गुरुवार, 22 मार्च 2012

विवेक मिश्र की कहानियां चुराना मना है...

विवेक मिश्र को मैं पिछले कुछ महीनों से जानता हूं। उनकी कई कविताएं पढ़ी हैं। कुछ कहानियां भी पढ़ी हैं। एकाध साहित्यिक कार्यक्रमों में मंच पर भी साथ रहे हैं। शिल्पायन से छपा उनका कहानी-संग्रह ''हनियां तथा अन्य कहानियां'' लगभग पूरा पढ़ चुका हूं। विवेक मिश्र ने खुद ही ये किताब मुझे पढ़ने के लिए दी थी। उनसे जब भी मुलाकात हुई, 'हनियां' का ज़िक्र उनकी ज़ुबान पर ज़रूर आया। उन्हें उम्मीद भी रही होगी कि मैं 'हनियां' कहानी पढ़ते ही उन्हें फोन करूंगा और अपनी प्रतिक्रिया दूंगा। मगर, मैंने जब उन्हें फोन किया और उनके कहानी संग्रह पर बात की तो हनियां का ज़िक्र बहुत बाद में आया। पहला और सबसे ज़्यादा ज़िक्र 'तितली' का आया था। एक पाठक के लिहाज से यही कहूंगा कि हनियां एक सफल (चर्चित) और लंबी कहानी भले रही हो, मगर छोटी कहानी 'तितली' में विवेक मिश्र ज़्यादा ओरिजिनल लगते हैं।

पिता की मौत के बाद दिल्ली में घर में तीन अकेली लड़कियों की कहानी है' तितली'। 14 साल की बड़ी बेटी अंशु, छोटी बेटी बिन्नी और इन दोनों की विधवा मां। अंशु की उम्र उसे 'दिल्ली की हवा' में तितली की तरह उड़ने को बेकरार करती है, मगर एक अनजान-सा डर और मां-बिन्नी की चिंता उसे हर बार रोक लेती है। मगर, जब एक दिन दिल्ली की हवा अंशु को उड़ाकर ले जाती है तब उसे अहसास होता है कि अपनी भरपूर उड़ान के भरम में अपने पंख ही गंवा बैठी है। आखिर तक आते-आते कहानी बिन्नी के जवान होते हाथों में उस तितली को महफूज़ कर देती है। दिल्ली नाम के अंधे कुंए में अपनी मर्ज़ी से डूबने का एक चक्र जारी रहता है।

अचानक इस कहानी का ज़िक्र इसलिए क्योंकि फेसबुक पर हिंदी कहानी के जानकारों की वॉल के ज़रिए हाल ही में पढ़ने में आया कि जयश्री रॉय नाम की लेखिका पर उनकी कहानी ''बारिश, समंदर और एक रात..'' के लिए 'तितली' के कुछ हिस्से हूबहू 'चुराने' के आरोप थे। कथादेश में उनकी इस कहानी को पढकर ही पता चला कि वो गोवा में रहती हैं और बिहार से उनका ताल्लुक है। चर्चित कवियत्री और कहानीकार भी हैं। मेरा दुर्भाग्य कि मैं जयश्री जी को नहीं जानता। मैंने उनकी कहानी कई बार पढ़ी और सचमुच 'तितली' और 'बारिश, समंदर और एक रात...' लगभग एक जैसी कहानियां हैं। 'समंदर,बारिश और एक रात' जय श्री राय की कथादेश के मार्च-2012 में प्रकाशित कहानी है। यह कहानी भी एक युवा अवस्था में कदम रखती युवती की कहानी है जो अपनी ग्रेनी के साथ गोआ में रहती है। उसके पिता घर छोड़कर विदेश चले गए हैं। वह भी एक रात बाहर निकल कर एक आकर्षक युवक के संपर्क में आती है। उसके साथ जाकर दुनिया देखना चाहती है,जीना चाहती है। एक बहुत हसीन रात में लड़की का बॉयफ्रेन्ड लड़की को घर से बाहर पार्टी में चल कर एन्जाय करने को कहता है। वह मान जाती है दोनो नाचते-गाते हैं। करीब आते हैं, भरपूर प्यार करते हैं। उन्हें प्यार करते हुए लड़के के साथी देख लेते हैं। वह उसे एक खाली गोदाम में ले जाते हैं और नशे की हालत में उसके साथ बलात्कार करते हैं। लड़की को जब होश आता है। तब वह समंदर किनारे बैठी रह जाती है।

लोगों के नाम और जगह बदल दिए जाएं तो दोनों कहानियों में घटनाएं एक ही सिलसिले में होती नज़र आती हैं। कई जगह शब्द या पूरे-पूरे वाक्य भी मिलते नज़र आते हैं। मुमकिन है कि जयश्री ने 'तितली' पढ़ी हो और उस कहानी से प्रेरित होकर अपनी कहानी गढ़ी है, जो मुझे ग़लत नहीं दिखता। दुख इस बात का है कि फेसबुक पर दोनों 'पक्षों' (खेमों) की ओर से तमाम तरह के उल्टे-सीधे तीर चलते रहे और आखिर में जयश्री रॉय ने विवेक मिश्र से माफी मांग ली। हिंदी के लगभग तमाम लेखकों को तो वैसे भी अपनी जेब से पैसा खर्च कर लिखना-छपना पड़ता है और उस पर भी अगर रही-सही पूंजी यानी कहानी में ही सेंध पड़ने लगे तो बेचारा लेखक क्या करेगा। कई बार मैं भी अपने ब्लॉग का सामान किसी और ब्लॉग पर उस ब्लॉगर के नाम से छपा देख चुका हूं। मगर, मुझे इस मामले को 'कानूनन' आगे बढ़ाने के कोई नियम ही नहीं पता। अगर आप मदद कर सकें, तो मेहरबानी होगी।

हैरत की बात ये है कि विवेक मिश्र के साथ ऐसा पहली बार नहीं हुआ है। उनकी 'हनियां' कहानी किसी टीवी सीरियल ने हूबहू उड़ा ली तो मामला कोर्ट तक चला गया। एक और कहानी 'बदबू' के बारे में तो कुछ पाठकों ने ये तक कह दिया कि गुलज़ार की कहानी 'हिलसा' में इसकी नकल दिखती है। हर बार विवेक मिश्र के साथ ही ऐसा क्यों होता है। फिल्मी दुनिया में इस तरह के आरोपों के पीछे पब्लिसिटी बटोरने के मकसद भी होते हैं, मगर हिंदी साहित्य की फटेहाल दुनिया में शायद ही विवेक मिश्र या जयश्री रॉय को इसका कोई फायदा होने वाला है। यहां मामला करोड़ों का नहीं कौड़ी भर का है।


निखिल आनंद गिरि
(इस विवाद में इतनी देर से टांग अड़ाने की वजह ये है कि मैं इन दिनों फेसबुक या बाहरी दुनिया से कटा हुआ था। जब जागा, तभी सवेरा...)


बुधवार, 14 मार्च 2012

मुस्कुराइए कि आप स्टूडियो में हैं - 2

(इस कहानी का पहला हिस्सा आप पढ़ चुके हैं....बाक़ी हिस्सा यहां है....)
उस रोज़ बारिश हो रही थी। मोहित कैंटीन में अपने अकेलेपन के साथ बैठा था। इब्ने मियां अचानक याद आए थे। दो बार मिला था मोहित उनसे। एक बार तब जब मिश्रा के कहने पर चाय पर स्टोरी करने गया था और मिश्रा ने ही इब्ने भाई का पता बताया था। बड़ी-बड़ी आंखों के नीचे से रोएं गायब हो गए थे और होंठ के एक कोने में लाल पीक टंगी रहती थी। इस उम्र में भी कुछ लोग उन्हें भाई कहते थे। उनके साथ चाय की एक प्याली में पूरे लखनऊ की सैर हो जाती थी । ‘’देखो भाई, ये असल कश्मीरी चाय तो है नहीं कि तुम्हें वो वाली गर्मी दे। देखो जाफरान जो है, जो इस चाय में डाली नही है, वो कश्मीरी पंडित लखनऊ लेकर आए।‘’ वो यही बात तीन बार कहते और चाय खत्म हो जाती। फिर पान पर शुरु होते तो पान की एक-एक पत्ती के बारे में व्याख्यान सुनाते। फिर कहते, ‘’मिश्रा बड़ा आदमी बन गया है। हमारे यहां ही बैठकर रात भर मंगल पर टाइपिंग सीखता था। बाकी सब तो ठीक है, मगर ज़रूरत पड़ने पर पंडिजी और बाभन बनते देर नहीं लगती उसको। बच के रहना उससे। बेटे जैसा है, लेकिन किसी का नहीं है वो।‘’ दूसरी बार तब मिला था, जब उनके गुज़रने की खबर आई थी। मोहित को जाना पड़ा था ऑफिस से झूठ बोलकर। रोएं गायब थे तब भी और होठों की लाल पीक भी। मरते-मरते कहते रहे थे, मोहित मियां, हमने अपनी मां के मुंह से चबाया हुआ पान पूरे बचपन भर खाया है, इतनी आसानी से मरने वाले नहीं हैं।


खैर, जब मोहित लौटा था तो मिश्रा ने खूब झाड़ पिलाई थी, दीपाली के सामने, बेवजह।

‘’ स्साले, इब्ने तुम्हारा बाप लगता था। क्या सोचा था, झूठ बोलकर जाओगे और हमें पता नहीं चलेगा। स्साले, मियां-मौलवी के लिए इतनी मोहब्बत और मिश्रा के चैनल के लिए कोई फिक्र ही नहीं। देखो मोहित, नौकरी तुम्हारी मजबूरी है, तुम हमारी मजबूरी नहीं।

अचानक इब्ने मियां की याद कैंटीन में क्यों आ गई थी। शायद चाय पीने की इच्छा थी और साथ पीने वाला कोई नहीं था। अचानक दीपाली दिखी थी। पीछे से ही पहचान में आ जाती थी। हालांकि, मोहित दीपाली से बात करने में रत्ती भर दिलचस्पी नहीं रखता था, मगर उस दिन इतना अकेला था कि किसी के साथ बैठना चाहता था।

‘हाय दीपाली, चाय पियोगी...’

‘नहीं, मूड नहीं है...’

‘क्यों, मिश्रा के साथ पीकर आई हो, हेहे’

दीपाली ने कुछ कहा नहीं। जबकि उसे बिफर जाना था। मोहित पहली बार उसे सांत्वना भरी नज़रों से देखने लगा। उसकी आंखें लाल थीं, रोई हुई। मोहित ने ज़ोर देकर पूछा तो दीपाली बताने लगी। मोहित को पहली बार पता चला कि उसके पिता बुलंदशहर के किसी गांव में सरकारी नौकरी करते थे। वो दीपाली की नौकरी से कभी खुश नहीं थे। दरअसल, मिश्रा दो साल पहले बुलंदशहर के कॉलेज में मुख्य अतिथि बनकर गया था तो वहीं दीपाली से मुलाकात हुई थी। उसी ने दीपाली को तीन लाख सालाना का पैकेज ऑफर किया था। इतने पैसे दीपाली के गांव में कोई लड़की नहीं कमाती थी। दीपाली हालांकि एक लोकल टीवी चैनल में नौकरी करती थी जहां मेकअप के नाम पर सिर्फ लिपस्टिक मिला करती थी और कैमरे के एंगल इतने नहीं होते थे कि खूबसूरती काबिले-तारीफ हो सके। मगर, तीन लाख रुपये उसे मिलेंगे, इस बारे में उसने कभी सोचा भी नहीं था। दीपाली के पिता भी मामूली नाराज़गी के बाद मान गए थे। मां को पता नहीं था कि टीवी में दिखने वाली लड़कियां बुलंदशहर से भी आती हैं। उनके घर में इन बातों पर कभी चर्चा नहीं होती थी। हां, टीवी देखने का शौक सभी को था, मगर टीवी के पीछे दिखने वाले चेहरे धरती के हैं कि मंगल के, उस घर में कोई नहीं जानता था।

फिर दीपाली ने बताया कि पिछले हफ्ते पिताजी रिटायर हो गए हैं। उन्हें अचानक दिल का दौरा पड़ा है और पैसों की ज़रूरत पड़ गई है। दीपाली ने मिश्रा से मदद मांगी तो उसने कहा कि अभी वो दिल्ली में नहीं है। रात को लौटेगा और पैसे चाहिए तो रात में घर आकर ले जाए। मोहित को हालांकि अब भी उससे बहुत ज़्यादा सहानुभूति तो नहीं थी मगर एक पल के लिए उसे अपने पिता याद आ गए थे। उसके पिता कभी दिल्ली नहीं आए थे, मगर दिल्ली के बारे में जानते बहुत थे।

मोहित को मिश्रा पर बहुत गुस्सा आया था। उसे एक पल को दीपाली पर भी गुस्सा आया था, फिर बहुत प्यार भी आया। उसे दीपाली हमेशा से बुरी लगती हो, ऐसा नहीं था। फिर दीपाली ने चाय मंगवाई मगर बीच में ही कॉल आ गई। मिश्रा था। दरअसल, दीपाली मोहित से बातचीत के चक्कर में अपना बुलेटिन मिस कर गई थी और न्यूज़रूम में बवाल मचा हुआ था।

मोहित और दीपाली मिश्रा के केबिन में खड़े थे। हालांकि, मोहित भी दीपाली की बात को लेकर मिश्रा से बहुत गुस्सा था, मगर मिश्रा के आगे उसका गुस्सा कौड़ी भर का नहीं था। ठीक वैसे ही, जैसे मिश्रा कंपनी के चेयरमैन के आगे अक्सर रिरियाता फिरता है। फिर पीठ पीछे सीना तान कर कहता है, अरे भाई, उनके पास पैसा है तो मालिक बन गए, हमारे पास कुछ नहीं तो शिफ्ट वाले नौकर।

खैर, मिश्रा ने दीपाली को कुछ नहीं कहा और मोहित से फिर वही सब दोहराया जो वो रूटीन की तरह दोहराता रहता था। कि वो चैनल को सबोटाज करने की साज़िश में जुटा हुआ है। दीपाली को जानबूझकर उलझाता है ताकि उसका ध्यान बंटे।

‘तुम चाहते क्या हो स्साले....चैनल छोड़ क्यों नहीं देते....रुको, तुम्हारा उपाय करते हैं’

मिश्रा नॉनस्टॉप बोलता गया और मोहित चुपचाप जी बॉस, जी बॉस कहकर सुनता रहा। बॉस के लिए इतना काफी था कि वो बौखला जाए। वो चाहता था कि कोई उसके आगे विरोध करे और वो उसका सिर कुचल कर रख दे। दरअसल, वो भीतर से इतना कमज़ोर था कि हर शांत आदमी उसे ख़तरा नज़र आता था। मोहित ने देखा, दीपाली ने इस दौरान कोई विरोध नहीं किया। अभी थोड़ी देर पहले ही दोनों कैंटीन में वक्त बांट रहे थे और अब वो अकेले डांट खा रहा है। उसे दीपाली से फिर भी नफरत नहीं हुई। दरअसल, उसके होठों पर लिपस्टिक नहीं थी, उसका मेकअप उतरा हुआ था और ऐसे में मोहित को दीपाली अच्छी लगती थी।

मिश्रा ने फरमान जारी कर दिया कि मोहित की नाइट शिफ्ट लगा दी जाए और महीने की सारी छुट्टियां भी कैंसिल कर दी जाएं। इस चैनल में नाइट शिफ्ट अमूमन दो तरह के कर्मचारियों को लगाई जाती थी। एक वो जो छुट्टी के बाद ऑफिस आते हैं और दूसरे वो जिन्हें बॉस पसंद नहीं करता। ऐसा मान लिया जाता है कि रात में दुनिया चुपचचाप सोती है और बची-खुची जागती दुनिया के लिए कोई बेहूदा भी ख़बर तैयार कर सकता है।

मोहित ने केबिन से बाहर जाते हुए दीपाली को आखिरी बार देखा मगर दीपाली की नज़रें अब भी झुकी हुई थीं। रात की शिफ्ट में चार ही लोग थे। सुशांत ऑफिस पहुंचते ही सबसे आखिरी कुर्सी पर टांग पसारकर सो जाता था और फिर सुबह ही उठता था। महतो जी लंबी छुट्टी से लौटे थे तो रात की शिफ्ट उनके लिए लाज़मी थी। सीनियर थे, इसीलिए सज़ा में भी शिफ्ट इंचार्ज थे। मस्तान साहब जानबूझकर रात की ही शिफ्ट लगवाते थे कि उन्हें शाइरी का शौक था और ये गुमान भी कि 21वीं सदी का सबसे चर्चित दीवान उन्हें ही लिखना है। चौथा खुद मोहित था जिसे रात में ऑफिस आने की आदत नहीं थी। लड़कियों की नाइट शिफ्ट लगती नहीं थी क्योंकि बॉस का मानना था कि लड़कियां ऑफिस में रात की शिफ्ट करने के लिए नहीं बनी होती हैं।

यकीन मानिए, इस मुल्क में हिंदी के टीवी चैनलों के न्यूज़ रूम की स्थिति उन पर दिखाए जाने वाले सनसनीख़ेज़ कार्यक्रमों से कहीं ज़्यादा संगीन होती हैं...कुर्सियों पर बैठे मिश्रा जैसे लोग अपने आसपास एक ऐसी दुनिया रच लेते हैं जिसके इर्द-गिर्द उन्हें सब हरा ही हरा दिखता है। वो ख़ुद को अमेरिका समझने लगते हैं। अमेरिका पर जब पर्ल हार्बर का ऐतिहासिक हमला हुआ तो बुरी तरह तिलमिलाए हुए देश ने पूरी दुनिया को ही गाजर-मूली समझ लिया। मंदी की महामारी से जूझ रहे देश में अचानक युद्ध ने हर अमेरिकी को रोज़गार दे दिया। और युद्ध के लिए तैयार हो रहे अमेरिकी फौजियों के पीछे महिलाएं भी बम-बारूद तैयार करती रहीं। जीप से लेकर एटम बम सब अमेरिका की देन है। मगर जब दूसरा विश्व युद्ध खत्म हुआ तो उनके पास गिनने को कामयाबियां कम थीं, लाखों की तादाद में लाशें ज़्यादा थीं। हज़ार लाशें..लाखों लाशें....क्या वो लाशें ज़िंदा होकर तो हमारी मीडिया में तो नहीं आ गईं। पता नहीं क्यों कई बार ऐसा लगता है। और कहीं मेरा डर सही हुआ तो फिर हमारा हश्र क्या होगा। पता नहीं....।

महतो जी ने मोहित को ऐसे देखा जैसे बरसों से देखा ही नहीं हो।

“अरे मोहित बाबू, इस टैम। क्या हुआ, बॉस से कुछ बात हो गई’’

‘’हां, वो, बॉस का फरमान था’’

‘’फरमान तो बॉसे का होता है बॉस, लेकिन आपको फरमान....ये कुछ पचा नहीं....आप तो करीबी हैं उनके, बुरा मत मानिएगा...कोई विशेष बात हो गई क्या’’

‘’जाने दीजिए न महतो जी...काम शुरू करते हैं’’

अपनी कुर्सी संभालते हुए मोहित को बॉस का केबिन दिखा। कोई था नहीं मगर वहां का टीवी अब भी चल रहा था। दीपाली का रिपीट बुलेटिन ही था। वो मेकअप में मुस्कुरा रही थी। मोहित को लगा कि दीपाली की सज़ा उसकी नाइट शिफ्ट से भी ज़्यादा है। उसके पिता बीमार हैं और वो वाहियात ख़बरों पर मुस्कुरा रही है। उसे अपने पिता की याद आ गई। उसे स्टूडियो में मुस्कुराने वाले तमाम एंकर याद आए। कमरुद्दीन, शेखर, हेमलता और राकेश साहू भी। उन्हें इन सब पर थोड़ा तरस आया। उसका मन हुआ अभी स्टूडियो में जाए और वहां की सब कुर्सियां तोड़ दे। उसने मन ही मन बॉस को कोई गंदी गाली दी। उसका मन हुआ कि अंधेरे में उस केबिन के चारों तरफ पेशाब कर दे। या फिर केबिन का शीशा तोड़ कर चकनाचूर कर दे। फिर उसे दीपाली की याद आई। उसने अचानक दीपाली का नंबर डायल कर दिया। किसी ने कॉल नहीं उठाई। उसे लगा दीपाली सो गई होगी। फिर अचानक एक मैसेज आया। मोहित के होश उड़ गए। दीपाली ट्रेन में थी। इसीलिए फोन रिसीव नहीं कर पा रही थी। मैसेज में लिखा था, ‘’पापा इज़ नो मोर, गोइंग बैक इन ट्रेन, मिसिंग यू, हैव नॉट इंफॉर्म्ड बॉस’’

मोहित को कुछ सूझा नहीं वो क्या करे। उसे बॉस के केबिन में बैठी दीपाली का चेहरा याद आया जब उसे आखिरी बार देखा था। उतरे हुए मेकअप में दीपाली पर बहुत प्यार आया था उसे। अभी रात के दो बजे थे। बाहर इतना अंधेरा था कि उसे पूरी दुनिया बॉस का केबिन लग रही थी। उसने तुरंत अपना बैग उठाया और मस्तान साहब को बताया कि किसी ज़रूरी काम से जा रहा है। महतो जी नीचे चाय के लिए गए थे। वो सड़क पर आया और दीपाली का नंबर मिलाया। फोन लगा नहीं। फिर, उसने अनुमान लगाया कि अभी पैदल स्टेशन पहुंचा नहीं जा सकता है। वो ओवरब्रिज की तरफ दौड़ने लगा, वहां से रात भर ऑटो मिलती थी। वो थोड़ी देर रुका, मिश्रा को एसएमस किया, ‘मिश्रा, रिज़ाइनिंग फ्रॉम ऑफिस, एंज्वॉय लाइफ, गुडबाय मीडिया’ और फिर और तेज़ी से दौड़ने लगा। रात बहुत अंधेरी थी मगर सितारे गवाह थे कि मोहित फूट-फूट कर रो रहा था। उसे नहीं पता था कि उसे जो ट्रेन मिलेगी वो दीपाली के घर जाएगी या उसके अपने घर जहां उसके पिता रहते हैं।

निखिल आनंद गिरि
(हिंदी साहित्य की मैगज़ीन 'पाखी' के मार्च अंक में प्रकाशित)

सोमवार, 12 मार्च 2012

मुस्कुराइए कि आप स्टूडियो में हैं...

ये उन दिनों की बात नहीं है जब घरों की छत पर एंटीना हिलाकर टीवी ठीक कर देना बुद्धिमान होने का सबूत दिया करता था। लड़कों को ज़्यादा दूध और लड़कियों को होशियार कहकर पुचकार दिया जाता था ताकि वो आगे भी इसी तरह एंटीने के साथ दोस्ती बढ़ाकर स्वेटर बुनती मांओं के लिए टीवी का बेहतरीन इंतज़ाम करते रहें। उसी दौर में कुछ होशियार लड़कियां टीवी देखकर बदमाश ख्वाब भी बुना करती थीं कि एक दिन वो भी टीवी पर दिखेंगी और लोग उन्हें देखने के लिए एंटीने हिलाया करेंगे। शुक्र है कि अब टीवी एंटीने से नहीं चलता और न ही मांएं स्वेटर बुनती हैं मगर उनमें से कुछ लड़कियों ने अपने ख्वाब पूरे कर लिए थे।


वो जब कैमरे के सामने आती तो उसे लगता कि सारी दुनिया उसे ही देखने के लिए टीवी खोलती है। उसकी आंखे बहुत खूबसूरत थी और इतना काफी था कि उससे हर बड़ी खबर पढ़वाई जाए। राघवेंद्र मिश्रा का सख्त आदेश था कि जब भी वो टीवी खोले तो पर्दे पर दीपाली ही दिखनी चाहिए। कभी दीपाली ऑफिस में नहीं होती और मिश्रा के केबिन का टीवी ऑन होता तो आउटपुट हेड श्यामल किशोर जानबूझकर दीपाली का रिकॉर्डेड प्रोग्राम चलवा देता। 21 साल की नौकरी में उसका सीधा उसूल था कि कुर्सी पर कोई भी गधा बैठा हो, हुक्म की तामील हमेशा की जानी चाहिए। यही वजह थी कि पिछले आठ साल में उसने अब तक 12 चैनल देख लिए थे मगर उसकी कुर्सी आउटपुट हेड की ही रही थी। न ऊपर, न नीचे। न्यूज़रूम में सबको लगता कि उसे किसी और योनि में पैदा होना चाहिए था, मगर वो गलती से आउटपुड हेड बन गया था। राघवेंद्र मिश्रा इस चैनल का एडिटर था जिसने अपने करियर में इतना पैसा कमा लिया था कि बिहार से लेकर दिल्ली तक के हर बड़े शहर में उसका एक घर था। दिल्ली में तो उसके तीन-तीन घर थे और किसी की कीमत तीन करोड़ से कम की नहीं थी। उसने रिपोर्टिंग के दम पर इतनी पहचान बना ली थी कि उसके बेटे को नौकरी के लिए सिफारिश या बायोडाटा की ज़रूरत नहीं थी। राघवेंद्र मिश्रा को लड़कियों का शौक था और वो हर तीसरे हफ्ते में एक नई एंकर ज़रूर ले आता था। मगर, फिर भी दीपाली उसकी पहली पसंद थी। दीपाली की उम्र उतनी ही होगी जितना राघवेंद्र मिश्रा के बेटे की। मगर, राघवेंद्र और दीपाली अक्सर साथ-साथ ही कॉफी पीते। कभी-कभी केबिन में भी, एक ही पाइप से।

दफ्तर जिसे न्यूज़रूम भी कहते हैं, वहां कैमरे के सामने जब रिपोर्टर कभी-कभी अंग्रेज़ी में धड़ाधड़ लाइव बोल रही होती तो सबकी नज़रें उसे ही देखतीं। कुर्सियों पर बैठे हुए लोगों के आसपास खड़े उस(उन) स्टाफ के पास भी तब काफी समय होता कि वो सब कामधाम छोड़कर उसे ही एकटक देख रहे होते। मैं उनसे पूछना चाहता हूं कि उस वक्त उनके दिमाग में क्या चलता होगा। क्या उन्हें डर नहीं लगता कि आज वक्त पर मिश्रा के कमरे में चाय नहीं पहुंची तो उनकी नौकरी जा सकती है। क्या नहीं समझ आने वाली उस बोली को सुनना उनके लिए इतना ज़रूरी है। क्या लड़की कोई चुंबक है जहां उनके भीतर का कोई लोहा चिपक जाता है। क्या ये लोहा हर मर्द के भीतर होता है। अगर हां तो फिर मिश्रा के भीतर भी यही लोहा था, जो उम्र के साथ घिसता नहीं था?

मोहित दीपाली से बहुत चिढ़ता था। उसे लगता कि एक दिन जब दीपाली कैमरे के सामने खड़ी होगी, वो टेलीप्रांप्टर से सारे अक्षर गायब कर देगा। उसे लगता जब कैमरे के आगे कुछ लिखा नहीं होगा, तो दीपाली टीवी पर वही दिखेगी जैसा उसे दिखना चाहिए, एकदम भद्दी और बेवकूफ। फिर देखेगा कि राघवेंद्र मिश्रा दीपाली का मुंह नोंचता है कि चूमता है। वो जब भी दीपाली को मेकअप के साथ न्यूज़रूम में चलते देखता, उसे लगता जैसे जेमिनी सर्कस की कोई लड़की दर्शक दीर्घा में फ्लाइंग किस लिए मुस्कुराते घूम रही है और लोग उसे स्माइल पास कर रहे हैं। उसे लगता कि लिपस्टिक लगाने वाली लड़कियां सिर्फ नफरत के काबिल होती हैं। उसका मन होता कि राघवेंद्र मिश्रा के सारे बाल झड़ जाएं और उसके गंजे सिर को देखकर दीपाली पागलों की तरह हंसे। फिर पूरा न्यूज़रूम हंसे और मिश्रा झुंझलाहट में पागल हो जाए। दीपाली मोहित से कम ही बोलती थी मगर जब भी बोलती, मोहित की बोर्ड पर ज़ोर-ज़ोर से उंगलियां फिराने लगता।

मोहित पिछले दो साल से एक ही शिफ्ट में ऑफिस पहुंचता था। उसने दो सालों में दिल्ली की कोई शाम नहीं देखी थी। हफ्ते में जिस दिन छुट्टी होती, वो शाम को सोना पसंद करता। उसे लगता दुनिया का हर आदमी नौकरी करने के बाद अपनी सुबह या शाम खो देता है। शाम का रंग कैसा होता है, शाम को लोग क्या पहनते हैं, खाते क्या हैं, वो जानना चाहता था। उसके कंप्यूटर पर गूगल खुलता था मगर शाम की कोई तस्वीर वहां उपलब्ध नहीं थी। उसे ऐसी शामों को और गुस्सा आता जब वो भाग-भागकर सात बजे का बुलेटिन तैयार करता और अचानक उसे मालूम पड़ता कि दीपाली इसे पढ़ेगी। वो जानबूझकर एकाध गलतियां छोड़ देता था ताकि दीपाली अटके, झुंझलाए और बुलेटिन के बाद मिश्रा के केबिन में मुस्कुराती हुई न घुसे। उसे शायद जेमिनी सर्कस से चिढ रही होगी। दीपाली पढ़ती –

‘’इससे पहले कि पुलिस वहां आ पाती, लुटेरे फरा...री हो चुके थे। माफ कीजिएगा, फरार हो चुके थे। ‘’

बढ़ते हैं अगली ख़बर की ओर...

‘’गोरखपुर में इं..से..फ्लाटी....माफ कीजिएगी....इफ्लेसाइटिस...सॉरी....इंसेफटाइसिस...फिर दीपाली संभलती और जैसे तैसे कहती कि गोरखपुर में एक बीमारी ने कहर बरपा रखा है....फिर वो हड़बड़ी में मुस्कुराकर ब्रेक लेती।‘’

अभी एक छोटा-सा ब्रेक लेते हैं, कहीं मत जाइएगा...

दीपाली चिल्लाती – मोहित, व्हाट रब्बिश....कांट यू राइट ए सिंपल वन....दिस इज़ कंपलीट शिट...

मोहित कहता, मुझे क्या पता तुम्हारी अंग्रेज़ी इतनी बुरी है। चलो, दिमागी बुखार कह लो।

दीपाली और झुंझलाई कि मेरी अंग्रेज़ी ख़राब नहीं, तुम्हारा दिमाग खराब है। फिर, तकरार और बढ़ती ब्रेक खत्म हो गया और दीपाली पर्दे पर मुस्कुराने लगती। फिर, मोहित भी मुस्कुराता। हालांकि, उसे पता था कि मिश्रा दीपाली की खुन्नस में उसकी जमकर क्लास लेने वाला है कि वो जानबूझकर चैनल को सबोटाज कर रहा है। फिर मोहित चुपचाप केबिन में खड़ा होगा और मिश्रा आंयबांय बकता रहेगा।

‘तुम हमको नहीं जानते कि हम कौन हैं....अभी सैक करा देंगे स्साले...जानबूझकर टफ बुलेटिन बनाते हो कि दीपाली को प्रॉब्लम हो...’

‘नहीं सर, हमको तो पता ही नहीं था कि दीपाली पढ़ने वाली है, नहीं तो हम दिमागी बुखार ही लिखते सर..’

‘देखो, जादा राजनीति मत पादो....हम सब जानते हैं स्साले.....जादा ही गरम खून है तुम्हारा, कंट्रोल में रहा करो, समझा..’

‘जी सर...’

.........

कभी-कभी टीवी के बारे में सोचता हूं तो बहुत कुछ सोचने का मन करता है। ज़रा सोचिए, टीवी पर दिखने वाले चेहरे कहां-कहां किस-किस मूड में देखे जाते होंगे। कहीं पान की दुकान में 14 इंच के छोटे ब्लैक एंड व्हाइट पोर्टेबल टीवी और उसमें दिखने वाले ख़ूबसूरत चेहरों से न जाने कितनों के दिन और दिल बहलाते होंगे। हां, ब्लैक एंड व्हाइट को किसी कलर टीवी के आगे शर्म ज़रूर आती होगी कि वो लाख चाहकर भी ख़बर की ख़ूबसूरती नहीं बढ़ा सकता। फिर कहीं टीवी पर गलत-सलत पढ़ रही एंकर को सही-सही समझकर सामान्य ज्ञान बढ़ा रही एक आबादी भी होगी जो एक बार, बस एक बार इस चेहरे से मिलना चाहती होगी। वो इसी भरम में जीते रहना चाहते होंगे कि उनके इस 14 या 16 या 21 इंच के टीवी के भीतर के चेहरे किसी देवलोक का हिस्सा हैं जहां सिर्फ दूध-घी की नदियां बहती होंगी और इन चेहरों की तनख़्वाह और रसूख इतना ज़्यादा होगा कि अंदाज़ा लगा पाना भी मुश्किल है। जबकि, असलियत ये थी कि इन टीवी के भीतर दिखने वाले चेहरों से मेकअप उतरता तो जो असली दुनिया इनके सामने होती वहां लार टपकाते कुछ लोग होते, सौ-दो सौ की इन्क्रीमेंट के लिए साथी को वेश्या घोषित करने वाली ज़ुबानें होतीं और चकाचौंध के भ्रमजाल के बीच चारों तरफ मौत जितना अंधेरा और अकेलापन।

(साहित्य की मैगज़ीन 'पाखी' के मार्च अंक में प्रकाशित)
(कहानी का बाक़ी हिस्सा  यहां पढें  मुस्कुराइए कि आप स्टूडियो में हैं-2)

निखिल आनंद गिरि

बुधवार, 15 फ़रवरी 2012

एक सूरज टूट कर बिखरा पड़ा है...

सीने में जलन, आंखों में तूफान-सा क्यों है...
एक शायर मर गया है,
इस ठिठुरती रात में...
कल सुबह होगी उदास,
देखना तुम....

देखना तुम...
धुंध चारों ओर होगी,
इस जहां को देखने वाला,
सभी की...
बांझ नज़रें कर गया है....
... एक शायर मर गया है....

मखमली यादों की गठरी
पास उसके...

और कुछ सपने पड़े हैं आंख मूंदे....
ज़िंदगी की रोशनाई खर्च करके,
बेसबब नज़्मों की तह में,
चंद मानी भर गया है.....
एक शायर मर गया है....

एक सूरज टूट कर बिखरा पड़ा है,
एक मौसम के लुटे हैं रंग सारे....
वक्त जिसको सुन रहा था...
गुम हुआ है...
लम्हा-लम्हा डर गया है....
एक शायर मर गया है...
इस ठिठुरती रात में....

(एक पुरानी नज़्म, शहरयार साहब की यादों के साथ दोबारा पढ़ें)

मंगलवार, 7 फ़रवरी 2012

मैं उस शहर से लौटा हूं अजनबी की तरह...



तस्वीर में मैं हूं और मेरे बचपन का साथी मेरा बैट....
ज भी उस मकान में रखा मिला,
जहां बचपन का बड़ा हिस्सा गुज़रा.
ऊपर की फोटो ईटीसी मैदान की है, मेरा फेवरेट मैदान
 मैं उस शहर से लौटा हूं अजनबी की तरह....

जहां पहाड़ के ऊपर बसा है एक मंदिर
एक पत्थर को दूध से नहलाती भली-सी लड़की
मैं उसकी कलाई पे हौले से हाथ रखता हूं
और पहुंच जाती है मेरी छुअन पत्थर तक !
मैं मुस्कुराता हूं उस अजनबी लड़की के साथ
जिसने पहुंचाए हैं पत्थर तक मेरे जज़्बात..

जहां पत्थरों से भी ख़ुदा का रिश्ता था...
मैं उस शहर से लौटा हूं अजनबी की तरह....

वो एक घर जहां पाये की ओट में अब भी
पड़े हैं बैट, विकेट मुद्दतों से, मुरझाए...
सफेद रंग की बूढ़ी-सी झड़ती दीवारें
ज़रा-सा छू भी दूं तो रंग हरा हो जाए
सभी के नाम फ़कत नाम नहीं, रिश्ते थे
दुआ की शक्ल में माथे पे कितने बोसे थे

जहां की छत भी गले लग के रोई बरसों...
मैं उस शहर से लौटा हूं अजनबी की तरह....

यहां शहर में कोई आदमी नहीं मिलता
वहां गली में कोई अजनबी नहीं मिलता
वो किसी और ही मिट्टी से तराशे गए लोग
ऐसी मिट्टी कि चढ़ता ही नहीं और कोई रंग
वो एक बोली जो मीठी थी बिना समझे भी
जहां बाक़ी है नज़रों में अब तलक ईमान

जहां महफूज़ है रूह मेरी बरसों से...
मैं उस शहर से लौटा हूं अजनबी की तरह....

(हाल ही में रांची से लौटकर लिखी गई नज़्म......)

रविवार, 22 जनवरी 2012

पांड़े जी की प्रेमकथा और गांधी जी से सहानुभूति

कुछ लोग कहते हैं कि घर चलाना देश चलाने से भी ज़्यादा मुश्किल है। देश में आजकल कुछ भी अच्छा चल नहीं रहा। मां घर बहुत अच्छा चला लेती है। अगर मेरी मां के पास डिग्रियां होतीं तो वो शायद देश की राष्ट्रपति भी बन सकती थीं। अगर स्कूल में बच्चे बढ़ने लगें तो टीचर बढ़ा दिए जाते हैं। ज़्यादा टीचर ही नहीं, क्लास के भीतर भी दो-तीन मॉनिटर होते हैं। फिर देश तो इतना बड़ा है। जब मुल्क की आबादी तीस करोड़ थी तब भी देश में एक ही प्रधानमंत्री था। अब जब आबादी चार गुना बढ़ी है तो प्रधानमंत्री चार क्यों नहीं हुए। इतने बड़े देश में क्या आपको एक प्रधानमंत्री एक-चौथाई प्रधानमंत्री की तरह नहीं लगता। आप इसे किसी पार्टी के खिलाफ या पक्ष में चुनाव प्रचार का हिस्सा मत समझिए। इससे पहले कि चुनाव आयोग कोई कार्रवाई करे, मैं हाथ को दस्ताने से ढंककर घूमता हूं। भला हो दिल्ली की इस सर्दी का। वैसे, मेरा विचार है कि हाथी-बैल की मूर्तियां ढंकने से अच्छा, गांधीजी की ही मूर्तियां ढंक दी जाएं। सब प्रचार-दुष्प्रचार तो उन्हीं के नाम पर होता है और इतनी ठंड में भी उघाड़े बदन खड़े रहते हैं चौक-चौराहे पर।


मेरे एक दोस्त हैं। पांड़े जी। बड़े उदास, अकेले और अलग-थलग रहने वाले इंसान। इंटरनेट की दुनिया से कोसों दूर थे। हमने एक दिन चिकेन के लालच में उनके यहां वक्त गुज़ारा और फेसबुक का नया नया चस्का लगा दिया। तीन दिन बाद पूछा कि कैसे हैं पांड़े जी। तो बोले कि भाई आप महान हैं। इतने सारे दोस्त मिल गए हैं कि और कुछ सोचने का टाइम ही नहीं बचता। फिर शरमाते हुए बोले कि एक कन्या भी मिल गईं हैं फेसबुक पर। बस बात बढी ही है। मैंने कहा, मिल भी आइए। बोले, नहीं मिलने का कोई चांस नहीं। पासपोर्ट बनाना होगा। दो दिन बाद फिर फोन किया तो पता चला पासपोर्ट ऑफिस के पास खड़े हैं। फटाफट पासपोर्ट वाला जुगाड़ ढूंढ रहे हैं। सात दिन में पासपोर्ट हाथ में और फिर विदेश। हमने कहा कि विदेश जाने से पहले हमारे नाम पर एक मुर्गी की कुर्बानी तो बनती है। संडे को मुर्गी खाने पहुंचे तो देखा न मुर्गी है न पांड़े जी का रोमांटिक मूड। हमने पूछा क्या हुआ तो बोले कि अरे यार, ई फेसबुक अकाउंट डिलीट कर दीजिए हमारा। साला, बहुत गड़बड़ चीज़ है। एक हफ्ता टाइम बरबाद हो गया। जैसे ही प्रोपोज किए, ब्लॉक कर दिया हमको। हद्द है, बताइए, हम कोई ऐसा-वैसा आदमी हैं क्या। अगर कोई और है तो बता देती। हमको रोज़ चैट पर एतना टाइम क्यों देती थी। चूंकि पांड़े जी मुर्गी अच्छी पकाते थे, तो हमने उनका हौसला बढ़ाया और कहा, ‘’पांड़े जी, फेसबुक के आगे जहां और भी है...’’..

बहरहाल, पांड़े जी ने ठान लिया है कि अब इस फेसबुक पर अपनी प्रेम कथा की हैप्पी एंडिंग ढूंढ कर ही रहेंगे। हिंदुस्तान न सही, पाकिस्तान में ही सही। फेसबुक पर क्या पंडित, क्या मौलवी, सब एक ही स्टेटस के चट्टे-बट्टे हैं। यूं भी इस देश में धर्मनिरपेक्षता का आलम ये है कि 22 कैरेट पंडित के घर में भी बच्चे सलमान, आमिर या शाहरुख ख़ान बनने का सपना देखते हैं और मांएं फिर भी खुश होती हैं।

निखिल आनंद गिरि

शुक्रवार, 13 जनवरी 2012

चांद किसी काले चेहरे का सफेद दाग़ है

उसके पास उम्र के तीन हिस्से थे। एक हिस्सा थोड़ा छोटा था, मगर उसे बेहद पसंद था। जैसे घर के छोटे बेटे अमूमन सबको बहुत पसंद होते हैं। ये बस घर में ही मुमकिन है कि कोई छोटा हो और फिर भी बहुत पसंद हो। ज़रा घर से बाहर की दुनिया में निकलिए तो पता चले कि छोटे आदमी की औकात क्या होती है। मज़े की बात ये है कि यहां कोई ख़ुद को छोटा मानने को तैयार ही नहीं होता। सबको बड़ा बनना है। बहुत बड़ा। दुनिया बड़े लोगों की कद्र करती है। ज़रा सोचिए, जिस बड़ी-सी दुनिया में हमारा छोटा-सा घर है, उसके बाहर की दुनिया कितनी अलग है। मुझे आप बेवकूफ कह सकते हैं मगर मैं छोटे-से घर के लिए इस बड़ी दुनिया को कौड़ियों के दाम बेच देना चाहूंगा।


ख़ैर, उसके पास उम्र के तीन हिस्से थे। उस छोटे से हिस्से में दुनिया बिल्कुल नहीं थी, शायद इसीलिए उसे वो हिस्सा बेहद पसंद था। उसमें एक आईना था। एक रात थी, एक तारीख भी। उस रात को वो सिरहाने के नीचे रखकर सोता था। उस तारीख को वो हर दिन रात के माथे पर टांक देता और देर तक निहारता रहता। फिर आईने के सामने खड़े होकर वो घंटो रोता था। वो तब तक रोता जब तक तारीख धुंधली न पड़ जाती। उन धुंधली आंखों से उसे उम्र का दूसरा हिस्सा दिखाई पड़ता जहां आसमान एक वीरान खंडहर की तरह नज़र आता। रात उसे किसी काले चेहरे की तरह नज़र आती और चांद उस पर सफेद दाग़ की तरह। इन्हीं नज़रों से उसने दुनिया देखनी शुरू की थी।

दुनिया को देखकर कभी-कभी लगता है कि अब बनाने वाले से भी उसकी दुनिया संभाले नहीं संभलती। मुझे ये दुनिया उसकी उम्र का तीसरा हिस्सा लगती है। पहला हिस्सा संभल-संभल कर गुज़ार लिया, दूसरे तक आते-आते दम फूलने लगा तो तीसरे हिस्से को छोड़ गया किसी तरह गुज़र जाने के लिए। मुझे अचानक एक रिश्ता याद आ रहा है जिसमें ठीक ऐसे ही तीन हिस्से थे। रिश्ते का तीसरा हिस्सा किसी तरह गुज़र जाने के लिए बेताब है, बेबस है। ठीक उतना ही बेबस जितना दुनिया को बनाने वाला।

निखिल आनंद गिरि

बुधवार, 28 दिसंबर 2011

मैं जी रहा हूं कि मर गया...

जो घड़ी-सी थी दीवार पर
वो कई दिनों से बंद है...
मेरे लम्हे हो गए गुमशुदा
किसी ख़ास वक्त में क़ैद हूं...

हुए दिन अचानक लापता...
यहां कई दिनों से रात है....
मुझे आइने ने कल कहा
तुम्हें क्या हुआ, क्या बात है

मुझे अब भी चेहरा याद है,
जो पत्थरों में बदल गया...
कोई था जो मेरी रुह से,
बिन कहे ही फिसल गया

ये उदासियां, बेचारग़ी
मेरे साथ हैं हर मोड़ पर,
आगे खड़ी हैं रौनकें,
तू ही बता मैं क्या करूं..

मैं रो रहा हूं आजकल
सब फिज़ाएं नम-सी हैं
जीते हैं कि इक रस्म है...
सांसे तो हैं, पर कम-सी हैं...

मैं यक़ीं से कहता हूं तू ही था
जो सामने से गुज़र गया
कोई ये बता दे देखकर,
मैं जी रहा हूं कि मर गया

निखिल आनंद गिरि

रविवार, 18 दिसंबर 2011

याद आता है फिर वही देखो...

उसकी भी क्या है ज़िंदगी देखो
रोज़ करता है खुदकुशी देखो

यूं तो कई आसमान हैं उसके,
खो गई है मगर ज़मीं देखो

यूं भी क्या ख़ाक देखें दुनिया को
जो ज़माना कहे, वही देखो

कल  कोई आबरू लुटी फिर से,
आज ख़बरों में सनसनी देखो

जाते-जाते वो छू गया मुझको
दे गया अनकही खुशी देखो

सबके कहने पे जिये जाता है
कितना बेबस है आदमी देखो

बारहा जिसको भूलना था 'निखिल'
याद आता है फिर वही देखो...

गुरुवार, 15 दिसंबर 2011

अगला स्टेशन 'शादी'पुर है, कृपया सावधान रहें...

दिल्ली मेट्रो में वैशाली स्टेशन से लेकर द्वारका या द्वारका से नोएडा सिटी सेंटर स्टेशन तक का सफर कर लिया तो समझिए मिनी-भारत यात्रा कर ली। पर्यटकों के लिए चार्टर्ड बसों में यही यात्रा ज़्यादा पैसे देकर होती है, मेट्रो में 20-25 रुपये में। वैशाली से जब मेट्रो खुलती है (दिल्ली में ट्रेन 'खुलती' है बोलिए तो लोग समझ जाते हैं कि सामने वाला बिहार से है, यहां ट्रेन चलती है !) तो लगता है बिहार से चली है। झोरा, (झोला) बोरा, पेटी बक्सा, कार्टून सब के साथ पैसेंजर चढ़ता है। ठसाठस। 

चारों तरफ फोन बजता रहता है।

रिंगटोन 1 - चाल चले ली मतवाली बगलवाली....
आवाज़ एकदम तेज़, पूरी बोगी मुड़कर देखने लगती है तो रिंगटोन को साइलेंट पर लेकर नंबर देखा जाता है, फिर बात शुरू....
'हां, पहुंच गेली' ,
'टाइमे से पहुंचा दिया ट्रेन'
'आवाज झरझरा रहा है, पहुंच के फोन करइछी....'
'पहुंच के फोन करते हैं फेरु...'

रिंगटोन 2-  शुरू हो रही है प्रेम कहानी..
फिर शोर की हद तक गाना बजता है। सुबह-सुबह आधी नींद में बैठे यात्री अचानक रिंगटोन को घूरने लगते हैं। रिंगटोन अचानक चुप हो जाती है।

फिर एक 'बिग बॉस' नुमा आवाज़ गूंजती है...
''मेट्रो में अनजान लोगों से दोस्ती न करें.....'

मैं अपने पर्स पर हाथ डालता हूं, देखता हूं वो सही जगह पर ही है। मुझे सुकून होता है। सब एक-दूसरे को शक की निगाह से देखते हैं, संतुष्ट होते हैं। मेट्रो तुम कितनी अच्छी हो। शिष्टाचार से लेकर अच्छे-बुरे की पहचान का सारा ठेका तुम्हारा है। तुमने हमें दान करना सिखाया है। रक्तदान, जीवनदान, ये दान, वो दान के बाद अब 'सीट' दान। कहीं लिखा नहीं मगर हम जानते हैं..ज़रूरतमंद की सहायता करना हमारा धर्म है। .सीट देकर पुण्य के भागी बनें । बूढ़ी निगाहें युवा आंखों में झांककर कहती हैं 'तुम हमें सीट दो, हम तुम्हें थैंक्यू कहेगे'...ओह मेरी मेट्रो, तुम कितनी अच्छी हो।

मेट्रो से नीचे एक अलग ही दुनिया दिखती है। सड़कों पर कारों का मैराथन जैसा दिखता है। सामने एक सरकारी स्कूल भी है, बच्चे खेल रहे हैं। कल ये बच्चे इन्हीं कारों में आ जाएंगे। फिर इनके बच्चे इन स्कूलों में नहीं जाएंगे। मेट्रो के भीतर भी बच्चे खेल रहे हैं। मेट्रो की डंडी पकड़कर से गोल-गोल घूंम रहे हैं। बच्चों के चेहरे बदल जाते हैं, मगर वो घूमते एक ही तरह से हैं। एक बड़़ी-सी होटलनुमा बिल्डिंग दिखती है। फिर सामने उतना ही बड़ा नाला। नाले में बिल्डिंग ख़ूबसूरत लगती है। मेट्रो चली जाती है। पहला डिब्बा लेडीज़ का है। दूसरा डिब्बा भी लेडीज़ एक्सटेंशन बना हुआ है। कोई विरोध नहीं है। सब मज़े में हैं।

राजीव चौक से द्वारका की तरफ आते-आते मेट्रो का बिहार 'पंजाब' में तब्दील होने लगता है।
अगला स्टेशन शादीपुर है...कृपया सावधानी से उतरें। ये शादीपुर स्टेशन सचमुच डरावना लगता है।यहां कितनी शादियां होती होंगी, सोचता हूं। बड़ा मजबूर, लटका हुआ सा स्टेशन होगा ये शादीपुर। मुझे इस स्टेशन पर नहीं उतरना। मेट्रो, काश तुम असल ज़िंदगी में भी ऐसे ही सावधान कर पातीं।

फिर कीर्तिनगर, मोतीनगर, रमेशनगर। कोई रमेश नाम का आम आदमी यहां रहता होगा, जिसे मेट्रो ने सेलिब्रिटी बना दिया है। फिर जनकपुरी से लेकर सेक्टरमय द्वारका सब एक ही ट्रिप में दर्शन देते हैं। 'वैशाली' से खुलकर ट्रेन 'नवादा' पहुंच गई है। घूम-घूमकर बिहार, पंजाब सब दिखते हैं मेट्रो में, बस दिल्ली नहीं दिखती। ये दिल्ली अभी बहुत दूर है। कहीं खो गई है मेट्रो की भीड़ में। जैसे सौ साल की कोई बुढ़िया मेले में खो जाती होगी। 'बिग बॉस' , तुमने इस बुढ़िया को सावधान नहीं किया था क्या....

निखिल आनंद गिरि

रविवार, 4 दिसंबर 2011

हर शरीफ आदमी को 'डर्टी पिक्चर' ज़रूर देखनी चाहिए...

क्या इत्तेफाक है कि 'रॉकस्टार' और 'द डर्टी पिक्चर' के रिलीज़ होने की तारीखें लगभग अगल-बगल थीं। रॉकस्टॉर जहां छूटती है, 'डर्टी पिक्चर' उसी दर्शन (फिलॉसफी) को ठीक से पकड़ लेती है। रॉकस्टार के जनार्दन (रणबीर) को ज्ञान मिलता है कि ज़िंदगी में रॉकस्टार बनना है, बड़ा बनना है तो दर्द पैदा करो, ट्रैजडी से ही मिलेगी कामयाबी। फिर रणबीर जैसे-तैसे एक ट्रैजडी ढूंढ पाते हैं और रॉकस्टॉर बनते हैं। इधर डर्टी पिक्चर में रेशमा (विद्या बालन) को ट्रैजडी ढूंढनी नहीं पड़ती। वो ख़ुद ही एक ट्रैजडी है क्योंकि वो एक औरत है। ग़रीब है, ख़ूबसूरत भी नहीं है और सपने बड़े हैं। रेशमा को मालूम है कि इस 'मर्दाना' समाज की जन्नत अगर है तो औरत के कपड़ों के भीतर है तो वो अपनी ट्रैजडी का जश्न कपड़े उतारकर मनाना शुरू करती है। वो फिल्मी दुनिया के सबसे बड़े सुपरस्टार(नसीरुद्दीन शाह) को साफ कहती है कि अब तक आपने 500 लड़कियों के साथ 'ट्यूनिंग' की होगी, मैं अकेली आपके साथ पांच सौ बार 'ट्यूनिंग' करने को तैयार हूं। फिर रेशमा को सिल्क बनने से कौन रोक सकता है। सिल्क यानी फिल्मी पर्दे पर 'सेक्स की देवी' जिसके दर्शन करने के लिए लोग टिकट ख़रीदते हैं और बाकी फिल्म को उसके हाल पर छोड़ जाते हैं। इंटरवल से पहले तक फिल्म एक तरह से देह का उत्सव है। बगावत का वो फॉर्मूला जो पूरी दुनिया हर दौर में अलग-अलग तरीकों से अपनाती रही है।
इंटरवल से पहले आप उस रेशमा को सिल्क बनते बार-बार देखना चाहेंगे क्योंकि वो एक गहरे दलदल में धंसकर भी कमल की तरह साफ लगती है। वो जो करती है, पूरी ठसक के साथ। मर्दानगी को मुंह चिढ़ाती हुई। जब फिल्म कहती है कि बड़े-बड़ों ने मुंह काला कर के ही नाम कमाया है, तो लगता है ये सिर्फ 80 के किसी संघर्ष की ग्लैमरस दास्तान नहीं, हर दौर का सच है। नैतिकता (MORALITY)के मुंह पर कालिख पोतती हुई फिल्म आगे बढती रहती है। नैतिकता का नारा बुलंद करते एक जुलूस का हिस्सा बनी एक औरत के हाथ में पोस्टर है CINEMA'S LOWEST LOW..और इसका इल्जाम भी एक औरत सिल्क पर! फिल्म का बेहतरीन दृश्य। ऐसे कई सीन हैं, जहां आप लंबी सांसे भरकर फिल्म को आगे बढ़ने देते हैं और यकीन मानिए वो सीन बिस्तर पर फिल्माए नहीं गए।


नसीरुद्दीन साहब जैसे बेहतरीन अभिनेता के लिए एक साधारण फिल्म में भी हमेशा कुछ न कुछ बचा ही रहता है। वो न होते तो विद्या बालन अकेले ही फिल्म की सारी वाहवाही लूट जातीं। विद्या बालन इस दौर की एक ऐसी खोज हैं जिसे हिंदी सिनेमा कई बार इस्तेमाल करना चाहेगा। क्या कमाल की एक्टिंग है। बेशक आप इंटरवल के बाद उठकर चले आइएगा, लेकिन विद्या के लिए ये फिल्म ज़रूर देखें। बिस्तर पर पड़ी सिल्क नसीरुद्दीन शाह के साथ 'ट्यूनिंग' कर रही है और अचानक दरवाज़े पर उनकी बीवी दस्तक देती है। नसीर सिल्क को छिप जाने के लिए कहते हैं। फिर बीवी अंदर आती है। फिर बाथरूम में छिपी सिल्क दरवाज़े के सुराख से झांककर देखती है कि कैसे एक मर्द तुरंत पति बन जाता है और नैतिकता (morality) भोलेपन से बिस्तर पर पड़ी रहती है। 'गंदी' सिल्क के पास अब दुनिया में वापस दाखिल होने के लिए बस एक चोर दरवाज़ा ही होता है। ख़ुद की 'असलियत' पहली बार उस छोटी सी रोशनी से साफ दिखती है और फिर आखिर तक दिखती है। उस अमीर कार के काले शीशे पर भी जब वो एक पॉर्न फिल्म से  बचते-बचाते भाग रही होती है या या फिर जब एक तरफ सिल्क के पीछे पूरा हुजूम होता है और दूसरी तरफ आधे खुले दरवाज़े पर खड़ी मां। सिल्क को भीड़ नहीं मां का प्यार चाहिए, मगर उसे मां नहीं मिलती, सिर्फ भीड़ मिलती है।
ले जाओ सब ये शोहरतें, ये भीड़, ये चमक
रोने के वक्त, हंसने की बेचारगी न हो....
इंटरवल के बाद फिल्म में इमरान हाशमी एक साफ-सुथरे कुएं में भांग की तरह हैं। पूरी फिल्म का ज़ायका ख़राब कर देते हैं। फिर अचानक आपको होश आता है कि धत तेरे की, हम एकता कपूर से किसी मास्टरपीस की उम्मीद कैसे करने लगे थे। इमरान हाशमी 'अच्छी, साफ-सुथरी' फिल्में बनाने वाले डायरेक्टर की भूमिका में वैसे ही लगते हैं जैसे कोई आपसे सरदारों वाला मज़ाक करे और आपको हंसी भी न आए। ऐसा लगता है जैसे इंटरवल के बाद और पहले की फिल्में दो अलग-अलग फिल्में हैं। जैसे फिल्म बनाने वालों को अब भी ये भरोसा नहीं था विद्या और नसीर जो जादू कर चुके हैं, उतना एक फिल्म को हिट करने के लिए काफी होगा। उन्हें अब भी विद्या से ज़्यादा इमरान पर भरोसा है। इस भरोसे से हिंदी सिनेमा जितनी जल्दी उबरेगा, हम एक मुकम्मल फिल्म की उम्मीद कर सकेंगे।

रजत अरोड़ा को आप ONCE UPON A TIME IN MUMBAI में सुन चुके हैं। डायलॉग्स का वही जादू यहां भी होलसेल में मिलता है। आप कौन सा डायलॉग अपने साथ घर लेकर जाएं, समझ नहीं आता। ''जब शराफत अपने कपड़े उतारती है तो सबसे ज़्यादा मज़ा शरीफों को ही आता है।'' हालांकि, रजत को भी अपनी अच्छी कलम पर भरोसा नहीं है, इसीलिए वो 'अगर सिल्क दुनिया की आखिरी लड़की होती, तो मैं नसबंदी करा लेता' जैसे फूहड़ डायलॉग्स का भी सहारा लेते हैं।

पता नहीं हाल की कुछ फिल्मों को क्या हो गया है। वो शुरु होते-होते बहुत ठीकठाक लगती हैं और फिर ख़ुद में ऐसे उलझ जाती हैं कि आखिरी घंटा झेलना मुश्किल हो जाता है। हम सिल्क को 'जीतते' हुए देखना ज़्यादा पसंद करते। ठीक है कि फिल्म किसी पुरानी एक्ट्रेस 'सिल्क स्मिता' की कहानी पर आधारित है जिसने आखिर में खुदकुशी ही की थी। लेकिन क्या हम फिल्म की आज़ादी का इस्तेमाल कर सिल्क को एक औरत की तरह नहीं देख सकते, जिसके लिए खुदकुशी से भी बेहतर रास्ते होते। ग्लैमर क्या हर बार ग्लानि पर ही ख़त्म होता है। क्या सचमुच ये चमचमाती रौशनियां उसी मोड़ पर ले जाकर छोड़ती है जहां सिर्फ मायूसी है और ज़िंदगी महसूसने का आखिरी मौका। सिल्क को फिल्म के ज़रिए एक बेहतर ज़िंदगी मिलती तो शायद ज़्यादा अच्छा लगता। शायद मर्लिन मुनरो, मीना कुमारी, परवीन बाबी, विवेका बाबाजी जैसी कई दर्द भरी कहानियों पर मरहम जैसा असर करतीं।

मगर नही, फिल्म बनाने के लिए जिन तीन चीज़ों की ज़रूरत है, वो ज़रूरत पूरी की जा चुकी है। और वो ज़रूरत है Entertainment, Entertainment और Entertainment। फिल्म बनाने वालों को लगता है कि सिल्क की कहानी में इतना दिमाग खुजाने की ज़रूरत ही क्या है, जब पब्लिक कहीं और खुजाना चाहती है।

निखिल आनंद गिरि

शुक्रवार, 2 दिसंबर 2011

दिल्ली एक उलझन है, एक वेटिंग रूम है...

मुझे कई बार लगता है कि मैं किसी दिल्ली-विल्ली में नहीं रहता। मैंने आज तक लालकिला नहीं देखा, कुतुबमीनार नहीं घूमा और न ही ट्रेड फेयर में टिकट कटाकर घूमने गया हूं। मैं तो सिर्फ दो-तीन घंटे रोज़ाना मेट्रो में रहता हूं, फिर एक दफ्तर में और फिर अपने कमरे में। बाकी कब, क्या, कौन-सी दिल्ली में होता है, मुझे नहीं पता। टीवी पर आग-वाग दिखती है तो हम दिल्ली के दफ्तर में ही बैठकर एक-दूसरे से पूछते हैं कि ये कहां का सीन है। तो कोई कहता है दिल्ली का है। आज दिल्ली बंद है ना, भारत भी बंद है आज ! मैं शर्मिंदा होता हूं और खुश भी कि मेरे रास्ते में ये दिल्ली नहीं आती। मेरे रास्ते में तो एक हवाई दिल्ली आती है। ज़मीन पर पांव रखूं तो सीढ़ियां आती हैं और फिर आधे आकाश में सफर कर सीधा रिक्शे वाले के पास जा पहुंचता हूं जो शर्तिया दिल्ली का नहीं होता।  ये दिल्ली रहती किधर है भाई, मुझे इस दिल्ली से मिला दो कोई।

एक बार घर में बैठे तो बिहार से पापा का फोन आया कि ठीक तो हो। मैंने कहा, हां....आप ही ठीक नहीं लग रहे। तो बोले, टीवी पर दिखा रहा है कि दिल्ली में ब्लास्ट हो गया है। फिर मैंने दिल्ली के अपने कमरे में इंटरनेट पर देखा तो पता चला सचमुच दिल्ली में ब्लास्ट हो गया है। फिर मैंने पापा से कहा कि पापा दिल्ली बहुत बड़ी है और जहां ब्लास्ट हुआ है, वो दिल्ली तो मुझसे बहुत दूर है।
पापा खुश हुए और बोले अच्छा है उस दिल्ली से दूर ही रहो।

हालांकि, मैं जिस दिल्ली के करीब हूं, उसे देखकर भी पापा खुश होंगे, कहना मुश्किल है। हवाई चप्पल में ही सवेरे-सवेरे उठकर सबसे सस्ती फिल्म देखने का जुगाड़ दिल्ली ने ही सिखाया।  क्या ज़रूरी है कि रॉकस्टार देखने के लिए आप वीकेंड की किसी गोधूलि वेला में किसी के साथ का इंतज़ार करें। क्यों न ब्रह्म मुहूर्त में उठें (दिल्ली में ब्रह्म मुहूर्त 7-8 बजे को मान सकते हैं) और चल पड़े पास के मॉलनुमा मंदिर में दर्शन करने नरगिस फाख़री का। या फिर साहिब, बीवी और गैंगस्टर वाली माही गिल का।  40-50 रुपये में प्यार, ज़िंदगी का तमाम दर्शन जिन गद्दीदार कुर्सियों पर मिलता है, मेरी दिल्ली वहीं है। जहां मैं ख़ुद को कभी रॉकस्टार तो कभी दबंग समझने लगता हूं। अगर प्यार उलझन के अलावा कुछ नहीं है तो हिंदुस्तान का हर प्रेमी एक  'रॉकस्टार' है।

एक वक्त और पक्के तौर पर लगता है कि हम दिल्ली में ही हैं। जब छुट्टियों के मौके पर तीन महीने पहले भी घर जाने को सारे टिकट फुल हो जाते हैं और ज़िंदगी अटक-सी गई लगती है। तब लगता है दिल्ली एक वेटिंग रूम है जहां हर किसी को यहां से बाहर जाने का इंतज़ार है।

''जब हम बड़े होते हैं,
हमारे साथ बड़ी होती है उम्र...
और धुंधली होती है याद..
बीत चुके उम्र की...
हमारे साथ बड़ा होता है खालीपन....
छूट चुके रिश्तों का...
और बड़ा होता है खारापन,
आंसूओं का...
चुप्पियां बड़ी होती हैं,
और उनमें छिपा दर्द भी..
ये तमाम शहर बड़े होते हैं हमारे साथ...
हमारे-तुम्हारे शहर...
शहरों की दूरियां घटती हैं,
रिश्तों की नहीं घटती...''
निखिल आनंद गिरि

शनिवार, 26 नवंबर 2011

विकल्प

हमारे पास कोई विकल्प नहीं था,

टी.वी. के आगे बैठकर लाशें गिनने के सिवा...
गोलियों से छलनी होकर रेशा-रेशा बिखरे कांच के टुकड़े,
चुभो रहे थे मर्दानगी को...
और मूकदर्शक बने रहने के सिवा,
हमारे पास कोई विकल्प नहीं था..

हम कर भी क्या सकते थे,
जब सदी के महानायक के पास भी विकल्प नहीं था...
बायें हाथ में रिवॉल्वर थामे,
वो नहीं कर सकता था,
मौत का सामना,
इसीलिए बंदूक को तकिया बनाकर,
लेनी पड़ी चैन की नींद...

कोई विकल्प नहीं था
उस सफ़ेदपोश के पास,
उस दरवाज़े पर जाकर घड़ियाली आंसू बहाने के सिवा,
जहां नहीं गया था वो पहले कभी
या कोई कुत्ता भी....
विकल्प था उस पिता के पास,
जो जवान बेटे की मौत पर मौन था,
उसने चुप्पी तोड़ी तो भाग गया
दुम दबाकर सफ़ेदपोश,
उन्हीं गलियों से,
जहां कुत्ते भी जाना पसंद नहीं करते....

विकल्प था कुछ ज़िंदा दीवानों के पास,
सो लिखा उन्होंने,
अपने ख़ून से
ज़िंदा रहने का नया इतिहास.....
आप उन्हें किसी भी नाम से बुला सकते हैं,
सालस्कर, संदीप, करकरे...
क्या फर्क पड़ता है....

हमारे पास कोई विकल्प नहीं...
सिवाय मोमबत्तियों की आग सेंक कर गर्म होने के....
भीतर मर चुकी आग को सुलगाने के लिए
हमें अक्सर ज़रूरत पड़ती है,
चंद बेक़सूर लाशों की.....

दरअसल,
चाय की चुस्की,
एफएम का शोर,
ख़बर बेचते अखबार,
थक चुकी फाईलें,
ट्रैफिक का धुंआ,
बोनस का इंतज़ार
वगैरह-वगैरह....
कभी कोई विकल्प ही नहीं छोड़ते,
एक दिन या एक पल भी,
ज़िंदा लोगों की तरह ज़िंदगी जीने का,
ज़िंदा लोग माने....
सालस्कर, संदीप, करकरे...
आप उन्हें किसी भी नाम से पुकार लें...
क्या फर्क पड़ता है....

निखिल आनंद गिरि
(तीन साल पहले 26/11/2008 को मुंबई पर हुए आतंकी हमले के बाद लिखी गई कविता )

शुक्रवार, 18 नवंबर 2011

उसे बचपन में सपने देखने की बीमारी थी..

एक दिन मेरी उम्र ऐसी थी कि मुझे बस प्यार करने का मन होता था। तब तुमसे मिलना हुआ और उस एक दिन हमने बहुत प्यार किया था। फिर वो दिन कभी नहीं आया। हमने उस रिश्ते का कोई नाम तो दिया था। क्या दिया था, ठीक से याद नहीं। उस नाम पर तुम्हें बहुत हंसी आई थी। तुम्हारा हंसना ऐसे था जैसे कोई मासूम बच्चा गिर पड़े और उसकी चोट पर मां खिलखिलाकर हंसती रहे। जैसे कोई रोटी मांग रहा हो और आप उसकी पेट पर लात मारकर हंसते रहें। फिर मैंने तुम्हें यूं देखा जैसे कोई कोमा में चला जाए और किसी के होने न होने से कोई फर्क ही नहीं पड़े। मैं तुमसे नफरत नहीं करता। नफरत करने में भी एक रिश्ता रखना पड़ता है। मैं तो तुमसे नफरत भी नहीं करना चाहता। यानी कोई रिश्ता नहीं रखना चाहता।


उसे सपने बहुत आते थे। उसके सपनों में एक पेड़ आता जिस पर कई तरह के फूल होते थे। वो सभी फूल एक ही रंग के होते थे। वो रोज़ सारे फूल तोड़कर तेज़ी से कहीं भागती थी। रास्ते में रेल की एक पटरी होती थी जहां अक्सर उसे इसी पार रुक जाना पड़ता। वो झुंझला कर फूल को पटरी के नीचे रख देती। सारी खुशबू कुचल कर ट्रेन जैसे ही आगे बढ़ती, सपना ख़त्म हो जाता था। लड़की की शादी तय हो चुकी थी। उसकी मां उसे तरह-तरह की नसीहतें देने लगी। मां ने कहा कि अब तुम्हें कम सोने की आदत डाल लेनी चाहिए। लड़की ने चुपचाप हामी भरी। जबकि असलियत ये थी कि लड़की को रात में नींद ही नहीं आती थी।

मैंने बचपन में एक गुल्लक ख़रीदी थी। मासूमियत देखिए कि जब उसमें खनकने भर पैसे इकट्ठा हो गए तो मैं अमीर होने के ख़्वाब देखने लगा। मैंने और भी कई ख़्वाब देखे। जैसे मैं अंधेरों के सब शहर ख़रीद लूंगा और गोदी में उठाए समंदर में बहा आऊंगा। जैसे मुझे ज़िंदगी जीने के कई मौके मिलेंगे और मैं उसे बीच सड़क पर नीलाम कर दूंगा। फिर किसी बूढ़े आदमी पर तरस खाकर उसे एकाध टुकड़ा उम्र सौंप दूंगा।

मुझे बूढे लोग अच्छे नहीं लगते। क्योंकि वो इतने सुस्त दिखने के बावजूद मुझसे पहले मौत के इतने करीब पहुंच चुके होते हैं जहां पहुंचने का मेरा बहुत मन करता है।

निखिल आनंद गिरि

शनिवार, 12 नवंबर 2011

पटना..सॉरी..दिल्ली...सॉरी अमेरिका...बिहार की राजधानी है !!

मैथिली का आइटम लोकगीत (गाम के अधिकारी हमर बड़का भइया हो)
छठ पर इस बार बिहार जाकर ऐसा लगा कि हमारे गांव-कस्बों से सभी मर्द बिहार छोड़कर दिल्ली-मुंबई-पंजाब चले गए हैं और सिर्फ पर्व-त्योहारों पर मुंह दिखाने के लिए ही वापस लौटते हैं....इस आधार पर कहीं ऐसा न हो कि बिहार जाने के लिए आने वाले वक्त में हमें बिहार जाने की ज़रूरत ही नहीं पड़े। और कहीं आने वाले वक्त में किताबों में कहीं हम ये न पढ़ें कि दिल्ली बिहार की राजधानी है (या फिर मुंबई)। मुझे हर घर का एक न एक आदमी बाहर ही नौकरी करता नज़र आता है। पहले भी ऐसा होता रहा है मगर फर्क ये आया है कि पहले मजदूरी के लिए लोग जाते थे और अब मजदूरों के बॉस बनकर भी जाते हैं।
'सामा-चकवा' की मूर्ति
दिल्ली में कल एक अलग तरह के कार्यक्रम में जाना हुआ। (मेरा पहला अनुभव था)। मंडी हाउस के पास त्रिवेणी ऑडिटोरियम में 'सामा चकेवा' कार्यक्रम का आयोजन था। दावे के साथ कहता हूं बहुत से बिहारियों को भी नहीं पता होगा कि इस नाम का कोई पर्व बिहार से ताल्लुक रखता है। नाम सुना भी होगा तो बाकी और कुछ भी नहीं पता होगा। छठ के बाद मिथिला के पूरे इलाके में भाई-बहनों का ये ख़ास पर्व कई दिनों तक 'खेला' जाता है। बचपन में गांव की बहनों को अक्सर सामा-चकवा की मूर्तियों के साथ गीत गाते देखा-सुना है मगर इस बार बिहार में भी सामा-चकेवा की उतनी धूम नहीं दिखी। दिल्ली आकर दिखी तो मन गदगद हो गया। वहां वरिष्ठ साहित्यकार और लोककर्मी मृदुला सिन्हा ने अपने किसी बरसों पुराने लेख का ज़िक्र किया जो उन्होंने बिहार से पलायन की स्थिति पर लिखा था। उस लेख का शीर्षक था...'दिल्ली बिहार की राजधानी है..'। मुझे लगा यही तो हम आज भी सोच रहे हैं और देख रहे हैं। कम से कम बिहार के मर्दों की राजधानी तो दिल्ली हो ही गई है। हां, बिहार की लड़कियों को दिल्ली भेजने में अभी भी दो-चार बार सोचा जाता है क्योंकि यहां का 'माहौल' अच्छा नहीं है।

ख़ैर, पर्व से खेल और अब खेल से भव्य समारोह तक का सफर करने वाले सामा चकवा (चकेवा, चकवा, चकबा सब एक ही हैं..) का दिल्ली में भव्य आयोजन देखकर सबसे अच्छा ये लगा कि आयोजन करने वाले लोग एकदम नई उम्र के थे। 25 से 30 साल वाले दर्जन भर बिहारी नौजवान। आधे लोगों से मेरा परिचय था और आधे से वहीं हुआ। युवाओं के हाथ में आयोजन का असर भी बड़ा ख़ूबसूरत दिखा। घर में पर्दे के पीछे या अकेले में औरतों के गाए जाने वाले मिथिला के लोकगीत दिल्ली के इस ऑडिटोरियम में ऐसे पेश किए जा रहे थे जैसे मुंबई या दिल्ली के चकाचौंध भरे माहौल में सुनिधि चौहान ''शीला की जवानी....'' या ''जलेबीबाई...'' गा रही हों।  सच कहूं तो मुझे बहुत अच्छा लग रहा था। ये वही दिल्ली है जहां मेटालिका (कितने लोग इस बैंड से वाकिफ हैं, मुझे नहीं पता) का एक कन्सर्ट 2700 की टिकट पर आप देखने जाते हैं मगर हुड़दंग के डर से शो रद्द हो जाता है। लेडी गागा आती हैं तो धुएं वाली रातों को दिखा-दिखाकर टीवी वाले ऐसा समां बांधते हैं कि जैसे बस यही सुनकर हिंदुस्तानी संगीत को मोक्ष मिलना तय था। सामा चकेवा के 'आइटम लोकगीत' सुनकर न तो कोई शोर होता है और न ही इसका टिकट एक भी रुपये का है। फिर भी लोगों की भीड़ है, और समय पर तालियां बजती हैं। एक बार उन लोगों को भी त्रिवेणी का मुफ्त रुख ज़रूर करना चाहिए जिनके मन में बिहार का मतलब हिंदी और भोजपुरी फिल्मों में अक्सर बाज़ारू साज़िश के तौर पर फिल्माया जाने वाला एक फूहड़, निहायती बुद्धू (जिसकी बोली और लहजा देखकर सिर्फ हंसा या दुत्कारा जा सके), अधपका शहरी किरदार ही बैठा हुआ है। मैंने देखा कि दिल्ली की सभ्य सड़कों पर 'सामा चकवा' के गीत गाती महिलाएं चल रही थीं तो कारवाले रुककर फोटो खींच रहे थे, 'बिहारी' कहकर हंस नहीं रहे थे।   

क्या पता बिहार से निकलकर दिल्ली-मुंबई तक पलायन कर कब्ज़ा कर चुके लोग अमेरिका या लंदन के किसी शहर में भी इसी तादाद में नज़र आएं और वहां हमारा कलुआ (भोजपुरी लोकगीतों का नया रॉकस्टार, ज़्यादा जानने के लिए यूट्यूब की मदद ले सकतें हैं) ''कलुआ कन्सर्ट'' में इतनी भीड़ जुटाए कि हज़ारों डॉलर ब्लैक में टिकट बिकें।

निखिल आनंद गिरि

बुधवार, 9 नवंबर 2011

वो उजालों के शहर, तुम को ही मुबारक हों...

सहरा-ए-शहर में खुशबू की तरह लगते थे...
किस्से माज़ी के वो जुगनू की तरह लगते थे

हमने उस दौरे-जुनूं में कभी उल्फत की थी ,
जब कि ज़ंजीर भी घुँघरू की तरह लगते थे.

हर तरफ लाशें थी ताहद्दे-नज़र फैली हुईं
ज़िंदा-से लोग तो जादू की तरह लगते थे

ऊंगलियां काट लीं उन सबने ज़मीं की ख़ातिर
बाप को बेटे जो बाज़ू की तरह लगते थे...

मुझ को खामोश बसर करना था बेहतर शायद
हंसते लब भी मेरे आंसू की तरह लगते थे...

वो उजालों के शहर, तुम को ही मुबारक हों,
रात में सब के सब उल्लू की तरह लगते थे

दिन ब दिन रहनुमा गढते थे रिसाले अक्सर
चेहरे सब कलजुगी, साधू की तरह लगते थे
 
आज बन बैठे अदू कैसे मोहब्बत के 'निखिल'
वो भी थे दिन कि वो मजनू की तरह लगते थे
माज़ी - बीता हुआ कल
अदू - दुश्मन
 
निखिल आनंद गिरि

शुक्रवार, 14 अक्तूबर 2011

सुनो मठाधीश !


हिंदी की साहित्यिक मैगज़ीन पाखी के अक्टूबर अंक में प्रकाशित कविता।
रांची से एक पाठक और फेसबुक फ्रेंड प्रशांत ने ये कविता पढ़ी
और मुझे ये स्कैन कॉपी भेजी..उनका शुक्रिया..

ये कोई मठ तो नहीं

और आप मठाधीश भी नहीं...

कि जहां आने से पहले हम चप्पलें उतार कर आएं

और फिर झुक जाएं अपने घुटनों पर...

और आप तने रहें ठूंठ की तरह,

भगवान होना इस सदी का सबसे बड़ा बकवास है हुज़ूर !


काश! पीठ पर भी आंखे होती आपकी

मगर आपके तो सिर्फ कान हैं...

जिनमें भरी हुई है आवाज़

कि आप, सिर्फ आप महान हैं...


काश होती आंखे तो देख पाते

कि कैसे पान चबा-चबा कर चमचे आपके,

याद करते हैं आपकी मां-बहनों को...

क्या उन्हें लादकर ले जाएंगे साथ आखिरी वक्त में...

सब छलावा है, छलावा है मेरे आका !


वो कुर्सी जो आपको कायनात लगती है,

दीमक चाट जाएंगे उसकी लकड़ियों को,

और उस दोगली कुर्सी के गुमान में

आप घूरते हैं हमें..


हमारी पुतलियों के भीतर झांकिए कभी...

हमारे जवाब वहीं क़ैद हैं,

हम पलटकर घूर नहीं सकते।

अभी तो पुतलियों में सपने हैं,

मजबूरियां हैं, मां-बाप हैं...

बाद में आपकी गालियां हैं, आप हैं...


चलिए मान लिया कि सब आपकी बपौती है...

ये टिपिर-टिपिर चलती उंगलियां,

उंगलियों की आवाज़ें...

ये ख़ूबसूरत दोशीज़ा चेहरे

जिनकी उम्र आपकी बेटियों के बराबर है हाक़िम...

हमारी भी तो अरज सुनिएगा हुज़ूर...

हुकूमतें हरम से नहीं, सिपहसालारों से चलती हैं...

निखिल आनंद गिरि
(http://www.pakhi.in/oct_11/kavita_nikhil.php)

मंगलवार, 11 अक्तूबर 2011

मल्टीप्लेक्स से नहीं निकलने वाला कोई महानायक...

रहनुमाओं की अदाओं पे फिदा है दुनिया...
हाल में ही रिलीज़ हुई थी फिल्म I AM KALAM...ढाबे में काम करने वाले एक मासूम बच्चे के सपनों की कहानी है.....बच्चा पूर्व राष्ट्रपति कलाम जैसा बनना चाहता है और उसका साथी अमिताभ की धुन में मगन है...फिल्म कलाम का सपना देखने वाले बच्चे के साथ खड़ी होती है...क्या ये एक साफ संदेश नहीं माना जा सकता कि अमिताभ के हसीन सपने से आगे देखने का रास्ता मल्टीप्लेक्स ने ढूंढ लिया है....मेरे पसंदीदा अभिनेता के जन्मदिन पर ब्लॉग के ज़रिए ऐसे ही कुछ सवालों का तोहफा...ये लेख सिनेमा की एक मैगज़ीन 'सतरंगी संसार 'में भी छपा है...

अ से अक्लमंद, म से मिलनसार, त से ताक़तवर, भ से भरोसेमंद। बचपन में स्कूल लाइब्रेरी की किसी किताब के पहले पन्ने पर अमिताभ का यही परिचय लिखा मिला था। तमाम दौलत और शोहरत हासिल कर चुके अमिताभ की जटिल हस्ती को समझ पाना उतना ही मुश्किल है जितना ये बात अजीब लग सकती है कि अपने पिता डॉ हरिवंश राय बच्चन को आज भी वो ‘बाबूजी’ कहते हैं। कितनी अजीब बात है कि ये अमिताभ ही हैं जिन्हें बॉलीवुड के पर्दे पर उनके किए सब गुनाह उन्हें नायक बना देते हैं। नायक नहीं, महानायक। ऐसा महानायक जिसकी नकल में शाहरुख भी ‘किंग’ कहे जाने लगते हैं। फिर पर्दे का महानायक अपनी फिल्मी छवि को राजनीति से लेकर दूसरी फायदे की सौदेबाज़ियों में भुनाना चाहता है तो जनता ताड़ लेती है। उन्हें बार-बार खोल बदलने पड़ते हैं और वो ये करने में भी क़ामयाब रहते हैं। सचमुच, मौजूदा दौर में कोई इस तरह का आदमी ही असली नायक हो सकता हैं।

हिंदुस्तान में ‘मास अपील’ सबसे बड़ा सच है। The End Justify The Means…की तर्ज़ पर। अमिताभ ने इस सच को बखूबी समझा है। पोलियो की दो बूंदे पिलाने की अपील करने वाले अमिताभ जब गुजरात के ब्रांड अंबैसडर या फिर मराठी मानुसों के मंच पर अपनी आंखों और आवाज़ में भलमनसाहत के साथ बड़ा बनने की कोशिश करते हैं तो उन्हें ये अच्छी तरह मालूम होता है कि उनका ‘क़द’ इतना बड़ा है कि उनकी आंखों में आंखे डालने का माद्दा उनके रहते कम ही लोग जुटा पाएंगे। क्या हम कभी कह पाएंगे कि तिहाड़ के लिए ही धरती पर ‘अवतरित’ हुए अमर सिंह के साथ-साथ बार-बार गलबहियां करने का रिश्ता अवसरवादिता के अलावा और क्या कहलाता है।

ये इत्तेफाक ही है कि अपने सबसे बुरे दौर में भी जब अमिताभ मजबूरी में छोटे पर्द पर आए तो छोटे पर्दे का क़द भी बड़ा हो गया। दरअसल, स्क्रीन पर अपनी सहजता के मामले में अमिताभ का कोई सानी नहीं है। पिछले दस सालों सालों के फ्रेंच कट अमिताभ की दसेक फिल्मों को छोड़ दें तो हर फिल्म में वो एक ही तरह के नज़र आते हैं, फिर भी उनसे कोई बोर नहीं होता। छोटे पर्दे पर भी उन्हें बार-बार करोड़पति बनाने के लिए ही बुलाया गया फिर भी ताज्जुब नहीं होता। होता भी है तो कहने की हिम्मत नहीं करता कि अमिताभ आप जिस दौर के महानायक थे, वो दौर कोई और था। इस दौर में आपकी फ्रेंच दाढ़ी और उसके पीछे से आती गहरी आवाज़ सिर्फ सबसे बिकाऊ कही जा सकती है, सबसे लोकप्रिय या महान नहीं।

हम उस दौर में धरती पर नहीं थे जब अमिताभ महानायक हुआ करते थे। अवशेषों के आधार पर अगर सचमुच मान भी लेते हैं कि अमिताभ सचमुच कभी के महानायक रहे थे तो क्या ये दौर बीता हुआ नहीं मान लेना चाहिए। अब मल्टीप्लेक्स का दौर है और मल्टीप्लेक्स की फिल्मों से कोई महानायक निकलने की उम्मीद किया जाना ठीक उसी तरह है जैसे नाक से गाने वाले किसी गवैये को संगीत का ‘इंडियन आइडल’ मान लेना।

माँ के प्यार जितनी अथाह दुनिया के
बित्ते भर हिस्से में,

सिर्फ नाच-गाकर
बन सकता है कोई,
सदी का महानायक

फिर भी ताज्जुब नहीं होता।

निखिल आनंद गिरि

सोमवार, 10 अक्तूबर 2011

जल्दी से छुड़ाकर हाथ...कहां तुम चले गए...

जगजीत सिंह को कई लोग ग़ज़लजीत सिंह भी बुलाते हैं...क्यों कहते हैं, ये बताने की ज़रूरत नहीं। कई बार बचपन में लगता था कि उनकी गाई ग़ज़लें गाकर एक-दो बार प्रेम किया जा सकता है, तो उनकी कितनी प्रेमिकाएँ रही होंगी। ग़ज़लों के हिंदुस्तानी देवता को आखिरी सलाम...उनकी याद में मोहल्ला पर ये छोटी-सी पोस्ट भेजी थी...यहां भी लगा रहा हूं.. 
कहां तुम चले गए...
जगजीत सिंह पहली बार ज़िंदगी में दाखिल हुए होठों से छू लो तुम के ज़रिए...तब ग़ज़लों से दिल के तार जुड़े नहीं थे और विविध भारती पर बजने वाले फिल्मी गीत कंठस्थ याद करने का सुरूर चढ़ा था। जग ने छीना मुझसे, मुझे जो भी लगा प्यारा, सब जीता किए मुझसे, मैं हरदम ही हारा...इतनी सादी-सच्ची बात कि लगता इतना सुनाने के बाद किसी को किसी से भी प्यार हो सकता है। पहली बार इस गाने को दूरदर्शन पर देखा और देखते ही राज बब्बर से प्यार हो गया। लगा कि राज बब्बर कितना बढ़िया गाते हैं। फिर थोड़ा बड़ा हुआ और अपने दोस्त के यहां गया तो उसके यहां ग़ज़लों का अथाह कलेक्शन पड़ा मिला। नया-नया कंप्यूटर आया था तो उस पर दोस्त को एक सीडी चलाने को कहा....शायद ग़ालिब की कोई ग़ज़ल थी। मैंने उससे कहा, ये तो राज बब्बर की आवाज़ है। दोस्त ने कहा, नहीं जगजीत सिंह हैं। ये देखो सीडी पर फोटो। फिर, जगजीत सिंह ज़िंदगी में यूं शामिल होते गए कि गुज़रने के बाद भी नहीं गए।

रोमांस की सारी नहीं तो बहुत सारी समझ जगजीत के स्कूल में ही कई पीढ़ियों ने सीखीं। हमने ग़ालिब की ग़ज़लें जगजीत से सीखीं, अपने बचपन से इतना प्यार जगजीत ने करना सिखाया, दोस्तों (ख़ास दोस्तों) को बर्थडे के कार्ड्स पर कुछ अच्छा लिखकर देने का ख़ज़ाना जगजीत की ग़ज़लों से ही मिला। जगजीत हमारी प्रेम कहानियों में कैटेलिस्ट या एंप्लीफायर की तरह मौजूद रहे। पहली, दूसरी या कोई ताज़ा प्रेम कहानी, सब में। वो न होते तो हमारे बस में कहां था अपनी बात को आहिस्ता-आहिस्ता किसी के दिल में उतार पाना। तभी तो गुलज़ार उन्हें ग़ज़लजीत कहते हैं, फाहे-सी एक ऐसी आवाज कि दर्द पर हल्का-हल्का मलिए तो थोड़ा चुभती भी है और राहत भी मिलती है।

झारखंड के पश्चिमी सिंहभूम में नक्सली बम विस्फोट में जब एक साथ कई थानों के पुलिसवाले मारे गए थे, तो उसमें पापा बच गए थे। मैं तब प्रभात ख़बर में था, एकदम नया-नया। मैंने पापा से कहा कि अपने अनुभव लिखिए, मैं यहां विशेष पेज तैयार कर रहा हूं, छापूंगा। उन्होंने जैसे-तैसे लिखा और भेज दिया, शीर्षक छोड़ दिया। अगले दिन के अखबार में पूरा बॉटम इसी स्टोरी के साथ था। एक आह भरी होगी, हमने न सुनी होगी, जाते-जाते तुमने आवाज़ तो दी होगी। उफ्फ, जगजीत आप कहां-कहां मौजूद नहीं हैं, भगवान की तरह।

ज़ी न्यूज़ में कुछ ख़ास तारीखों पर काम करना बड़ा अच्छा लगता था.जैसे 8 फरवरी (जगजीत सिंह का बर्थडे)...हर रोज़ ज़ी यूपी के लिए रात 09.30 बजे आधे घंटे की एक स्पेशल रिपोर्ट प्रो़ड्यूस करनी होती थी। जगजीत के लिए काम करते वक्त लगता ही नहीं कि काम कर रहे हैं। लगता ये एक घंटे का प्रोग्राम क्यों नहीं है। आज उनके जाने पर नौकरी छो़ड़ने का बड़ा अफसोस हो रहा है। कौन उतने मन से याद करेगा जगजीत को, जैसे हम करते थे। आपकी ग़ज़लों के बगैर तो फूट-फूट कर रोना भी रोना नहीं कहा जा सकता।

निखिल आनंद गिरि

बुधवार, 5 अक्तूबर 2011

मुझे ये शहर तो ख़्वाबों का कब्रिस्तान लगता है..

जो पत्थर की तरह बस बेहिस-ओ-बेजान लगता है
वही चेहरा मुझे अक्सर मेरा भगवान लगता है..

हमारे गांव यादों में यहां हर रोज़ मरते हैं,
मुझे ये शहर तो ख़्वाबों का कब्रिस्तान लगता है..

ज़रा फुर्सत मिले तो देखिए उसको अकेले में,
वो गोया भीड़ में अच्छा-भला इंसान लगता है..

उजाले ही उजाले हों तो कुछ घर सा नहीं लगता..
अंधेरों के बिना भी घर बहुत वीरान लगता है..

मेरे ख्वाबो की गठरी को समंदर में बहा डालो,
मेरे कमरे में रद्दी का कोई सामान लगता है..

मैं किसको उम्र के इस कारवां में हमसफर समझूं.
मुझे हर शख्स बस दो दिन यहां मेहमान लगता है..

ज़रा मेरी तरह पत्थर पे सजदे करके भी देखे
जिसे भी इश्क नन्हें खेल सा आसान लगता है....

मैं ज़िंदा हूं तुम्हारे बिन, यक़ीं ख़ुद भी नहीं होता,
यहां पहचान साबित ना हो तो चालान लगता है..

निखिल आनंद गिरि

ये पोस्ट कुछ ख़ास है

मृत्यु की याद में

कोमल उंगलियों में बेजान उंगलियां उलझी थीं जीवन वृक्ष पर आखिरी पत्ती की तरह  लटकी थी देह उधर लुढ़क गई। मृत्यु को नज़दीक से देखा उसने एक शरीर ...

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