रविवार, 2 फ़रवरी 2014

अपने सम्मान की रक्षा स्वयं करें

उत्तर प्रदेश की पुलिस कमाल की है। आज़म खान की सात भैंसे खो गईं तो पूरा पुलिस डिपार्टमेंट ऐसे सक्रिय हो गया जैसे मुलायम सिंह सपरिवार खो गए हैं। यूपी पुलिस को इतना चौकन्ना पहले कम ही देखा सुना है। टी.वी., रेडियो के दौर में भैंस भी प्रोग्रामिंग के लिए कितना ज़रूरी हो सकती हैं, ये आज़म खान की भैंसो ने ही समझाया। ब्रेकिंग न्यूज़ में भैंसें, स्पेशल रिपोर्ट में भैंसें। टी.वी., फेसबुक स्पेस पर क्रांति मचा चुकी आम आदमी (पार्टी) को सबसे बड़ी चुनौती किसी मोदी या राहुल से नहीं भैंसों से ही मिल रही है। गंठबंधन के दौर में कोई भरोसा नहीं कि कोई चैनल ये ख़बर ब्रेक कर डाले कि आजम खान की सात भैंसे मफलर ओढ़कर आम आदमी पार्टी ज्वाइन करने जा रही हैं।
बात घूम-फिरकर आम आदमी पार्टी आ ही जाती है। वो हर काम में नमक की तरह मौजूद हो गई है। बिन्नी जैसों को नमक थोड़ा स्वादानुसार नहीं लगता तो वो आम आदमी पार्टी के भीतर ही कोहराम मचाने पर तुले हुए हैँ। कोई भरोसा नहीं कि अपनी नौटंकी, नाराज़गी और धरने को मज़बूती देने के लिए वो अचानक दो भैंसों को तोड़कर अपनी ओर मिला लें और प्रेस कांफ्रेंस कर डालें। इस पूरे दौर में किसी का कोई भरोसा नहीं। अंग्रेज़ी चैनल अचानक हिंदी बोलने-समझने लगे हैं और हिंदी चैनल हिंदी समाज के बजाय हिंदी समाज की गाय-भैंसों पर ब्रेकिंग चलाने लगे हैं। क्या करें, राहुल गांधी पहला इंटरव्यू देने के लिए अंग्रेज़ी चैनल के अर्णब गोस्वामी को चुनते हैं तो हिंदी वालों को ही गाय-भैंसों से ही काम चलाना पड़ेगा। वैसे, राहुल अपना पहला इंटरव्यू किसी हिंदी चैनल को देते तो उनका ज़्यादा फायदा होता। आम आदमी का साथ हिंदी चैनलों के साथ है, जिसके राजकुमार बनने का सपना राहुल देखते हैं। ट्विटर और फेसबुक की बकैती के ज़रिए कुछ लोकसभा सीटें जीती जा सकती हैं, पीएम की कुर्सी नहीं मिल सकती।
मोदी एक गुब्बारे की तरह फूले-फैले जा रहे हैं। ऐसा लगता है एक ही तरह का भाषण कई-कई जगहों से सुनाई देता है। जगह का नाम बदल दीजिए तो हर जगह एक ही बात। मैं, मैं, विकास, गुजरात, मैडम सोनिया जी, शहज़ादा और चायवाला। इतनी भाषणबाज़ी उनके लिए कहीं से अच्छी नहीं है। जिस तरह उनके विरोधी गोधरा से आगे नहीं जा पाते, वैसे ही मोदी अपनी ही तारीफ से आगे नहीं निकल पाते। उनका बस चले तो ख़ुद को ही भारत रत्न दे डालें।
डेमोक्रेसी में सब अच्छे हैं तो बुरा कौन है। शायद 19 साल का नीडो जिसे लाजपतनगर में दिल्ली ने पीट-पीट कर मार डाला? सिर्फ इसीलिए कि उसके बालों पर मज़ाक बना और फिर उसने उनका विरोध किया। नीडो कोई पहला बाहरी नहीं है जिसे ये सब झेलना पड़ा है। मैं भी रोज़ झेलता हूं। नीडो जिस दिन मरा, उसी दिन मेट्रो में तीन-चार दिल्ली वाले एक प्रेमी जोड़े को लगातार घूरे जा रहे थे। भद्दे ताने दे रहे थे, गंदे गाने गा रहे थे। ताज्जुब ये था कि मज़ाक उड़ाने वाले लफंगों के साथ उनके परिवार की महिलाएं भी थीं। फिर भी जितना लफंगों को मज़ा आ रहा था, उतना ही उनके घर की लड़कियां भी हंस रही थीं। उनकी हिम्मत बढ़ती रही फिर वो अपने आसपास सबको घूरने लगे। मुझे भी घूरना शुरू किया तो मैं भी उनकी आंखों में उन्हीं की तरह घूरने लगा। लगातार बिना पलक झुकाए। तब जाकर वो नरम पड़े। कोशिश करूंगा कि दिल्ली में हर रोज़ नीडो की मौत का इसी तरह बदला लूं। जिन्हें सिर्फ हंसना और आंखों से घूरना आता है, उन्हें भी उतना ही घूरूं और हंसता रहूं उन पर।
आपको भी जब, जहां मौका मिले, विरोध ज़रूर जताएं। यही नीडो जैसे तमाम शहीदों को श्रद्धांजलि होगी। पुलिस और सिस्टम जब तक नवाबों की भैंसे ढूंढने में लगा है, हमें अपने रास्ते खुद ही ढ़ूंढने होंगे। अपने सम्मान की रक्षा ख़ुद ही करनी होगी।

निखिल आनंद गिरि

शनिवार, 25 जनवरी 2014

ये मुल्क 'मॉकरी' है..छब्बीस जनवरी है..

छब्बीस जनवरी है..
छब्बीस जनवरी है..

कहीं मूंछ की लड़ाई,
कहीं भेड़िया है भाई,
दुबकी-सी गिलहरी है..
छब्बीस जनवरी है..

सच मारता है फांकी,
ये राजपथ की झांकी,
बस झूठ से भरी है..
छब्बीस जनवरी है..

हर सिम्त मातमपुर्सी,
फिर भी उन्हें है कुर्सी,
अपने लिए दरी है..
छब्बीस जनवरी है..

दाता मुझे बचा ले
मौला मुझे बचा ले..
इतनी पुलिस खड़ी है,
छब्बीस जनवरी है..

छप्पन किसी की छाती,
कोई नेहरू के नाती,
बापू की किरकिरी है..
छब्बीस जनवरी है..

सब 'आम' हो खड़े हैं..
बहुरूपिये बड़े हैं..
वोटों की लॉटरी है..
छब्बीस जनवरी है..

आए अगस्त जब तक,
सब मस्त फिर से तब तक,
ये मुल्क 'मॉकरी' है..
छब्बीस जनवरी है..
छब्बीस जनवरी है..

निखिल आनंद गिरि

रविवार, 12 जनवरी 2014

नसरीन उर्फ लड़की, समय उर्फ तेज़ाब..

ज़रूरी नहीं कि हर वो बात या किस्सा जो आप लिखना चाहें, आप ही लिखें..प्रेम भारद्वाज ने एक लेख पाखी के संपादकीय के लिए लिखा, उसी का एक हिस्सा ये कहानी है जो आपबीती के पाठकों के लिए शेयर कर रहा हूं..पढ़िए और महसूस कीजिए इस समय को जो हमारे चेहरे पर तेज़ाब डालने को बेताब है..ये एक सच्ची घटना है..

नसरीन नाम किसने रखा, ठीक से नहीं मालूम, मगर जब होश संभाला तो पाया कि लोग मुझे इसी नाम से पुकारते हैं। होश संभालने पर मैं इस हकीकत से वाकिफ हुई कि जो मेरे अब्बा-अम्मी हैं, उन्होंने मुझे जन्मा नहीं। जब तीन साल की थी तब मुझे गोद लिया गया। जिन्होंने गोद लिया वे कुरैशी हैं। जामा मस्जिद के पास की तंग गलियों के बाशिंदे। अब्बा प्यार करते थे, मगर अम्मी...। वे हर बात पर मारतीं... इसलिए कि वह अपने रिश्तेदारों में से किसी को गोद लेना चाहती थीं... अब्बा नहीं माने थे... अम्मी मेरे लंबे बालों की खींचकर मारतीं...। अंधेरे कमरे में बंद कर देतीं...मुझे मारने के लिए अलग-अलग साइज की छड़ियां थीं... गलती के हिसाब से छडि़यों का चुनाव होता, पिटाई के वास्ते। अम्मी के छूते ही मैं दहशत से भर जाती... हड्डियों को कंपा देने वाली सिहरन होती। थोड़ी बड़ी हुई तो पहला एहसास यह हुआ कि मुझ जैसे बदनसीबों के सितम भी उम्र के साथ बड़े हो जाते हैं। जब 12-13 साल की थी तब किसी न की गई गलती पर अम्मी ने मुझे नंगी कर घर से घंटा भर के लिए बाहर कर दिया था। 15-16 साल के होते ही शादी की बात होने लगी... मौसी के बेटे का रिश्ता आया जिसके साथ शादी करने से मैंने मना कर दिया। ऐसा करने के लिए मौसी के बेटे ने ही मुझसे कहा था। इससे नाराज होकर अम्मी ने बहुत मारा। दुःखी होकर मैंने खुदकुशी की कोशिश की, लेकिन खुदा के दरवाजे मेरे लिए बंद थे। सत्रह साल की उम्र में एक रंगाई-पुताई करने वाले आदमी के साथ मेरा निकाह कर दिया गया।

शादी के बाद शौहर मेरे जिस्म का मालिक था... मालिक ने जिस्म को रौंदा। कोख में उसने बीज बोए। दो बेटियों की शक्ल में फसल भी काटी। औरत का अपना जिस्म, अपनी कोख, उससे जन्मने वाली औलाद अपनी कहां होती है। वह तो जमीन होती है-- कभी उपजाऊ, कभी ऊसर, कभी लावारिस, कभी सरकारी। जमीन की खुद पर मिल्कियत कहां, वह हमेशा ही दूसरों के लिए खोदी जाती है, उस पर फसलें उगाईं और काटी जाती हैं, खरीदी और बेची जाती हैं। इस जमीन की अच्छी फसल बेटा माना जाता है, जो नगदी होता है। इस नगदी फसल की हसरत में शौहर ने बीज फिर बोया। मगर कुछ गड़बड़ी हो गई। मैं दर्द से सारी रात छटपटाती रही... वह बगल में लेटा मेरे दर्द को ड्रामेबाजी बता औरत को रुसवा करता रहा। अगले दिन खुद ही अस्पताल गई। अबोर्सन या मिसकैरिज हो गया था। मां के पास पहुंची। जवाब मिला, अब हम कुछ नहीं जानते, तुम जानो। मैं अब शौहर के पास लौटना नहीं चाहती थी। बेटियां भी उसी के पास थीं। एक पार्क की बेंच पर बैठी घंटों रोती रही। चुप कराने वाला कोई भी नहीं था। बहते आंसुओं के बीच संकल्प लिया कि चाहे जो हो जाए उस नर्क में नहीं लौटना है, वहां पल-पल मरने से बेहतर है खुद को खड़ा करने की कोशिश में मिट जाऊं।

एक कमरा लिया। वह बार-बार लौटने के लिए कहता रहा। मैंने मना कर दिया। अपने पैरों पर खड़े होने को शौहर ने मेरी गुस्ताखी समझा। उसने तलाक ले लिया। मुझे मेरी बेटियां भी छीन लीं। छह महीने बाद उसने फोन किया कि बेटियां याद कर रही हैं। मैं खुद भी बेटियों से मिलना चाहती थी। हम दिल्ली के इंद्रप्रस्थ पार्क में मिले। वह उन्नीस जून 2007 का एक गर्म दिन था जो मेरी जिंदगी में सबसे भयानक और दर्दनाक मोड़ लाने वाला था। उसने फिर वापस लौटने की जिद की, पर फिर मेरा इंकार। मैं बेटियों के साथ खुश थी कि तभी मौका पाकर उसने पीछे से मेरे चेहरे पर तेजाब फेंक दिया। मैं दर्द से चीखने-चिल्लाने लगी। लोग मदद को आगे बढ़े। वह भाग गया। पुलिस आई। मेरे बदन का मांस गल रहा था। चेहरा, कंधा, पीठ, सीना, पेट, कमर... सब खदबद हो रहा था। उस दर्द को बयान करने के लिए अल्फाज नहीं हैं मेरे पास। मुझे सफदरजंग ले जाया गया... अस्पताल ने भर्ती करने से इंकार कर दिया। उसी हाल में रिश्तेदारों, मां, बुआ, मौसी सबके पास मदद के लिए गई। सबने दरवाजे बंद कर लिए। तीन दिनों तक अकेली पड़ी जलती और गलती रही। जहां-जहां तेजाब पड़ा था वहां से धुआं उठ रहा था। मोहल्ले के कई दरवाजों पर भी दस्तक दी। कोई दरवाजा नहीं खुला? गली में एक बड़े आदमी थे। उनके पास एक पुराना खंडहरनुमा मकान खाली था जिसमें हड्डी का चूर्ण बनाने का कारोबार था। उन्होंने रहम किया और तीसरी मंजिल पर रहने की इजाजत दे दी। जहां मैंने पनाह पाई... वहां न कोई दरवाजा था... न बल्ब, न रोशनी, न बिस्तर, न मैं सो पा रही थी... न सोच पा रही थी...। उस खंडहर में पड़ी रही। मेरे बदन से मवाद तीन महीने तक बहता रहा था। घाव फैल रहे थे। तीखी दुर्गंध। कोई पास नहीं। आना भी नहीं चाहता था। यहां तक कि जख्म वाले हिस्से में चींटियां रेंगने लगी थीं। मैं अपने ही जिस्म पर रेंगने वाली चींटियां को बहुत गौर से देखती रही। वे चींटियां मुझे खाती थीं। तब मैं कुछ भी नहीं सोच पा रही थी... न जिंदा रहने के बारे में, न मरने के बारे में। और न उस खुदा के बारे में ही जिसने हमें बनाया और हमारी तकदीर लिखी। कभी कोई कुछ खाने को दे जाता, कभी कई दिनों तक भूखी रहती। एक दिन उस खंडहर से भी मुझे जाने का हुक्म मिला क्योंकि उस खंडहर को तोड़कर नया मकान बनाया जाना था। कहां जाती? कुछ समझ में नहीं आया तो जामा मस्जिद चली गई। फकीरों की पंक्ति में बैठी इमाम बुखारी साहब से मिलने का इंतजार करती रही, मदद की उम्मीद में। महीनों मैंने उनसे मिलने की कोशिश की, मगर नहीं मिल पाई। एक दिन उनकी सुरक्षा में खड़े पुलिस वाले से कहा कि अगर आज नहीं मिले तो खुदकुशी कर लूंगी। तब जाकर बुखारी साहब से मिलवाया गया। उन्होंने मेरी मदद की और मेरा इलाज शुरू हो गया। इसी बीच बिहार का एक गुंडा टाइप का लड़का मेरी मदद के लिए आगे बढ़ा। मगर जल्द ही मुझे समझ आ गया कि वह बाकी बचे हुए जिस्म को हासिल करना चाहता था। कमरा मुझे छोड़ना पड़ा। फिर एक आंटी के यहां शरण। वहां भी वह लड़का पहुंच गया। उसे मेरा बाकी बचा हुआ जिस्म चाहिए था। उसने गले हुए जिस्म के इलाज में इसलिए मदद की थी कि ताकि बाकी बचे जिस्म को गिद्ध की तरह खा सके। एक दिन वहां से भी भगा दी गई। इसके बाद एक 75 साल के बुजुर्ग ने पनाह दी। वे फुटपाथ पर ताबीज वगैरह बेचते थे। वे मुझे बाहर से ताला लगाकर जाते थे। मैं खुले जख्मों पर दुपट्टा डालकर दिन भर पड़ी रहती। हफ्ता भर भी नहीं बीता था कि उनके चेहरे से भी नकाब हट गया। दादा की उम्र वाले बुजुर्ग ने शादी का प्रस्ताव रखा। मैं वहां से भी निकली...। अब कहां जाऊं? दुनिया बहुत बड़ी है, मगर उसमें मेरी जगह कहीं नहीं थी। वह बारिश का दिन था। मैं बाहर निकल पड़ी, जख्म के टांके खुले थे। मैं रो रही थी। मेरे आंसुओं को बारिश की बूंदें धो रही थीं या बारिश की बूंदों को मेरे आंसू, यह तय कर पाना मुश्किल था। शाम को कुछ लोगों से चंदा किया। एक प्रॉपर्टी डीलर कमरा देने को राजी हुआ इस शर्त पर कि उसकी पत्नी बन जाऊं, मैंने इंकार किया। पत्नी की पीड़ा मैं झेल चुकी थी। दुश्वारियों से लड़ती-जूझती मैं गिरती रही, उठती रही। रोना जरूर भूल गई थी। कुछ करना था, लेकिन क्या यह ठीक से मालूम नहीं था। इसी जद्दोजहद में फातिमा दीदी से भेंट हुई। अब उन्हीं के साथ रहती हूं, उनके ही कुछ काम करती हूं। कठपुतलियों का शो करती हूं। मैं खुद भी कठपुतली हूं जिसके धागे पता नहीं किन हाथों में हैं। जिंदगी का एक ही ख्वाब है कि बेटियों को पढ़ा-लिखाकर डॉक्टर बना दूं। मगर है तो यह सपना ही... सपना देखने का हौसला मैंने नहीं छोड़ा। अभी भी मुझे ठीक होने के लिए लाखों रुपए चाहिए जो एक नामुमकिन चाहत है, चाहत से ज्यादा जरूरत...।
...

बुधवार, 1 जनवरी 2014

खस्ताहाल मुबारक हो..

आम आदमी के सिर पर,
बत्ती लाल मुबारक हो..
फेंकू-पप्पू के दंगल में,
केजरीवाल मुबारक हो..
आसाराम मुबारक हो,
तेजपाल मुबारक हो..
यूपी तुझको सालों साल,
खस्ताहाल मुबारक हो..
प्रजातंत्र की थाली में..
काली दाल मुबारक हो..
दिल की जलती बस्ती को,
और पुआल मुबारक हो..
हो ना हो, मगर फिर भी..
नया ये साल मुबारक हो..

निखिल आनंद गिरि

शुक्रवार, 27 दिसंबर 2013

वो किसी न किसी की प्रेमिका हैं..

 भोले सपनों वाली मछलियां...

किसी जलपरी की तरह,

चीरा बनाती हुई जगह ढूंढती हैं बस में....

और बस जलाशय तो नहीं...

 
कान में ज़बदरस्ती ठूंसे गए तार..

जैसे किसी और ग्रह में प्रवेश...

जहां ताड़ती हैं अनजान निगाहें,

लपकते हैं दो हाथ वाले ऑक्टोपस

पीठ के बजाय सीने पर लटकाए हुए बैग...

कंगारू की तरह....

 
वो किसी न किसी की प्रेमिका हैं

जिन्हें सिर्फ पीठ पर उबटन लगाना है शादी में..

अगर नहीं हो सकी मनचाही शादी...

उन्हें रखने हैं अपनी सात पीढ़ियों के नाम

सिर्फ ‘क’ से

बिना किसी ज्योतिषी से पूछे

उऩ्हें उतरना है किसी सरकारी कॉलेज के गेट पर,

कॉलेज की दीवारों पर लिखे हैं इश्तेहार

‘दो हफ्ते की खांसी टीबी हो सकती है’

‘शादी में असफल यहां फोन करें...’

शादी के लिए सबसे अच्छी फोटो नहीं,

सबसे अच्छे दिल लेकर आइए...

ऐसा कहीं नहीं लिखा दीवारों पर

 
बस निहारती है उनकी पीठ...

पीठ बूढ़ी नहीं होती...

स्तन बूढे होते हैं,

योनि नहीं होती बूढी....

प्राथनाएं होती हैं बूढ़ी...

और मर जाती हैं बस से उतरते ही..

निखिल आनंद गिरि

(पाखी के दिसंबर 2013 अंक में प्रकाशित)

बुधवार, 25 दिसंबर 2013

विकास के रंगीन चुटकुले

सुबह के जिस अख़बार में चमक रहा था
आधे पेज के सरकारी विकास का विज्ञापन
वही अख़बार देखकर पूछा लड़की ने
ये सामूहिक बलात्कार क्या होता है?
पिता ने छठी मंज़िल से कूदकर खुदकुशी कर ली
लड़की की उम्र सात साल थी। 
उस शहर का नाम कुछ भी रख लीजिए
जहां एक दिन सब सरकारी अस्पतालों में,
निकाले गए थे मरीज़ों के गर्भाशय
और फिर बेच दिये थे सरकारी बाबुओं ने।
गर्भाशय की ख़ूबसूरत तस्वीर छापी थी अख़बार ने,
और अख़बार सबसे ज़्यादा बिका था।
हमारी लाशो में मसाले भरकर,
साबुत रखी जाती हैं लाशें
ख़ूब रंगीन नज़र आते हैं अख़बार
बौराने लगता है माथा
इतनी आती है सड़ांध
मगर शुक्र है टिशु पेपर का ज़माना है।
जिस दारोगा ने एक औरत को
चौकीदार बनाने का लालच देकर
थाने में ही सामूहिक बलात्कार किया
और फरार हो गया
उसकी जगह किसकी हाथों में डाली गई हथकड़ी?
जिस चौराहे पर एक लड़की का जुर्म बस इतना था
कि वो अकेली चल रही थी रात में
बेरहमी से मसली गई,
कुचली गई और नंगी कर दी गई 
किसके छपे पोस्टर अपराधियों के नाम पर,
एक चेहरा आपका तो नहीं?
व्यवस्था अगर नहीं हो सकती बेहतर
तो बेहतर है बदल दी जाए व्यवस्था
जहां-जहां नहीं पहुंच पाती पुलिस
और बलात्कार आराम से होते हैं
उन शरीफ मोहल्लों में
लाउडस्पीकर लगाकर पहले बकी जाएं गालियां
और फिर वंदे मातरम
और ये भी कि,
औरत की गोलाइयों के बाहर भी दुनिया गोल है।

शुक्रवार, 20 दिसंबर 2013

मांएं डरने के लिए जीती हैं..

हमारा बचपन ऐसा नहीं कि
गाया जा सके उदास रातों में...
हमारे नसीब में नहीं थे सितारे,
जिन्हें तोड़कर टांक सकें स्याह रातों में
उम्र बढ़नी थी, कोई रास्ता नहीं था....
वरना उस एक मोड़ पर रोक लेते खुद को,
कि जहां से ज़िंदगी सबसे उबाऊ और मजबूर रास्ते लेती है..

पूछो अपनी मांओं से,
पूछो पिताओं से....
कि जब कोई रास्ता नहीं रहा होगा....
तो मजबूरी में करनी पड़ी होगी शादी...
और फिर शाकाहारी पत्नियां मांजती रही होंगी बर्तन,
और परोसती रही होंगी मांस अपने पतियों को...

और फिर बेटे हुए होंगे,
बंटी होंगी मिलावटी मिठाईयां..
और बेटियां होने पर सास ने बकी होगी गालियां...
पत्नियां खून का घूंट पीकर रह जाती होंगी...
और पति चश्मा इधर-उधर करते हुए...
पतिव्रता पत्नियां फ़रेब के किस्सों से ज़्यादा कुछ भी नहीं...

बड़े होते बेटों से रहती होगी उम्मीद,
कि उनकी एक हुंकार से सिहर उठेगी दुनिया,
जबकि असल में वो इतना डरपोक थे कि
कूकर की सीटी से भी लगता रहा डर,
कहीं फट न पड़े टाइम बम की तरह...
दीवार पर छिपकली आने भर से..
मूत देते थे सुकुमार लाडले...

और समझिए ऐसे दोगले समय में,
गूंथी हुई चोटियां हथेली में लेकर,
कैसे किया होगा हमने प्यार...
और समझो कितनी सारी हिम्मत जुटानी पड़ी होगी,
ये कहने के लिए, बिन पिए...
कि तुम्हारी नंगी पीठ पर एक बार फिराकर उंगलियां....
लिखना चाहता हूं अपना नाम

हालांकि एक मर्द है मेरे भीतर,                                                            
जो कर सकता है हर किसी से नफरत..
गुस्से में मां को भी माफ नहीं करता
हालांकि ये भी सच है कि...
मांएं डरने के लिए ही जीती हैं,
पहले मजबूर पिताओं से,
फिर मर्द होते बेटों से..

निखिल आनंद गिरि
(पाखी के दिसंबर 2013 अंक मेंप्रकाशित)

रविवार, 15 दिसंबर 2013

मेरा गला घोंट दो मां

किसी धर्मग्रंथ या शोध में लिखा तो नहीं,

मगर सच है...

प्यार जितनी बार किया जाए,

चांद, तितली और प्रेमिकाओं का मुंह टेढ़ा कर देता है..

एक दर्शन हर बार बेवकूफी पर जाकर खत्म होता है...


आप पाव भर हरी सब्ज़ी खरीदते हैं

और सोचते हैं,  सारी दुनिया हरी है....

चार किताबें खरीदकर कूड़ा भरते हैं दिमाग में,

और बुद्धिजीवियों में गिनती चाहते हैं...

आपको आसपास तक देखने का शऊर नहीं,

और देखिए, ये कोहरे की गलती नहीं...


ये गहरी साज़िशों का युग है जनाब...

आप जिन मैकडोनाल्डों में खा रहे होते हैं....

प्रेमिकाओं के साथ चपड़-चपड़....

उसी का स्टाफ कल भागकर आया है गांव से,

उसके पिता को पुलिस ने गोली मार दी,

और मां को उठाकर ले गए..

आप हालचाल नहीं, कॉफी के दाम पूछते हैं उससे...


आप वास्तु या वर्ग के हिसाब से,

बंगले और कार बुक करते हैं...

और समझते हैं ज़िंदगी हनीमून है..

दरअसल, हम यातना शिविरों में जी रहे हैं,

जहां नियति में सिर्फ मौत लिखी है...

या थूक चाटने वाली ज़िंदगी.....


आप विचारधारा की बात करते हैं....

हमें संस्कारों और सरकारों ने ऐसे टी-प्वाइंट पर छोड़ दिया है,

कि हम शर्तिया या तो बायें खेमे की तरफ मुड़ेंगे,

या तो मजबूरी में दाएं की तरफ..

पीछे मुड़ना या सीधे चलना सबसे बड़ा अपराध है...


जब युद्ध होगा, तब सबसे सुरक्षित होंगे पागल यानी कवि...

मां, तुम मेरा गला घोंट देना

अगर प्यास से मरने लगूं

और पानी कहीं न हो...


निखिल आनंद गिरि
(पाखी के दिसंबर 2013 अंक में प्रकाशित)


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बुधवार, 11 दिसंबर 2013

खुले बालों वाली लड़की...

एक ही टेबल पर कॉफी पीते हुए दोनों दो अलग-अलग ग्रहों के बारे में सोच रहे थे....लड़का सोच रहा था कि वो चांद पर ज़मीन ले पाया तो सबसे पहले कॉफी की खेती शुरू करेगा... उसने अचानक लड़की को बताया कि पिछली रात कार्तिक की पूर्णिमा को उसने खुले आकाश के नीचे मीठी खीर रख छोड़ी थी... लड़की सोच रही थी कि कॉफी गर्म नहीं होती तो वो इस बोरिंग लड़के के बजाय मेट्रो की सीट पर बैठी होती, जहां एक सीट उसके लिए आरक्षित होती है.....टेबल के सामने एक यूनिफॉर्म में वेटर खड़ा था और इस ऊबाऊ प्रेम कहानी के अंत का इंतज़ार कर रहा था क्योंकि उसे दुकान समय से बंद करनी थी और यहां उसे किसी टिप की उम्मीद भी नहीं थी...लड़की ने जैसे-तैसे कॉफी खत्म की और टिशू पेपर से अपना मुंह साफ किया....टिशू पेपर पर लिपस्टिक के निशान उग आए थे....वेटर ने झट से लिपस्टिक वाले टिशू पेपर के साथ कॉफी से खाली गिलास ट्रे में रख लिया....लड़के ने लपककर टिशू पेपर उठा लिया और वेटर को घूरते हुए शॉप से बाहर निकल आए...लड़की ने किसे घूरा, ये बताने की ज़रूरत नहीं है...लड़के की इच्छा हुई कि वो थोड़ी देर और बैठे, इधर-उधर की बातें करे और हो सके तो लड़की का माथा भी चूम ले...उसने लड़की से पहली इच्छा जताई तो लड़की ने कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई...उसका मूड शायद खराब था क्योंकि उसे घर पहुंचने में देर हो रही थी....लड़के की बाक़ी दो इच्छाएं किसी काम की नहीं रहीं....लड़के ने सोचा कि ज़रूर आकाश में रखी खीर बिल्ली ने जूठी कर दी होगी...उसे बिल्ली और खीर पर बहुत गुस्सा आया....


‘हम कल फिल्म देखने चलें....’ लड़की ने अचानक पूछा...

लड़के ने कहा, ‘नहीं, कल नहीं....परसों चलते हैं..’। उसे लगा लड़की उसे कल के लिए ज़िद करेगी तो वो हां करेगा....मगर,लड़की ने परसों वाला प्रस्ताव भी टाल दिया और आगे कोई बात नहीं की....लड़के को ही कहना पड़ा...’कल कितने बजे का शो देखेंगे’

लड़की ने कहा, ‘अब रहने दो’

लड़के ने कहा, ‘क्यूं..?’

‘क्यूं मेरा सर...’

‘प्लीज़ कल ही चलते हैं...प्लीज़’

लड़की मान गई और लड़के से शर्त रखी कि वो कोई नीली कमीज़ पहनकर आए। लड़के ने तुरंत मान लिया और ये भी नहीं सोचा कि हॉल के अंधेरे में सभी रंग एक जैसे होते हैं....

लड़की ने पूछा, ‘तुम्हारे पास कैमरा है?’

‘नहीं...क्यों?’
'क्यों, मेरा सर...
लड़की थोड़ी जल्दी में थी क्योंकि वो लड़की थी और उसे शाम के बाद घर से बाहर रहना मना था....
वो फिर भी बोली,
''अच्छा सुनो, कल हम थोड़ी देर धूप में बैठेंगे.....'
''और चावल भी खाएंगे, फ्राइड राइस....''

लड़के ने कहा, ''ठीक है, मगर तुम अपने खुले बालों के साथ आना.....''
लड़की मुस्कुराई और पूछा, ''क्यूं...''
''ऐसे ही''
लड़की बोली ''तुम्हारी कमीज़ में दो जेबें क्यूं हैं....''
लड़का कुछ समझा नहीं कि क्या जवाब दे....बोला, ''एक में आसमान है, और एक में सारी दुनिया...''
लड़की बोली, ''और मैं....''

लड़की चली गई....लड़का कुछ देर खड़ा रहा...उसने लिपस्टिक वाला टिशू पेपर निकाला और वापस अपनी जेब में रखकर दूसरी ओर चला गया...उसने सोच लिया था कि कुछ भी हो कल वो नीली कमीज़ नहीं पहनेगा....

निखिल आनंद गिरि
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मंगलवार, 15 अक्तूबर 2013

इश्क गोदाम में सड़ गया..

जो उजालों में छाए रहे,
उनके ख़ामोश साए रहे..
इन हवाओं से बचपन भला,
कोई कितना बचाए रहे,
एक अंधी से इंसाफ की,
टकटकी-सी लगाए रहे..
इश्क गोदाम में सड़ गया,
फिर भी पहरे बिठाए रहे..
कैसी रिश्वत शहर से मिली,
बस्तियों को भुलाए रहे..
ज़िंदगी तक धुआं हो गई,
आग दिल में छिपाए रहे..
महफिलों में भी इतना किया,
हाशिए को बचाए रहे..
जिनको यादों में पूजा किये
उनसे मिल कर पराए रहे..
निखिल आनंद गिरि

बुधवार, 11 सितंबर 2013

करवट..

वो सभी रिश्ते समाज से,
बेदख़ल कर दिए जाएं,
जिनमें रत्ती भर भी ईमानदारी हो.
उस भीड़ को दफ्न कर दिया जाए
जिसके पास मीठी तालियां हों बस..

तेज़ आंच में झुलसा दी जाएं,
वो तमाम बातें..
जो कही गईं
चांद के नाम पर,
प्यार की मजबूरी में,
नरम हों, ठंडी हों..

वो आंखें नोच ली जाएं,
जिन्हें देखकर लगता हो..
कि ख़ुदा है..
अब भी कहीं..

उस ज़िंदगी से मौत बेहतर,
जिसे ठोकरें तक नसीब नहीं..
एक करवट बदलनेे के लिए..

निखिल आनंद गिरि

रविवार, 8 सितंबर 2013

वो प्यार नहीं था..

कभी-कभी सोचता हूं...
(इतना काफी है मानने के लिए कि ज़िंदा हूं)
कि आकाश तक जाने का कोई पुल होता तो हम छोड़ देते धरती
किसी अमावस की रात में...
और मुझे मालूम है कि,
पिता नहीं, वो तो खर्राटे भर रहे होंगे..
मां भी नहीं, वो थक कर अभी चूर हुई होगी...
तुम ही मुझे आधे रास्ते से उतार लाओगी
कान पकड़े किसी हेडमास्टर की तरह...
जबकि चांद एक सीढ़ी भर दूर बचेगा...
अंधी रात को क्या मालूम उसे तुमने नीरस किया है।

तुम्हारी तेज़ कलाई जब देखी थी आखिरी बार,
मुझे नहीं आता था बुखार नापना...
मेरी धड़कनों में वही रफ्तार है अभी...
इस वक्त जब ले रहा हूं सांसें...
और हर सांस में डर है मरने का...
तुम्हें भूलने का इससे भी बड़ा...
 
ये बचपना नहीं तो और क्या
कि जिस चौराहे से गुज़रिए वहां भगवान मिलते हैं
इस आधार पर मान लिया जाए,
कि बचपन की हर चीज़ वहम थी...
मौत के डर से हमने बनाए भगवान,
जिन्हें मरने का शौक होता है,
वो बार-बार प्यार करते हैं...

जबकि, प्यार कहीं भी, कभी भी हो सकता है...
छत पर खड़े हुए तो सूखे कपड़ों के बीच में..
और जब सबसे बुरे लगते हैं हम आईने में, तब भी...

तो सुनो, कि मैं सोचने लगा हूं अब..
तुमने चांद से सीढ़ी भर दूर मुझे मौत दी थी...
और सो गयी थीं गहरी नींद में...
वो प्यार नहीं था,
प्यार कोई इतवार की अलसाई सुबह तो नहीं,
कि इसे सोकर बिता दिया जाए

निखिल आनंद गिरि

रविवार, 25 अगस्त 2013

कुछ है, जो दिखता नहीं..

जब ठठाकर हंस देती है सारी दुनिया,
बिना किसी बात पर..
अचानक कंधे पर बैठ जाती है गौरेया
कहीं किसी अंतरिक्ष से आकर..
चोंच में दबाकर सारा दुख
उड़ जाती है फुर्र..

फिर न दिखती है,
न मिलती है कहीं..
मगर होती है
सांस-दर-सांस
प्रेम की तरह..

गुरुवार, 15 अगस्त 2013

किसकी है जनवरी, किसका अगस्त है..

‘’1947 में भारत का बंटवारा इसलिए नहीं हुआ कि भारत की नियति के बारे में हिंदुओं और मुसलमानों के पास अलग-अलग ठंडे तर्क थे और वैज्ञानिक दृष्टियां थीं। वह इसलिए हुआ कि दोनों कौमों के जुनून अलग होते गये, आधी रात के सपने अलग होते गये, और उनके मिथक-विश्व वक्र और विपरीत बनते गये। अंधेरे में घट रहे इस रहस्यमय रसायन को निश्चय ही दिन भर की घटनाओं ने मदद पहुंचायी। दिन की घटना यह थी कि सिंहासन पर भारतवायों के बैठने का दिन नज़दीक आ रहा था। और रात का आतंक यह था कि इस सिंहासन पर कौन बैठेगा और कैसे बैठेगा ?’’

(राजेंद्र माथुर के लेख ‘’गहरी नींद के सपनों में बनता हुआ देश) का हिस्सा)

14 अगस्त को देश की राजधानी दिल्ली में कई जगहों पर झंडे फहराए गए। कई जगह तुड़े-मुड़े, मैले-कुचैले झंडे थे तो कई जगह राष्ट्रगान की जगह कोई और फिल्मी या देशभक्ति गाना बजाकर औपचारिकता पूरी कर ली गयी। एक ‘फंक्शन’ में तो मैं भी था जहां जो लोग झंडा फहरा रहे थे, क पीछे झुग्गी में रह रहे कुछ लोग अपना कामधाम छोड़कर ये सब ऐसे देख रहे थे जैसे उनके इलाके में बड़े दिन बाद मनोरंजन के लिए कोई तमाशा हो रहा हो। फेसबुक पर इसको लेकर स्टेटस डाला तो कई लोगों ने बताया कि ऐसा कई स्कूलों में होता रहा है कि 15 अगस्त की ‘छुट्टी’ की वजह से 14 तारीख को ही आज़ादी मना ली जाती है। मुझे 14 अगस्त को झंडा फहरा लिए जाने से कोई आपत्ति नहीं है। रोज़ ही फहराइए, मगर उस आज़ादी का मतलब ही क्या, जिसमें हम 15 अगस्त की सुबह देश की राजधानी में सुरक्षा के नाम पर खुलेआम घूम ही नहीं सकें, पूरी पुलिस और ट्रैफिक एक लालकिले का सालों साल पुराना और बोरिंग सरकारी फंक्शन कराने में खर्च हो जाए। अगर स्कूल-कॉलेजों में 14 अगस्त को ही झंडा फहराकर काम ‘निपटा’ लिया जाना है तो 15 अगस्त को सरकारी और 14 अगस्त को आम लोगों की आजादी का दिन घोषित कर दिया जाना चाहिए। अगर सुरक्षा सचमुच इतनी बड़ी समस्या है तो रात के बारह बजे ही क्यों नहीं समारोह मना लिए जाएं। आखिर आज़ादी का असली जश्न भी तो हमने रात ही में मनाया था।

उन झंडों को उतार फेंकना चाहिए जिन्हें कोई तानाशाह अपनी नापाक नज़र से घूरता है, सलाम करता है, हमें झूठी उम्मीदें देता है, चुनाव करीब आने पर हमारी सड़कें पक्की करवाता है, हमारी नालियां बनवा देता है और फिर हमें नाली का कीड़ा समझने लगता है। हम उसे खुशी-खुशी सत्ता का नज़राना सौंपते हैं। क्या आजादी सिर्फ वीआईपी लोगों की सरकारी फाइलों में झंडे के साथ फोटो खिंचवाने के लिेए कर्फ्यू लगा देने का दिन है। कोई देश अगर आगे न बढ़े तो थोडे दिन ठहरकर, चुप रहकर इंतज़ार किया जा सकता है । मगर कोई देश लगातार पीछे जाता दिखे, विकल्पहीनता की स्थिति में जाता दिखे तो फिर गुस्से में गालियां बकने की आज़ादी तो मिलनी ही चाहिए। विकल्पहीनता ऐसी कि देश शब्द कहते ही आप सांप्रदायिक समझे जाने लगें। हद है कि हम मजबूर हैं कि हमें एक उल्लू और भेड़िए में से ही किसी को जंगल का राजा चुन लेना है। विकल्पहीनता ऐसी कि प्राइवेट, सनसनीख़ेज़, तीसमारखां, सबसे तेज होते हुए भी तमाम अख़बारों और चैनलों को सब कुछ रोककर एक घिसे-पिटे भाषण का सीधा प्रसारण करना ही पड़ता है। राज्यों की असली तस्वीर के बजाय झांकियां ऐसी कि जैसे धो-पोंछ कर घर के बक्से से कोई पुरानी तस्वीर देख रहे हों। हद है। तेलंगाना, कश्मीर, झारखंड, छत्तीसगढ़, बिहार, गुजरात को छूट दीजिए हुक्मरानों और फिर देखिए कैसी-कैसी झांकियां आपकी खिदमत में पेश होती हैं। दिल्ली को ही छूट देकर देख लीजिए।

आइए आजादी के मौके पर शर्म करें कि हम एक ऐसे मुल्क में रहते हैं जहां सबसे बड़ी आबादी युवाओं की है और फिर भी हम मान चुके हैं कि हमारी तरक्की प्रॉपर्टी डीलर्स के हाथ में है, घटिया हुक्मरानों के हाथ में है और अब इसका कुछ नहीं हो सकता। आइए 52 सेकेंड के राष्ट्रगान के बजाय दो मिनट का मौन रखें कि हमारे आगे जो कुछ ग़लत होता है, हम वहां सिर्फ मौन रह जाते हैं, भीतर-भीतर मरते जाते हैं। शर्म करें कि जो कुछ हमारे सामने होता है, उसके लिए सिर्फ और सिर्फ हम ही ज़िम्मेदार हैं। आइए शर्म करें कि हम वैसे हिंदू हैं जो देशभक्ति के नाम पर दिन-रात पाकिस्तान को गालियां देते हैं और देश के कोने-कोने में हमारी नफरत झेलता एक ‘मिनी-पाकिस्तान’ बसता है। आइए शर्म करें कि जिस तिरंगे को हम अपना झंडा कहते हैं उसके तीन रंगों के नाम हम अपनी मातृभाषा में लिख-बोल नहीं सकते। आइए शर्म करें कि हमें अब किसी बात पर शर्म नहीं आती। न विदेशी, न स्वदेशी..भिन्न-भिन्न प्रदेशी। ै .


राजेंद्र माथुर के शब्दों में -
‘’यह ज़रूरी नहीं कि देर रात के गहरे सपने स्वदेशी ही हों। वे मूलत: विदेशी हो सकते हैं, लेकिन फिर भी राष्ट्रीयता के जन्म और विकास में सहायक हो सकते हैं। इसलिए यह ज़रूरी नहीं कि भारत के अवचेतन-विश्व में सिर्फ रामायण और महाभारत ही हों। करबला और हुसैन भी हमारे मिथक-विश्व के अंग हो सकते हैं, और हिंदुओं को भी उनके सपने आ सकते हैं। जब सिंहासन के प्रश्न नहीं थे, तब ईद और ताजिए क्या हिंदू भागीदारी के त्योहार भी नहीं बनते जा रहे थे? आजकल की तरह नेताओं और अग्रणी नागरिकों की दिखाऊ फोटो खिंचाने वाली भागीदारी नहीं, बल्कि रेवड़ी वालों और कारीगरों की ईमानदार भागीदारी। क्या सारे ताजिए ठंडे कर, सारी मूर्तियों को तोड़कर और सारे सलीबों को जलाकर ही हिंदुस्तान बन सकता है?’’

निखिल आनंद गिरि

शुक्रवार, 9 अगस्त 2013

जो बच पाता है..

जब सो रहा होता है आसमान,
धरती ओढ़ लेती है आसमान की चादर..
जाग रहे होते हैं तारे,
बतिया रहे होते हैं चुपचाप
मौन के सहारे |

चिड़िया ओढ़ लेती है पंख
और बतियाती है सूनेपन के साथ..
समंदर ओढ़ लेता है गहराई,
और बतियाता है शून्य से..
दीवारें ओढ लेती हैं अकेलापन,
और बतियाती हैं खालीपन से..

एक  उम्र ओढ लेती है चिड़चिड़ापन..
और बतियाती है पुरानी आवाज़ों से
अथाह वीरानों में |

रिश्ते ओढ लेते हैं चेहरे,
और बतियाते हैं तारों की भाषा में..
कभी अचानक भीड़ बन जाते हैं चेहरे,
और फूलने लगती है मौन की सांसें..
रिश्ते उतारकर भागने लगते हैं लोग..

क्या बचता है उन रिश्तों के बीच
जहां होता है सिर्फ निर्वात..
जहां ज़िंदा आवाज़ें गुज़र नहीं पातीं,
और सड़ांध की तरह फैलता जाता है मौन..

निखिल आनंद गिरि

शुक्रवार, 19 जुलाई 2013

ममता तेरे देस में..(हम जीते-जी मर गए रे..)

इस बार गर्मियों में छुट्टियां बिताने और आम का मज़ा लेने के लिए पश्चिम बंगाल के मालदा इलाक़े में जाना हुआ। ज़िले का एक छोटा सा कस्बा समसी। सुनने को मिला कि एक-दो बार सोनिया गांधी भी इस इलाके के दौरे पर आ चुकी हैं। इसका मतलब अगर ये समझ लिया जाए कि यहां खूब विकास हुआ है तो ये वैसा ही है जैसे कोई बच्चा गांव के ऊपर से हेलीकॉप्टर उडता देखकर कहे कि हमारे गांव में हेलीकॉप्टर चलते हैं।

एक स्थानीय रिश्तेदार को डॉक्टर से दिखाने के लिए वहां के सरकारी अस्पताल पहुंचा तो देखकर तसल्ली हुई कि डॉक्टर उपलब्ध हैं और शाम पांच बजे के बाद भी मरीज़ों के लिए समय निकाल रही हैं। मगर थोडी देर में समझ आ गया कि उनसे सत्तर रुपये फीस वसूली जा रही है। यानी अस्पताल का कमरा, बिजली, पंखा, यहां तक कि डॉक्टर भी सरकारी मगर प्राइवेट प्रैक्टिस। पैसे लेकर मरीज़ों की पर्ची बनाने वाले झोलाछाप कंपाउंडर से मिन्नत करने और उसकी मेहरबानी के बाद डॉक्टर से मिलना हुआ। कोई फाल्गुनी बाला थीं, जो इस इलाके में इकलौती सरकारी डॉक्टर थीं। स्थानीय लोगों से पता चला कि सरकारी अस्पताल में निजी प्रैक्टिस करना यहां का पुराना चलन है और मैं ही इस मामले को लेकर ज़्यादा भावुक हो रहा हूं।

अगली सुबह फिर से अपने रिश्तेदार के साथ अस्पताल पहुंचा तो देखा निजी प्रैक्टिस सुबह से ही शुरू है। सरकारी अस्पताल के दूसरे कमरे में एक सडक दुर्घटना में गंभीर रूप से घायल मरीज़ काफी देर से डॉक्टर साहिबा के आने का इंतज़ार कर रहा था। मगर, फीस देकर डॉक्टर से मिलने वालों की तादाद ज़्यादा थी इसीलिए डॉक्टर को फुर्सत नहीं मिल पा रही थी। इसके बाद जितना हो सका, मैंने अपने स्तर से स्थानीय पत्रकारों से इस मसले पर बातचीत की मगर उनकी प्रतिक्रिया ऐसी थी जैसे ये कोई गंभीर बात ही नहीं है। लोगों से पूछने पर पता चला कि चुनाव के वक़्त कभी-कभी ऐसे मुद्दों को लेकर रूटीन प्रदर्शन होते हैं, मगर अस्पतालों का ये हाल पूरे बंगाल में एक जैसा है। हालांकि मेरे लिए अस्पतालों का ऐसा हाल नया नहीं है। बिहार के समस्तीपुर में हाल के महीनों में ही निजी और सरकारी अस्पतालों की मिलीभगत से गर्भाशय के इलाज में जो भयंकर घपला सामने आया है, उतना ही सुशासन का हाल बताने को काफी है, मगर बंगाल में हालात इतने बदतर हैं, सोचकर यकीन नहीं होता।

मालदा एक मुस्लिम बहुल क्षेत्र है। देश की सबसे ज़्यादा मुस्लिम आबादी बंगाल के इसी इलाके में रहती है। जिस समसी कस्बे में मैं ठहरा, वहां भी मुस्लिम आबादी बहुत ज़्यादा है। जितने स्कूल वहां दिखे, उतने ही मस्जिद भी। किसी घर में अख़बार आता नहीं दिखा। रेलवे के फाटक पर या बाजार में कहीं-कहीं बंगाली के अखबार टंगे जरूर दिखे, मगर मेरा अनुमान कहता है कि उसमें अस्पतालों की दुर्दशा बडी ख़बर नहीं बनती होगी। ममता बनर्जी की सरकार अल्पसंख्यकों को लेकर रोज नई घोषणाएं करती दिखती है, मगर सियासत में घोषणाओं का मतलब विकास नहीं होता। और सारा दोष ममता का नहीं, लंबे वक्त तक रहे लेफ्ट के राज का भी है। आख़िर  सिस्टम में भ्रष्टाचार को एक परंपरा बनते वक्त तो लगा ही होगा। मालदा जैसे इलाक़े वक्त से कम से कम तीस साल पीछे चले गए हैं और आगे आने की कोई उम्मीद भी नहीं दिखती।

बहरहाल, मालदा में किस्म-किस्म को आम खाने को ज़रूर मिले। अगर मेरी तरह आपको भी यक़ीन है कि मालदह आम का सीधा ताल्लुक मालदा ज़िले से है, तो आप ग़लत हैं। यहां इसे लंगड़ा आम कहते हैं। जिले के छोटे-छोटे इलाकों से आम की टोकरियां कटिहार के रास्ते बिहार और आगे के इलाक़ों में जाती हैं। कटिहार में एक लोकल ट्रेन से उतरते वक्त इन छोटे व्यापारियों की दुर्दशा भी दिखी। जैसे ही लोकल ट्रेन से इनकी टोकरियां उतरती हैं, पुलिस वाले अलग-अलग गिरोह बनाकर इनसे वसूली करने लगते हैं। कोई आरपीएफ के नाम पर, कोई रेलवे टिकट के नाम पर तो कोई स्थानीय सिपाही के नाम पर। कोई चाहे तो इस स्टेशन पर पुलिसवालों की तलाशी ले सकता है। उनकी जेब से लेकर बैग तक में इन ग़रीबों को धमकाकर वसूले गए आम निकल जाएंगे।
दिल्ली में जो आम साठ से सौ रूपये किलो तक मिलते हैं, यहां दस-पंद्रह रूपये किलो में मिल जाते हैं। मगर डॉक्टर की फीस यहां भी सत्तर रूपये है, वो भी सरकारी अस्पताल में। शुक्र है दिल्ली के सरकारी अस्पतालों में फीस नहीं देनी पड़ती और वहां मालदा के एक छोटे क़स्बे की खबर छपने की भी पूरी गुंजाइश रहती है। और कुछ नहीं तो अपनी 'आपबीती' तो है ही..

(ये आलेख जनसत्ता अखबार में 12 जुलाई को प्रकाशित हुआ है..)

निखिल आनंद गिरि

रविवार, 7 जुलाई 2013

हिंदी सिनेमा के उम्मीदों की आखिरी पत्ती है 'लूटेरा'

लूटेराअगर कनॉट प्लेस के रीवोली या राजौरी गार्डेन के मूवीटाइम में देखी होती तो सीधा फिल्म के बारे में बात करता। मगर फिल्म देखी समस्तीपुर के भोला टॉकीज में, तो थोड़ी-सी बात फिल्म देखने के माहौल पर भी। कई साल बाद किसी छोटे शहर में फिल्म देखी। सिंगल स्क्रीन थियेटर में। दिल्ली में टिकट के दाम से दस गुना सस्ता। कोई एडवांस बुकिंग, नेट बुकिंग, प्रिंट आउट या एसएमएस बुकिंग नहीं। सीधा काउंटर पर जाइए और टूटी-फूटी मैथिली में बात करते ही रसीद वाला टिकट हाथ में। कोई थैंक्यू या हैव ए गुड डे का चक्कर भी नहीं। बस ऐसे सिनेमाघरों में दिक्कत ये है कि आपको हर डायलॉग कान लगाकर सुनना पड़ेगा वरना आप डायलॉग और संगीत के मामले में आधी फिल्म देखकर ही घर वापस जाएंगे।

मैं व्याकरण का विद्यार्थी नहीं, मगर मेरे ज्ञान के हिसाब से छोटी वाला लुटेरा हिंदी का शब्द लगता है। फिल्म के टाइटल में दिख रहा लूटेरा अंग्रेज़ी के लूट में राको सीधा चिपकाया गया लगता है। शायद अंग्रेज़ी पढ़ने वाले दर्शकों को इस लूटमें ज़्यादा अपनापन लगता हो। हालांकि, इस तरह के टाइटल सिंगल स्क्रीन दर्शकों को ज़्यादा भाते रहे हैं। लुटेरा, डाकू हसीना, बंदूक की कसम, चोर-पुलिस टाइप फिल्में बी ग्रेड हिंदी सिनेमा से होती हुईं आए दिन भोजपुरी में बनती हैं। और उनमें जो-जो कर्म होते हैं, शायद वही सब देखने की उम्मीद लिए यहां के दर्शक इस बार भी लुटेरा के लिए जुटे होंगे। मगर, निर्देशक विक्रमादित्य मोटवानी कोई कांति शाह तो हैं नहीं कि टाइटल लुटेरा रखें तो उसमें इज़्जत लूटने का सीन भी रखना लाजमी हो। सोनाक्षी सिन्हा को फिल्म में लेना उनकी मार्केटिंग मजबूरी हो सकती है मगर उनसे सन ऑफ सरदार या राउडी राठौर से हटकर भी बहुत कुछ करवाया जा सकता है।

समस्तीपुर के भोला टॉकीज पर दर्शकों की फ्रीक्वेंसी के हिसाब से लूटेरा एक महा फ्लॉप फिल्म है। रिलीज़ के दूसरे दिन तीस रुपये की टिकट खरीदकर फिल्म देखने वाले तीस लोग भी नहीं थे। टिकट लेने से पहले भोला टॉकीज़ में 17-18 साल से प्रोजेक्टर चला रहे वाले शशि कुमार से दोस्ती हुई। उन्होंने बताया कि इस फिल्म के नाम और सोनाक्षी की वजह से ही फिल्म लगाने का रिस्क लिया गया, वरना भोजपुरी फिल्मों के अलावा यहां आशिकी 2 ही है जो हाल में अच्छा बिजनेस कर सकी थी। उन्होंने लगभग चेतावनी भी दी कि रिलीज़ के बाद हर शो में हॉल एकाध घंटे में ही खाली हो गया है, इसीलिए टिकट सोच-समझकर कटाइए(खरीदिए)।

ख़ैर, हॉल में कम लोगों का होना हम जैसों के लिए अच्छा ही है। कम सीटियों-तालियों और गालियों के बीच ज़्यादा आराम से फिल्म देखी जा सकती है। वरना सोनाक्षी और रनबीर जब प्यार के सबसे महीन पलों में एक-दूसरे के करीब आ रहे थे और रनबीर ने आखिर तक खामोश रहकर कुछ नहीं किया, तो ऑडिएंस में से कमेंट सुनने को मिला कि साला सकले से (शक्ल से ही) बकलोल लग रहा है। या फिर फिल्म के क्लाइमैक्स में जब रनबीर जबरदस्ती सोनाक्षी को बचाने के लिए इंजेक्शन लगाना चाहते हैं और गुत्थमगुत्था होते हैं तो कमेंट सुनने को मिलता है कि एतना (इतनी) देर में तो भैंसी (भैंस) भी सूई लगा लेती है

तो मिस्टर विक्रमादित्य मोटवानी, आप जब कैमरे के ज़रिए प्यार की सबसे शानदार पेंटिंग गढ रहे होते हैं, दिल्ली-मुंबई से बहुत दूर दर्शक कुर्सियां छोड़-छोड़ कर जा रहे होते हैं या फिर आपको जी भर कर कोस रहे होते हैं। पहले उड़ान और अब लूटेरा से आप सिनेमा को नई क्लासिक ऊंचाइयों पर ले जाने को सीरियस दिखते हैं और इधर पब्लिक है जो आशिकी 2 को दोबारा-तिबारा देखना चाहती है। इस हिम्मत के लिए आपको बहुत-बहुत बधाई। हम जैसे दर्शक हमेशा आपके साथ हैं।

स्कूल के दिनों में द लास्ट लीफ पढ़ी थी। कभी सोचा नहीं था कि हिंदी सिनेमा में उसे पर्दे पर भी उतरता हुआ देखूंगा। वो भी इतनी ख़ूबसूरती से। एक ही फिल्म में ओ हेनरी की कहानी से लेकर बाबा नागार्जुन तक की कविता सुनने को मिलेगी। मगर, प्रयोग के नाम पर इतना ही बहुत था। पीरियड फिल्मों में ग्रामोफोन ही अच्छे लगते हैं, सोनाक्षी बिल्कुन नहीं। ठीक है कि आपने उनसे एक्टिंग कराने की पूरी कोशिश की है, मगर इंडस्ट्री में अच्छे कलाकारों की कमी तो है नहीं। फिर रनबीर के साथ उनकी जोडी कम से कम मुझे तो नहीं जंची। सोनाक्षी को क्लोज़ अप से बाहर देखिए तो रनबीर से ओवर एज लगती हैं। सोनाक्षी एक ज़मींदार की अल्हड़ बेटी से ज़्यादा कोई सेडक्टिव ठकुराईन लगती हैं। और रनबीर भी गंभीर दिखने के नाम पर भीतरघुन्ना टाइप एक्टर लगते हैं। 50 के दशक वाली बॉडी लैंग्वेज उनमें चाहकर भी नहीं आ पाती। अच्छी एक्टिंग का मतलब जबरदस्ती की चुप्पी तो नहीं होती। हालांकि, दोनों ने उम्मीद से ज़्यादा अच्छा काम किया है, मगर ये और अच्छा हो सकता था। आप साहित्य को सिनेमा पर उतार रहे थे तो मार्केट मैकेनिज़्म बीच में कहां से आ गया। ये तो हिंदी साहित्य का हाल हो गया कि आप कोई मास्टरपीस लिखना चाह रहे हों और अचानक किसी ऐसे पब्लिशर की तलाश करने लगें जो आपकी गोवा या स्विट्ज़रलैंड की ट्रिप स्पांसर कर दे क्योंकि वहां का मौसम अच्छा लिखने में मदद करता है।

कहानी के नाम पर इस फिल्म की जड़ें भी सदियों पुरानी है। वही प्रेम कहानी, वही मिलना-बिछुड़ना, वादा तोडना-निभाना। मगर कैमरा इतनी खूबसूरती से कहानी कहता है कि आप उसमें ख़ुद को महसूस करने लगते हैं। लोकेशन्स देखकर कई जगह तो आपको लगेगा कि आप कोई ख़ूबसूरत-सी ईरानी मूवी देख रहे हैं। या फिर स्क्रीन प्ले और डीटेलिंग देखकर कभी-कभी बंगाली सिनेमा का महान दौर भी आंखों में तैरने लगता है। इंटरवल के आसपास तक की फिल्म एक अलग टाइम और स्पेस में चलती है। उसके बाद आपको लगेगा आप किसी और फिल्म में आ गए हैं। ये एक हुनरमंद डायरेक्टर की पहचान है। हालांकि, जब नैरेटिव इतना धीमा और पोएटिक ही रखना था तो अचानक मुझसे प्यार करते हैं वरुण बाबू जैसे डायलॉग्स बहुत सपाट और फिल्मी लगते हैं। और ये भी समझना मुश्किल है कि अरबों की मिल्कियत संभालने वाले जमींदार पिता हिंदी सिनेमा में अक्सर इतने भोले क्यों होते हैं कि उन्हें अपने घर में ही पनप रही प्रेम कहानियों की भनक तक नहीं लग पाती।

लूटेरा एक तरह से प्यार को नए ढंग से परिभाषित करती है। इस तरह के अलहदा प्यार को देखने-समझने-जीने के लिए फिल्म ज़रूर देखें। वक्त के सांचे में ढलकर भी सच्चा प्यार ख़त्म नहीं होता। और प्यार किसी लुटेरे के दिल में भी हो तो प्यार ही रहता है। फिल्म एक खलनायक के प्यार को जस्टीफाई करती है। खलनायक ऐसा नहीं जिससे आप नफरत करें। आप उसके पक्ष में खड़े होते हैं। और प्रेमिका भी खलनायक के धोखे के खिलाफ है, मगर आखिर तक प्यार के साथ खड़ी रहती है। एक छोर से नफरत की डोर थामे। हम भारतीय सिनेमा में क्लाइमैक्स पूरा देखने के आदी हैं। इससे विक्रमादित्य भी बच नहीं सके हैं। बेहतर होता कि सूखे पेड़ पर वरुण के आखिरी पत्ती लगाने के साथ ही क्रेडिट्स शुरू हो जाते। बेहतर होता कि सब कुछ अधूरा रह जाता। वरुण को अपना प्यार साबित करने का मौका आधा ही मिलता। प्यार में कसक बाक़ी न रह जाए तो तसल्ली अधूरी रहती है। कहानी वही अच्छी जिसके दौरान साइलेंस (मौन) और बाद में रेज़ोनेंस (प्रतिध्वनियां) बाक़ी रहे।   

फिल्म का निर्देशन इतना बेहतरीन है कि फिल्म स्कूलों में इसे टेक्स्ट की तरह इस्तेमाल किया जा सकता है। कहानी में कैरेक्टर बढ़ाने का स्कोप ही नहीं था, फिर भी दो-सवा दो घंटे की फिल्म में बांधे रख पाना बडा काम है। म्यूज़िक से लेकर गाने और साइलेंस तक का इतनी बारीकी से इस्तेमाल हुआ है कि आप जमे रहते हैं। 50 के दौर को जिंदा करने के लिए तब की सुपरहिट फिल्म बाज़ी के गाने का बार-बार इस्तेमाल सदाबहार देव आनंद को श्रद्धांजलि जैसा है। विक्रमादित्य इस दौर के बेहतरीन निर्देशक साबित हो चुके हैं। बस ज़रूरत है उन्हें अपने सिनेमा के जरिए कुछ नए सब्जेक्ट पर काम करने की, जिसमें सिर्फ प्रेम कहानी नहीं हो।


लूटेरा कई हिस्सों में उड़ान से भी बेहतर है, मगर उड़ान नहीं है। आपकी मास्टरपीस तो वही है।

निखिल आनंद गिरि

रविवार, 30 जून 2013

एक मामूली आदमी की डायरी-2

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करीब तीन साल पुरानी बात है..ज़ी यूपी में था तब पहली बार मीडिया खबर के बारे में पता चला था..हमारे सम्पादक वसिन्द्र मिश्र के 'खिलाफ' धडाधड खबरें छपती थीं और मेरी न्यूज़ रूम  में 'अलग' इमेज के चलते उन्हें लगा कि मैं ही पुष्कर पुष्प और मीडिया खबर का 'गुप्तचर' हूँ..शायद इस आधार पर कि पुष्कर का ताल्लुक भी बिहार (मुजफ्फरपुर) और जामिया से है..मुझे खूब लताड़ा गया और रात को मैंने उन्हें इस्तीफा मेल कर दिया था..हालांकि, ये अच्छा लगा था कि कोई 'मामूली' वेबसाइट भी बड़े संपादकों का हाजमा खराब कर सकती है..मन था कि पुष्कर से कभी मिला जाए और उनकी वेबसाइट पर आ रहे ताबड़तोड़ लेखों को जारी रखने के लिए उन्हें हौसला दिया जाए..

बहरहाल, अब जाकर पुष्कर से मेरी पहली मुलाक़ात 27 जून 2013 को मीडिया खबर के कॉन्क्लेव में हुई..अब आलम ये है कि पिछले कुछ महीनो से न तो मीडिया खबर का तेवर वो रहा और न ही मैं ज़ी में हूँ..जिस कॉन्क्लेव में पुष्कर से भेंट हुई, वो किसी कॉर्पोरेट कार्यक्रम की तर्ज़ पर आयोजित था...एस पी सिंह के नाम पर याद करने के सिवा कुछ भी ऐसा नहीं था जिससे सुकून मिल सके कि मीडिया खबर अब भी वैसी ही वेबसाइट है जिससे किसी सम्पादक की नींद खराब हो जाए...ऐसा लग रहा था कि सारे कार्यक्रम बड़े संपादकों को 'आईना' दिखाने की बजाय उनके साथ मेलजोल बढाने, बोलने-बतियाने और उन्हें फूल मालाएं भेंट करने के लिए रखा गया था...हँसते-खेलते विनीत कुमार अपनी शैली में दो-चार खरी बातें कह भी गए तो किसी को कोई फर्क पड़ा होगा, लगता नहीं है...विनीत को शायद वो सब 'पर्सनली' जानते हैं इसीलिए उनसे किसी 'नुकसान' की उम्मीद या डर सबके चहरे से गायब था..वो सब उस कॉन्क्लेव में शर्मिंदा होने के बजाय 'एन्जॉय' कर रहे थे...

कमर वहीद नकवी ही थोड़े सेंसिटिव दिख रहे थे..हालांकि, वो भी इतिहास का हवाला देकर संपादकों और नौसिखिये कर्मचारियों की सैलरी में बड़े गैप को जस्टिफाई कर रहे थे..किसी ने ये सवाल नहीं पूछा कि अगर ये उन्हें 'नाजायज़' लगता है/था तो क्यों नहीं एक बड़े चैनल का मुखिया रहते उन्होंने इसे दुरुस्त करने कि कोशिश की..वह पैनल में बैठे मोटी चमड़ी वाले संपादकों से ये भी पूछा जाना चाहिए था कि नैतिकता के नाम पर अपनी सैलरी भी सार्वजनिक करते..

एक एडिटर साहेब थे, जिनके लिए मालिकों के तलवे चाटकर पत्रकारिता करने की अपनी मजबूरी अब कोई शर्म की बात नहीं लगती..उल्टे वो अपने कुतर्कों के साथ मज़ा ले रहे थे और सबसे पूछ रहे थे कि कोई विकल्प हो तो कहिये..कम से कम ये मत कहियेगा कि हम मीडिया की नौकरी छोड़कर जूते या कपडे सिलने लगें..ऐसी बेफिक्री और बेशर्मी सिर्फ और सिर्फ तभी आती है जब आपके पास नौकरी जाने के बाद रोटी-दाल का खतरा न हो..

सभी इस बात से सहमत दिखे कि सारी दिक्कत उनके 'पुअर मैनेजमेंट' कि वजह से नहीं बल्कि नए लोगों में 'क्वालिटी' की कमी की वजह से ही है..उनके इस भोले जवाब पर क्या किया जाए, अब तक सोच रहा हूँ..ऐसा कुतर्क कई दफे सुनता रहा हूँ और ऐसा लगने लगा है कि चैनलों में जो कुछ 'भला' बचा है, वो सब कुछ बूढ़े लोगों की वजह से ही बचा है..मुझे निजी तौर पर उन तरह के टेस्ट से सख्त एलर्जी है जिनमें अमरीका के उपराष्ट्रपति का नाम न जाने वाले को लाइब्रेरी का टेप ढोने लायक भी नहीं समझा जाए..

होना ये चाहिए था  कि कुछ यंग लोगों को मंच पर बिठाकर तमाम एडिटर्स को नीचे बिठाया जाना चाहिए था और आखिर में हाथ उठा-उठा कर उन्हें अपनी सफाई देने भर का मौक़ा देना चाहिए था..मीडिया खबर को अगर सचमुच कुछ अलग करना है तो 'रिस्क' उठाने को अपनी आदत बनाए रखना चाहिए..वरना , 'भड़ास' निकालने वाली वेबसाइट्स  की कोई कमी थोड़े ही है.. 

यूं तो कार्यक्रम 5 -7 घंटे चला मगर वहाँ सवाल पूछने वालों के लिए कोई समय नहीं था..वरना एक सवाल ज़रूर पूछता कि आप सब कौन सी चक्की का आटा खाते हैं जो आपको अब किसी बात का कोई फर्क नहीं पड़ता..हमें पड़ता है..तभी हम दिल्ली में अपना वक़्त बर्बाद कर आप लोगों को उम्मीद से सुनने जाते हैं और फिर अफ़सोस करते हुए लौट आते हैं..

भूल-चूक लेनी-देनी..

निखिल आनंद गिरि

शनिवार, 18 मई 2013

एक मामूली आदमी की डायरी-1

आजकल दो चीज़ों से बहुत परेशान हूं। पहली तो ये कि मेरी किसी भी 'बड़े आदमी' से कोई पहचान नहीं है। जिससे भी मिलता हूं, वो किसी न किसी तगड़ी पहचान के साथ आगे बढ़ता दिखता है। कैरियर में सफल  लोगों पर कोई बातचीत होती है तो अक्सर सुनता हूं कि फलां जगह वो चुना गया क्योंकि वहां उसकी उनसे पहले से ही पहचान थी। उनके लिए स्पॉट फिक्सिंग एक अपराध नहीं जीवनशैली है। हर क्षेत्र में कोई पैनल या कमिटी किसी नई नियुक्ति नहीं करती। एक गिरोह करता है, जिसमें चुने जाने वाले का कोई न कोई सगा ज़रूर होता है। इतनी सी बात से पूरा आत्मविश्वास हिल जाता है। नौकरी में जहां भी रहा, वफादारी से काम करता रहा। लोग काम की तारीफ भी करते हैं। मगर दावे से नहीं कह सकता कि वहां का बॉस या कोई 'बड़ा आदमी' मेरे साथ फुर्सत में उठऩा-बैठना पसंद करे। क्या बडे पद पर पहुंचने के लिए कोई और योग्यता चाहिए होती है। इन दिनों जिस तरह का कंपनी राज है, उसमें अगले दिन नौकरी रहेगी या नहीं, कुछ पता नहीं होता। लेकिन फिर भी उन लोगों की तरह क्यों नहीं हो पाता जो अच्छी तरह जानते हैं कि नौकरी में बने रहने के लिए क्या-क्या किया जाना चाहिए। मुझे तो मोहल्ले में भी ठीक से कोई नहीं पहचानता। हमेशा डर लगा रहता है कि कोई भी मुझसे लड़ सकता है, जीत सकता है। कोई पुलिस वाला बिना बात की गाली बक सकता है। कोई दुकानदार मुझे सामान देने के लिए भीड़ के ख़त्म होने तक खड़ा रख सकता है। कोई नया लड़का ऊंची आवाज़ में मुझे नीचा दिखा सकता है। उम्र में जितना बड़ा होता जा रहा हूं, भीतर से उतना ही कमज़ोर भी।

दूसरी चीज़ परेशान करती है खुद को काबू में नहीं रख पाना। इतना कमज़ोर महसूस करने के बावजूद कई बार छोटी-छोटी बातों में ग़लत होता देखकर लड़ जाना अच्छा लगता है। अपना फायदा-नुकसान बाद में समझ आता है। चुप रहने की अदा सीखना चाहता हूं । वो लोग किस चक्की का आटा खाते हैं, जिन्हें कभी गुस्सा नहीं आता। हर बात में वो शांत दिखते हैं। उन्हें किसी चीज से कोई परेशानी नहीं होती। उन्हें लगता है कि जब तक उनके पास मोटी तनख़्वाह है, नौकरी सुरक्षित है, तब तक किसी और के लिए या किसी अच्छी वजह के लिए तर्क करना फालतू का काम है।

वो ग़लती से अगर किसी अनशन या आंदोलन के आसपास से गुजर भी जाएं तो नाक पर रुमाल रख लेते हैं। वो अपने घरों में बच्चों से क्या बातें करते होंगे, सोचता हूं। वो कसरत के लिए बच्चों को सांपों का वीडियो दिखाते होंगे। वो उन्हें इतना लचीला बना देना चाहते होंगे कि वो किसी बिल में दुबक कर आराम से ज़िंदगी गुजार सकें। वो जब स्कूल जाएं तो उनके लिए सबसे अच्छे पराठे हों, सबसे महंगे मोबाइल हों और सबसे अमीर दोस्त। वो अगर कॉलेज में पढने जाएं तो किताबों के बजाय किसी टीचर से सेटिंग करने में ज़्यादा माहिर हो सकें। अगर कभी पढ़ाने लग जाएं तो कॉपियां सही जांचने के बजाय ज्यादा कॉपियों के नाम पर ज़्यादा बिल भरने की कला सीख सकें। वो जिस पेशे में जाएं, महान बनन के तरीके ढूंढ निकालें। उनके लिए दोस्ती और दुश्मनी जेब में रखे चिल्लर से भी कम क़ीमती शब्द हों, जिनका इस्तेमाल मूंगफली खाने से लेकर किताबें छपवाने तक के लिए किया जा सके। ज़िंदगी उनके लिए प्रयोगशाला न होकर दलाली का अड्डा बन जाए। वो कृष्ण पक्ष में जिसके पीठ पीछे गालियां बकते रहें, जिनके खिलाफ उसूलों की दुहाई देते रहें, शुक्ल पक्ष में उनके साथ किट्टी पार्टियां करें, साहित्यिक विमर्श करें, एक-दूसरे की शादियों में लिफाफे लेकर जाएं और 'दोस्ती' के गाने साथ में गुनगुनाने लगें। वो रात को सोने से पहले एक गिलास गरम दूध पिएं, बुद्धिजीवी कहे जाएं और नए सांपों को अपनी तरह का बनाते जाएं। एक दिन वो और उनकी पाली-पोसी नई पीढी महान हो जाएं।

ऐसे कई नाम याद आ रहे हैं, जिनका नाम ले-लेकर ज़िक्र करने और ग़ुस्सा उतारने का मन हो रहा है, मगर इसमें कैरियर का नुकसान भी है और जान जाने का ख़तरा भी। बुद्धिजीवियों के गिरोह किसी आतंकवादी गिरोह से कहीं ज़्यादा ख़तरनाक होते हैँ। ये बात पूरे होशोहवास में कह रहा हूं और इसका हर जीवित व्यक्ति,कहानी या घटना से पूरा संबंध है। किसी भी हालत में इसे संयोग न समझा जाए।

निखिल आनंद गिरि

शनिवार, 4 मई 2013

धूप जब टेढ़ी होती है..

आप कैसे ठीक कह जाते हैं इतना..
कि हम संभालते रहते है हिज्जे..
पूर्ण विराम तक पहुंच नहीं पाते कभी,
सांस उखड़ने लगती है हर बार...

आप तो सांस भी ठीक लेते हैं..
छींकते भी ठीक ही हैं माशाअल्लाह..
महान होना का फायदा यही है,
आप कहीं भी महान बने रह सकते हैं..
मंदिर में, मस्जिद में, शौचालय में भी..
अस्पताल तक में डॉक्टर गर्व से भर जाता है
जब ठीक कर रहा होता है आपके बलतोड़..
कि ये एक महान आदमी का पिछवाड़ा है..

ये जो राजधानी बनी फिरती है..
स्वर्ग की फोटोकॉपी लगती है कभी-कभी..
यहां महान आदमी  विचरते हैं लाल बत्ती में..
धुआं छोडते ग़ायब हो जाते हैं देवता..
आम आदमी भी चलता है यहां आसमान में..
और टोकन लेने पर गायब हो जाता है पसीना..

आप ठीक कहते थे अक्सर
किताबों को उलटते-पलटते..
पुस्तकालय किसी दूसरी ग्रह का शब्द लगता है..
लाइब्रेरी एक आसान शब्द है..
जीभ अटकती नहीं कहीं भी..
महानता का आभास होता है..

धूप जब टेढी होती है..
तीखी और गुस्सैल भी..
आप सूरज से बचकर निकलते हैं..
कोई क्रीम लगाते हैं चेहरे पर..
और सूरज का सामना करने लगते हैं..
हमारे पास सूरज नहीं उतना..
कि हम सामना करें सूरज का..

किसी ने सिखाई ही नहीं ये तमीज़..
कमीज़ पहनना ही काफी नहीं है..
पैंट के भीतर होनी चाहिए कमीज़..
आपने ठीक ही कहा,
जूते पॉलिश होने चाहिए
मगर जूता भी होना चाहिए
पॉलिश के लिए सज्जनों...

हमें सिखलाया गया था रंग के बारे में..
कि ख़ून और पानी दो अलग रंग हैं..
पानी बहता है तो खुशी आती है..
खून बहता है तो खुशी जाती है..

आपको क्या सिखलाया गया था..
कौन-सी किताबें पढी थी आपने..
कि प्यास ख़ून से बुझती है..
और पानी बहता है पैसे की तरह ..
खून के धब्बे मिटाने में..
चाहे धब्बा कितना भी पुराना क्यों न हो...

चौरासी या दो हजार दो के धब्बे,
मिटाए जा सकते हैं अदालतों में...
तीस-चालीस-हजार बरस बाद भी..

निखिल आनंद गिरि

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मृत्यु की याद में

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