मृत्यु की याद में
कोमल उंगलियों में बेजान उंगलियां उलझी थीं जीवन वृक्ष पर आखिरी पत्ती की तरह लटकी थी देह उधर लुढ़क गई। मृत्यु को नज़दीक से देखा उसने एक शरीर ...
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