गुरुवार, 31 जुलाई 2014

'सबसे अच्छी हत्याओं' का सीधा प्रसारण देखिए

 क्या कभी कोई और ज़माना ऐसा रहा होगा जिसमें आपकी ज़िंदगी से जुड़ी सभी बड़ी और ज़रूरी चीज़ें या तो चौराहे पर तमाशा देखते या फिर बेडरूम में लेटे-लेटे तय हो जाती हों। मेरी जानकारी में तो नहीं है। जैसे हमें क्या खाना है या क्या पहनना है, ये सब टीवी तय कर देता है। और हमें कहां-कहां से बचकर निकलना है, ये सड़क पर हो रहे लाठीचार्ज, ट्रैफिक जाम, गाली-गलौज या पागल भीड़ तय कर देती है। कई बार सोचता हूं कि मैं उस ज़माने में क्यूं आया जब हर चीज़ अपने सबसे बिकाऊ और भ्रष्ट दौर में है।

'लाइफ ओके है. हत्यारे टीवी पर हैं'
टेलीविज़न सिर्फ सबसे बिकाऊ, भ्रष्ट ही नहीं सबसे हिंसक दौर में भी है। कानपुर में एक पति ने अपने ड्राइवर को सुपारी देकर अपनी पत्नी की हत्या करवाई और चूंकि पति करोड़पति था तो टी.वी. के न्यूज़ चैनल कुत्ते की तरह ख़बर पर लपक पड़े। कमाल तो ये था कि कानपुर का आईजी अपनी पूरी पलटन के साथ टीवी कैमरे के सामने आता है और छप्पन इंच के सीने के साथ बताता है कि मेरे साथ हत्यारा पति और उसका ड्राइवर भी है जो पूरे मर्डर को 'विस्तार' से समझाएंगे। आईजी मुश्किल से दो-चार मिनट बोलता है और माइक ड्राइवर को देता है जो हत्या में शामिल था। इतनी शर्मनाक प्रेस कांफ्रेंस मैंने पहले कभी नहीं देखी। हत्यारे पति का जिस महिला से अफेयर था, उसका नाम कई बार आईजी की ज़ुबान पर आता है और वो 'इसे एडिट कर लीजिएगा' कहते हुए पूरे मर्डर की गाथा चाव से सुनाता जाता है। क्या टेलीविज़न का आविष्कार इसीलिए हुआ था कि हत्यारों की हत्या का वर्णन सुनने के लिए पूरा बुद्धि्जीवी मीडिया जुटा रहे और पुलिसवाले अपनी कामयाबी का सर्टिफिकेट बटोरें। टेलीविज़न को कुछ दिनों की छुट्टी पर चले जाना चाहिए।

एक चैनल है लाइफ ओके। जिस पर ज़िंदगी कहीं से भी ठीकठाक नज़र नहीं आती। चौबीस घंटे में कम से कम दस घंटे 'बेस्ट ऑफ सावधान इंडिया' चल रहा होता है। मतलब 'सावधान इंडिया' नाम के उन एपिसोड का दोबारा प्रसारण जिसने सबसे ज़्यादा टीआरपी बटोरी थी। इन एपिसोड्स में देश भर में घटी बड़ी वारदातों को मसालेदार बनाकर दिखाया जाता है। बचपन में सड़क किनारे की दुकानों पर बेस्ट ऑफ किशोर कुमार, मुकेश वगैरह बिकते थे और हम ख़रीदते भी थे। कुछ दिन बाद रेलेवे स्टेशन पर लाइफ ओके के सौजन्य से बेस्ट ऑफ मर्डर एपिसोड्स, बेस्ट ऑफ रेप एपिसो़ड्  सड़क किनारे बिकते दिख जाएं तो ताज्जुब मत कीजिएगा। बाज़ार में जो चीज़ बिक जाए, वो ही सही।

सड़क पर चलते हुए या मेट्रो में सफर करते हुए अचानक किसी का पैर पड़ जाए या कंधे सट जाएं तो गाली-गलौज शुरु हो जाती है। अगली बार ऐसा हो तो सारा दोष उसे ही मत दीजिएगा। कुछ दोष उनका भी है जो इस लाइव टेलीविज़न की हिंसक होती बॉडी लैंग्वेज को जान-बूझकर शह दे रहे हैं। शुक् है रेडियो फिर भी बचा हुआ है। अपने आखिरी वक्त में अगर मेरे पास रेडियो या टीवी में से किसी एक को चुनने का मौका मिले तो मैं रेडियो चुनना चाहू्ंगा। इसके पास आंखे पहले से ही नहीं हैं और ज़बान अभी भी अश्लील नहीं हुई है।

निखिल आनंद गिरि

मंगलवार, 22 जुलाई 2014

मजबूरी का नाम प्रभाष जोशी

एक थे प्रभाष जोशी और एक है प्रभाष परंपरा न्यास। इन्हीं के सौजन्य से राजघाट के पास गांधी स्मृति परिसर में वरिष्ठ पत्रकार प्रभाष जोशी की याद में सालाना आयोजन होता है। इस बार भी हुआ। कार्यक्रम के लिए निमंत्रण भेजने वाले सज्जन ने आखिर में ये भी लिख दिया था कि डिनर की भी व्यवस्था है। उन्हें डर रहा होगा कि आजकल बिना खाने-पीने के कौन गांधी टाइप सीधे-सादे कार्यक्रमों में जाता है। प्रभाष जोशी एक बड़े पत्रकार थे। उनके नाम पर हर तरह के लोगों को जुटते देखना अच्छा लगता है। नामवर सिंह से लेकर राजनाथ सिंह तक। सोचता हूं कितने पत्रकार ऐसे बचे हैं, जिनके जाने के बाद बाघ-बकरी जैसे लोग एक ही सभा में इकट्ठा होने को समय निकाल पायेंगे।  

डेढ़ घंटे की देरी से कार्यक्रम इसीलिए शुरु हुआ कि राजनाथ सिंह नहीं पहुंचे थे। गांधी के सत्याग्रह मंडप में हर आदमी गांधी से बड़ा लग रहा था। सब सलाम-दुआ में ही व्यस्त थे। एक-दूसरे को  बड़ा बनाने में। कुर्सी पर बिठाने में। जान-पहचान निकालने-बढ़ाने में। ज़िंदगी भर मीडिया के भीतर-बाहर की बुराइयों पर लिखते रहने वाले प्रभाष जी की सभा में मंच पर सबसे आगे इंडिया टीवी का भी माइक था जहां एक एंकर को बड़े लोगों के पास जानेको इतनी बार उकसाया गया कि उसे आत्महत्या की कोशिश करनी पड़ी।

सभा में डिनर के अलावा सबसे असरदार रहा वरिष्ठ पत्रकार बीजी वर्गीज का संबोधन। उनके बारे में अब तक सिर्फ किताबों में पढ़ा था। हिंदी के पत्रकारों और तमाम वक्ताओं को उनसे सीखना चाहिए कि समय-सीमा में बोलना भी कला होती है। साढ़े चार पन्नों का लिखा हुआ भाषण जिसमें एक शब्द भी फालतू का नहीं। कह के लेने वाला अंदाज़। तीस मिनट में ही तीन सौ सालों के मीडिया के बदलते माहौल पर सब कुछ कह डाला। आरुषि से लेकर वैदिक तक। प्रेस कमीशन की ज़रूरत से लेकर रेडियो की हालत तक। हिंदी वाले तो भाषण कंबोडिया पर बात शुरू करते हुए कंब ऋषि तक पहुंच जाते हैं। राजनाथ सिंह को तो छोड़िए, पता नहीं नामवर सिंह को इस कार्यक्रम में क्यूं बुलाया गया था जब उन्हें सिर्फ तुलसीदास की चौपाई सुनाकर ही बात ख़त्म करनी थी। इससे बढ़िया तो रामबहादुर राय ही अपनी बात थोडा विस्तार से रखते।

कई बार सोचता हूं कि देश भर में जो सभाएं, गोष्ठियां, सेमिनार वगैरह होते हैं उसमें काम की कितनी बातें निकलकर आ पाती होंगी। काम की बातें आ भी जाती हों तो कितने लोग अमल करते हैं। जिनके लिए बातें होती हैं, उनमें से कितने लोगों तक ये पहुंच पाती हैं। जो लोग जुटते हैं, उसमें कितने लोगों का मकसद सचमुच सभा में शामिल होना होता है। कहना मुश्किल है।
क्या ऐसी सभाएं बड़े स्तर पर नहीं हो सकतीं जिसमें सिर्फ छोटे लोग आए हों। क्या प्रभाष जोशी की पहचान सिर्फ बड़े नेताओं या लोगों से ही थी। आम लोगों के बीच रहकर उन्होंने जो रिपोर्टिंग की, उन्हें बुलाकर मंच पर सबसे आगे क्यों नहीं बिठाया जाता। उन्हें ख़ास तौर पर डिनर के लिए क्यों नहीं निमंत्रण भेजा जाता।

तरह-तरह के पत्रकार इस कार्यक्रम में मौजूद थे। ख़बरों की दलाली के नाम पर नौ हजार चूहे खाकर शायद हज करने पहुंचे थे। इन जैसे नकली चेलों से ये पूछा जाना चाहिए कि अपने-अपने चैनल का कौन सा स्पेशल शो ड्रॉप करके इस कार्यक्रम की रिपोर्ट दिखाई गई। कितने मिनट दिखाई गई। सिर्फ माइक ही दिखाने को रखा था या कैमरे के साथ जोड़ा भी था। इस कार्यक्रम की बातें सुनकर कितने लोगों ने अपने चैनल में अनाप-शनाप चलाना बंद कर दिया। नहीं किया तो इन सभाओं में जुटकर क्या मिल जाता है।


सबसे बुरा होता है परंपरा के नाम पर किसी की याद को ढोते रहना। जैसे अध्यक्ष के तौर पर कोई बूढ़ा आदमी ढोया जाता है। जैसे ख़बरों के नाम पर अफवाहें और दुनिया भर का कूड़ा ढोया जाता है।

निखिल आनंद गिरि 

शनिवार, 12 जुलाई 2014

एक टीवी दर्शक का टाइमपास दर्द

टीवी एक धोखेबाज़ माध्यम(मीडियम) है। किसी पैनल डिस्कशन में लांग शॉट (जिसमें स्टूडियो का बड़ा हिस्सा दिखता है) में साफ दिख रहा होता है कि चार-पांच-दस लोग एक ही टेबल के आसपास एक ही स्टूडियो में बैठे हैं मगर क्लोज़ अप (जिसमें एक ही चेहरा दिखे) में हर गेस्ट कैमरे की तरफ देखकर बात करता है। वो आपस में एक-दूसरे से सवाल-जवाब कर रहे होते हैं मगर आंख मिलाकर बात नहीं करते, कैमरे से आंख मिलाते हैं। अजीब लगता है। एक आम दर्शक के लिहाज से बहुत ही बेतुका लगता है। जब दो लोग अगल-बगल बैठकर एक-दूसरे की आंख में आंख डालकर बात नहीं कर सकते तो उन बातों पर किसी और (दर्शकों) को कैसे भरोसा हो सकता है। वो राजेंद्र प्लेस मेट्रो के नीचे सीढ़ियों पर बैठे भिखारियों की तरह लगता है जो अचानक किसी को देखकर अपना मुंह बना लेते हैं और हाथ फैला लेते हैं। टीवी पर आजकल भरोसा नहीं होता। वो आंखों में गड़ता है।
इससे कहीं बेहतर रेडियो है। आपको पता होता है कि सिर्फ एक आवाज़ है जिसे सुनकर आपकी आंखों के आगे तरह-तरह की तस्वीरें उभरती हैं। कोई झूठ नहीं है कि दस लोग बैठे भी हैं और एक-दूसरे को देखकर बात भी नहीं कर सकते। रेडियो पर अगर चार-पांच लोगों का कोई शो है तो ज़रूर वो एक-दूसरे को देखकर रिकॉर्डिंग करते होंगे। कैमरे के नाम पर कोई दिखावा नहीं कि आसपास हैं भी मगर सिर्फ कैमरे के आगे बकबक करने के लिए। रेडियो पर समाचार और बढ़ने चाहिए। उस पर भरोसा अब भी कायम है। वो कानों में चुभता नहीं है।
सिनेमा पर सबसे ज़्यादा भरोसा होता है। बावजूद इसके कि न तो उसमें असल ज़िंदगी होती है, न असल घटनाओं के वीडियो जो न्यूज़ चैनल में होते हैं। मगर सिनेमा ज़िंदगी की बुनियादी शर्त को समझता है। अगर दो लोग दिख रहे हैं और बात कर रहे हैं तो एक-दूसरे की आंखों में आंखे डालकर बात करेंगे।
किसी भी मास मीडियम को ज़िंदगी के बुनियादी नियम तो मानने ही होंगे। आम ज़िंदगी में भी किसी रिश्ते में जब आमने-सामने देखकर बातें करना बंद हो जाए तो रिश्ते के बीच का भरोसा टूटता है। हम दीवारों से बातें करने लगते हैं। फिर दीवारें सुनना बंद कर देती हैं। फिर ख़ुद से बातें करने लगते हैँ। फिर रिश्ता टूटने की वजह से खुद पर भरोसा जाता रहता है। बहुत कमज़ोर महसूस करने लगते हैं। कमज़ोरी में किसी ऐसे मज़बूत सहारे को ढूंढते हैं जो हौसला दे, भीतर से मज़बूत करे। सबसे नज़दीक यही टीवी, अखबार या रेडियो होते हैं। अफसोस, लाख कोशिशों के बावजूद टीवी वो काम नहीं कर पाता। हर महीने तीन सौ रुपये की क़ीमत चुकाने के बावजूद। अंग्रेज़ी दवा की तरह असर कम, साइड इफेक्ट ज़्यादा। लाख चाहकर भी टीवी किसी इंसानी रिश्ते की जगह नहीं ले सकता।

मां दिखने में बहुत कमज़ोर है। बहुत दूर रहती है। उसका वजन 40 किलो के आसपास होगा। मगर उससे चालीस सेकेंड भी मोबाइल पर बात करके वज़न चालीस किलो बढ़ जाता है। भरोसा इसे कहते हैं..
निखिल आनंद गिरि

मंगलवार, 1 जुलाई 2014

दुनिया से लड़ती अकेली लड़की

एक लड़की अकेली है जैसे
पत्थरों के हज़ारों देवता और एक अकेला याचक
सैंकड़ों सड़कें सुनसान, गाड़ियां, धुएं और एक विशाल पेड़
हज़ारों मील सोया समुद्र और एक गुस्ताख कंकड़
इन सबसे बहत-बहुत अकेली है एक लड़की
मुकेश के हज़ार दर्द भरे गानों से भी ज़्यादा..
उस लड़की से उनको बात करनी चाहिए
फिलहाल जो सेमिनारों में व्यस्त हैं
स्त्रीवादी संदर्भों की सारगर्भित व्याख्याओं में
आंचल, दूध, पानी की बोरिंग कहानियों में
उनको बात करनी चाहिए
जो ज़माने को दो गालियां देकर ठीक कर देते हैं
क्रांति की तमाम पौराणिक कथाओं में खुद को नायक फिट करते हुए
जो 'ब्रेक के बाद दुनिया बदल जाएगी'
इस सूत्र में भरोसा रखते हैं
उन्हें ब्रेक भर का समय देना चाहिए लड़की के लिए
लड़की के पास इतना भर ही है समय
जिसमें ठहर कर ली जा सकती है
एक गुस्से भरी सांस
और मौन को पहुंचाया जा सकता है
उस अकेली लड़की के पास
वो आपके-हमारे बीच की ही लड़की है
थोड़ा-थोड़ा घूरा था जिसे सब ने
पीठ पीछे गिनाए थे उसके नाजायज़ रिश्ते
मजबूरन जिसे करनी पड़ी थी आत्महत्या
आपकी दुआओं से बची हुई है आज भी
एक लड़की एफआईआर से लड़ रही है
एफआईआर से लड़ते-लड़ते अचानक वो दुनिया से लड़ने लगी है
दुनिया उसे हरा देगी देखना
जो उसके खिलाफ गवाही देंगे
उसमें भी कई लड़कियां हैं
जो आज मजबूर हैं
कल अकेली पड़ जाएंगी
निखिल आनंद गिरि
(मीडिया में और दबाव के हर पेशे में जूझ रही हर अकेली लड़की के लिए)

सोमवार, 23 जून 2014

धरती के सबसे बुरे आदमी के बारे में..

जबकि हर सेकेंड हर कोई ख़ुद को अच्छा होने या साबित करने में जुटा हुआ है, दुनिया दिन ब दिन और बुरी होती जा रही है. क्या कमाल है कि कोई बुरा होना नहीं चाहता. बुरा आदमी चाहे कितना भी बुरा हो कभी न कभी तो अच्छा रहा होगा. मगर बुराई का वज़न कम ही सही कद बहुत बड़ा होता है. अच्छा है मैं बुरा होना चाहता हूं

एक कहानी सुनिए. एक बुरे आदमी को ये तो पता था कि उसने कुछ ग़लत किया है मगर जज के सामने वो क़ुबूल करने को तैयार ही नहीं था. दरअसल जज पहले ही ये मान कर आया था कि इसे सज़ा सुनानी है तो सफाई में उस बुरे आदमी को कुछ भी कहने का मौका ही नहीं मिला. तो उसे बहुत कड़ी सज़ा सुनाई गई. इतनी कड़ी कि जज भी अपना फैसला सुनाकर रो पड़ा. ये जज का रोना सिर्फ बुरा आदमी ही देख पाया क्योंकि बुरा होने में रोने को समझना होता है. ख़ैर, सज़ा सुनाने के बाद जज और मुजरिम आपस में कभी नहीं मिले. बुरे आदमी को यकीन था कि जज कभी न कभी छिप कर उसे देखने ज़रूर आएगा.

जज इतना अच्छा था कि उसे हर मुजरिम बहुत प्यार करता था. जज के लिए सभी बुरे लोग एक जैसे थे जिनमें ये बुरा आदमी भी था. यही बात बुरे आदमी को नागवार गुज़रती थी और वो सबसे बुरा आदमी बन जाना चाहता था. यही बात जज को नागवार गुज़रती थी कि वो जिसे सबसे अच्छा आदमी बनाना चाहता था, वो सबसे बुरा होता जा रहा था. ये कहानी जज की नहीं उस बुरे आदमी की है इसीलिए जज के बारे में इतनी ही जानकारी दी जाएगी.

तो उस बुरे आदमी को अपनी सज़ा काटते कई बरस बीत गए. धीरे-धीरे वह भूलने लगा कि उसे किस बात की सज़ा मिली है. उसे लगा कि वह जब से जी रहा है, ऐसे ही जी रहा है. उसे अपने बुरे होने पर कोई मलाल नहीं था, कोई सज़ा उसे कतई परेशान नहीं करती थी. वह भूल गया था कि कोई था जो उसे धरती का सबसे अच्छा आदमी बनाना चाहता था. वह अपना चेहरा तक भूल गया था.

उसका आइना कहीं खो गया था और उसे यह भी याद नहीं था. वह धीरे-धीरे दुनिया का सबसे बुरा आदमी बनता जा रहा था. सारे मौसम, सारे फूल, सारे रंगों से उसे नफरत थी.उसके सपने सबसे बुरे थे. उसकी सुबहें बहुत बुरी थीं. अंधेरे में वह ज़ोर ज़ोर से चिल्लाता था. लोग उसके आसपास भी जाने से डरने लगे थे.
वह दरअसल दुनिया का सबसे अकेला आदमी होता जा रहा था.
(कहानी अभी ख़त्म नहीं होनी थी मगर बुरे आदमियों के बारे में किसी अच्छे दिन ज़्यादा नहीं पढ़ा जाना चाहिए)

निखिल आनंद गिरि

मंगलवार, 17 जून 2014

देने दो मुझको गवाही, आई-विटनेस के खिलाफ

बहुत पुराने मित्र हैं मनु बेतख़ल्लुस..फेसबुक पर उनकी ये ग़जल पढ़ी तो मन हुआ अपने ब्लॉग पर पोस्ट की जाए.आप भी दाद दीजिए.

अपने पुरखों के, कभी अपने ही वारिस के ख़िलाफ़
ये तो क्लीयर हो कि आखिर तुम हो किस-किस के ख़िलाफ़

इस हवा को कौन उकसाता है, जिस-तिस के ख़िलाफ़
फिर तेरा वो दैट आया है, मेरे दिस के ख़िलाफ़

मैंने कुछ देखा नहीं है, जानता हूँ सब मगर
देने दो मुझको गवाही, आई-विटनस के ख़िलाफ़

जब भी दिखलाते हैं वो, तस्वीर जलते मुल्क की
दीये-चूल्हे तक निकल आते हैं, माचिस के ख़िलाफ़

उस चमन में बेगुनाह होगी, मगर इस बाग़ में
हो चुके हैं दर्ज़ कितने केस, नर्गिस के ख़िलाफ़

कोई ऐसा दिन भी हो, जब इक अकेला आदमी
कर सके जारी कोई फरमान, मज़लिस के ख़िलाफ़

कितने दिन परहेज़ रखें, तौबा किस-किस से करें
दिलनशीं हर चीज़ ठहरी, अपनी फिटनस के ख़िलाफ़ 

हर जगह चलती है उसकी, आप गलती से कभी
दाल अपनी मत गला देना, कहीं उसके ख़िलाफ़

मनु बेतखल्लुस

रविवार, 8 जून 2014

दुनिया की आंखो से उसने सच देखा

दरवाज़े पर आया, आकर चला गया
सांसे मेरी सभी चुराकर चला गया.
मेरा मुंसिफ भी कैसा दरियादिल था,
सज़ा सुनाई, सज़ा सुनाकर चला गया.
दुनिया की आंखो से उसने सच देखा,
मुझ पे सौ इल्ज़ाम लगाकर चला गया.
अच्छे दिन आएंगे तो बुझ जाएगी,
बस्ती सारी यूं सुलगाकर चला गया.
उम्मीदों की लहरों पर वो आया था,
बची-खुची उम्मीद बहाकर चला गया.
ये मौसम भी पिछले मौसम जैसा था,
दर्द को थोड़ा और बढ़ाकर चला गया.

निखिल आनंद गिरि

सोमवार, 12 मई 2014

एक देश था, जहां मस्तराम की लहर भी थी..

मस्तरामको आप सिर्फ एक फिल्म की तरह देखने जाएंगे तो बहुत अफसोस के साथ बाहर आना पड़ सकता है। इसमें ऐसा कुछ भी नहीं है कि आप इसे किसी महान फिल्म की तरह याद कर सकें। सिवाय फिल्म के नाम के। फिर भी आज तक मैंने कोई ऐसी फिल्म नहीं देखी जिसमें से बाहर कुछ भी साथ नहीं आया हो। ये तो फिर भी मस्तराम है। मस्तराम एक लंबे समय तक दबी-कुचली हसरतों के महानायक रहे हैं। एक बहुत बड़े समाज या सब-कल्चर के। तब तक, जब तक साइबर कैफे में पर्दे नहीं लग गए या फिर ऑरकुट से होते हुए व्हास ऐप तक लड़के लड़कियों को प्रेम पत्रों के बजाय नॉन वेज मैसेज और पॉर्न वीडियो शेयर नहीं करने लगे। अगर आप भी कभी इस मस्तराम परंपरा के ज़रिए शब्दों की ताक़त पर अपनी बहुत सी ताकत बहाते आए हों तो ये फिल्म देखना उन गुमनाम पलों को एक तरह का ट्रिब्यूट देने जैसा है। बहुत मुमकिन है कि आप इस फिल्म में अपने साथ अपनी गर्लफ्रेंड को साथ ले जाने का ऑफर दें, तो वो शुरुआती कुछ सीन्स तक फिल्म देखने के बजाय टेंपल रन खेलती दिखे।
आम आदमी की तरह मैं मस्तराम हूंटोपी लगाए एक आदमी हाथ जोड़े पोस्टर में खड़ा दिखता है। और उस तस्वीर के साथ फिल्म का प्रोमो कहता है कि अगर आप मस्तराम को नहीं जानते तो अपने पिता या ताऊ से ज़रूर पूछें। तो मस्तराम पोस्टर पर आम आदमी जैसा दिखता है  मगर उसकी लहर ऐसी है कि कई मोदी इसके आगे फेल हैं। सिनेमा के पर्दे पर अगर इस कहानी को भी कोई शाहरुख या सलमान या कोई बेहतर निर्देशक मिल जाता तो फिल्म कमाल की पॉपुलर भी हो जाती। लेकिन सलमान दबंग जैसी कूड़ा फिल्म में दबंग हो सकता है, मस्तराम नहीं। ऐसा होने के लिए उन्हें किसी फिल्म में अपना नाम राजाराम वैष्णव उर्फ हंसरखना पड़ेगा। फिल्म की कहानी जिस तरह शुरू होती है, मैं कई बार इसके नायक में बड़े अदब और उम्मीद के साथ ‘’प्यासा का गुरुदत्त ढूंढ रहा था। 2014 की किसी कहानी में नायक हिंदी का एक दुखियारा लेखक बनकर पर्दे पर आए तो उम्मीद लाज़िम भी है। दाद की बात भी है कि फिल्म हमारे समय के सिनेमा में एक भुला दी गई सच्चाई के साथ सामने आती है। हिंदी साहित्य की मठाधीशी के बीच कितने प्रतिभाशाली लेखक आज भी लुगदी साहित्यकार या मस्तराम होकर रह जाते हैं, इस पर अलग से रिसर्च होनी चाहिए। इस पर भी कि जेएनयू से हिंदी में एम. फिल करने की हसरत पाले कितने नौजवान ऐसे हैं जिसके घरवाले शादी को सबसे ज़्यादा ज़रूरी चीज़ समझते हैं।   और इस पर भी कितने लेखकों को उनके दफ्तरों में सिर्फ इस बात के लिए ताने सुनने पड़ते हैं कि वो ऑफिस की फाइलों में कोई सुंदर कविता छिपाकर रखते हैं। इस पर भी कि हिंदी के कितने प्रकाशक ऐसे हैं जिन्होंने अपना बिज़नेस बढ़ाने के लिए ऐसी कहानियों को समाज की इकलौती ज़रूरत बताकर प्रोमोट किया है।
फिल्म में सेक्स और हनी सिंह एक ज़रूरत की तरह हैं, इसीलिए अश्लील नहीं लगते। सिवाय नर्स के साथ मस्तराम के उस सीन के जिसमें चारपाई ऊपर-नीचे होती दिखती है। लिखी हुई कहानियों में मस्तराम के शब्दों का स्तर नीचे होने की वजह उसकी एक ख़ास तरह की ऑडिएंस है मगर पर्दे पर उसे ख़ूबसूरती से रचा जा सकता था। फिल्म का स्क्रीनप्ले कई बार किसी थियेटर जैसा लगता है। कई बार बहुत सूखा, कई बार बहुत प्रेडिक्टेबल। मस्तराम उर्फ राजाराम का बार-बार ये कहना कि ये सब कहानियां हमारे इर्द-गिर्द की हैं, हिंदी साहित्य के समकालीन कई लेखकों की याद दिलाता है जिनकी भाषा मस्तराम की कहानियों से अलग है, मगर सभ्य साहित्य में उन्हें पूरा सम्मान मिला है। कहने का मतलब ये कि हिंदी साहित्य के ए और बी या सी वर्जन में नयापन सिर्फ शैली में है, कंटेट में बहुत हटकर सोचा जाना बाक़ी है।
मस्तराम जब अपने ही दोस्त और बीवी के अवैध रिश्ते के कहानी लिखता है तो उसके पास घर चलाने तक के पैसे नहीं होते। ऐसे में फिल्म अच्छे क्लाईमैक्स पर जाकर छूटती है। जहां उसकी सक्सेस पार्टी में उसकी असलियत खुलते ही लोग उससे किनारा करने लगते हैं। वो कामयाब तो है मगर मिसफिट है। बिल्कुल मस्तराम की कहानियों की तरह। बिल्कुल इस फिल्म की तरह, जो शायद ग़लत समय पर बनी लगती है। इसे कम से कम दस साल पहले आना था, जब मल्टीप्लेक्स नहीं थे और मस्तराम के पाठक और दर्शक एक थे।    

चलते-चलते : हो सके तो फिल्म किसी सिंगल स्क्रीन थियेटर में देखें। मस्तराम की कहानियों को सुनते-देखते फ्रंट स्टॉल के दर्शक जब सीटियां बजाएंगे तो आपको लगेगा कि ये कोई नई कहानी नहीं। बहुत लोग बहुत बरसों से इसे जानते हैं, बस एक-दूसरे से कहने में कतराते हैं।

निखिल आनंद गिरि

शनिवार, 12 अप्रैल 2014

गुदगुदी



एक पेड़ था। पेड़ का एक अतीत था। हरे-भरे पत्ते, फूल, फल, शाखाएं, लंबी-लंबी जड़ें, धूप-छांव, कई तरह की चिड़िया और बहुत कुछ। एक गिलहरी थी। गिलहरी नयी थी। जब पेड़ पर अचानक आयी तो उसे सिर्फ ठूंठ मिला। वो फिर भी उसके चारों ओर फुदकती रही। पेड़ को गिलहरी की गुदगुदी अच्छी लगती थी। गिलहरी को इतने विशाल पेड़ का ठूंठ भी बहुत विशाल लगता था। उसे फल, फूल, पत्ते नहीं मालूम थे। अगर कोई दूसरा हरा-भरा पेड़ उसे गुदगुदी करने को कहता तो शायद गिलहरी डर जाती। उसे पेड़ का मतलब ठूंठ पता था।
पेड़ को गिलहरी के भोलेपन पर हंसी आती थी। अपनी मजबूरी पर दुख होता था। उसे अपना अतीत याद आता था। पुराने पत्ते याद आते थे, तरह-तरह की चिड़िया याद आती थी। मगर अचानक गिलहरी की गुदगुदी में उसे सब कुछ भूल जाने का मन होता था। गिलहरी को यह सब नहीं पता था। पेड़ रोज़ देखता कि गिलहरी कहीं से आती और दिन भर उसके चारों तरफ लिपट-लिपट कर खुश रहती। पेड़ को लगता कि अगर ऐसे ही गिलहरी आती रही तो शायद कुछ हरे पत्ते फिर से लौट आएं। पेड़ भी खुश होने की कोशिश करता।
एक दिन कुछ लकड़हारे आए। थके-मांदे, पसीने से लथपथ। पेड़ के नीचे बैठ गए। सुस्ताने लगे। अचानक धूप तेज़ हो आई। पेड़ पर एक भी पत्ता नहीं था। गिलहरी भी नहीं थी। धूप सीधा उनके चेहरों पर पड़ी। वो बहुत तिलमिलाए। उन्हें गुस्सा आया। वो पेड़ पर कुल्हाड़ी चलाने लगे। पेड़ को कट जाने का दुख नहीं था। वो पेड़ था और लकड़हारों से एक पेड़ का यही रिश्ता बनता था। उसे गिलहरी के नहीं होने का दुख था। पेड़ दुख के मारे गिर पड़ा।
लकड़हारे खुश होकर लकड़ियां समेटकर चलते बने। गिलहरी जब तक आई, वहां पेड़ नहीं था। कुछ टूटी लकड़ियां थीं। गिलहरी ने चारों तरफ पेड़ को ढूंढा। लकड़ियों को गुदगुदी करके देखा। गिलहरी पेड़ हो जाना चाहती थी। लकड़ियां गिलहरी नहीं हो सकती थीं क्योंकि वो पेड़ नहीं थीं। पेड़ एक अतीत हो चुका था।
निखिल आनंद गिरि

बुधवार, 2 अप्रैल 2014

उदासी का गीत

नदी जब सूख जाती है अचानक
उदास हो जाते हैं कई मौसम..
मछलियां भूल जाती है इतराना..
नावें भूल जाती हैं लड़कपन..
पनिहारिनें भूल जाती हैं ठिठोली..
मिट्टी में दब जाते हैं मीठे गीत...
गगरी भूल जाती है भरने का स्वाद..

सूरज परछाईं भूलता है अपनी,
पंछी भूल जाते हैं विस्तार अपना..
किनारे भुला दिए जाते हैं अचानक...
लाचार बांध पर दूर तक चीखता है मौन..
कुछ भी लौटता नहीं दिखता..
नदी के जाने के बाद..

कहीं कोई ख़बर नहीं बनती,
नदी के सूख जाने के बाद..

निखिल आनंद गिरि 

रविवार, 23 मार्च 2014

कौन कहता है कि साला मुल्क ये मुश्किल में है..

वोदका हाथों में है, योयो हमारे दिल में है,
कौन कहता है कि साला मुल्क ये मुश्किल में है..
गोलियां सीने पे खाने का ज़माना लद गया,
गोलियां खाने-खिलाने का मज़ा आई-पिल में है..
झोंपड़ी में रात काटें, बेघरों के रहनुमा,
कोठियां जिनकी मनाली या कि पाली हिल में है..
एक ही झंडे तले 'अकबर' की सेना, 'राम' की,
रंगे शेरों का तमाशा, अब तो मुस्तकबिल में है.
वक्त आया है मगर हम क्या बताएं आसमां,
कौन सुनता है हमारी, क्या हमारे दिल है..

निखिल आनंद गिरि

रविवार, 2 मार्च 2014

बहुरूपिये पिताओं के बारे में

उम्र के उस किनारे
किसी विशाल और सजीव मूरत की तरह
खड़ा है जैसे कोई सदियों से।
मैं समंदर की तरह बहता हूं
और पांव छूकर लौट आता हूं।
पूछूंगा कभी उन पांवों से
भीतर तक महसूस हुआ कि नहीं।

सबसे अधिक बातें करना चाहता हूं पिता से
असंख्य तारों से भी ज़्यादा
उन-उन भाषाओं में जो गढ़ी नहीं गईं
उन लिपियों में जिनका नाम तक नहीं मालूम
ऐसे ही संभव हैं कुछ बातें
तुम्हारी आंखों में धंसे दुख के बारे में
जो उतर आता है मेरी नसों में भी
बिना किसी मुहूर्त के
मेरे माथे पर उग आती हैं
तुम्हारे चेहरे की सब झुर्रियां।


मिलना चाहता हूं उन सब पिताओं से

जो दिखते हैं मुझमें
प्रेमिकाओं की आंखों से।
मैं पिता से प्रेमिकाओं की तरह मिलना चाहता हूं
देवताओं की तरह नहीं।

गले में कसकर हाथ डाले
बीच सड़क पर किसी नई फिल्म का
गाना गाते, भूलते बीच-बीच में।
सर्दियों में ज़बरदस्ती आइसक्रीम खिलाते
सबसे असभ्य गालियां बकते
सबसे सभ्य दिखते लोगों को
झट खड़े हो जाते मेट्रो में
किसी पिता जैसे चेहरे को देखकर
उम्र के सब मचान लांघते
तुम्हारे बेहद क़रीब आना चाहता हूं।

तुम्हारी बांहों में मछलियां नहीं हैं
फिर कैसे लड़ लेते हो हम सबके लिए
तुम्हारी आंखों में पावर वाला चश्मा है
फिर कैसे देख लेते हो सबसे दूर तक
तुम कोई बहुरूपिए हो पिता
एक सच्चे मिथक की तरह
तुम शक्तिपुंज हो पिता मेरे लिए

किसी मैग्निफआइंग लेंस के सहारे
सहेज लूंगा तुम्हारी सब ऊर्जा
जो एक दिन जला देगी देखना
संसार के सब दुख, छल और नकलीपन।

निखिल आनंद गिरि
(पिता के जन्मदिन पर..
)

शनिवार, 1 मार्च 2014

नकली इंद्रधनुष

अगर बाज़ार सचमुच आपकी जेब में है..
हमारे कमरे में थोड़ी घास भर दीजिए...
कि हमें सोना है आकाश तले..
हम अपनी प्रेमिकाओं संग मुस्कुराएंगे
उस नकली घास पर लेटकर
और ज़मीनें बिक जाने का दुख भूल जाएंगे

बस ज़रा और इंतज़ार कीजिए
हम आते हैं डिग्रियां ही डिग्रियां लेकर
आपको मालामाल कर देंगे एक दिन
बारह घंटे धूप में बैठकर
और अपने प्रेम छुपा लेंगे कहीं

हम छुपा लेंगे आपकी ख़ातिर,
तमाम सिलवटें बिस्तर की
आखिरी चुंबन छिपा लेंगे कहीं..
कोई तोहफा जो ख़रीदा ही नहीं

इस बोनस में ख़रीदेंगे तोहफे
मंदी से ठीक पहले
छंटनी से ठीक पहले
किसी डिब्बे मे लपेटकर दीजिए दिलासे
हम सौंपेंगे अपनी पीढियों को..

उन्हें नहीं बताएंगे कभी भगवान कसम,
कि जिन्हें टिमटिम करता देख
तुतलाते रहे वो उम्र भर
और गाते रहे कोई किताबी धुन

वो दरअसल तारे नहीं बारूद हैं
फट पड़ेंगे किसी रोज़
वैज्ञानिकों की मोहब्बत में.

किसी फीके धमाके में उड़ जाएं पीढ़ियां
इससे पहले हमें सौंपने हैं उन्हें आसमान
नकली इंद्रधनुषों वाले..
('दूसरी परंपरा' पत्रिका में प्रकाशित)

निखिल आनंद गिरि


गुरुवार, 20 फ़रवरी 2014

दुनिया अब रात-रात लगती है..

जो उन्हें क़ायनात लगती है,
मुझको तो वाहियात लगती है।
आपको चांद इश्क लगता है
हमको उसकी बिसात लगती है।
हमसे इक ज़िंदगी भी जी न गई,
आपको दाल-भात लगती है।


हम भी आंखों में ख़ुदा रखते थे,
अब तो बीती-सी बात लगती है।

एक ही रात लुट गया सब कुछ,,
दुनिया अब रात-रात लगती है।
उनके नारों में इनकलाब नहीं,
जलसे वाली जमात लगती है।

आप कहते हैं डेमोक्रेसी है,
हमको चमचों की जात लगती है।

निखिल आनंद गिरि

मंगलवार, 18 फ़रवरी 2014

नई पीढ़ी



हम पूर्णविराम के बाद अपनी बात शुरू करेंगे

चुटकुलों में कहेंगे सबसे गंभीर बातें,

एक कटिंग चाय के सहारे

हमें सुनने का हुनर ख़रीद लीजिए कहीं से।

 

हम कहेंगे कद्दू

तो आप समझ लीजिएगा

यह भी व्यवस्था के लिए एक लोकतांत्रिक मुहावरा है।

हम कहेंगे सियारों की राजधानी है कहीं

जंगल से बहुत दूर।

जहां लोग हेडफोन लगाते हैं,

मूंछें मुंडवाते हैं

और हुआं-हुआं करते हैं।

 

सिगरेट के धुएं में उड़ती फिक्र पढ़िए हमारी,

हमारी प्रेमिकाओं से बातें कीजिए थोड़ी देर

अंग्रेज़ी को हिंदी की तरह समझिए।

 

सत्ता सिर्फ आपको नहीं कचोटती,

मेट्रो की पीली लाइन के उस तरफ अनुशासित खड़ी हैं कुछ गालियां

उन्हें दरवाज़े के भीतर लाद नहीं पाए हम।

 

आपको ऐतराज़ है कि हमारे सपने रंगीन हैं,

मगर सच हो जाते हैं यूं भी सपने कभी।

ये मज़ाक में ही कही थी सपने वाली बात

कि संविधान की किताब को कुतरने लगे हैं चूहे

और खालीपन आ गया है कहीं।

 

जहां-जहां खालीपन है,

वहां संभावना थी कभी

संभावनाएं होती हैं खालीपन में भी,

देखिए कौन कर रहा हत्याएं

संभावनाओं की।
(यह कविता 'आउटलुक' के फरवरी 2014 अंक में प्रकाशित हुई है)
निखिल आनंद गिरि

ये पोस्ट कुछ ख़ास है

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