शनिवार, 23 जून 2012

कल सपने में आई थी पुलिस...

इधर कुछ दिनों से..
डरावनी हो गईं है मेरी सुबहें...

कल सपने में अचानक बज उठा सायरन,
और मैंने देखा सुबह मेरे घर पुलिस आई थी
मुझे ठीक तरह से याद नहीं
कितनी ज़मानत देकर छूटा था मैं सपने में...

वो बरसों पुराना लिफाफा था कोई,
जिन्हें कभी पहुंचना नहीं था मेरे पास
एक डाकिया आया था कल रात सपने में
सपने में ही आते हैं ख़त आजकल...

कल सपने मे मुझे डांटने का मन हुआ
बूढ़े होते पिता को...
और मैं सुबह से सोचता रहा
मुझे मौत कब आएगी..

अचानक सपने में कोई मर रहा था प्यास से
और मैंने उसे दिखाए समंदर
जिनका रंग ख़ून की तरह लाल था...
मगर फिर भी वो प्यास बुझाकर खुश था...

हां, एक सपना भूख की शक्ल का भी था
जब तुमने इत्मीनान से पकाई थी खिचड़ी
और आधा ही खाकर आ गई मुझे नींद...
मैं भूख से इतना खुश पहले कभी नहीं हुआ,

मैं सच कहता हूं, एकदम सच...
मुझे रात भर नींद नहीं आती आजकल
मगर सपने आते हैं बेहिसाब
सपनों में रोज़ आती है पुलिस
रोज़ आते हैं पिता
और रोज़ आती है प्यास
जिसका रंग लाल है...

वो दफ्तर जहां मेरे पिता जाते हैं हर साल
ये साबित करने कि वो ज़िंदा हैं..
सुना किसी अफसर से लड़ गया था कोई आम आदमी
तब से हर किसी की तलाशी लेता है बेचारा गार्ड

यहां कवियों की भी तलाशी ली जाती है
और इसी बात पर मन करता है
कि अगर नहीं छूटती मुल्क से गुलामी
तो क्यों ने छोड़ दिया जाए मुल्क ही
और उड़ कर भाग जाएं सिंगापुर...
जब जेब में हों इत्ते भर पैसे...
कि भागकर लौटा न जा सके...

निखिल आनंद गिरि

शनिवार, 16 जून 2012

फादर्स डे पर 'फरारी का सवारी' कर आइए...

अगर आप मेरी उम्र में हैं तो मुझे पक्का यक़ीन है कि आपको याद नहीं आपने आख़िरी बार अपने पिता से ज़िद करके अपनी कोई डिमांड कब पूरी की है। कई बार कहते-कहते ज़ुबान लड़खड़ा जाती है क्योंकि हमें लगने लगता है कि हम बड़े हो गए हैं और पिता बूढ़े। हालांकि, ये अंतर पहले भी था लेकिन पहले आप बचपन में थे और पिता युवा। तो ये बचपन बड़ा निर्दोष होता है, जो आपसे ज़िद करवाता है, आपके युवा पिता को लंबी उम्र देता है और हमें भूलने की आदत।

शहरों में कमाने-खाने (नाम कमाना भी शामिल) आए हम जैसों के लिए पिता को तीन घंटे लगातार याद करना पसंदीदा हॉबी नहीं रही। इससे बेहतर हम कहीं फोन या फेसबुक या किसी मॉल में वक्त गुज़ार  देना चाहते हैं। ऐसे ही दर्शकों के लिए विधु विनोद चोपड़ा उन्हीं मॉल्स के भीतर 'फरारी की सवारी' लेकर आए हैं।निर्देशन उनका नहीं है, मगर छाप पूरी है। फिल्म की कहानी से लेकर किरदार 'फादर्स डे' वाली पीढ़ी के लिए ही गढ़े गए लगते हैं। मगर, हर तरह का दर्शक एक बार ये फिल्म ज़रूर देख सकता है।

आपको ताज्जुब हो सकता है कि फिल्म में कोई हीरोइन नहीं है, मगर इसमें ताज्जुब जैसी कोई बात होनी नहीं चाहिए। 'उड़ान' को अब तक आप भूले नहीं होंगे। वो भी बिना हीरोइन के, एक बाप-बेटे वाली ही कहानी थी, मगर इस वाली कहानी से बिल्कुल अलग। वहां बेटा बाप से पीछा छुड़ाकर भाग रहा होता है और यहां बाप बेटे की हर खुशी के लिए भाग रहा होता है। हालांकि, उड़ान का स्तर इस फिल्म से बहुत आगे का था। वो एक चुप-सी गंभीर कविता थी और ये किसी बच्चे की ज़ुबान से बोलती हुई भोली कविता।

'फरारी की सवारी' देखना इसीलिए ज़रूरी है क्योंकि इस फिल्म के पास हमारे समाज ढेरों उम्मीदें हैं। वो चाहती है कि हम किसी के देखे बगैर भी ट्रैफिक सिग्नल तोड़ें, तो जुर्माना ज़रूर भरें। वो चाहती है कि कर्ज़ का इंतज़ाम  उनके लिए सबसे ज़्यादा होने चाहिए जिन्हें सचमुच इसकी ज़रूरत है। जिनकी सैलरी पहले ही ज़्यादा है, उसे कर्ज़ की क्या ज़रूरत। हमारे आदर्शों को ऐसे भोलेपन के साथ फिल्म में रखा गया है कि आपको ये बच्चों की फिल्म लग सकती है। ऐसी आदर्श दुनिया का ख़याल भी सचमुच बचपना ही लगता है, मगर थ्री इडियट्स जैसी स्टारकास्ट के साथ फिल्म बना चुके विधु एक नए निर्देशक राजेश मपुस्कर के साथ अगर भोली फिल्मों पर पैसा लगाने को तैयार हैं, तो उन्हें दाद देने हॉल ज़रूर जाना चाहिए। असली दुनिया में इस आइडियलिज़्म और फीलगुड की तलाश एक बेहतर सिनेमा ही कर सकता है। क्रेडिट कार्ड और नेटबैंकिग के ज़माने में गुल्लक फोड़कर बेटे की खुशी के लिए पैसे इकट्ठा करता मुंबई का एक पिता एक फिल्म की कल्पना में ही मिल सकता है।

क्रिकेट और इससे जुड़े तमाम सपनों को लेकर 'फरारी की सवारी' उतनी ही चंचल फिल्म है, जितना एक बच्चे की नज़र से हो सकती है। शरमन जोशी, बोमन इरानी और नन्हें कलाकार ऋत्विक की तिकड़ी ने इतना इमानदार अभिनय किया है कि आप थोड़े वक्त के लिए बिना किसी अन्ना इफेक्ट के लिए इमानदार होना चाहेंगे। विद्या बालन के नाम एक मराठी लावणी आइटम सांग है, जिसे आप देखना चाहेंगे। लगभग सवा दो घंटे की फिल्म होशियार हो चुके दर्शकों के लिए थोड़ा बोरिंग ज़रूर हो सकती है, मगर बाप-बेटे की दो जोड़ियों (शरमन और ऋत्विक, बोमन और शरमन) के बीच आपको एक न एक बार अपने पिता ज़रूर याद आएंगे। अगले हफ्ते आ रही 'गैंग्स ऑफ वासेपुर' जैसी लाउड फिल्म से पहले मन के भीतर का शोर कम करना बेहद ज़रूरी है।

निखिल आनंद गिरि

सोमवार, 11 जून 2012

वो इंपोर्टेड कमरिया 'शांघाई' की है, भारत माता की नहीं!

यूं तो हिंदी सिनेमा में कहानियों के नाम पर वही फॉर्मूले बार-बार नये पैकेज में परोसे जाते रहे हैं, मगर दिबाकर बनर्जी हमारे दौर के सबसे अच्छे फिल्म निर्देशकों में इसीलिए हैं क्योंकि वो उस फॉर्मूले की पैकेजिंग हमारे समय को समझते हुए कर पाते हैं। उनकी कहानियों में हमारे समय की राजनीति है, उसका ओछापन है, साज़िशें हैं, बुझा हुआ शाइनिंग इंडिया है और चकाचक शहरों के नाम पर होनेवाली हत्याएं और अरबों का दोगलापन भी है। उनकी नई फिल्म ‘’शांघाई’’ में भी वही सब है। हर दौर में ऐसे निर्देशक रहे हैं जिन्होंने अपने समय को पर्दे पर उतारा है, मगर दिबाकर उनसे अलग इसलिए हैं कि अब ऐसा कर पाना साहस का काम है। अब राउडी राठौर, दबंग और झंडू गानों का ज़माना है। और ऐसे में अपने आसपास के समाज को पर्दे पर सीधा-सपाट देखने का रिस्क उठाने वाले बहुत कम हैं। इसी चक्कर में शांघाई महान फिल्म नहीं बन पाई क्योंकि उसे सच को एक ऐसे रैपर में पैक करना था कि हॉल तक दर्शक आएं और बस्तियों या गांवों तक न सही, फेसबुक और ट्विटर तक बात पहुंच सके। दरअसल, ये निर्देशक की नहीं, हमारी कमज़ोरी है कि हम इसी तरह की स्पूनफीडिंग के आदी हैं। जिसमें एक बड़े राजनैतिक षडयंत्र के फ्रेम से छोटी सी उपकथा निकाली जाए और फिर बच्चों की तरह एक-एक हिस्सा साफ-साफ समझाया जाए।

दरअसल, ये फिल्म उन दौड़ती सड़कों के किनारे लगे होर्डिंग्स की जगह टांग दी जानी चाहिए जहां आशियाना से लेकर आम्रपाली तक के एमआईजी या एलआईजी अपार्टमेंट्स आपको लुभाते रहते हैं। ताकि काले शीशे में उधर से गुज़र रही सॉफ्टस्पोकन आबादी को अहसास हो कि वो जिन नए विश्वकर्माओं की शरण में हैं, उनके हाथ दरअसल कई रंग के ख़ून से सने हुए हैं। या फिर, उन छोटी बस्तियों में सेक्स के इश्तेहार वाली उन दीवारों की जगह जहां सोने-चांदी के शहर बसाने वाले मजदूर आज तक अपनी झोपड़पट्टी से आगे नहीं बढ़ पाए। ताकि उन्हें एहसास हो कि वो जिनके लिए अपना ख़ून-पसीना एक कर रहे हैं, वही एक दिन शहर में कर्फ्यू के नाम पर उन्हें  ढूंढ-ढूंढ कर मार डालेंगे।  

पिछले साल अक्टूबर में पंकज सुबीर की एक कहानी पढ़ी थी। इस लंबी कहानी में रामभरोसे छोड़े गए एक शहर की उस रात का ज़िक्र था जब किसानों की आत्महत्याएं रोकने के लिए सूबे के शासकों की प्रायोजित एक हाईप्रोफाइल रामकथा चल रही थी और इसी शंखध्वनि और भक्तिपूर्ण माहौल में एक हत्या इतनी शांति से हुई कि किसी के कानों तक मरनेवालों की उफ तक नहीं पहुंची। तब ये कहानी उतनी अच्छी नहीं लगी, मगर अब लगता है यही कहानी दिबाकर के ज़ेहन में चेहरा बदलकर उतर गई हो। अब लगता है कि ऐसी कहानियां बार-बार अलग-अलग मीडियम से हमारी आंखों के आगे घूमती रहें ताकि हमारी नींद में लोकतांत्रिक ख़लल पड़ती रहे।

कहानी के नाम पर ऐसा कुछ नया नहीं है, जो आपको दोबारा बताया जाए। सेलेब्रिटी आंदोलनों के दौर में आप और हम जिस करप्शन को पासवर्ड की तरह कंठस्थ कर चुके हैं, उसी का एक फिल्मीकरण भर है शंघाई। एक बहुत साधारण सी मर्डर मिस्ट्री जिसे फिल्म के आखिर-आखिर तक सुलझना ही है। मगर, इस कहानी में अच्छाई ये है कि इसके किरदार हमारे असली समाज से हैं। नाम बदल दिए जाएं तो आप इन किरदारों को अपने-अपने घरों में आसानी से पहचान सकते हैं। ये वही चेहरे हैं जो टीवी कैमरों के आगे अलग-अलग झंडों के साथ हमारा हमदर्द होने का भ्रम पैदा करते हैं। और कैमरा ऑफ होते ही अपनी-अपनी मां-बहनों के रेट तय करने लगते हैं। फिल्म में बस इतनी ही चतुराई बरती गई है कि कैमरा ऑफ कर दिया गया है, मगर साउंड रिकॉर्डिंग ऑन ही रह गई है। बस इसी के ज़रिए आप और हम सब कुछ सुन-समझ पाते हैं कि कैसे हमारी लाशों के टेंडर लग रहे हैं और हम खुशी-खुशी अपनी कब्रगाहों में गृहप्रवेश के शंख बजा रहे हैं। इससे ज़्यादा एक फिल्म से उम्मीद भी क्या कर सकते हैं।

फिल्म की कहानी पूरी तरह से फिल्मी और पुरानी भी है, मगर सुख इस बात का है कि आप मज़ा लेने के लिए एक राउडी राठौर (इन जैसी सभी फिल्मों के लिए विशेषण) नहीं, वो कहानी देख रहे हैं, जिसमें आप भी शामिल हैं। एक लड़की के हाथ में सिस्टम को नंगा कर देने वाली सीडी है। वो ऑफिसर तक बदहवास पहुंचती है। ऑफिसर कल वक्त पर ऑफिस में आने को कहकर लौटा रहा होता है, मगर फिर दोनों डर जाते हैं कि कल तक वो लड़की बचे न बचे। क्या हम और आप इस डर के साथ रोज़ नहीं जीते कि क्या पता हम जहां पहुंचना चाहते हैं, वहां हमसे पहले हमारी लाशें न पहुंच जाएं।

शांघाई ज़रूर देखिए। आप राजनैतिक तौर से स्वदेशी विकास के एजेंडे को मानते हों कि ग्लोबलाइज़ेशन के एजेंडे को, इस फिल्म में सबकी हक़ीक़त साफ दिखेगी। एक्टिंग के नाम पर कट्टर राजपूत बने इमरान हाशमी तक को चुम्मा लेने की इजाज़त नहीं है, इसीलिए आप बोर हो सकते हैं। मगर, आप ये ज़रूर जानना चाहेंगे कि आपके हत्यारे कौन हो सकते हैं। और हां, अगर कहीं मरने की आज़ादी हो तो किसी रोशनी वाली जगह में ही मरें वरना शहरों में कई लाशें पहचानने के लिए पुलिस के पास पर्याप्त लाइट तक नहीं होती।

फिल्म के गीतों ने बहुत दिनों बाद देशभक्ति गीतों का एक ख़ास पैटर्न समझने में मदद की है। एक वो दौर था जब संतोष आनंद की कलम के बूते भारत कुमार उर्फ मनोज कुमार मुंह को हाथ से छिपाकर, देशभक्तों को आवाज़ देते थे। फिर सन्नी देओल का दौर भी आया जब चीख-चीख कर ‘’मेरा भारत महान’’ हमारे कानों में उतार दिया गया। और तो और सलमान खान ने नचनिया बनकर भी ''ईस्ट या वेस्ट, इंडिया इज़ द बेस्ट'' का नारा दिया। मगर, उसके ठीक उलट इंडिया बना परदेसके बैनर तले अब इंपोर्टेड कमरिया लेकर नचनिया कमर मटका रही है। मगर, इत्मीनान रखिए, पिज़्जा-पॉपकॉर्न खाइए, ये कमर ‘’शांघाई’’ की है, भारत माता की नहीं। 
डेंगू, मलेरिया..सोने की चिड़िया...बोलो, बोलो, बोलो...भारत माता की जय...
निखिल आनंद गिरि

शनिवार, 2 जून 2012

मैं एक कूटभाषा में लड़ना चाहता हूं...

मुझे रह-रह कर अपना बचपन याद आ रहा है। एक स्कूल जहां रिक्शा घंटी बजाता आता तो हम पीछे वाले डिब्बे में बैठ जाते। रिक्शेवाला दरवाज़े की कुंडी लगा देता और हम चुपचाप शोर मचाते स्कूल पहुंच जाते। कोई हाय-हल्लो या हैंडशेक नहीं। सीधे-सीधे आंखो वाली पहचान। हम रिक्शे में बैठे होते और रास्ते के किनारे एक टूटी-सी कंटेसा कार खड़ी होती। हम रोज़ उसे देखा करते। वो कार आज कहीं नहीं दिखती, मगर वो है कहीं न कहीं। ऐसे फॉर्म (आकार) में नहीं कि उसे छू सकें, देख सकें, मगर एकदम आसपास है। ये कोड लैंग्वेज (कूटभाषा) बचपन की विरासत है हमारे साथ जो हर अच्छे-बुरे वक्त में काम आती है।

मेट्रो में एक चेहरे को देखकर मेरी निगाहें रुक गई हैं। उसके चेहरे में मेरी पहचान का कोई पुराना चेहरा नज़र आ रहा है। वो मुझसे कई क़दम के फासले पर है। मैं उसकी आवाज़ नहीं सुन सकता। मगर, वो चेहरा कुछ कह रहा है। मैं उसे एकटक देख रहा हूं। सामने एक आदमी आकर खड़ा हो गया है। हालांकि, उससे मेरी कोई पहचान नहीं है। मगर, उससे मुझे चिढ हो गई है। फिर कई सारे आदमी सामने आ गए हैं। मैं सबसे चिढ़ने लगा हूं। एक रिश्ते को ढंक दिया है इन सारे अनजान आदमियों ने, जिनसे दूर-दूर तक कोई रिश्ता नहीं। मैं अगर लड़ना भी चाहूं तो किससे लड़ूं। किस कूटभाषा में लड़ूं। क्या लड़ाईयों की कूटभाषा नहीं होती।

स्कूल की एसेंबली में एक लड़की याद आती है। मुझसे बहुत लंबी। दरअसल, मैं ही क्लास में सबसे छोटा। क्लास की लाइन में मेरा हाथ पकड़कर सबसे आगे करती हुई। फिर चुपचाप लाइन में सबसे पीछे जाकर खड़ी होती। उसके सीने पर दाहिनी ओर मॉनिटर लिखा  हुआ। प्रार्थना शुरू होती तो मैं सबकी आंखे देखता, जो मुंदी हुई होतीं। मेरी आंखें लाइन में पीछे मुड़तीं। सबसे पीछे तक। वो लड़की अपने हाथ जोड़े, मगर आंखें खुली हुई। हम एक कूटभाषा में आज भी बात करते हैं, पता नहीं वो समझ पाती है कि नहीं।

मैं अब भी वो कूटभाषा सीख रहा हूं जब कीबोर्ड की दो बूंदों वाला एक बटन किसी ब्रैकेट वाले दूसरे बटन के साथ जुगलबंदी कर ले तो हम मुस्कुराने (स्माइली) लगते हैं या फिर उदास दिखने लगते हैं।  क्या ज़िंदगी में ऐसा नहीं हो सकता। हम जिन्हें चाहते हैं, वो दिखें, न दिखें। मिलें, न मिलें। बात करें, न करें। बस इतना कि ज़िंदगी में उनकी मौजूदगी का एहसास बना रहे। किसी भी आकार में। सॉलिड में न सही, लिक्विड या गैस में ही सही।

निखिल आनंद गिरि

रविवार, 27 मई 2012

वो मेरी चुप्पियां भी सुनता था...

मैंने सब जुर्म याद रखे हैं...
मैंने सब कटघरे सजाए हैं...
कोई तो आए, सज़ा दे मुझको...

लोग कहते हैं अजब पूनम है...
चांद सूजा हुआ-सा लगता है...
तुमने फिर नींद की गोली ली क्या?

मैंने दुनिया से कुछ कहा भी नहीं
जाने क्या उसने सुना, रुठ गया...
वो मेरी चुप्पियां भी सुनता था...

देखो ना रिस रहा है आंखो से
एक रिश्ता कोई हौले-हौले
कोई 'चश्मा' भी नहीं आखों में !!

मैंने हर खिड़की खुली रखी है..
कोई परवाज़ भरे, लौट आए...
कल से हड़ताल है उड़ानों की...

मैं बुरा हूं तो मैं बुरा ही सही
आप अच्छे हैं, मगर भूल गए...
हमने बदले थे आईने कभी...

सारे आंसू नए, मुस्कान नई
ज़िंदगी में नया-नया सब कुछ..
बस कि गुम हैं पुराने कंधे...

होंठ सिलकर ज़बान की तह में
मैंने एक सच छिपाए रखा था
रात उसने ली आखिरी सांसे...

एक दिन ऐसे टूट कर रोये,
गुमशुदा हो गया ख़ुदा मेरा...
हम भी आंखों में ख़ुदा रखते थे...

निखिल आनंद गिरि

रविवार, 20 मई 2012

''मेरे पास स्पर्म है....''

हिंदी सिनेमा की वीर्य-गाथा...'विकी डोनर'
1959 में जेमिनी पिक्चर्स के बैनर तले बनी फिल्म 'पैग़ाम' याद आ रही है। दिलीप कुमार कॉलेज की पढ़ाई में अव्वल होकर घर लौटते हैं और बड़े भाई को सहजता से बताते हैं कि वो पढ़ाई का खर्च निकालने के लिए रिक्शा चलाते हैं। एक पढा-लिखा नौजवान रिक्शा चलाता है, ये सुनकर बड़े भाई (राजकुमार) को जितना ताज्जुब होता है, ठीक वैसा ही ताज्जुब फिल्म विकी डोनर में विकी की बीवी आशिमा रॉय के चेहरे पर देखने को मिला। ये चेहरा उस मॉडर्न कहलाने वाली पीढ़ी का चेहरा कहा जा सकता है, जो आधुनिकता को अश्लीलता की हद तक पचाने को तैयार है, मगर ये नहीं कि इंसान का वीर्य यानी स्पर्म भी बाज़ार का हिस्सा बन सकता है।

विकी डोनर एक ज़रूरी फिल्म है। हिंदी सिनेमा के सौ साल होने पर हमारे बीच ऐसी फिल्में हैं, जानकर गर्व किया जा  सकता है। ये किसी चर्चित मैगज़ीन में छपी उस लघुकथा की तरह है, जिसे पढा जाना मैगज़ीन पढ़े जाने जितना ही ज़रूरी है। पलायन की मारी दिल्ली में किस-किस तरह से प्रेम कहानियां और ज़िंदा रहने की कहानियां सांस लेती हैं, ऐसी फिल्में उन पर किया गया बेहतरीन रिसर्च हैं। इस दौर की कई फिल्मों की सबसे बड़ी उपलब्धि ये है कि वे सीरियस होते हुए भी नारेबाज़ी नहीं करतीं। बेहद हल्की-फुल्की भाषा में बात करती हैं। हमारी-आपकी बोलियों में बात करती हैं।  इसीलिए, हमें अच्छी लगती हैं।

विकी डोनर एक बोल्ड और साहित्यिक फिल्म है। बाज़ार पर इतनी बारीकी से रिसर्च कर बनाई गई फिल्में हमारे सामने कम ही आई हैं। संतान पर होने वाले खर्च और उनसे जुड़ी हमारे मां-बाप की महत्वाकांक्षाएं अब किस स्तर तक पहुंच गई हैं, उसकी बानगी इस फिल्म में है। वो औलाद के पैदा होने से पहले ही उसका करियर तय कर देना चाहते हैं। अगर संतान के लिए बेहतर स्कूल, बेहतर कपड़े, बेहतर सोसाइटी, बेहतर भाषा ख़रीदकर एक 'प्रोडक्टिव कमोडिटी' (आप इसे 'कमाऊ पूत' पढ़ सकते हैं) तैयार की जा सकती है, तो क्यों न सबसे बेहतर स्पर्म (वीर्य) ही ख़रीद लिया जाए ताकि प्रोडक्ट की वैल्यू बढाई जा सके। क्यों कोचिंग संस्थानों को डोनेशन दिये जाएं कि अच्छा इंजीनियर या डॉक्टर या आईपीएस बना दो। सीधा स्पर्म ही ख़रीद लेते हैं जो शर्तिया क्रिकेटर ही बने, या वो जो भी मां-बाप चाहते हैँ। एक सौ फीसदी तय कमाऊ पूत पर ममता लुटाने का मज़ा ही कुछ और है।

अगर आप दिल्ली की किसी सोसाइटी में ही ''जन्मे और पाले-पोसे'' (BORN n BROUGHT UP) नहीं गए हैं और फिर भी दिल्ली का हिस्सा हैं, तो विकी डोनर आपकी भी कहानी हो सकती है। दिल्ली की प्रेम कहानियां कितने विकल्पों और बेफिक्री के साथ हर मोहल्ले में मिलती हैं, यहां उसका भी ज़िक्र है। पड़ोस की बड़ी होती, शोर की हद तक बात करती 'दिल्ली वाली लड़की' विकी पर बिना नियम-शर्त ''मर-मिटने'' को आतुर है, मगर विकी एक बंगाली चेहरे में ''शांतिनिकेतन'' ढूंढ रहा है। तो ऐसे में दिल्ली की लड़की का दिल नहीं टूटता। वो उसके सीने पर चढ़ कर बोलती है, इस ग़लतफहमी में मत रहियो कि तू ही एक है.....बहुत हैं लाइन देने वाले...ये इक्कीसवीं सदी के प्यार का वो स्वाद है जिसे दिल्ली के मोहल्लों से होते हुए देश भर के प्रेमी अब चखने लगे हैं। और हां, इस  विकी डोनर की प्रेमकहानी में फेसबुक भी है, इसीलिए हर हाल में ये हमारी ही प्रतिनिधि कहानी ही है।

जिस तरह दिल्ली में हर तीसरा आदमी प्रॉपर्टी डीलर है और ये मानकर चलता है कि वो शकल देखकर पहचान सकता है हर किसी को यहां ज़मीन या फ्लैट की दरकार है, ठीक उसी तर्ज़ पर  एक प्रोफेशनल ''स्पर्म  डीलर '' भल्ला (अनु कपूर) भी ''शकल देखकर बंदे का स्पर्म पहचान जाता हूं..'' कहते हुए जिस तरह के भाव चेहरे पर लाता है, वो खालिस दिल्ली के मर्द की बॉडी लैंग्वेज है। ये मर्द मॉडर्न दिखता ज़रूर है, मगर हर किसी को अपने गुमान भरे चश्मे से नाप सकता है। उसे गुमान है कि उसे अपने आस-पास की वक्त की पहचान ही नहीं है, वो उसे किसी भी क़ीमत पर ख़रीद भी सकता है। और एक पहलू से देखें तो ये सच भी है। दिल्ली के शाहरुख  खान जब से मुंबई के वानखेड़े स्टेडियम में ''मर्दानगी'' दिखाकर आए हैं, तब से एक ही जुमला मन  में घूम रहा है। आप किसी आदमी को दिल्ली से बाहर कर सकते हैं मगर किसी आदमी के भीतर से 'दिल्ली' को बाहर नहीं कर सकते।

मेर भीतर भी एक दिल्ली घुसपैठ कर गई है। न मैं इसमें से बाहर आना चाहता हूं, न ये मुझसे निकलना चाहती है। इस फिल्म में भी दिल्ली सिर्फ पर्दे के भीतर नहीं है। वो अचानक बाहर भी निकल आती है।
लगता ही नहीं कि अन्नू कपूर और आयुष्मान को हम किसी फिल्म के भीतर देख रहे हैं। लगता है वो हमारे मोहल्लों के आसपास ही हैं। किसी बालकनी से ताकते मिल जाएंगे। जिस बालकनी के नीचे एक बोर्ड लगा होगा 'स्पर्म ही स्पर्म'। दिल्ली के रास्ते एक दिन ये बिज़नेस हमारे बचे-खुचे गांवों तक भी पहुंच जाएगा जहां स्पर्म की टोकरी सिर पर लादे कोई आवाज़ लगा रहा होगा, 'स्पर्म ले लो, स्पर्म। एकदम ताज़ा स्पर्म ले लो भाई....''

निखिल आनंद गिरि

रविवार, 13 मई 2012

गौरव सोलंकी को गुस्सा क्यों आता है ?

गौरव सोलंकी को तब से जानता हूं, जब वो सिर्फ एक इंजीनियर थे। सिर्फ एक कवि थे! लोकप्रिय बाद में हुए। और कहानीकार उसके भी बाद हुए। हिंदी सेवा के नाम पर कमाने-खाने वाली एक वेबसाइट 'हिंदयुग्म' के स्वघोषित ''सीईओ'' शैलेश के साथ गौरव और मैं लंबे वक्त तक साथ रहे। आज गौरव का नाम हिंदी साहित्य के चर्चित युवा साहित्यकारों में शुमार है। हिंदी साहित्य और सिनेमा के  प्रति उनकी ईमानदारी समझने के लिए इतना बताना ही काफी है कि आईआईटी से पढ़ाई पूरी करने के बाद उन्होंने अपने जुनून को समय देने के लिए एक 'अच्छी-खासी' नौकरी से तौबा कर ली। मगर हिंदी साहित्य के मठों ने उन्हें क्या दिया, ये इस लेख को पढ़कर समझिए। ये भारतीय ज्ञानपीठ को लिखा गया 
एक पत्र है, जिसे गौरव सोलंकी ने लिखा है। 
इस ख़त के गुस्से में मुझे भी शामिल समझिए।

आदरणीय ...... ,
भारतीय ज्ञानपीठ
खाली स्थान इसलिए कि मैं नहीं जानता कि भारतीय ज्ञानपीठ में इतना ज़िम्मेदार कौन है जिसे पत्र में सम्बोधित किया जा सके और जो जवाब देने की ज़हमत उठाए. पिछले तीन महीनों में मैंने इस खाली स्थान में कई बार निदेशक श्री रवीन्द्र कालिया का नाम भी लिखा और ट्रस्टी श्री आलोक जैन का भी, लेकिन नतीजा वही. ढाक का एक भी पात नहीं. मेरे यहां सन्नाटा और शायद आपके यहां अट्टहास.
खैर, कहानी यह जो आपसे बेहतर कौन जानता होगा लेकिन फिर भी दोहरा रहा हूं ताकि सनद रहे.
पिछले साल मुझे मेरी कविता की किताब ‘सौ साल फिदा’ के लिए भारतीय ज्ञानपीठ ने नवलेखन पुरस्कार देने की घोषणा की थी और उसी ज्यूरी ने सिफारिश की थी कि मेरी कहानी की किताब ‘सूरज कितना कम’ भी छापी जाए. जून, 2011 में हुई उस घोषणा से करीब नौ-दस महीने पहले से मेरी कहानी की किताब की पांडुलिपि आपके पास थी, जो पहले एक बार ‘अज्ञात’ कारणों से गुम हो गई थी और ऐन वक्त पर किसी तरह पता चलने पर मैंने फिर जमा की थी.
मां-बहन को कम से कम यह तो खुद तय करने दीजिए कि वे क्या पढ़ें या क्या नहीं. उन्हें आपके इस उपकार की ज़रूरत नहीं है. उन्हें उनके हाल पर छोड़ दीजिए. उन्हें यह 'अश्लीलता' पढ़ने दीजिए कि कैसे एक कहानी की नायिका अपना बलात्कार करने वाले पिता को मार डालती है. लेकिन मैं जानता हूं कि इसी से आप डरते हैं
ख़ैर, मार्च में कविता की किताब छपी और उसके साथ बाकी पांच लेखकों की पांच किताबें भी छपीं, जिन्हें पुरस्कार मिले थे या ज्यूरी ने संस्तुत किया था. सातवीं किताब यानी मेरा कहानी-संग्रह हर तरह से तैयार था और उसे नहीं छापा गया. कारण कोई नहीं. पन्द्रह दिन तक मैं लगातार फ़ोन करता हूं और आपके दफ़्तर में किसी को नहीं मालूम कि वह किताब क्यों नहीं छपी. आखिर पन्द्रह दिन बाद रवीन्द्र कालिया और प्रकाशन अधिकारी गुलाबचन्द्र जैन कहते हैं कि उसमें कुछ अश्लील है. मैं पूछता हूं कि क्या, तो दोनों कहते हैं कि हमें नहीं मालूम. फिर एक दिन गुलाबचन्द्र जैन कहते हैं कि किताब वापस ले लीजिए, यहां नहीं छप पाएगी. मैं हैरान. दो साल पांडुलिपि रखने और ज्यूरी द्वारा चुने जाने के बाद अचानक यह क्यों? मैं कालिया जी को ईमेल लिखता हूं. वे जवाब में फ़ोन करते हैं और कहते हैं कि चिंता की कोई बात नहीं है, बस एक कहानी 'ग्यारहवीं ए के लड़के' की कुछ लाइनें ज्ञानपीठ की मर्यादा के अनुकूल नहीं है. ठीक है, आपकी मर्यादा तो आप ही तय करेंगे, इसलिए मैं कहता हूं कि मैं उस कहानी को फ़िलहाल इस संग्रह से हटाने को तैयार हूं. वे कहते हैं कि फिर किताब छप जाएगी.
लेकिन रहस्यमयी ढंग से फिर भी ‘कभी हां कभी ना कभी चुप्पी’ का यह बेवजह का चक्र चलता रहता है और आख़िर 30 मार्च को फ़ोन पर कालिया जी कहते हैं कि ज्ञानपीठ के ट्रस्टी आलोक जैन मेरे सामने बैठे हैं और यहां तुम्हारे लिए माहौल बहुत शत्रुतापूर्ण हो गया है, इसलिए मुझे तुम्हें बता देना चाहिए कि तुम्हारी कहानी की किताब नहीं छप पाएगी. मैं हैरान हूं. 'शत्रुतापूर्ण' एक खतरनाक शब्द है और तब और भी खतरनाक, जब 'देश की सबसे बड़ी साहित्यिक संस्था' का मुखिया पहली किताब के इंतज़ार में बैठे एक लेखक के लिए इसे इस्तेमाल करे. मुझसे थोड़े पुराने लेखक ऐसे मौकों पर मुझे चुप रहने की सलाह दिया करते हैं, लेकिन मैं फिर भी पूछता हूं कि क्यों? शत्रुतापूर्ण क्यों? हम यहां कोई महाभारत लड़ रहे हैं क्या? आपका और मेरा तो एक साहित्यिक संस्था और लेखक का रिश्ता भर है. लेकिन इतने में आलोक जैन तेज आवाज में कुछ बोलने लगते हैं. कालिया जी कहते हैं कि चाहे तो सीधे बात कर लो. मैं उनसे पूछता हूं कि क्या कह रहे हैं 'सर'?
तो जो वे बताते हैं, वह यह कि तुम्हारी कहानियां मां-बहन के सामने पढ़ने लायक कहानियां नहीं हैं. आलोक जी को मेरा 'फ्रैंकनैस' पसंद नहीं है, मेरी कहानियां अश्लील हैं. क्या सब की सब? हां, सब की सब. उन्हें तुम्हारे पूरे 'एटीट्यूड' से प्रॉब्लम है और प्रॉब्लम तो उन्हें तुम्हारी कविताओं से भी है, लेकिन अब वह तो छप गई. फ़ोन पर कही गई बातों में जितना अफसोस आ सकता है, वह यहां है. मैं आलोक जी से बात करना चाहता हूं लेकिन वे शायद गुस्से में हैं, या पता नहीं. कालिया जी मुझसे कहते हैं कि मैं क्यों उनसे बात करके खामखां खुद को हर्ट करना चाहता हूं? यह ठीक बात है. हर्ट होना कोई अच्छी बात नहीं. मैं फ़ोन रख देता हूं और सन्न बैठ जाता हूं.
जो वजहें मुझे बताई गईं, वे थीं 'अश्लीलता' और मेरा 'एटीट्यूड'.
अश्लीलता एक दिलचस्प शब्द है. यह हवा की तरह है, इसका अपना कोई आकार नहीं. आप इसे किसी भी खाली जगह पर भर सकते हैं. जैसे आपके लिए फिल्म में चुंबन अश्लील हो सकते हैं और मेरे एक साथी का कहना है कि उसे हिन्दी फिल्मों में चुम्बन की जगह आने वाले फूलों से ज़्यादा अश्लील कुछ नहीं लगता. आप बच्चों के यौन शोषण पर कहानी लिखने वाले किसी भी लेखक को अश्लील कह सकते हैं. क्या इसका अर्थ यह भी नहीं कि आप उस विषय पर बात नहीं होने देना चाहते. आपका यह कृत्य मेरे लिए अश्लील नहीं, आपराधिक है. यह उन लोकप्रिय अखबारों जैसा ही है जो बलात्कार की खबरों को पूरी डीटेल्स के साथ रस लेते हुए छापते हैं, लेकिन कहानी के प्लॉट में सेक्स आ जाने से कहानी उनके लिए अपारिवारिक हो जाती है (मां-बहन के पढ़ने लायक नहीं), बिना यह देखे कि कहानी की नीयत क्या है.
मां-बहन को कम से कम यह तो खुद तय करने दीजिए कि वे क्या पढ़ें या क्या नहीं. उन्हें आपके इस उपकार की ज़रूरत नहीं है. उन्हें उनके हाल पर छोड़ दीजिए. उन्हें यह 'अश्लीलता' पढ़ने दीजिए कि कैसे एक कहानी की नायिका अपना बलात्कार करने वाले पिता को मार डालती है. लेकिन मैं जानता हूं कि इसी से आप डरते हैं.मेरा एक पुराना परिचित कहता था कि वह खूब पॉर्न देखता है, लेकिन अपनी पत्नी को नहीं देखने देता क्योंकि फिर उसके बिगड़ जाने का खतरा रहेगा. क्या यह मां-बहन वाला तर्क वैसा ही नहीं है? अगर हमने उनके लिए दुनिया इतनी ही अच्छी रखी होती तो मुझे ऐसी कहानियां लिखने की नौबत ही कहाँ आती? यह सब कुछ मेरी कहानियों में किसी जादुई दुनिया से नहीं आया, न ही ये नर्क की कहानियां हैं. और अगर ये नर्क की, किसी पतित दुनिया की कहानियां लगती हैं तो वह दुनिया ठीक हम सबके बीच में है. मैं जब आया, मुझे दुनिया ऐसी ही मिली, अपने तमाम कांटों, बेरहमी और बदसूरती के साथ. आप चाहते हैं कि उसे इगनोर किया जाए. मुझे सच से बचना नहीं आता, न ही मैंने आपकी तरह उसके तरीके ईज़ाद किए हैं. सच मुझे परेशान करता है, आपको कैसे बताऊं कि कैसे ये कहानियां मुझे चीरकर, रुलाकर, तोड़कर, घसीटकर आधी रात या भरी दोपहर बाहर आती हैं और कांच की तरह बिखर जाती हैं. मेरी ग़लती बस इतनी है कि उस कांच को बयान करते हुए मैं कोमलता और तथाकथित सभ्यता का ख़याल नहीं रख पाता. रखना चाहता भी नहीं.
आख़िर 30 मार्च को फ़ोन पर कालिया जी कहते हैं कि ज्ञानपीठ के ट्रस्टी आलोक जैन मेरे सामने बैठे हैं और यहां तुम्हारे लिए माहौल बहुत शत्रुतापूर्ण हो गया है
लेकिन इसी बीच मुझे याद आता है कि भारतीय ज्ञानपीठ में 'अभिव्यक्ति' की तो इतनी आज़ादी रही कि पिछले साल ही 'नया ज्ञानोदय' में छपे एक इंटरव्यू में लेखिकाओं के लिए कहे गए 'छिनाल' शब्द को भी काटने के काबिल नहीं समझा गया. मेरी जिस कहानी पर आपत्ति थी, वह भी 'नया ज्ञानोदय' में ही छपी थी और तब संपादकीय में भी कालिया जी ने उसके लिए मेरी प्रशंसा की थी. मैं सच में दुखी हूं, अगर उस कहानी से ज्ञानपीठ की मर्यादा को धक्का लगता है. लेकिन मुझे ज़्यादा दुख इस बात से है कि पहले पत्रिका में छापते हुए इस बात के बारे में सोचा तक नहीं गया. लेकिन तब नहीं, तो अब मेरे साथ ऐसा क्यों? यहां मुझे खुद पर लगा दूसरा आरोप याद आता है- मेरा एटीट्यूड.
मुझे नहीं याद कि मैं किसी काम के अलावा एकाध बार से ज़्यादा ज्ञानपीठ के दफ़्तर आया होऊं. मुझे फ़ोन वोन करना भी पसंद नहीं, इसलिए न ही मैंने 'कैसे हैं सर, आप बहुत अच्छे लेखक, संपादक और ईश्वर हैं' कहने के लिए कभी कालिया जी को फ़ोन किया, न ही आलोक जी को. यह भी गलत बात है वैसे. बहुत से लेखक हैं, जो हर हफ़्ते आप जैसे बड़े लोगों को फ़ोन करते हैं, मिलने आते हैं, आपके सब तरह के चुटकुलों पर देर तक हँसते हैं, और ऐसे में मेरी किताब छपे, पुरस्कार मिले, यह कहाँ का इंसाफ़ हुआ? माना कि ज्यूरी ने मुझे चुना लेकिन आप ही बताइए, आपके यहाँ दिखावे के अलावा उसका कोई महत्व है क्या?
ऊपर से नीम चढ़ा करेला यह कि मैंने हिन्दी साहित्य की गुटबाजियों और राजनीति पर अपने अनुभवों से 'तहलका' में एक लेख लिखा. वह शायद बुरा लग गया होगा. और इसके बाद मैंने ज्ञानपीठ में नौकरी करने वाले और कालिया जी के लाड़ले 'राजकुमार' लेखक कुणाल सिंह को नाराज कर दिया. मुझे पुरस्कार मिलने की घोषणा होने के दो-एक दिन बाद ही कुणाल ने एक रात शराब पीकर फ़ोन किया था और बदतमीजी की थी. उस किस्से को इससे ज़्यादा बताने के लिए मुझे इस पत्र में काफ़ी गिरना पड़ेगा, जो मैं नहीं चाहता. ख़ैर, यही बताना काफ़ी है कि हमारी फिर कभी बात नहीं हुई और मैं अपनी कहानी की किताब को लेकर तभी से चिंतित था क्योंकि ज्ञानपीठ में कहानी-संग्रहों का काम वही देख रहे थे. मैंने अपनी चिंता कालिया जी को बताई भी, लेकिन ज़ाहिर सी बात है कि उससे कुछ हुआ नहीं.
वैसे वे सब बदतमीजी करें और आप सहन न करें, यह तो अपराध है ना? वे राजा-राजकुमार हैं और आपका फ़र्ज़ है कि वे आपको अपमानित करें तो बदले में आप 'सॉरी' बोलें. यह अश्लील कहाँ है? ज्ञानपीठ इन्हीं सब चीजों के लिए तो बनाया गया है शायद! हमें चाहिए कि आप सबको सम्मान की नज़रों से देखें, अपनी कहानियां लिखें और तमाम राजाओं-राजकुमारों को खुश रखें. मेरे साथ के बहुत से काबिल-नाकाबिल लेखक ऐसा ही कर भी रहे हैं. ज्ञानपीठ से ही छपे एक युवा लेखक हैं जिन पर कालिया जी और कुणाल को नाराज़ कर देने का फ़ोबिया इस कदर बैठा हुआ है कि दोनों में से किसी का भी नाम लेते ही पूछते हैं कि कहीं मैं फ़ोन पर उनकी बातें रिकॉर्ड तो नहीं कर रहा और फिर काट देते हैं. अब ऐसे में क्या लिक्खा जाएगा? हम बात करते हैं अभिव्यक्ति, ग्लोबलाइजेशन और मानवाधिकारों की.
ख़ैर, राजकुमार चाहते रहे हैं कि वे किसी से नाराज़ हों तो उसे कुचल डालें. चाहना भी चाहिए. यही तो राजकुमारों को शोभा देता है. वे किसी को भी गाली दे सकते हैं और किसी की भी कहानी या किताब फाड़कर नाले में फेंक सकते हैं. कोलकाता के एक कमाल के युवा लेखक की कहानी आपकी पत्रिका ‘नया ज्ञानोदय’ के एक विशेषांक में छपने की घोषणा की गई थी, लेकिन वह नहीं छपी और रहस्यमयी तरीके से आपके दफ़्तर से, ईमेल से उसकी हर प्रति गायब हो गई क्योंकि इसी बीच राजकुमार की आंखों को वह लड़का खटकने लगा. एक लेखक की किताब नवलेखन पुरस्कारों के इसी सेट में छपी है और जब वह प्रेस में छपने के लिए जाने वाली थी, उसी दिन संयोगवश उसने आपके दफ़्तर में आकर अपनी किताब की फ़ाइल देखी और पाया कि उसकी पहली कहानी के दस पेज गायब थे. यह संयोग ही है कि उसकी फ़ाइनल प्रूफ़ रीडिंग राजकुमार ने की थी और वे उस लेखक से भी नाराज़ थे. किस्से तो बहुत हैं. अपमान, अहंकार, अनदेखी और लापरवाही के. मैं तो यह भी सुनता हूं कि कैसे पत्रिका के लिए भेजी गई किसी गुमनाम लेखक की कहानी अपना मसाला डालकर अपनी कहानी में तब्दील की जा सकती है.
लेकिन अकेले कुणाल को इस सबके लिए जिम्मेदार मानना बहुत बड़ी भूल होगी. वे इतने बड़े पद पर नहीं हैं कि ऊपर के लोगों की मर्ज़ी के बिना यह सब कर सकें. समय बहुत जटिल है और व्यवस्था भी. सब कुछ टूटता-बिगड़ता जा रहा है और बेशर्म मोहरे इस तरह रखे हुए हैं कि ज़िम्मेदारी किसी की न रहे.
नामवर जी, आप सुन रहे हैं कि मेरी 'सम्मानित' की गई किताब क्या है? वह जिसके बारे में अखबारों में बड़े गौरवशाली शब्दों में कुछ छपा था और जून की एक दोपहर आपने फ़ोन करके बधाई दी थी, वह ख़ालिस गंदगी है.
मैं फिर भी आलोक जैन जी को ईमेल लिखता हूं. उसका भी कोई जवाब नहीं आता. मैं फ़ेसबुक पर लिखता हूं कि मेरी किताब के बारे में भारतीय ज्ञानपीठ के ट्रस्टी की यह राय है. इसी बीच आलोक जैन फ़ोन करते हैं और मुझे तीसरी ही वजह बताते हैं. वे कहते हैं कि यूं तो उन्हें मेरा लिखा पसंद नहीं और वे नहीं चाहते थे कि मेरी कविताओं को पुरस्कार मिले (उन्होंने भी पढ़ी तब प्रतियोगिता के समय किताब?), लेकिन फिर भी उन्होंने नामवर सिंह जी की राय का आदर किया और पुरस्कार मिलने दिया. (यह उनकी महानता है!) वे आगे कहते हैं, "लेकिन एक लेखक को दो विधाओं के लिए नवलेखन पुरस्कार नहीं दिया जा सकता." लेकिन जनाब, पहली बात तो यह नियम नहीं है कहीं और है भी, तो पुरस्कार तो एक ही मिला है. वे कहते हैं कि नहीं, अनुशंसा भी पुरस्कार है और उन्होंने 'कालिया' को पुरस्कारों की घोषणा के समय ही कहा था कि यह गलत है. उनकी आवाज ऊंची होती जाती है और वे ज्यादातर बार सिर्फ 'कालिया' ही बोलते हैं.
वे कहते हैं कि एक बार ऐसी गलती हो चुकी है, जब कालिया ने कुणाल सिंह को एक बार कहानी के लिए और बाद में उपन्यास के लिए नवलेखन पुरस्कार दिलवा दिया. अब यह दुबारा नहीं होनी चाहिए. तो पुरस्कार ऐसे भी दिलवाए जाते हैं? और अगर वह ग़लती थी तो क्यों नहीं उसे सार्वजनिक तौर पर स्वीकार किया जाता और वह पुरस्कार वापस लिया जाता? मेरी तो किताब को ही पुरस्कार कहकर नहीं छापा जा रहा. और यह सब पता चलने में एक साल क्यों लगा? क्या लेखक का सम्मान कुछ नहीं और उसका समय?
यह सब पूछने पर वे लगभग चिल्लाने लगते हैं कि वे हस्तक्षेप नहीं करेंगे, कालिया जी जो भी 'गंदगी' छापना चाहें, छापें और भले ही ज्ञानपीठ को बर्बाद कर दें. नामवर जी, आप सुन रहे हैं कि मेरी 'सम्मानित' की गई किताब क्या है? वह जिसके बारे में अखबारों में बड़े गौरवशाली शब्दों में कुछ छपा था और जून की एक दोपहर आपने फ़ोन करके बधाई दी थी, वह ख़ालिस गंदगी है. इसके बाद आलोक जी गुस्से में फ़ोन काट देते हैं. ज्ञानपीठ का ही एक कर्मचारी मुझसे कहता है कि चूंकि तकनीकी रूप से मेरे कहानी-संग्रह को छापने से मना नहीं किया जा सकता, इसलिए मुझे उकसाया जा रहा है कि मैं खुद ही अपनी किताब वापस ले लूं, ताकि जान छूटे.
सब कुछ अजीब है. चालाक, चक्करदार और बेहद अपमानजनक. शायद मेरे बार-बार के ईमेल्स का असर है कि आलोक जैन, जो कह रहे थे कि वे कभी ज्ञानपीठ के कामकाज में हस्तक्षेप नहीं करते, मुझे एक दिन फ़ोन करते हैं और कहते हैं, "मैंने कालिया से किताब छापने के लिए कह दिया है. थैंक यू." वे कहते हैं कि उनकी मेरे बारे में और पुरस्कार के बारे में राय अब तक नहीं बदली है और ये जो भी हैं - बारह शब्दों के दो वाक्य - मुझे बासी रोटी के दो टुकड़ों जैसे सुनते हैं. यह तो मुझे बाद में पता चलता है कि यह भी झूठी तसल्ली भर है ताकि मैं चुप बैठा रहूं.
फ़ोन का सिलसिला चलता रहता है. वे अगली सुबह फिर से फ़ोन करते हैं और सीधे कहते हैं कि आज महावीर जयंती है, इसलिए वे मुझे क्षमा कर रहे हैं. लेकिन मेरी गलती क्या है? तुमने इंटरनेट पर यह क्यों लिखा कि मैंने तुम्हारी किताब के बारे में ऐसा कहा? उन्हें गुस्सा आ रहा है और वे जज्ब कर रहे हैं. वे मुझे बताते जाते हैं, फिर से वही, कि मेरी दो किताबों को छापने का निर्णय गलत था, कि मैं खराब लिखता हूं, लेकिन फिर भी उन्होंने कल कहा है कि किताब छप जाए, इतनी किताब छपती हैं वैसे भी. मैं अपना पक्ष रखना चाहता हूं कि मेरी क्या गलती है, मुझे आप लोगों ने चुना, फिर जाने क्यों छापने से मना किया, फिर कहा कि छापेंगे, फिर मना किया और अब फिर टुकड़े फेंकने की तरह छापने का कह रहे हैं. और जो भी हो, आप इस तरह कैसे बात कर सकते हैं अपने एक लेखक से? लेकिन मैं जैसे ही बोलने लगता हूं, वे चिल्लाने लगते हैं- जब कह रहा हूं कि मुझे गुस्सा मत दिला तू. कुछ भी करो, कुछ भी कहो, कोई तुम्हारी बात नहीं सुनेगा, कोई तुम्हारी बात का यक़ीन नहीं करेगा, उल्टे तुम्हारी ही भद पिटेगी. इसलिए अच्छा यही है कि मुझे गुस्सा मत दिलाओ. यह धमकी है. मैं कहता हूं कि आप बड़े आदमी हैं लेकिन मेरा सच, फिर भी सच ही है, लेकिन वे फिर चुप करवा देते हैं. बात उनकी इच्छा से शुरू होती है, आवाज़ें उनकी इच्छा से दबती और उठती हैं और कॉल पूरी.
कभी तू, कभी तुम, कभी चिल्लाना, कभी पुचकारना, सार्वजनिक रूप से सम्मानित करने की बात करना और फ़ोन पर दुतकारकर बताना कि तुम कितने मामूली हो- हमारे पैरों की धूल. मुझे ठीक से समझ नहीं आ रहा कि नवलेखन पुरस्कार लेखकों को सम्मानित करने के लिए दिए जाते हैं या उन्हें अपमानित करने के लिए. यह उनका एंट्रेंस टेस्ट है शायद कि या तो वे इस पूरी व्यवस्था का 'कुत्ता' बन जाएं या फिर जाएं भाड़ में. और इस पूरी बात में उस 'गलती' की ओर किसी का ध्यान नहीं जाता, जब आप अपने यहां काम करने वाले लेखक को यह पुरस्कार देते हैं, दो बार. और दूर-दराज के कितने ही लेखकों की कहानियां-कविताएं-किताबें महीनों आपके पास पड़ी रहती हैं और ख़त्म हो जाती हैं. बहुत लिख दिया. शायद यही 'एटीट्यूड' और 'फ्रैंकनैस' है मेरा, जिसकी बात कालिया जी ने फ़ोन पर की थी. लेकिन क्या करूं, मुझसे नहीं होता यह सब. मैं इन घिनौनी बातचीतों, मामूली उपलब्धियों के लिए रचे जा रहे मामूली षड्यंत्रों और बदतमीज़ फ़ोन कॉलों का हिस्सा बनने के लिए लिखने नहीं लगा था, न ही अपनी किताब को आपके खेलने की फ़ुटबॉल बनाने के लिए. माफ़ कीजिए, मैं आप सबकी इस व्यवस्था में कहीं फिट नहीं बैठता. ऊपर से परेशानियां और खड़ी करता हूं. आपके हाथ में बहुत कुछ होगा (आपको तो लगता होगा कि बनाने-बिगाड़ने की शक्ति भी) लेकिन मेरे हाथ में मेरे लिखने, मेरे आत्मसम्मान और मेरे सच के अलावा कुछ नहीं है. और मैं नहीं चाहता कि सम्मान सिर्फ़ कुछ हज़ार का चेक बनकर रह जाए या किसी किताब की कुछ सौ प्रतियाँ. मेरे बार-बार के अनुरोध जबरदस्ती किताब छपवाने के लिए नहीं थे सर, उस सम्मान को पाने के लिए थे, जिस पर पुरस्कार पाने या न पाने वाले किसी भी लेखक का बुनियादी हक होना चाहिए था. लेकिन वही आप दे नहीं सकते. मैं देखता हूं यहाँ लेखकों को - संस्थाओं और उनके मुखियाओं के इशारों पर नाचते हुए, बरसों सिर झुकाकर खड़े रहते हुए ताकि किसी दिन एक बड़े पुरस्कार को हाथ में लिए हुए खिंचती तस्वीर में सिर उठा सकें. लेकिन उन तस्वीरों में से मुझे हटा दीजिए और कृपया मेरा सिर बख़्श दीजिए. फ़ोन पर तो आप किताब छापने के लिए तीन बार ‘हां’ और तीन बार ‘ना’ कह चुके हैं, लेकिन आपने अब तक मेरे एक भी पत्र का जवाब नहीं दिया है. आलोक जी के आख़िरी फ़ोन के बाद लिखे गए एक महीने पहले के उस ईमेल का भी, जिसमें मैंने कालिया जी से बस यही आग्रह किया था कि जो भी हो, मेरी किताब की अंतिम स्थिति मुझे लिखकर बता दी जाए, मैं इसके अलावा कुछ नहीं चाहता. उनका एसएमएस ज़रूर आया था कि जल्दी ही जवाब भेजेंगे. उस जल्दी की मियाद शायद एक महीने में ख़त्म नहीं हुई है.
मैं जानता हूं कि आप लोग अपनी नीयत के हाथों मजबूर हैं. आपके यहां कुछ धर्म जैसा होता हो तो आपको धर्मसंकट से बचाने के लिए और अपने सिर को बचाने के लिए मैं ख़ुद ही नवलेखन पुरस्कार लेने से इनकार करता हूं और अपनी दोनों किताबें भी भारतीय ज्ञानपीठ से वापस लेता हूं, मुझे चुनने वाली उस ज्यूरी के प्रति पूरे सम्मान के साथ, जिसे आपने थोड़े भी सम्मान के लायक नहीं समझा. कृपया मेरी किताबों को न छापें, न बेचें. और जानता हूं कि इनके बिना कैसी सत्ता, लेकिन फिर भी आग्रह कर रहा हूं कि हो सके तो ये पुरस्कारों के नाटक बन्द कर दें और हो सके, तो कुछ लोगों के पद नहीं, बल्कि किसी तरह भारतीय ज्ञानपीठ की वह मर्यादा बचाए रखें, जिसे बचाने की सबसे ज़्यादा ज़रूरत है.
सुनता हूं कि आप शक्तिशाली हैं. लोग कहते हैं कि आपको नाराज़ करना मेरे लिए अच्छा नहीं. हो सकता है कि साहित्य के बहुत से खेमों, प्रकाशनों, संस्थानों से मेरी किताबें कभी न छपें, आपके पालतू आलोचक लगातार मुझे अनदेखा करते रहें और आपके राजकुमारों और उनके दरबारियों को महान सिद्ध करते रहें, या और भी कोई बड़ी कीमत मुझे चुकानी पड़े. लेकिन फिर भी यह सब इसलिए ज़रूरी है ताकि बरसों बाद मेरी कमर भले ही झुके, लेकिन अतीत को याद कर माथा कभी न झुके, इसलिए कि आपको याद दिला सकूं कि अभी भी वक़्त उतना बुरा नहीं आया है कि आप पच्चीस हज़ार या पच्चीस लाख में किसी लेखक को बार-बार अपमानित कर सकें, इसलिए कि हम भले ही भूखे मरें लेकिन सच बोलने का जुनून बहुत बेशर्मी से हमारी ज़बान से चिपककर बैठ गया है और इसलिए कि जब-जब आप और आपके साहित्यिक वंशज इतिहास में, कोर्स की किताबों में, हिन्दी के विश्वविद्यालयों और संस्थानों में महान हो रहे हों, तब-तब मैं अपने सच के साथ आऊं और उस भव्यता में चुभूं.
तब तक शायद हम सब थोड़े बेहतर हों और अपने भीतर की हिंसा पर काबू पाएँ.
गौरव सोलंकी
11/05/2012
(फोटो 'तहलका' वेबसाइट से 'साभार')

शनिवार, 12 मई 2012

खोल दो...

सआदत हसन मंटो ने कहा था, ''मैं तो सिर्फ वही लिखता हूं जो कुछ इस समाज में मुझे दिखाई देता है। अगर आप मेरी लेखनी को बर्दाश्त नहीं कर पाते, तो इसका मतलब है कि समाज नाकाबिले-बर्दाश्त हो चुका है।'' समाज को इतनी बारीकी से पढ़ने और पहचानने वाले मंटो आज होते तो सौ साल के होते। उनकी कहानियां आज भी हैं, सौ साल बाद भी रहेंगी। उनकी एक 'बदनाम' कहानी शेयर कर रहा हूं। बर्दाश्त कर सकें तो कीजिए....

खोल दो
अमृतसर से स्पेशल ट्रेन दोपहर दो बजे चली और आठ घंटों के बाद मुगलपुरा पहुंची। रास्ते में कई आदमी मारे गए। अनेक जख्मी हुए और कुछ इधर-उधर भटक गए।
सुबह दस बजे कैंप की ठंडी जमीन पर जब सिराजुद्दीन ने आंखें खोलीं और अपने चारों तरफ मर्दों, औरतों और बच्चों का एक उमड़ता समुद्र देखा तो उसकी सोचने-समझने की शक्तियां और भी बूढ़ी हो गईं। वह देर तक गंदले आसमान को टकटकी बांधे देखता रहा। यूं ते कैंप में शोर मचा हुआ था, लेकिन बूढ़े सिराजुद्दीन के कान तो जैसे बंद थे। उसे कुछ सुनाई नहीं देता था। कोई उसे देखता तो यह ख्याल करता की वह किसी गहरी नींद में गर्क है, मगर ऐसा नहीं था। उसके होशो-हवास गायब थे। उसका सारा अस्तित्व शून्य में लटका हुआ था।
गंदले आसमान की तरफ बगैर किसी इरादे के देखते-देखते सिराजुद्दीन की निगाहें सूरज से टकराईं। तेज रोशनी उसके अस्तित्व की रग-रग में उतर गई और वह जाग उठा। ऊपर-तले उसके दिमाग में कई तस्वीरें दौड़ गईं-लूट, आग, भागम-भाग, स्टेशन, गोलियां, रात और सकीना...सिराजुद्दीन एकदम उठ खड़ा हुआ और पागलों की तरह उसने चारों तरफ फैले हुए इनसानों के समुद्र को खंगालना शुरु कर दिया।
पूरे तीन घंटे बाद वह ‘सकीना-सकीना’ पुकारता कैंप की खाक छानता रहा, मगर उसे अपनी जवान इकलौती बेटी का कोई पता न मिला। चारों तरफ एक धांधली-सी मची थी। कोई अपना बच्चा ढूंढ रहा था, कोई मां, कोई बीबी और कोई बेटी। सिराजुद्दीन थक-हारकर एक तरफ बैठ गया और मस्तिष्क पर जोर देकर सोचने लगा कि सकीना उससे कब और कहां अलग हुई, लेकिन सोचते-सोचते उसका दिमाग सकीना की मां की लाश पर जम जाता, जिसकी सारी अंतड़ियां बाहर निकली हुईं थीं। उससे आगे वह और कुछ न सोच सका।
सकीना की मां मर चुकी थी। उसने सिराजुद्दीन की आंखों के सामने दम तोड़ा था, लेकिन सकीना कहां थी , जिसके विषय में मां ने मरते हुए कहा था, "मुझे छोड़ दो और सकीना को लेकर जल्दी से यहां से भाग जाओ।"
सकीना उसके साथ ही थी। दोनों नंगे पांव भाग रहे थे। सकीना का दुप्पटा गिर पड़ा था। उसे उठाने के लिए उसने रुकना चाहा था। सकीना ने चिल्लाकर कहा था "अब्बाजी छोड़िए!" लेकिन उसने दुप्पटा उठा लिया था।....यह सोचते-सोचते उसने अपने कोट की उभरी हुई जेब का तरफ देखा और उसमें हाथ डालकर एक कपड़ा निकाला, सकीना का वही दुप्पटा था, लेकिन सकीना कहां थी?
सिराजुद्दीन ने अपने थके हुए दिमाग पर बहुत जोर दिया, मगर वह किसी नतीजे पर न पहुंच सका। क्या वह सकीना को अपने साथ स्टेशन तक ले आया था?- क्या वह उसके साथ ही गाड़ी में सवार थी?- रास्ते में जब गाड़ी रोकी गई थी और बलवाई अंदर घुस आए थे तो क्या वह बेहोश हो गया था, जो वे सकीना को उठा कर ले गए?
सिराजुद्दीन के दिमाग में सवाल ही सवाल थे, जवाब कोई भी नहीं था। उसको हमदर्दी की जरूरत थी, लेकिन चारों तरफ जितने भी इनसान फंसे हुए थे, सबको हमदर्दी की जरूरत थी। सिराजुद्दीन ने रोना चाहा, मगर आंखों ने उसकी मदद न की। आंसू न जाने कहां गायब हो गए थे।
छह रोज बाद जब होश-व-हवास किसी कदर दुरुसत हुए तो सिराजुद्दीन उन लोगों से मिला जो उसकी मदद करने को तैयार थे। आठ नौजवान थे, जिनके पास लाठियां थीं, बंदूकें थीं। सिराजुद्दीन ने उनको लाख-लाख दुआऐं दीं और सकीना का हुलिया बताया, गोरा रंग है और बहुत खूबसूरत है... मुझ पर नहीं अपनी मां पर थी...उम्र सत्रह वर्ष के करीब है।...आंखें बड़ी-बड़ी...बाल स्याह, दाहिने गाल पर मोटा सा तिल...मेरी इकलौती लड़की है। ढूंढ लाओ, खुदा तुम्हारा भला करेगा।
रजाकार नौजवानों ने बड़े जज्बे के साथ बूढे¸ सिराजुद्दीन को यकीन दिलाया कि अगर उसकी बेटी जिंदा हुई तो चंद ही दिनों में उसके पास होगी।
आठों नौजवानों ने कोशिश की। जान हथेली पर रखकर वे अमृतसर गए। कई मर्दों और कई बच्चों को निकाल-निकालकर उन्होंने सुरक्षित स्थानों पर पहुंचाया। दस रोज गुजर गए, मगर उन्हें सकीना न मिली।
एक रोज इसी सेवा के लिए लारी पर अमृतसर जा रहे थे कि छहररा के पास सड़क पर उन्हें एक लड़की दिखाई दी। लारी की आवाज सुनकर वह बिदकी और भागना शुरू कर दिया। रजाकारों ने मोटर रोकी और सबके-सब उसके पीछे भागे। एक खेत में उन्होंने लड़की को पकड़ लिया। देखा, तो बहुत खूबसूरत थी। दाहिने गाल पर मोटा तिल था। एक लड़के ने उससे कहा, घबराओ नहीं-क्या तुम्हारा नाम सकीना है?
लड़की का रंग और भी जर्द हो गया। उसने कोई जवाब नहीं दिया, लेकिन जब तमाम लड़कों ने उसे दम-दिलासा दिया तो उसकी दहशत दूर हुई और उसने मान लिया कि वो सराजुद्दीन की बेटी सकीना है।
आठ रजाकार नौजवानों ने हर तरह से सकीना की दिलजोई की। उसे खाना खिलाया, दूध पिलाया और लारी में बैठा दिया। एक ने अपना कोट उतारकर उसे दे दिया, क्योंकि दुपट्टा न होने के कारण वह बहुत उलझन महसूस कर रही थी और बार-बार बांहों से अपने सीने को ढकने की कोशिश में लगी हुई थी।
कई दिन गुजर गए- सिराजुद्दीन को सकीना की कोई खबर न मिली। वह दिन-भर विभिन्न कैंपों और दफ्तरों के चक्कर काटता रहता, लेकिन कहीं भी उसकी बेटी का पता न चला। रात को वह बहुत देर तक उन रजाकार नौजवानों की कामयाबी के लिए दुआएं मांगता रहता, जिन्होंने उसे यकीन दिलाया था कि अगर सकीना जिंदा हुई तो चंद दिनों में ही उसे ढूंढ निकालेंगे।
एक रोज सिराजुद्दीन ने कैंप में उन नौजवान रजाकारों को देखा। लारी में बैठे थे। सिराजुद्दीन भागा-भागा उनके पास गया। लारी चलने ही वाली थी कि उसने पूछा-बेटा, मेरी सकीना का पता चला?
सबने एक जवाब होकर कहा, चल जाएगा, चल जाएगा। और लारी चला दी। सिराजुद्दीन ने एक बार फिर उन नौजवानों की कामयाबी की दुआ मांगी और उसका जी किसी कदर हलका हो गया।
शाम को करीब कैंप में जहां सिराजुद्दीन बैठा था, उसके पास ही कुछ गड़बड़-सी हुई। चार आदमी कुछ उठाकर ला रहे थे। उसने मालूम किया तो पता चला कि एक लड़की रेलवे लाइन के पास बेहोश पड़ी थी। लोग उसे उठाकर लाए हैं। सिराजुद्दीन उनके पीछे हो लिया। लोगों ने लड़की को अस्पताल वालों के सुपुर्द किया और चले गए।
कुछ देर वह ऐसे ही अस्पताल के बाहर गड़े हुए लकड़ी के खंबे के साथ लगकर खड़ा रहा। फिर आहिस्ता-आहिस्ता अंदर चला गया। कमरे में कोई नहीं था। एक स्ट्रेचर था, जिस पर एक लाश पड़ी थी। सिराजुद्दीन छोटे-छोटे कदम उठाता उसकी तरफ बढ़ा। कमरे में अचानक रोशनी हुई। सिराजुद्दीन ने लाश के जर्द चेहरे पर चमकता हुआ तिल देखा और चिल्लाया-सकीना
डॉक्टर, जिसने कमरे में रोशनी की थी, ने सिराजुद्दीन से पूछा, क्या है?
सिराजुद्दीन के हलक से सिर्फ इस कदर निकल सका, जी मैं...जी मैं...इसका बाप हूं।
डॉक्टर ने स्ट्रेचर पर पड़ी हुई लाश की नब्ज टटोली और सिराजुद्दीन से कहा, खिड़की खोल दो।
सकीना के मुद्रा जिस्म में जुंबिश हुई। बेजान हाथों से उसने इज़ारबंद खोला और सलवार नीचे सरका दी। बूढ़ा सिराजुद्दीन खुशी से चिल्लाया, जिंदा है-मेरी बेटी जिंदा है?

सआदत हसन मंटो
(11 मई 1912-18 जनवरी 1955)

बुधवार, 2 मई 2012

शर्म से कहिए कि वो 'मुसलमान' है...


दिल्ली में कई बार ऐसा हुआ कि मैं और मेरे मुसलमान साथी किराए के लिए कमरा ढूंढने निकले हों और मकान मालिक ने सब कुछ तय हो जाने के बाद हमें कमरा देने से इनकार कर दिया हो। कई बार मुसलमान साथी के सामने ही तो कई बार मुझे अकेले में बताते हुए। इस उम्मीद से कि मैं हिंदू हूं तो उसकी बात समझ ही लूंगा। कई बार दिल्ली की तीखी ज़ुबान से बिहारी सुनने का भी कड़वा अनुभव रहा है। मगर, ऐसे लोगों की बौद्धिक हैसियत पर मन ही मन हंसकर चुपचाप सह लेना ही बुद्धिमानी लगता रहा है।

लेकिन, 20 साल के आरज़ू सिद्दीकी के साथ सिर्फ इतना कहकर ही बात ख़त्म नहीं की गई। सिर्फ कहकर छोड़ दिया जाता तो वो भी सुनकर लौट आता, सह लेता। उसे मारा-पीटा गया। उस कॉलेज के भीतर जहां वो मीडिया की पढ़ाई करता है। उस आदमी ने पीटा, जिसकी बीवी को वो दो दिन पहले ख़ून देकर आय़ा था। सिर्फ एक बार ही नहीं पीटा गया उसे, कॉलेज के प्रिंसिपल जी के अरोड़ा ने भी बजाय उसे दिलासा देने के, पहले ‘मुसलमान’ और ‘बिहारी’ कहा और फिर बाद में सस्पेंड कर दिया। एक सड़कछाप गुंडे से भी बदतर अंदाज़ में उसका करियर तबाह करने की धमकी दी। महीने भर बाद जब आरज़ू अपने करियर की दुहाई लेकर प्रिंसिपल के पास दोबारा गया और परीक्षा में बैठने देने की अनुमति मांगी तो उसे फिर धमकाया गया। आरज़ू ने बताया कि वो बेहद ग़रीब परिवार से है और उसका एक साल बरबाद होने की ख़बर सुनकर घरवाले मर जाएंगे। वो भी जी नहीं सकेगा। कुर्सी की धौंस में प्रिंसिपल ने ‘मुसलमान’ और ‘बिहारी’ आरज़ू को मर जाने की बेहतर सलाह दी। आरज़ू ने तनाव में आकर आत्मदाह तक का मन बना लिया। मगर, इस युवा साथी की मानसिक स्थिति समझने और उसे सहारा देने के बजाय कॉलेज वालों ने उसे पुलिस के हवाले कर दिया।  



'जनसत्ता' में 8 जून 2012 को प्रकाशित
 
आरज़ू सिद्दीकी, जिसका जुर्म ये है कि वो मुसलमान है,
बिहारी है और ग़रीब भी है...
आरज़ू परीक्षा के पेपर देने के बजाय कोर्ट की पेशी झेलने को मजबूर हो गया। उसे मानसिक सुधार गृह में रख दिया गया। ये साबित करने की कोशिश की गई कि वो पागल है, उसका दिमागी संतुलन बिगड़ गया है। मगर डॉक्टर्स ने आरज़ू के कुछ साथियों के दबाव को देखते हुए ऐसा लिखने की मेहरबानी नहीं की। नतीजा ये हुआ कि कोर्ट को उसे रिहा करना पड़ा। फिलहाल आरज़ू दिल्ली की सड़कों पर घूम रहा है। उस पर हर तरफ से दबाव है कि वो आगे कोई ग़लतक़दम न उठाए। दिल्ली यूनिवर्सिटी की डिसिप्लीनरी कमेटी अब इस मामले की नज़ाकत को समझ रही है और आरज़ू को वहां भी पेशी के लिए बुलाया गया है।

मगर, सवाल ये है कि क्या सारा दोष सिर्फ आरज़ू का ही है। एक 20 साल के लड़के को तमाम गालियों के साथ मुसलमान और बिहारी कहकर मर जाने को उकसाने वाले उस प्रिंसिपल और उसके गैंग को समाज के सामने शर्मिंदा नहीं किया जाना चाहिए। क्या उनको ये अहसास नहीं होना चाहिए कि कुर्सी पर बैठ जाने से उनके सामने का हर आम आदमी कीड़ा-मकोड़ा नहीं हो जाता। वो भी तब जब अंबेडकर के नाम पर कॉलेज हो और उसका प्रिंसिपल ऐसा ग़ैर-संवेदनशील, रेसिस्ट और असामाजिक हो।  

ये भी बताते चलें कि आरज़ू के पिता के पिता पटना में चूड़ियां बेचकर किसी तरह परिवार का गुज़ारा करते हैं। आरज़ू की हिम्मत नहीं हुई कि वो अपने साथ हुई इस ज़्यादती की ख़बर घर पर दे सके। वो ज़िंदगी में चूड़ियां बेचने से कुछ अलग और बेहतर करना चाहता था इसीलिए दिल्ली चला आया। मगर, उसके मुसलमान या बिहारी या ग़रीब होने ने उसके बाक़ी तमाम सपनों को फिलहाल कुचल कर रख दिया है। उसकी हालत अभी क्या है, सिर्फ वही समझ सकता है। उसने प्रधानमंत्री से लेकर बिहार के मुख्यमंत्री तक को तमाम चिट्ठियां लिख दी हैं मगर सब के सब उतने ही शांत और बेफिक्र हैं।

क्या आप और हम आरज़ू सिद्दीकी के लिए कुछ नहीं कर सकते

गुरुवार, 12 अप्रैल 2012

रिश्तों की तरह होती हैं कुछ कविताएं...

हमारी चुप्पियों के बीच पुल की तरह था मुस्कुराना....
जिस पर आराम से तैरता रहा एक रिश्ता...
तुम किसी सूरज की तरह,
उग आती आधी रात में भी...
और मेरी सुबह थोड़ी लंबी हो जाती...
जैसे कुछ कविताएं अधूरी हैं तो सिर्फ इसीलिए,
कि भूल जाता हूं कई बार तुम्हारे नाम का मतलब
वैसे ही कई रातें इसीलिए अधूरी...
कि उगा ही नहीं मेरा सूरज...

वो धुन याद ही होगी,
जो आधी रात में ट्रेन हमें सुनाकर गुज़र जाती..
और तुम खिड़कियां बंद कर लेतीं...
हम जागते देर तक नींद में...

समंदर की लहरों ने नहीं देखी समंदर की गहराई,
मगर एक रिश्ता तो है...
सूरज की किरणों ने सूरज के सीने में झांककर भी नहीं देखा...
मगर तपिश है
गुनगुनी धूप है धरती पर...

कभी ट्रेन की खिड़की से दिख जाती हैं किताबें,
जिन्हें पढ़ नहीं पाते...
मगर याद रहती हैं तस्वीरें...
और हम सोचते रहते हैं यात्रा भर,
किताबों की लिखावट, मुलायम पन्ने वगैरह वगैरह....

रिश्तों की तरह होती हैं कुछ कविताएं...
मजबूरन ख़त्म करनी पड़ती है...
कविताओं की तरह होते हैं कुछ रिश्ते
बार-बार पढकर रुलाई आती है...

निखिल आनंद गिरि

शनिवार, 7 अप्रैल 2012

मौत को क़रीब से देखना हो तो ''टाइटैनिक'' देखिए...

मौत को क़रीब से देखना हो तो 'टाइटैनिक' देखिए। थ्रीडी चश्मे से और करीब दिखती है मौत। एकदम माथे को चूमती हुई। सौ साल पुराना एक हादसा। हादसा क्या पूरा का पूरा प्रलय ही।
पिछली बार जब टाइटैनिक देखी थी तो स्कूल में था। कम से कम 14 साल पहले। किताब में टाइटैनिक का नाम सुना था और एक नंबर पाने के लिए इसके डूबने की तारीख भी याद थी। तब न थ्री डी के बारे में कुछ मालूम था और न मॉल या मल्टीप्लेक्स के बारे में। जुगाड़ से कुछ दोस्तों ने फिल्म देखी थी और बताया था कि टाइटैनिक इसीलिए देखनी चाहिए कि फिल्म का हीरो केट विंसलेट को न्यूड पेंट करता है और बहुत बड़े जहाज़ के किनारे समंदर की ऊंचाई पर खड़े होकर कुछ अच्छे रोमांटिक सीन भी हैं। वही सीन जो बाद में शाहरुख  बार-बार बांहें लहराकर बॉलीवुड की फिल्मों में दोहराते हैं और किंग खान बन जाते हैं। इस बार इसके आगे की टाइटैनिक देखने के लिए गया था।

फिल्म देखते हुए कई बार लगा जैसे हम भी सौ साल पहले उस जहाज़ में सवार हों। यही सिनेमा की सफलता है कि आपको किसी दूसरे टाइम और स्पेस से उठाकर अपने मनचाहे स्पेस में थोड़ी देर के लिए फिट कर दे। भोपाल गैस हत्याकांड से लेकर सुनामी, भुज और गोधरा, सब हिंदुस्तान में हुए, मगर मौत का इतना विराट, इतना महीन विश्लेषण अब तक किसी हिंदी (भारतीय) सिनेमा में कम देखा है। एक ऐसी प्रेम कहानी जो मौत की कसौटी पर भी दम नहीं तोड़ती। जेम्स कैमरून की सबसे उदास कविता है टाइटैनिक। दो प्रेमियों को जब सागर आगोश में लेने ही वाला होता है, तब भी वो एक-दूसरे पर भरोसे का वादा दोहराते हैं। ये एक ऐसी अद्भुत कल्पना है जिसे वही महसूस कर सकता है, जिसने शिद्दत से किसी की कमी महसूस की हो। और फिर काले चश्मे के भीतर से इस अहसास को जीने का सबसे बड़ा फायदा ये भी है कि कोई रोते हुए भी नहीं पकड़ सकता।

पूरी फिल्म ही अद्भुत पेंटिंग की तरह है। समंदर की भूख टाइटैनिक को निवाला बनाने ही वाली होती है तो कैमरुन एक बुज़ुर्ग जोड़े को एक साथ लिपटकर रोते दिखलाते हैं। और फिर बच्चों को कहानियां सुनाकर अनंत काल के लिए सुलाती मां। और डूबतेृ-डूबते मौत की आखिरी धुन बजाते वो अमर कलाकार। टाइटैनिक के डूबने से सिर्फ एक जहाज ही नहीं डूबा, 'एलिट' महत्वाकांक्षाओं का वो किला भी डूब गया, जिसपर आज भी पूरी दुनिया ताज्जुब करती है मगर बाज़ नहीं आती।
आपको मौक़ा मिले तो एक बार टाइटैनिक ज़रूर देखिए। अगर पहले देख रखी हो तब भी देखिए। देखिए कि जिन उजालों के भरम में हम जिस रफ्तार से सूरज की तरफ भागते चले जा रहे हैं, वो पलक झपकते अंधा बना सकती हैं।
अच्छा हुआ, थ्रीडी का चश्मा मॉल के भीतर ही वापस रख लिया। बाहर दुनिया की बारीकियां इतनी क़रीब से दिख जाएं तो आदमी सौ बार ख़ुदकुशी कर ले।


चलते-चलते गुलज़ार की ये नज़्म भी गुनगुनाते चलें


मौत तू एक कविता है
मुझसे एक कविता का वादा है मिलेगी मुझको

डूबती नब्ज़ों में जब दर्द को नींद आने लगे
ज़र्द सा चेहरा लिये जब चांद उफक तक पहुँचे
दिन अभी पानी में हो, रात किनारे के करीब
ना अंधेरा ना उजाला हो, ना अभी रात ना दिन

जिस्म जब ख़त्म हो और रूह को जब साँस आऐ
मुझसे एक कविता का वादा है मिलेगी मुझको


निखिल आनंद गिरि

गुरुवार, 5 अप्रैल 2012

लेखकों की रचनाओं की चोरी की एफआईआर तक दर्ज नहीं होती...

जयप्रकाश चौकसे
सलीम-जावेद की लिखी ‘जंजीर’ ने अमिताभ बच्चन को सितारा बनाया, प्रकाश मेहरा की कंपनी को ठोस आर्थिक आधार दिया और कालांतर में यह कल्ट फिल्म मानी गई। इसी फिल्म से आक्रोश की मुद्रा बॉक्स ऑफिस पर ऐसे सिक्के के रूप में चल पड़ी कि आज तक लोग उसे भुना रहे हैं। इतना ही नहीं, इसी आक्रोश ने अन्य फिल्मकारों को भी एक रास्ता बताया और इसी के विविध रूप हिंदुस्तानी सिनेमा में छा गए हैं। गोविंद निहलानी की ‘अर्धसत्य’ भी इसी का उनका अपना संस्करण है। सच तो यह है कि राजकुमार संतोषी की ‘घायल’, ‘घातक’ ही नहीं, वरन् आज की ‘दबंग’ छवि भी उसी आक्रोश के हंसोड़ संस्करण हैं।


अब प्रकाश मेहरा के सुपुत्र अपूर्व लखिया नामक निर्देशक के साथ ‘जंजीर’ का नया संस्करण बनाने जा रहे हैं। ये तमाम लोग अमिताभ बच्चन और जया से आशीर्वाद लेने जा रहे हैं, जबकि नए संस्करण में अमिताभ के अभिनय को नहीं दोहरा रहे हैं। आप मूल फिल्म की पटकथा पर फिल्म बना रहे हैं और उसमें जो भी परिवर्तन करेंगे, वह मूल की छवि को बिगाड़ देंगे। सारे नए संस्करणों में कलाकार नए होते हैं, उनकी व्याख्या भी अलग होती है और संगीत भी अलग होता है, परंतु पटकथा का आधार नहीं बदलते और सारे पंच संवाद भी दोहराए जाते हैं। आप दर्जन दफा ‘डॉन’ बना लो, परंतु ‘डॉन को पकड़ना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है’ संवाद को दोहराते हैं, क्योंकि इस पर हर कालखंड में तालियां पड़ती हैं। इसी तरह ‘देवदास’ को मनके की माला की तरह दोहराइए, परंतु मेरुमणि संवाद, राजिंदर सिंह बेदी का लिखा ‘कौन कम्बख्त बर्दाश्त करने को पीता है..’, दोहराकर गिनेंगे नहीं, जैसे माला में सौ मनके होते हैं, परंतु एक मेरुमणि होता है, जिसे फिराते हैं, परंतु गिनती में शुमार नहीं करते। इसी बात को महान गालिब ने यूं फरमाया है- ‘हम ब आलम बरकिनार कुफनाद अय, चूं इमामे सबह बैंरू अज शुमार ऊफनाद अय’।


यही मेरुमणि की तरह वो तमाम पटकथाएं बना दी गई हैं कि नए संस्करण के लिए कलाकार का आशीर्वाद लेने जा रहे हो और मूल के लेखकों के श्राप से भय नहीं लगता। उनकी इजाजत लेने की भी आवश्यकता नहीं महसूस होती। उनकी गिनती ही नहीं है। यह अन्याय इसलिए हो रहा है कि हमारे कॉपीराइट के नियम लचर हैं और अपना एक्सपायरी समय पार कर चुके हैं और इसका नया स्वरूप संसद की उन अलमारियों में धूल खा रहा है, जहां सरकारों ने अनेक नरकंकाल भी छिपाए हुए हैं।

आज के दौर में सुर्खियों में बने रहने और आशीर्वाद की मुद्रा में फोटो खिंचाने का शौक शायद सबसे बड़ा लालच है और ये वे लोग कर रहे हैं, जिनकी तस्वीरों ने अपनी अधिक संख्या के कारण अलग किस्म का प्रदूषण रचा है। बहरहाल, जावेद साहब के सुपुत्र फरहान अख्तर ने ‘डॉन’ बनाने से पहले सलीम साहब से इजाजत मांगी थी। प्रकाश मेहरा के बेटे सलीम और जावेद से मिलना तक गैरजरूरी समझते हैं। वे किस अहंकार की जंजीर से बंधे हैं। उनके पिता ‘जंजीर’ के पहले मात्र संघर्षरत फिल्मकार थे। यह संभव है कि ‘जंजीर’ की कमाई का दूध उन्होंने बचपन में पिया हो। दूध के कर्ज के रूप में भी मूल के लेखकों से मिला जा सकता है।

हिंदुस्तान में भ्रष्टाचार में पैसा खा जाते हैं, कोयले की खदान खा जाते हैं, धरती की अंतड़ियों से उसकी सदियों की खुराक चुरा लेते हैं और आकाश से परिंदों की उड़ान चुरा लेते हैं, नदियों से पानी और हवा से ऑक्सीजन चुरा लेते हैं और इन सभी चोरियों के खिलाफ आंदोलन है, परंतु लेखकों की रचनाओं की चोरी की एफआईआर किसी थाने में लिखी तक नहीं जा सकती। दरअसल इस मुल्क में मौलिकता का मूल्य नहीं, विचार-संपदा का सम्मान नहीं, भाषा सौंदर्य की कद्र नहीं। मुल्क इस तरह से मरते हैं, क्योंकि उन्हें तो कोई और मौलिक तरह से मरना भी नहीं आता।

(Courtsey : Dainik Bhaskar)

गुरुवार, 29 मार्च 2012

'माय नेम इज़ खान...और मैं हीरो जैसा नहीं दिखता...'

जेएनयू में इरफान खान
इरफान खान का जेएनयू आना ऐसा नहीं था जैसे सलमान खान किसी मॉल में आएं और भगदड़ मच जाती हो। भीड़ थी, मगर अनुशासन भी था। वो ख़ुद चिल्लाने के लिए कम और एक संजीदा एक्टर को सुनने का मूड बनाकर ज़्यादा आई थी। करीब दो घंटे तक इरफान बोलते रहे और एक बार भी धक्कामुक्की या हूटिंग जैसी हरकतें नहीं हुईं। इस भीड़ में मैं इरफान से दस क़दम की दूरी पर अपनी जगह बना पाया था। मैं उस पान सिंह तोमर को नज़दीक से देखने गया था जिसने चौथी पास एक फौजी के रोल में बड़ी आसानी से कह दिया कि ‘सरकार तो चोर है, इसीलिए हम सरकारी नौकरी के बजाय फौज में आए।’ और ये भी कि, ‘बीहड़ में बाग़ी होते हैं, डकैत मिलते हैं पार्लियामेंट में’। गर्मी के मौसम में भी गले में मफलर लटकाए इरफान सचमुच बॉलीवुड की भेड़चाल से अलग दिखते हैं। जेएनयू की उस भीड़ में ही मौजूद कुछ लड़कियों की ज़ुबान में कहें तो ‘अरे, ये तो कहीं से भी हीरो जैसा नहीं लगता।’

सचमुच, इरफान हीरो जैसा कम और एक हाज़िरजवाब युवा ज़्यादा लगने की कोशिश कर रहे थे। जेएनयू में पान मिलता नहीं, मगर बाहर से मंगवाकर पान चबाते हुए बात करना शायद माहौल बनाने के लिए बहुत ज़रूरी था। एकदम बेलौस अंदाज़ में इरफान ने लगातार कई सवालों का जवाब दिया। जैसे अपने रोमांटिक दिनों के बारे में, कि कैसे वो दस-पंद्रह दिनों तक गर्ल्स हॉस्टल में रहने के बाद पकड़े गए और उनके खिलाफ हड़ताल हुई। या कि ‘हासिल’ के खांटी इलाहाबादी कैरेक्टर में ढलने के लिए उन्हें कैसे तजुर्बों से गुज़रना पड़ा। हालांकि, राजनीति या सिनेमा पर पूछे गए कई सीरियस सवालों पर अटके भी और हल्के-फुल्के अंदाज़ में टाल भी गए।

हाल ही में रिलीज़ हुई पान सिंह तोमर में इरफान की एक्टिंग ने उन्हें बॉलीवुड के मौजूदा दौर के सबसे बड़े अभिनेताओं में शामिल कर दिया है। वो एक सेलेब्रिटी तो नहीं, मगर आम और खास दोनों तरह के दर्शकों में बेहद पसंद किए जाने लगे हैं। उनकी आवाज़ की गहराई, बोलने का अंदाज़ और हाज़िरजवाबी जैसे जेएनयू की उस शाम दिखी, वो फिल्मी पर्दे से बिल्कुल अलग नहीं लगी। वो हर जगह एक जैसे ही नज़र आते हैं। हद तक नैचुरल दिखने वाले एक एक्टर। माइक बार-बार ख़राब होने, जेएनयू के सिर के ऊपर से दर्जनों बार हवाई जहाज़ के गुज़रने और जैसे-तैसे सवालों से दो घंटे तक टकराते हुए भी चेहरे पर कोई फिज़ूल का उतार-चढ़ाव नहीं था।

इरफान को सिनेमा में पहचान दिलाने वाले आज के दौर के सबसे काबिल निर्देशक तिग्मांशु धूलिया भी यहां पहुंचने वाले थे, मगर किसी वजह से नहीं आ सके। वो आते तो सिनेमा पर कुछ और सवाल सुनने को मिल सकते थे, और सटीक जवाब भी। दरअसल, मेरे वहां पहुंचने की ख़ास वजह तिग्मांशु को ही एक नज़र नज़दीक से देखना था। एक एक्टर से ज़्यादा ज़रूरी मुझे हमेशा से एक निर्देशक लगता है।

बहरहाल, सिर्फ इरफान के साथ भी भीड़ जमी रही, जिन्होंने बड़ी इमानदारी से कई सवालों पर अपनी राय रखी। इरफान ने कहा कि उन्हें अपने साथ लगा ‘ख़ान’ का टैग किसी बोझ जैसा लगता है। उनका बस चले तो वो अपने नाम से इरफान भी हटाना चाहेंगे और उस घास की तरह सूरज की रोशनी महसूस करना चाहेंगे जिसकी पहचान सिर्फ ज़मीन से जुड़ी होती है। आखिर-आखिर तक प्रोग्राम खिंचने लगा था। हालांकि कार्यक्रम के मॉडरेटर और अविनाश दास और प्रकाश सवालों को बढ़िया मिक्स कर रहे थे ताकि भीड़ वहां बनी रहे। हां, एकाध शुद्ध हिंदी में पूछे गए सवालों को मॉडरेटर साहब जिस तरह मज़ाक उड़ाने के अंदाज़ में मज़े ले-लेकर पढ़ रहे थे, वो भीड़ को भले गुदगुदा रहा था, मगर उस सवाल पूछने वाले को बड़ा हिंसक लग रहा होगा, जिसने दिल लगाकर अंग्रेज़ी होते जा रहे सेलिब्रिटी युग में अपनी भाषाई काबिलियत के हिसाब से एक बेहतर सवाल हिंदी में रखने की जुर्रत की थी।  थोड़ा सा अफसोस मुझे भी हुआ था, लेकिन भीड़ में हर एक का ध्यान तो नहीं रखा जा सकता। वो भी तब जब इरफान के पसंदीदा लेखक कोई और नहीं हिंदी साहित्य के सबसे लोकप्रिय नामों से एक उदय प्रकाश रहे हैं।

(प्रोग्राम के ठीक बाद गंगा ढाबा पर तेलुगू दोस्त प्रदीप मिले तो मैंने बड़ी उत्सुकता से बताया कि आज इरफान ख़ान से मिलने-सुनने का मौका मिला। प्रदीप ने कहा, ‘ओके’...फिर कहा, ’लेकिन, ये इरफान ख़ान है कौन??’ मेरी खुशफहमी दूर हो गई कि बॉलीवुड पूरे भारत का सिनेमा है।)
 
निखिल आनंद गिरि

(ये लेख मोहल्लालाइव पर भी प्रकाशित हुआ है...)

गुरुवार, 22 मार्च 2012

विवेक मिश्र की कहानियां चुराना मना है...

विवेक मिश्र को मैं पिछले कुछ महीनों से जानता हूं। उनकी कई कविताएं पढ़ी हैं। कुछ कहानियां भी पढ़ी हैं। एकाध साहित्यिक कार्यक्रमों में मंच पर भी साथ रहे हैं। शिल्पायन से छपा उनका कहानी-संग्रह ''हनियां तथा अन्य कहानियां'' लगभग पूरा पढ़ चुका हूं। विवेक मिश्र ने खुद ही ये किताब मुझे पढ़ने के लिए दी थी। उनसे जब भी मुलाकात हुई, 'हनियां' का ज़िक्र उनकी ज़ुबान पर ज़रूर आया। उन्हें उम्मीद भी रही होगी कि मैं 'हनियां' कहानी पढ़ते ही उन्हें फोन करूंगा और अपनी प्रतिक्रिया दूंगा। मगर, मैंने जब उन्हें फोन किया और उनके कहानी संग्रह पर बात की तो हनियां का ज़िक्र बहुत बाद में आया। पहला और सबसे ज़्यादा ज़िक्र 'तितली' का आया था। एक पाठक के लिहाज से यही कहूंगा कि हनियां एक सफल (चर्चित) और लंबी कहानी भले रही हो, मगर छोटी कहानी 'तितली' में विवेक मिश्र ज़्यादा ओरिजिनल लगते हैं।

पिता की मौत के बाद दिल्ली में घर में तीन अकेली लड़कियों की कहानी है' तितली'। 14 साल की बड़ी बेटी अंशु, छोटी बेटी बिन्नी और इन दोनों की विधवा मां। अंशु की उम्र उसे 'दिल्ली की हवा' में तितली की तरह उड़ने को बेकरार करती है, मगर एक अनजान-सा डर और मां-बिन्नी की चिंता उसे हर बार रोक लेती है। मगर, जब एक दिन दिल्ली की हवा अंशु को उड़ाकर ले जाती है तब उसे अहसास होता है कि अपनी भरपूर उड़ान के भरम में अपने पंख ही गंवा बैठी है। आखिर तक आते-आते कहानी बिन्नी के जवान होते हाथों में उस तितली को महफूज़ कर देती है। दिल्ली नाम के अंधे कुंए में अपनी मर्ज़ी से डूबने का एक चक्र जारी रहता है।

अचानक इस कहानी का ज़िक्र इसलिए क्योंकि फेसबुक पर हिंदी कहानी के जानकारों की वॉल के ज़रिए हाल ही में पढ़ने में आया कि जयश्री रॉय नाम की लेखिका पर उनकी कहानी ''बारिश, समंदर और एक रात..'' के लिए 'तितली' के कुछ हिस्से हूबहू 'चुराने' के आरोप थे। कथादेश में उनकी इस कहानी को पढकर ही पता चला कि वो गोवा में रहती हैं और बिहार से उनका ताल्लुक है। चर्चित कवियत्री और कहानीकार भी हैं। मेरा दुर्भाग्य कि मैं जयश्री जी को नहीं जानता। मैंने उनकी कहानी कई बार पढ़ी और सचमुच 'तितली' और 'बारिश, समंदर और एक रात...' लगभग एक जैसी कहानियां हैं। 'समंदर,बारिश और एक रात' जय श्री राय की कथादेश के मार्च-2012 में प्रकाशित कहानी है। यह कहानी भी एक युवा अवस्था में कदम रखती युवती की कहानी है जो अपनी ग्रेनी के साथ गोआ में रहती है। उसके पिता घर छोड़कर विदेश चले गए हैं। वह भी एक रात बाहर निकल कर एक आकर्षक युवक के संपर्क में आती है। उसके साथ जाकर दुनिया देखना चाहती है,जीना चाहती है। एक बहुत हसीन रात में लड़की का बॉयफ्रेन्ड लड़की को घर से बाहर पार्टी में चल कर एन्जाय करने को कहता है। वह मान जाती है दोनो नाचते-गाते हैं। करीब आते हैं, भरपूर प्यार करते हैं। उन्हें प्यार करते हुए लड़के के साथी देख लेते हैं। वह उसे एक खाली गोदाम में ले जाते हैं और नशे की हालत में उसके साथ बलात्कार करते हैं। लड़की को जब होश आता है। तब वह समंदर किनारे बैठी रह जाती है।

लोगों के नाम और जगह बदल दिए जाएं तो दोनों कहानियों में घटनाएं एक ही सिलसिले में होती नज़र आती हैं। कई जगह शब्द या पूरे-पूरे वाक्य भी मिलते नज़र आते हैं। मुमकिन है कि जयश्री ने 'तितली' पढ़ी हो और उस कहानी से प्रेरित होकर अपनी कहानी गढ़ी है, जो मुझे ग़लत नहीं दिखता। दुख इस बात का है कि फेसबुक पर दोनों 'पक्षों' (खेमों) की ओर से तमाम तरह के उल्टे-सीधे तीर चलते रहे और आखिर में जयश्री रॉय ने विवेक मिश्र से माफी मांग ली। हिंदी के लगभग तमाम लेखकों को तो वैसे भी अपनी जेब से पैसा खर्च कर लिखना-छपना पड़ता है और उस पर भी अगर रही-सही पूंजी यानी कहानी में ही सेंध पड़ने लगे तो बेचारा लेखक क्या करेगा। कई बार मैं भी अपने ब्लॉग का सामान किसी और ब्लॉग पर उस ब्लॉगर के नाम से छपा देख चुका हूं। मगर, मुझे इस मामले को 'कानूनन' आगे बढ़ाने के कोई नियम ही नहीं पता। अगर आप मदद कर सकें, तो मेहरबानी होगी।

हैरत की बात ये है कि विवेक मिश्र के साथ ऐसा पहली बार नहीं हुआ है। उनकी 'हनियां' कहानी किसी टीवी सीरियल ने हूबहू उड़ा ली तो मामला कोर्ट तक चला गया। एक और कहानी 'बदबू' के बारे में तो कुछ पाठकों ने ये तक कह दिया कि गुलज़ार की कहानी 'हिलसा' में इसकी नकल दिखती है। हर बार विवेक मिश्र के साथ ही ऐसा क्यों होता है। फिल्मी दुनिया में इस तरह के आरोपों के पीछे पब्लिसिटी बटोरने के मकसद भी होते हैं, मगर हिंदी साहित्य की फटेहाल दुनिया में शायद ही विवेक मिश्र या जयश्री रॉय को इसका कोई फायदा होने वाला है। यहां मामला करोड़ों का नहीं कौड़ी भर का है।


निखिल आनंद गिरि
(इस विवाद में इतनी देर से टांग अड़ाने की वजह ये है कि मैं इन दिनों फेसबुक या बाहरी दुनिया से कटा हुआ था। जब जागा, तभी सवेरा...)


बुधवार, 14 मार्च 2012

मुस्कुराइए कि आप स्टूडियो में हैं - 2

(इस कहानी का पहला हिस्सा आप पढ़ चुके हैं....बाक़ी हिस्सा यहां है....)
उस रोज़ बारिश हो रही थी। मोहित कैंटीन में अपने अकेलेपन के साथ बैठा था। इब्ने मियां अचानक याद आए थे। दो बार मिला था मोहित उनसे। एक बार तब जब मिश्रा के कहने पर चाय पर स्टोरी करने गया था और मिश्रा ने ही इब्ने भाई का पता बताया था। बड़ी-बड़ी आंखों के नीचे से रोएं गायब हो गए थे और होंठ के एक कोने में लाल पीक टंगी रहती थी। इस उम्र में भी कुछ लोग उन्हें भाई कहते थे। उनके साथ चाय की एक प्याली में पूरे लखनऊ की सैर हो जाती थी । ‘’देखो भाई, ये असल कश्मीरी चाय तो है नहीं कि तुम्हें वो वाली गर्मी दे। देखो जाफरान जो है, जो इस चाय में डाली नही है, वो कश्मीरी पंडित लखनऊ लेकर आए।‘’ वो यही बात तीन बार कहते और चाय खत्म हो जाती। फिर पान पर शुरु होते तो पान की एक-एक पत्ती के बारे में व्याख्यान सुनाते। फिर कहते, ‘’मिश्रा बड़ा आदमी बन गया है। हमारे यहां ही बैठकर रात भर मंगल पर टाइपिंग सीखता था। बाकी सब तो ठीक है, मगर ज़रूरत पड़ने पर पंडिजी और बाभन बनते देर नहीं लगती उसको। बच के रहना उससे। बेटे जैसा है, लेकिन किसी का नहीं है वो।‘’ दूसरी बार तब मिला था, जब उनके गुज़रने की खबर आई थी। मोहित को जाना पड़ा था ऑफिस से झूठ बोलकर। रोएं गायब थे तब भी और होठों की लाल पीक भी। मरते-मरते कहते रहे थे, मोहित मियां, हमने अपनी मां के मुंह से चबाया हुआ पान पूरे बचपन भर खाया है, इतनी आसानी से मरने वाले नहीं हैं।


खैर, जब मोहित लौटा था तो मिश्रा ने खूब झाड़ पिलाई थी, दीपाली के सामने, बेवजह।

‘’ स्साले, इब्ने तुम्हारा बाप लगता था। क्या सोचा था, झूठ बोलकर जाओगे और हमें पता नहीं चलेगा। स्साले, मियां-मौलवी के लिए इतनी मोहब्बत और मिश्रा के चैनल के लिए कोई फिक्र ही नहीं। देखो मोहित, नौकरी तुम्हारी मजबूरी है, तुम हमारी मजबूरी नहीं।

अचानक इब्ने मियां की याद कैंटीन में क्यों आ गई थी। शायद चाय पीने की इच्छा थी और साथ पीने वाला कोई नहीं था। अचानक दीपाली दिखी थी। पीछे से ही पहचान में आ जाती थी। हालांकि, मोहित दीपाली से बात करने में रत्ती भर दिलचस्पी नहीं रखता था, मगर उस दिन इतना अकेला था कि किसी के साथ बैठना चाहता था।

‘हाय दीपाली, चाय पियोगी...’

‘नहीं, मूड नहीं है...’

‘क्यों, मिश्रा के साथ पीकर आई हो, हेहे’

दीपाली ने कुछ कहा नहीं। जबकि उसे बिफर जाना था। मोहित पहली बार उसे सांत्वना भरी नज़रों से देखने लगा। उसकी आंखें लाल थीं, रोई हुई। मोहित ने ज़ोर देकर पूछा तो दीपाली बताने लगी। मोहित को पहली बार पता चला कि उसके पिता बुलंदशहर के किसी गांव में सरकारी नौकरी करते थे। वो दीपाली की नौकरी से कभी खुश नहीं थे। दरअसल, मिश्रा दो साल पहले बुलंदशहर के कॉलेज में मुख्य अतिथि बनकर गया था तो वहीं दीपाली से मुलाकात हुई थी। उसी ने दीपाली को तीन लाख सालाना का पैकेज ऑफर किया था। इतने पैसे दीपाली के गांव में कोई लड़की नहीं कमाती थी। दीपाली हालांकि एक लोकल टीवी चैनल में नौकरी करती थी जहां मेकअप के नाम पर सिर्फ लिपस्टिक मिला करती थी और कैमरे के एंगल इतने नहीं होते थे कि खूबसूरती काबिले-तारीफ हो सके। मगर, तीन लाख रुपये उसे मिलेंगे, इस बारे में उसने कभी सोचा भी नहीं था। दीपाली के पिता भी मामूली नाराज़गी के बाद मान गए थे। मां को पता नहीं था कि टीवी में दिखने वाली लड़कियां बुलंदशहर से भी आती हैं। उनके घर में इन बातों पर कभी चर्चा नहीं होती थी। हां, टीवी देखने का शौक सभी को था, मगर टीवी के पीछे दिखने वाले चेहरे धरती के हैं कि मंगल के, उस घर में कोई नहीं जानता था।

फिर दीपाली ने बताया कि पिछले हफ्ते पिताजी रिटायर हो गए हैं। उन्हें अचानक दिल का दौरा पड़ा है और पैसों की ज़रूरत पड़ गई है। दीपाली ने मिश्रा से मदद मांगी तो उसने कहा कि अभी वो दिल्ली में नहीं है। रात को लौटेगा और पैसे चाहिए तो रात में घर आकर ले जाए। मोहित को हालांकि अब भी उससे बहुत ज़्यादा सहानुभूति तो नहीं थी मगर एक पल के लिए उसे अपने पिता याद आ गए थे। उसके पिता कभी दिल्ली नहीं आए थे, मगर दिल्ली के बारे में जानते बहुत थे।

मोहित को मिश्रा पर बहुत गुस्सा आया था। उसे एक पल को दीपाली पर भी गुस्सा आया था, फिर बहुत प्यार भी आया। उसे दीपाली हमेशा से बुरी लगती हो, ऐसा नहीं था। फिर दीपाली ने चाय मंगवाई मगर बीच में ही कॉल आ गई। मिश्रा था। दरअसल, दीपाली मोहित से बातचीत के चक्कर में अपना बुलेटिन मिस कर गई थी और न्यूज़रूम में बवाल मचा हुआ था।

मोहित और दीपाली मिश्रा के केबिन में खड़े थे। हालांकि, मोहित भी दीपाली की बात को लेकर मिश्रा से बहुत गुस्सा था, मगर मिश्रा के आगे उसका गुस्सा कौड़ी भर का नहीं था। ठीक वैसे ही, जैसे मिश्रा कंपनी के चेयरमैन के आगे अक्सर रिरियाता फिरता है। फिर पीठ पीछे सीना तान कर कहता है, अरे भाई, उनके पास पैसा है तो मालिक बन गए, हमारे पास कुछ नहीं तो शिफ्ट वाले नौकर।

खैर, मिश्रा ने दीपाली को कुछ नहीं कहा और मोहित से फिर वही सब दोहराया जो वो रूटीन की तरह दोहराता रहता था। कि वो चैनल को सबोटाज करने की साज़िश में जुटा हुआ है। दीपाली को जानबूझकर उलझाता है ताकि उसका ध्यान बंटे।

‘तुम चाहते क्या हो स्साले....चैनल छोड़ क्यों नहीं देते....रुको, तुम्हारा उपाय करते हैं’

मिश्रा नॉनस्टॉप बोलता गया और मोहित चुपचाप जी बॉस, जी बॉस कहकर सुनता रहा। बॉस के लिए इतना काफी था कि वो बौखला जाए। वो चाहता था कि कोई उसके आगे विरोध करे और वो उसका सिर कुचल कर रख दे। दरअसल, वो भीतर से इतना कमज़ोर था कि हर शांत आदमी उसे ख़तरा नज़र आता था। मोहित ने देखा, दीपाली ने इस दौरान कोई विरोध नहीं किया। अभी थोड़ी देर पहले ही दोनों कैंटीन में वक्त बांट रहे थे और अब वो अकेले डांट खा रहा है। उसे दीपाली से फिर भी नफरत नहीं हुई। दरअसल, उसके होठों पर लिपस्टिक नहीं थी, उसका मेकअप उतरा हुआ था और ऐसे में मोहित को दीपाली अच्छी लगती थी।

मिश्रा ने फरमान जारी कर दिया कि मोहित की नाइट शिफ्ट लगा दी जाए और महीने की सारी छुट्टियां भी कैंसिल कर दी जाएं। इस चैनल में नाइट शिफ्ट अमूमन दो तरह के कर्मचारियों को लगाई जाती थी। एक वो जो छुट्टी के बाद ऑफिस आते हैं और दूसरे वो जिन्हें बॉस पसंद नहीं करता। ऐसा मान लिया जाता है कि रात में दुनिया चुपचचाप सोती है और बची-खुची जागती दुनिया के लिए कोई बेहूदा भी ख़बर तैयार कर सकता है।

मोहित ने केबिन से बाहर जाते हुए दीपाली को आखिरी बार देखा मगर दीपाली की नज़रें अब भी झुकी हुई थीं। रात की शिफ्ट में चार ही लोग थे। सुशांत ऑफिस पहुंचते ही सबसे आखिरी कुर्सी पर टांग पसारकर सो जाता था और फिर सुबह ही उठता था। महतो जी लंबी छुट्टी से लौटे थे तो रात की शिफ्ट उनके लिए लाज़मी थी। सीनियर थे, इसीलिए सज़ा में भी शिफ्ट इंचार्ज थे। मस्तान साहब जानबूझकर रात की ही शिफ्ट लगवाते थे कि उन्हें शाइरी का शौक था और ये गुमान भी कि 21वीं सदी का सबसे चर्चित दीवान उन्हें ही लिखना है। चौथा खुद मोहित था जिसे रात में ऑफिस आने की आदत नहीं थी। लड़कियों की नाइट शिफ्ट लगती नहीं थी क्योंकि बॉस का मानना था कि लड़कियां ऑफिस में रात की शिफ्ट करने के लिए नहीं बनी होती हैं।

यकीन मानिए, इस मुल्क में हिंदी के टीवी चैनलों के न्यूज़ रूम की स्थिति उन पर दिखाए जाने वाले सनसनीख़ेज़ कार्यक्रमों से कहीं ज़्यादा संगीन होती हैं...कुर्सियों पर बैठे मिश्रा जैसे लोग अपने आसपास एक ऐसी दुनिया रच लेते हैं जिसके इर्द-गिर्द उन्हें सब हरा ही हरा दिखता है। वो ख़ुद को अमेरिका समझने लगते हैं। अमेरिका पर जब पर्ल हार्बर का ऐतिहासिक हमला हुआ तो बुरी तरह तिलमिलाए हुए देश ने पूरी दुनिया को ही गाजर-मूली समझ लिया। मंदी की महामारी से जूझ रहे देश में अचानक युद्ध ने हर अमेरिकी को रोज़गार दे दिया। और युद्ध के लिए तैयार हो रहे अमेरिकी फौजियों के पीछे महिलाएं भी बम-बारूद तैयार करती रहीं। जीप से लेकर एटम बम सब अमेरिका की देन है। मगर जब दूसरा विश्व युद्ध खत्म हुआ तो उनके पास गिनने को कामयाबियां कम थीं, लाखों की तादाद में लाशें ज़्यादा थीं। हज़ार लाशें..लाखों लाशें....क्या वो लाशें ज़िंदा होकर तो हमारी मीडिया में तो नहीं आ गईं। पता नहीं क्यों कई बार ऐसा लगता है। और कहीं मेरा डर सही हुआ तो फिर हमारा हश्र क्या होगा। पता नहीं....।

महतो जी ने मोहित को ऐसे देखा जैसे बरसों से देखा ही नहीं हो।

“अरे मोहित बाबू, इस टैम। क्या हुआ, बॉस से कुछ बात हो गई’’

‘’हां, वो, बॉस का फरमान था’’

‘’फरमान तो बॉसे का होता है बॉस, लेकिन आपको फरमान....ये कुछ पचा नहीं....आप तो करीबी हैं उनके, बुरा मत मानिएगा...कोई विशेष बात हो गई क्या’’

‘’जाने दीजिए न महतो जी...काम शुरू करते हैं’’

अपनी कुर्सी संभालते हुए मोहित को बॉस का केबिन दिखा। कोई था नहीं मगर वहां का टीवी अब भी चल रहा था। दीपाली का रिपीट बुलेटिन ही था। वो मेकअप में मुस्कुरा रही थी। मोहित को लगा कि दीपाली की सज़ा उसकी नाइट शिफ्ट से भी ज़्यादा है। उसके पिता बीमार हैं और वो वाहियात ख़बरों पर मुस्कुरा रही है। उसे अपने पिता की याद आ गई। उसे स्टूडियो में मुस्कुराने वाले तमाम एंकर याद आए। कमरुद्दीन, शेखर, हेमलता और राकेश साहू भी। उन्हें इन सब पर थोड़ा तरस आया। उसका मन हुआ अभी स्टूडियो में जाए और वहां की सब कुर्सियां तोड़ दे। उसने मन ही मन बॉस को कोई गंदी गाली दी। उसका मन हुआ कि अंधेरे में उस केबिन के चारों तरफ पेशाब कर दे। या फिर केबिन का शीशा तोड़ कर चकनाचूर कर दे। फिर उसे दीपाली की याद आई। उसने अचानक दीपाली का नंबर डायल कर दिया। किसी ने कॉल नहीं उठाई। उसे लगा दीपाली सो गई होगी। फिर अचानक एक मैसेज आया। मोहित के होश उड़ गए। दीपाली ट्रेन में थी। इसीलिए फोन रिसीव नहीं कर पा रही थी। मैसेज में लिखा था, ‘’पापा इज़ नो मोर, गोइंग बैक इन ट्रेन, मिसिंग यू, हैव नॉट इंफॉर्म्ड बॉस’’

मोहित को कुछ सूझा नहीं वो क्या करे। उसे बॉस के केबिन में बैठी दीपाली का चेहरा याद आया जब उसे आखिरी बार देखा था। उतरे हुए मेकअप में दीपाली पर बहुत प्यार आया था उसे। अभी रात के दो बजे थे। बाहर इतना अंधेरा था कि उसे पूरी दुनिया बॉस का केबिन लग रही थी। उसने तुरंत अपना बैग उठाया और मस्तान साहब को बताया कि किसी ज़रूरी काम से जा रहा है। महतो जी नीचे चाय के लिए गए थे। वो सड़क पर आया और दीपाली का नंबर मिलाया। फोन लगा नहीं। फिर, उसने अनुमान लगाया कि अभी पैदल स्टेशन पहुंचा नहीं जा सकता है। वो ओवरब्रिज की तरफ दौड़ने लगा, वहां से रात भर ऑटो मिलती थी। वो थोड़ी देर रुका, मिश्रा को एसएमस किया, ‘मिश्रा, रिज़ाइनिंग फ्रॉम ऑफिस, एंज्वॉय लाइफ, गुडबाय मीडिया’ और फिर और तेज़ी से दौड़ने लगा। रात बहुत अंधेरी थी मगर सितारे गवाह थे कि मोहित फूट-फूट कर रो रहा था। उसे नहीं पता था कि उसे जो ट्रेन मिलेगी वो दीपाली के घर जाएगी या उसके अपने घर जहां उसके पिता रहते हैं।

निखिल आनंद गिरि
(हिंदी साहित्य की मैगज़ीन 'पाखी' के मार्च अंक में प्रकाशित)

सोमवार, 12 मार्च 2012

मुस्कुराइए कि आप स्टूडियो में हैं...

ये उन दिनों की बात नहीं है जब घरों की छत पर एंटीना हिलाकर टीवी ठीक कर देना बुद्धिमान होने का सबूत दिया करता था। लड़कों को ज़्यादा दूध और लड़कियों को होशियार कहकर पुचकार दिया जाता था ताकि वो आगे भी इसी तरह एंटीने के साथ दोस्ती बढ़ाकर स्वेटर बुनती मांओं के लिए टीवी का बेहतरीन इंतज़ाम करते रहें। उसी दौर में कुछ होशियार लड़कियां टीवी देखकर बदमाश ख्वाब भी बुना करती थीं कि एक दिन वो भी टीवी पर दिखेंगी और लोग उन्हें देखने के लिए एंटीने हिलाया करेंगे। शुक्र है कि अब टीवी एंटीने से नहीं चलता और न ही मांएं स्वेटर बुनती हैं मगर उनमें से कुछ लड़कियों ने अपने ख्वाब पूरे कर लिए थे।


वो जब कैमरे के सामने आती तो उसे लगता कि सारी दुनिया उसे ही देखने के लिए टीवी खोलती है। उसकी आंखे बहुत खूबसूरत थी और इतना काफी था कि उससे हर बड़ी खबर पढ़वाई जाए। राघवेंद्र मिश्रा का सख्त आदेश था कि जब भी वो टीवी खोले तो पर्दे पर दीपाली ही दिखनी चाहिए। कभी दीपाली ऑफिस में नहीं होती और मिश्रा के केबिन का टीवी ऑन होता तो आउटपुट हेड श्यामल किशोर जानबूझकर दीपाली का रिकॉर्डेड प्रोग्राम चलवा देता। 21 साल की नौकरी में उसका सीधा उसूल था कि कुर्सी पर कोई भी गधा बैठा हो, हुक्म की तामील हमेशा की जानी चाहिए। यही वजह थी कि पिछले आठ साल में उसने अब तक 12 चैनल देख लिए थे मगर उसकी कुर्सी आउटपुट हेड की ही रही थी। न ऊपर, न नीचे। न्यूज़रूम में सबको लगता कि उसे किसी और योनि में पैदा होना चाहिए था, मगर वो गलती से आउटपुड हेड बन गया था। राघवेंद्र मिश्रा इस चैनल का एडिटर था जिसने अपने करियर में इतना पैसा कमा लिया था कि बिहार से लेकर दिल्ली तक के हर बड़े शहर में उसका एक घर था। दिल्ली में तो उसके तीन-तीन घर थे और किसी की कीमत तीन करोड़ से कम की नहीं थी। उसने रिपोर्टिंग के दम पर इतनी पहचान बना ली थी कि उसके बेटे को नौकरी के लिए सिफारिश या बायोडाटा की ज़रूरत नहीं थी। राघवेंद्र मिश्रा को लड़कियों का शौक था और वो हर तीसरे हफ्ते में एक नई एंकर ज़रूर ले आता था। मगर, फिर भी दीपाली उसकी पहली पसंद थी। दीपाली की उम्र उतनी ही होगी जितना राघवेंद्र मिश्रा के बेटे की। मगर, राघवेंद्र और दीपाली अक्सर साथ-साथ ही कॉफी पीते। कभी-कभी केबिन में भी, एक ही पाइप से।

दफ्तर जिसे न्यूज़रूम भी कहते हैं, वहां कैमरे के सामने जब रिपोर्टर कभी-कभी अंग्रेज़ी में धड़ाधड़ लाइव बोल रही होती तो सबकी नज़रें उसे ही देखतीं। कुर्सियों पर बैठे हुए लोगों के आसपास खड़े उस(उन) स्टाफ के पास भी तब काफी समय होता कि वो सब कामधाम छोड़कर उसे ही एकटक देख रहे होते। मैं उनसे पूछना चाहता हूं कि उस वक्त उनके दिमाग में क्या चलता होगा। क्या उन्हें डर नहीं लगता कि आज वक्त पर मिश्रा के कमरे में चाय नहीं पहुंची तो उनकी नौकरी जा सकती है। क्या नहीं समझ आने वाली उस बोली को सुनना उनके लिए इतना ज़रूरी है। क्या लड़की कोई चुंबक है जहां उनके भीतर का कोई लोहा चिपक जाता है। क्या ये लोहा हर मर्द के भीतर होता है। अगर हां तो फिर मिश्रा के भीतर भी यही लोहा था, जो उम्र के साथ घिसता नहीं था?

मोहित दीपाली से बहुत चिढ़ता था। उसे लगता कि एक दिन जब दीपाली कैमरे के सामने खड़ी होगी, वो टेलीप्रांप्टर से सारे अक्षर गायब कर देगा। उसे लगता जब कैमरे के आगे कुछ लिखा नहीं होगा, तो दीपाली टीवी पर वही दिखेगी जैसा उसे दिखना चाहिए, एकदम भद्दी और बेवकूफ। फिर देखेगा कि राघवेंद्र मिश्रा दीपाली का मुंह नोंचता है कि चूमता है। वो जब भी दीपाली को मेकअप के साथ न्यूज़रूम में चलते देखता, उसे लगता जैसे जेमिनी सर्कस की कोई लड़की दर्शक दीर्घा में फ्लाइंग किस लिए मुस्कुराते घूम रही है और लोग उसे स्माइल पास कर रहे हैं। उसे लगता कि लिपस्टिक लगाने वाली लड़कियां सिर्फ नफरत के काबिल होती हैं। उसका मन होता कि राघवेंद्र मिश्रा के सारे बाल झड़ जाएं और उसके गंजे सिर को देखकर दीपाली पागलों की तरह हंसे। फिर पूरा न्यूज़रूम हंसे और मिश्रा झुंझलाहट में पागल हो जाए। दीपाली मोहित से कम ही बोलती थी मगर जब भी बोलती, मोहित की बोर्ड पर ज़ोर-ज़ोर से उंगलियां फिराने लगता।

मोहित पिछले दो साल से एक ही शिफ्ट में ऑफिस पहुंचता था। उसने दो सालों में दिल्ली की कोई शाम नहीं देखी थी। हफ्ते में जिस दिन छुट्टी होती, वो शाम को सोना पसंद करता। उसे लगता दुनिया का हर आदमी नौकरी करने के बाद अपनी सुबह या शाम खो देता है। शाम का रंग कैसा होता है, शाम को लोग क्या पहनते हैं, खाते क्या हैं, वो जानना चाहता था। उसके कंप्यूटर पर गूगल खुलता था मगर शाम की कोई तस्वीर वहां उपलब्ध नहीं थी। उसे ऐसी शामों को और गुस्सा आता जब वो भाग-भागकर सात बजे का बुलेटिन तैयार करता और अचानक उसे मालूम पड़ता कि दीपाली इसे पढ़ेगी। वो जानबूझकर एकाध गलतियां छोड़ देता था ताकि दीपाली अटके, झुंझलाए और बुलेटिन के बाद मिश्रा के केबिन में मुस्कुराती हुई न घुसे। उसे शायद जेमिनी सर्कस से चिढ रही होगी। दीपाली पढ़ती –

‘’इससे पहले कि पुलिस वहां आ पाती, लुटेरे फरा...री हो चुके थे। माफ कीजिएगा, फरार हो चुके थे। ‘’

बढ़ते हैं अगली ख़बर की ओर...

‘’गोरखपुर में इं..से..फ्लाटी....माफ कीजिएगी....इफ्लेसाइटिस...सॉरी....इंसेफटाइसिस...फिर दीपाली संभलती और जैसे तैसे कहती कि गोरखपुर में एक बीमारी ने कहर बरपा रखा है....फिर वो हड़बड़ी में मुस्कुराकर ब्रेक लेती।‘’

अभी एक छोटा-सा ब्रेक लेते हैं, कहीं मत जाइएगा...

दीपाली चिल्लाती – मोहित, व्हाट रब्बिश....कांट यू राइट ए सिंपल वन....दिस इज़ कंपलीट शिट...

मोहित कहता, मुझे क्या पता तुम्हारी अंग्रेज़ी इतनी बुरी है। चलो, दिमागी बुखार कह लो।

दीपाली और झुंझलाई कि मेरी अंग्रेज़ी ख़राब नहीं, तुम्हारा दिमाग खराब है। फिर, तकरार और बढ़ती ब्रेक खत्म हो गया और दीपाली पर्दे पर मुस्कुराने लगती। फिर, मोहित भी मुस्कुराता। हालांकि, उसे पता था कि मिश्रा दीपाली की खुन्नस में उसकी जमकर क्लास लेने वाला है कि वो जानबूझकर चैनल को सबोटाज कर रहा है। फिर मोहित चुपचाप केबिन में खड़ा होगा और मिश्रा आंयबांय बकता रहेगा।

‘तुम हमको नहीं जानते कि हम कौन हैं....अभी सैक करा देंगे स्साले...जानबूझकर टफ बुलेटिन बनाते हो कि दीपाली को प्रॉब्लम हो...’

‘नहीं सर, हमको तो पता ही नहीं था कि दीपाली पढ़ने वाली है, नहीं तो हम दिमागी बुखार ही लिखते सर..’

‘देखो, जादा राजनीति मत पादो....हम सब जानते हैं स्साले.....जादा ही गरम खून है तुम्हारा, कंट्रोल में रहा करो, समझा..’

‘जी सर...’

.........

कभी-कभी टीवी के बारे में सोचता हूं तो बहुत कुछ सोचने का मन करता है। ज़रा सोचिए, टीवी पर दिखने वाले चेहरे कहां-कहां किस-किस मूड में देखे जाते होंगे। कहीं पान की दुकान में 14 इंच के छोटे ब्लैक एंड व्हाइट पोर्टेबल टीवी और उसमें दिखने वाले ख़ूबसूरत चेहरों से न जाने कितनों के दिन और दिल बहलाते होंगे। हां, ब्लैक एंड व्हाइट को किसी कलर टीवी के आगे शर्म ज़रूर आती होगी कि वो लाख चाहकर भी ख़बर की ख़ूबसूरती नहीं बढ़ा सकता। फिर कहीं टीवी पर गलत-सलत पढ़ रही एंकर को सही-सही समझकर सामान्य ज्ञान बढ़ा रही एक आबादी भी होगी जो एक बार, बस एक बार इस चेहरे से मिलना चाहती होगी। वो इसी भरम में जीते रहना चाहते होंगे कि उनके इस 14 या 16 या 21 इंच के टीवी के भीतर के चेहरे किसी देवलोक का हिस्सा हैं जहां सिर्फ दूध-घी की नदियां बहती होंगी और इन चेहरों की तनख़्वाह और रसूख इतना ज़्यादा होगा कि अंदाज़ा लगा पाना भी मुश्किल है। जबकि, असलियत ये थी कि इन टीवी के भीतर दिखने वाले चेहरों से मेकअप उतरता तो जो असली दुनिया इनके सामने होती वहां लार टपकाते कुछ लोग होते, सौ-दो सौ की इन्क्रीमेंट के लिए साथी को वेश्या घोषित करने वाली ज़ुबानें होतीं और चकाचौंध के भ्रमजाल के बीच चारों तरफ मौत जितना अंधेरा और अकेलापन।

(साहित्य की मैगज़ीन 'पाखी' के मार्च अंक में प्रकाशित)
(कहानी का बाक़ी हिस्सा  यहां पढें  मुस्कुराइए कि आप स्टूडियो में हैं-2)

निखिल आनंद गिरि

ये पोस्ट कुछ ख़ास है

मृत्यु की याद में

कोमल उंगलियों में बेजान उंगलियां उलझी थीं जीवन वृक्ष पर आखिरी पत्ती की तरह  लटकी थी देह उधर लुढ़क गई। मृत्यु को नज़दीक से देखा उसने एक शरीर ...

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