मंगलवार, 26 अप्रैल 2011

मां-बाप की उम्र और प्यार...

आठ महीने के बाद पहली बार नौकरी लगी थी। उसकी खुशी का ठिकाना नहीं था। बीएड का प्लान, सिविल सर्विस की तैयारी और पता नहीं किन-किन नौकरियों के सपने इन आठ महीनों में उसकी आंखों के सामने से गुज़र गए थे। जब नौ हज़ार रुपये की नौकरी लगी तो उसने घूम-घूम कर मिठाईयां बांटी और शाही ऐलान किया कि सबसे पहले नई चड्डियां ख़रीदेगा..

रात को सोते वक्त मोबाइल सिर के पास रखा होना परंपरा की तरह ज़रूरी था। अचानक फोन की घंटी बजती तो वो कितनी भी गहरी नींद में उठकर बातें करने लगते। हालांकि गहरी नींद बस एक आदर्श वाक्य की तरह थी जिसे पीढी दर पीढ़ी आगे सरका दिया जाता है मगर समझना या अमल करना कोई नहीं चाहता।

कुछ लड़कियों के बारे में पूरे शहर का एक ही ख़याल होता था। वो कब क्या हो जाएं, कोई नहीं जानता। उनसे बात करने से पहले ये देखना पड़ता है कि वो शादीशुदा हैं, किसी परिचित की प्रेमिका हैं या फिर अनजान चेहरा जहां संभावना बची हुई है। दोस्त की प्रेमिका से देर तक बात तो की जा सकती है, मगर कुंठाएं शालीनता के लिबास में हमेशा ओढ़े रहनी चाहिए।

ये मेरी निजी और शायद इकलौती राय होगी कि दोस्त को समझना लड़कियों को समझने से ज़्यादा मुश्किल है। वो देर तक लड़ते रहे कि पांच रुपये की झालमुड़ी के पैसे कौन देगा। एक का कहना था कि वो कमाता है इसीलिए उसे ही देना चाहिए। दूसरा कह रह था कि उसने झालमुड़ी ऑफर की है तो पैसे देने का हक़ उसका है। आधे घंटे की लड़ाई के बाद झालमुड़ी वाले ने कहा जाने दीजिए, मत दीजिए पैसे।

कुछ लोगों के बारे में राय बनाना बेहद मुश्किल होता है। वो इतने शातिर होते हैं कि आपके लाख चाहने पर भी शातिर नहीं लगते। उसके दोस्त उसे इतना प्यार करते थे कि जब उसका जन्मदिन होता तो आधी रात को इतनी तेज़ आवाज़ में गाने बजा देते कि मोहल्ले भर में लोग उन्हें गालियां बकते। उसकी प्रेमिका उससे इतना प्यार करती कि उसके मां-बाप उसे ज़िंदगी भर मरा हुआ मान बैठने पर आमादा हो जाते। हालांकि, वो अपनी प्रेमिका से इतना प्यार करता था कि इतना प्यार मां-बाप से किया होता तो उनकी उम्र पांच साल शर्तिया बढ जाती।

निखिल आनंद गिरि

शुक्रवार, 22 अप्रैल 2011

आखिरी यात्रा से पहले...

वो डिब्बों के साथ चलते हैं कुछ दूर तक,
कुछ शब्द और...
विदा से पहले..
कुछ प्यार और...
मुट्ठी भर किरणें सूरज की...

आंखों में अथाह अनुराग,
और लौटने की उम्मीद...
हाथ हाथ छूटने से ठीक पहले...
पलक भीगने से ठीक पहले,
गाड़ियों के शोर से ठीक पहले....

थोड़ी सी दही, थोड़ा-सा गुड़,
और थोड़ा-सा झुकना घुटनों तक,
बहुत-सा आशीष....

जो गए,
उस न लौटनेवाली दिशा में..
क्या पता आ भी जाएं एक बार...

भरोसा है बल खाती गाड़ियों पर,
वही लौटाएंगी एक दिन...
सारे बिछोह, सारे परिचित..
सारे प्रेम...
और बहुत-से सूरज...
आखिरी यात्रा से पहले....

निखिल आनंद गिरि

सोमवार, 18 अप्रैल 2011

एक शहर जहां प्रेम करना सबसे आसान था...

ऐतिहासिक और महान होने के गुमान में डूबे शहर की हैसियत बस इतनी थी कि बित्ते भर के ग्लोब में भी तिल भर ही जगह मिल सकी थी। इस शहर में जब कभी किसी को वक्त पर नींद आ जाती, पूरा शहर ताज्जुब में डूब जाता। हवाई जहाज से अगर शहर को कोई ग़रीब चित्रकार देखता तो उसे नदियां नालियां लगतीं और मकान शौचालय से भी छोटे। वो बजाय शहर को देखने के हवाई जहाज की खिड़की से नीले और उजले आसमान के बीच की इमेज बनाना बेहतर समझता क्योंकि वहां रंग भरने को काफी जगह थी।

इस शहर में कई मां-बाप चाहते थे कि उनके बच्चे इंजीनियर बनें, डॉक्टर बनें, वैज्ञानिक बन जाएं, मगर इतने अच्छे न बन जाएं कि प्रयोगशालाओं में उन्हीं पर रिसर्च शुरू हो जाए। हालांकि, मां-बाप अच्छे होने के लिए ही होते हैं मगर कुछ बेटे अपने मां-बाप को बेवकूफ भी समझते थे। इस शहर में पहले सर्कस लगता था मगर न तो अब शेर बचे थे और न ही वक्त कि सर्कस का मज़ा लोग ले पाते। हालांकि, शहर में तरह-तरह के आंदोलन होने लगे थे जो मन बहलाने के नए अड्डे थे। लोग नौकरी की शिफ्ट खत्म करने के बाद क्रांति करने निकल पड़ते थे। क्रांति एक ऐसी चमकीली और आसान चीज़ उन्हें लगती जैसे पार्कों में प्रसाद की तरह बंटने वाले चुंबन।

मेट्रो जब पूरे रफ्तार में होती तो शहर किसी फिल्म की तरह आगे बढ़ता जाता। शहर के कई हिस्से उसने यूं ही देखे थे। जहां ट्रेन रुकती, वहां खूब सारे लोग सवार हो जाते। वो उनकी टी-शर्ट पर लिखे नारे पढ़ता और शहर के बारे में राय बनाने लगता। उसे कभी-कभार ये भी लगता था कि टीशर्ट पहने हुए पूरा शहर किसी मोबाइल कंपनी की हुकूमत में जी रहा है। मेट्रो का सफ़र खत्म हो जाता, शहर के छोर खत्म हो जाते, मगर मोबाइल पर बातें ख़त्म नहीं होती थीं। इस शहर में सब लड़के एक जैसे स्मार्ट थे और सारी लड़कियां एक जैसी ख़ूबसूरत। ये प्रेमियों और प्रेमिकाओं के लिए बेहद आसान शहर था, जहां प्यार की कुछ ख़ास तारीखों को जवान लाशें मिलनी तय थीं।

इस शहर में उसकी प्रेमिका भी अजीब थीं। वो अपने कुर्ते के साथ दुपट्टा कभी नहीं लेती थी। उसे कभी लगा ही नहीं कि दुपट्टा उसकी प्रेम कहानी का विलेन भी बन सकता है। शहर ये समझता कि खुले विचारों वाली लड़की है, इसीलिए दुपट्टे के बगैर चलती है, मगर असल में वो इतनी डरपोक थी कि उसे लगता एक दिन इसी दुपट्टे का फंदा बनाकर मर जाना होगा। उसके लिए प्रेमिकाएं कनफेशन बॉक्स की तरह थी, जिनके सामने बस अपराध कबूले जा सके थे। बदले में ढेर सारी सांत्वना मिलती जिसे अंधेरे में प्रेम समझ लेना स्वाभाविक था।

निखिल आनंद गिरि

गुरुवार, 14 अप्रैल 2011

वक्त से जब वो भिड़ गया होगा...

गांव से दूर एक दरिया था,
गांव में प्यास बहुत थी लेकिन...
उनकी किस्मत में कोई पुल न हुआ।

वक्त क़ैद था मु्ट्ठी में जब,
चार फीट के दोस्त थे सब,
चार दिनों में शादी है अब !

अब तो रोना भी भूल बैठा हूं,
एक हंसी भी उधार ली मैंने
एक आदत सुधार ली मैंने ।

मेरी बस्ती में कौन आएगा,
हाल पूछेगा, चला जाएगा...
अजनबी अजनबी रह जाएगा...

पहले होती थी रुहानी बातें,
अबके क़ीमत में जिस्म सौंपा है...
आओ फिर से भरम का सौदा करें।

एक कमरे में ज़िंदगी काटी,
एक बित्ते में मौत आएगी...
ख्वाब क्यों आसमान भर देखें...

ये न पूछो कि क्या हुआ होगा,
ज़र्रा-ज़र्रा ही लुट गया होगा...
वक्त से जब वो भिड़ गया होगा ।

मेरी ख़ामोश हसरतों में रहे,
उम्र की सारी सिलवटों में रहे...
मर चुके ख़्वाब बड़े होते रहे ।

बंद कमरे में कोई वहशी था,
आईने का ही क़त्ल कर डाला...
लाल है रंग इस अंधेरे का ।

निखिल आनंद गिरि

सोमवार, 11 अप्रैल 2011

उन्हें सुबह उठना था कि मुर्गियों की गर्दन काट सकें...

एक छत के नीचे कई घरों के मर्द रहते थे। सिर्फ मर्द। औरतें उनके गांव रहा करती थीं और चादर के भीतर से रात को अपने मजदूर पतियों को मिस कॉल दिया करती थीं। पति उन्हें वादा करते कि इस बार वापस आकर उन्हें सोने के गहने ज़रूर देंगे। पत्नियां जानती थीं कि पति जब भी आएंगे सोने के गहने लाना भूल जाएंगे। फिर भी वो अपने पतियों पर गुस्सा करने के बजाय इंतज़ार ही करती थीं। रिमोट वाले टीवी पर जब परदेस की ख़बरें आतीं तो उनके चेहरे खिल जाते। उन्हें लगता टीवी में कभी न कभी उनके पति की तस्वीर भी ज़रूर दिख जाएगी। उन्हें लगता टीवी की आंखे बहुत महीन हैं और वो सब कुछ देखती हैं। उन्हें टीवी में कोई भगवान विश्वकर्मा नज़र आते थे। किसी ने विश्वकर्मा को देखा नहीं था मगर लोहे के सब सामानों का ज़िम्मा इन्हीं भगवान के भरोसे था। मर्दों को शादियां सोने के बैसाखी की तरह लगतीं जिसे टांग टूटने के बाद सहारे की तरह ही इस्तेमाल किया जा सकता है।
दातुन करने के वक्त उसे एक धुन याद आई। वो गुनगुनाने लगा। इस धुन को सुनकर उसका साथी रोने लगा। उसे अपने गांव की याद आ गई। वो पहली बार शहर आया था, इसीलिए उसके भीतर का गांव अभी मरा नहीं था। उसने बीए पास करने के बाद कई फॉर्म भरे मगर एडमिट कार्ड तक नहीं आय़ा। उसे लगा कि सरकारी नौकरियां सिर्फ खास लोगों की किस्मत में होती हैं और वो इस कैटेगरी में नहीं आता। उसे शादी भी करनी थी, मगर सरकारी नौकरी नही मिलने की वजह से शादी में भी दिलचस्पी खत्म होती जा रही थी। उसने रातों को छत पर चांद निहारना शुरू कर दिया था। हालांकि, उसे मालूम था कि चांद पर पहुंचना भी कुछ किस्मत वालों के हाथ में ही है।

अफसोस एक ऐसी सदाबहार चीज़ है कि हर सुबह चाय की तरह साथ देती है। उन मुर्गियों को देखकर भी अफसोस होता है जो कटने के लिए ही आंखे खोलती हैं। उन दुकानदारों को देखकर भी जो हर सुबह मुर्गियों की गर्दन काटने के लिए ही सुबह का इंतज़ार करते हैं। टीवी देखकर भी कम अफसोस नहीं होता। जो लोग कैमरे पर नज़र आते हैं, ज़रूरी नहीं कि सिर्फ उन्हीं की बात सुनी जाए। कोई एक शहर किसी एक जश्न में खुश है तो भी शहर के दुख खत्म नहीं हो जाते। पहली बार कोई इंसान कैमरे के आगे दुख भरा गाना गा रहा हो तो उस आदमी का भी शुक्रिया अदा करना चाहिए जो कैमरे के पीछे खड़ी भीड़ को तालियां बजाने के लिए उकसा रहा है। उन्हें हर हाल में कैमरे पर अच्छा-अच्छा देखने की आदत पड़ी हुई है। साफ-सुथरे चेहरे और ताली बजाने वाले हाथ।

निखिल आनंद गिरि

गुरुवार, 7 अप्रैल 2011

अन्ना का आंदोलन और साइड इफेक्ट्स...

वो बहुत दिनों से पब्लिसिटी के भूखे थे। दिल्ली के एक होटल में कमरा बुक कराकर रहते थे कि किसी एक दिन पार्टी का टिकट मिल जाए तो मशहूर हो जाएं। अन्ना ने दिल्ली आकर आंदोलन शुरू कर दिया तो उन्हें लगा कि उम्र भर की साध पूरी हो गई। इस एक आंदोलन में कूदने का मतलब उम्र भर की टीआरपी मुफ्त में मिल जानी थी। फिर क्या था, अन्ना अन्ना करते जा कूदे भीड़ में। मीडिया पहले से थी ही, तो कैमरे के आगे भी अन्ना अन्ना शुरू कर दिया। गलत-सलत उच्चारण के साथ एकाध कविताएं भी सुना डालीं। मीडिया को ऐसी कविताएं बहुत पसंद थीं, उन्होंने कवि महोदय को हाथों हाथ लिया और लगे हाथ स्टूडियो बुला लिया। अन्ना पड़े हैं आमरण अनशन पर। जिन्हें पब्लिसिटी चाहिए, उन्हें स्टूडियो मिल रहे हैं। एसी में पीने का पानी और खाने को स्नैक्स भी उपलब्ध हैं। किरण बेदी तो तीन बार कपड़े बदल चुकी हैं और आमरण अनशन में शामिल होकर इतनी खुश हैं कि पूछिए मत। मीडिया ज़िंदाबाद का नारा भी लगा चुकी हैं।


हमारी कॉलोनी में एक मजबूर पतिदेव रहते हैं। शिफ्ट खत्म करने के बाद वो घर लौटे तो पत्नी बिफर पड़ीं। पति महोदय को याद आया कि अरे, आज तो चिड़ियाघर ले जाना था बच्चों को। सॉरी सॉरी कहते रहे मगर पत्नी मानने को तैयार ही नहीं। अचानक टीवी पर जंतर मंतर की तस्वीरें दिखीं कि कोई बूढा आदमी अनशन पर है और वहां फिल्म से लेकर मीडिया की बड़ी बड़ी हस्तियां उपलब्ध हैं। पति ने फटाफट मुंह धोया और बच्चों को तैयार हो जाने का आदेश दिया। पत्नी को लगा कि पतिदेव का माथा खिसक गया है, मगर फिर भी तैयार हो ही गईं। बच्चों ने पूछा कि कहां जा रहे हैं तो पति ने कहा जंतर मंतर। बच्चे खुश हुए मगर पत्नी ने पूछा वहां क्यों। पतिदेव ने गियर तेज़ करते हुए कहा कि कोई अन्ना हैं वहां जिनको मरता हुआ देखने के लिए सब जा रहे हैं। थोड़ी देर रुकने पर मीडिया कवरेज के लिए पहुंच जाती है। बच्चों को ये सब समझ नहीं आया मगर कैमरे पर आने का सुख सोचकर वो चुप रह गए। पत्नी ने भी टाइमपास के लिए आंदोलन का हिस्सा बनना बुरा नहीं समझा। वो बहुत दिनों से चिड़ियाघर भी नहीं गई थी।

इधर फेसबुक पर वर्ल्ड कप के फाइनल की तस्वीरें अब तक टीआरपी बनाए हुए थीं। देशभक्ति के स्लोगन और पाकिस्तान-श्रीलंका को गालियां देकर एक से बढ़कर एक हिंदुस्तानी महान बनने की जुगत में थे। अचानक मुंबई से फेसबुक का ध्यान दिल्ली की ओर शिफ्ट हो गया। कोई अन्ना थे जो भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन में मरने को तैयार थे। देश में भूख से मरने वालों की रिपोर्ट कई दिनों से टीवी पर चली नहीं थी, मगर अन्ना ने उन्हें सद्बुद्धि दी थी। फेसबुक पर फिर से देशभक्ति का बाज़ार गर्म है। अन्ना पर स्टेटस अपडेट करना फैशन है। हर कोई बहती गंगा में हाथ धोना चाहता है। कुछ न कुछ लाइफ में होते रहना चाहिए। साले एफएम वाले बोर करते हैं अब। एक ही जैसे चुटकुले सुनकर ज़िंदगी भर हंसा तो नहीं जा सकता। टीवी पर बड़े बड़े फांट में अखबार पढ़पढ़कर आंखे बाहर होने लगी हैं। दिल्ली को कुछ नया चाहिए। रंग दे बसंती टाइप। तो अन्ना हैं ना। अंग्रेज़ी में कहें तो ऑसम (AWESOME) माहौल है जंतर-मंतर पर। मनमोहन सरकार का इससे कुछ उखड़ेगा या नहीं, ये कहना जल्दबाज़ी होगी, मगर दिल्ली के लिए अन्ना किसी सुड या लव गुरू से ज़्यादा बेहतर टाइमपास हैं। कम से कम वहां जाने पर लगता है कि कुछ किया है। गर्लफ्रेंड के साथ वहीं बैठ लिए थोड़ी देर तो इंप्रेशन भी अच्छा जमता है। फेसबुक पर अपील हो रही है कि अन्ना के लिए चले आइए। उस एक नेक बूढे आदमी के लिए चले आइए। प्लीज़ चले आइए। क्योंकि एक अन्ना मरे तो हज़ार अन्ना पैदा नहीं होने वाले। कम से कम दिल्ली में स्वार्थ की गुटबाज़ी के सिवा कोई जमात नहीं बनती, इतना तो सबको पता है। मुझे भी...

निखिल आनंद गिरि

शनिवार, 26 मार्च 2011

शादियों का इतिहास नहीं होता...

शादियां करना उन्हें बहुत पसंद था। और अपनी तस्वीरों की जगह बिल्लियों या लाल गुलाब लगाना भी उन्हें अच्छा लगता था। उन्हें लगता कि कोई है जो सिर्फ उनके लिए बना है। वो दुनिया की सबसे महंगी कार में सवार होकर आएगा और उस वक्त समय सबसे खूबसूरत लगेगा। जबकि, ये वो दौर था जब एक सुनामी आती तो मोहब्बत की हज़ारों कहानियां बहाकर ले जाती। इनमें कई महंगी कारें भी थीं, जिन्हें बहता देखकर लोग रोना तक भूल गए थे।

वो एक यादगार शाम थी क्योंकि पहली बार उसने एक लड़के को मुंह पर गंदी गाली बकी थी (कुछ गालियां अच्छी भी होती होंगी, शायद मां के मुंह से निकलने वाली)।  कहने वाले कहते रहे कि दोनों एक दूसरे से प्यार करते हैं मगर लड़की का गुस्सा कम होने का नाम नहीं ले रहा था। लड़के ने कुछ नहीं कहा था। उसे पहली बार की हर चीज़ अच्छी लगती थी। इसीलिए वो कई बार पहला प्यार कर चुका था। कई बार पहली गाली नहीं खाई थी। उसने गाली खाने के बाद लड़की से पूछा कि क्या उसे चूम सकता है। लड़की ने थोड़ी देर कुछ नहीं कहा और फिर अपनी आंखे बंद कर ली।

ये शहर उसे मरने की फुर्सत भी नहीं देता था और जीने के लिए जो ज़रूरतें उसकी थीं, वो कहीं भी पूरी की जा सकती थीं। वो अपने पिता के लिए कोई बीमा पॉलिसी लेना चाहता था मगर दुनिया की कोई भी बीमा पॉलिसी बूढ़े लोगों का खयाल नहीं रखती थी। उन्हे ज़िंदा लोग अच्छे लगते थे और वो नहीं जिनकी जेब में सिर्फ पेंशन आती हो।

शहर में कई मोहल्ले थे और मोहल्ले में कई पेचीदा गलियां जहां छतों के बीच फासले इतने कम थे कि नफरत को पनाह नहीं मिलती थी। इन गलियों में हर रोज़ कोई नई प्रेम कहानी जन्म लेती थी। इन गलियों का इतिहास गूगल पर नहीं मिलता था। इनके नक्शे किसी इतिहास की किताब में भी नहीं मिलते थे। इतिहास सिर्फ उतना ही बताता रहा जितना इम्तिहानों में पास करने के लिए ज़रूरी होता है। वो इतिहास में अपनी जगह बनाना चाहता था इसीलिए उसे शादियों में कोई दिलचस्पी नहीं थी। उसे शादियों से बेहतर सुनामी लगती थी, जहां बड़ी से बड़ी कारें कागज़ की नाव की तरह बहती थीं और पॉलिसी के कागज़ भी।

निखिल आनंद गिरि

मंगलवार, 22 मार्च 2011

उसे मर जाना सबसे अच्छा लगा...

जब तक जिस्म मिलते रहे, दिल भी मिलते रहे। प्यार के इतने तरीकों में ये तरीका दुनिया भर में सबसे प्रचलित रहा। जब तक दुनिया चली, चांद उगता रहा। किसी बादशाह की तरह। इंसान को लगा कि वो एक दिन लिफ्ट से चढ़कर अपनी सबसे ऊंची इमारत की छत से चांद को छू लेगा। मगर, चांद पूरे आसमान में एक भ्रम की तरह फैला रहा। इंसान भ्रम में जीते रहे और मोहब्बत करते रहे। उसके नाखून में अभी तक रंग अटके पड़े थे। उसके दिमाग में वो रंग चढ़ गया था। उसने दांतों से नाखून कुतरने शुरु कर दिए। उसे लगा कि इस वक्त को कुतरकर वो सभी रंगों से छुटकारा पा लेगा। मगर इस रंग से उसे मोहब्बत हो गई थी। उसे वक्त से कोई मोहब्बत नहीं थी, मगर वक्त उसके बस में नहीं था। वक्त एक फुटबॉल की तरह इधर से उधर लुढ़कता रहता और इंसानों का भ्रम बना रहा कि वो दुनिया के सबसे अच्छे खिलाड़ी हैं।
उसने कमरे की सभी बत्तियां बुझा दी थीं। उसे लगा कि सारी दुनिया सो गई है और अगर वो ज़ोर से चीखे तो शायद ये आवाज़ चांद तक चली जाएगी। इस चांद के रास्ते में उसका घर भी आता था। उसने सोचा कि सोते में किसी को जगाना अच्छी बात नहीं। उसने चीखने का विचार छोड़ दिया। उसकी आंखों में नींद नहीं थी। उसे शायद रोना था, मगर वो रोना भूल गया था। उसे जागने की आदत थी, मगर आज वो सो जाना चाहता था। चांद की रोशनी खिड़की से भीतर आ रही थी। उसे लगा कि चांद ने दुनिया भर की नींद चुरा ली है। उसे चांदनी में नींद नज़र आई और यही वो वक्त था जब उसे मर जाना सबसे अच्छा लगा।   सुबह चांद कहीं नहीं था और दुनिया को भरम हुआ कि रात किसी ने चाय पीने के बहाने उसे ज़हर देकर मार दिया है।

निखिल आनंद गिरि

शुक्रवार, 18 मार्च 2011

कुछ काफ़िर नैन मटकते हों, तब देख बहारें होली की...

अवध की होली पर आधे घंटे का प्रोग्राम बनाना था। इसी फेर में नज़ीर अकबराबादी की होली पर लिखी नज़्म से दोबारा मुलाकात हुई। पहली बार आकाशवाणी के लिए होली विशेष बनाना था तो ज़रूरत पड़ी थी। आगरा के थे नज़ीर अकबराबादी (आगरा को पहले अकबराबाद कहते थे), जिन्होंने कई मुद्दों पर आम ज़ुबां में लिखा। अवध जब श्रीराम की अयोध्या थी, होली तब से मनती रही है। फिर राम के रंग में नवाबों का दौर मिला तो होली त्योहार न होकर तहज़ीब बन गई। अवध दुनिया भर को संदेश देता है कि होली सिर्फ हुड़दंग नहीं, प्यार करने का तरीका है। मर्यादा पुरुषोत्तम की मिट्टी में इस त्योहार की मर्यादा आज कितनी है, कहना मुश्किल है मगर इस नज़्म में अवध की होली खूब सलीके से छलकती है। आप भी पढिए...छाया गांगुली की आवाज़ में इसे यू-ट्यूब पर सुना भी जा सकता है।

जब फागुन रंग झमकते हों तब देख बहारें होली की।
और दफ़ के शोर खड़कते हों तब देख बहारें होली की।

परियों के रंग दमकते हों तब देख बहारें होली की।

ख़ूम शीश-ए-जाम छलकते हों तब देख बहारें होली की।

महबूब नशे में छकते हो तब देख बहारें होली की।


हो नाच रंगीली परियों का, बैठे हों गुलरू रंग भरे

कुछ भीगी तानें होली की, कुछ नाज़-ओ-अदा के ढंग भरे

दिल फूले देख बहारों को, और कानों में अहंग भरे

कुछ तबले खड़कें रंग भरे, कुछ ऐश के दम मुंह चंग भरे

कुछ घुंगरू ताल छनकते हों, तब देख बहारें होली की


गुलज़ार खिलें हों परियों के और मजलिस की तैयारी हो।

कपड़ों पर रंग के छीटों से खुश रंग अजब गुलकारी हो।

मुँह लाल, गुलाबी आँखें हो और हाथों में पिचकारी हो।

उस रंग भरी पिचकारी को अंगिया पर तक कर मारी हो।

सीनों से रंग ढलकते हों तब देख बहारें होली की।


और एक तरफ़ दिल लेने को, महबूब भवइयों के लड़के,

हर आन घड़ी गत फिरते हों, कुछ घट घट के, कुछ बढ़ बढ़ के,

कुछ नाज़ जतावें लड़ लड़ के, कुछ होली गावें अड़ अड़ के,

कुछ लचके शोख़ कमर पतली, कुछ हाथ चले, कुछ तन फड़के,

कुछ काफ़िर नैन मटकते हों, तब देख बहारें होली की।।


ये धूम मची हो होली की, ऐश मज़े का झक्कड़ हो

उस खींचा खींची घसीटी पर, भड़वे खन्दी का फक़्कड़ हो

माजून, रबें, नाच, मज़ा और टिकियां, सुलफा कक्कड़ हो

लड़भिड़ के 'नज़ीर' भी निकला हो, कीचड़ में लत्थड़ पत्थड़ हो

जब ऐसे ऐश महकते हों, तब देख बहारें होली की।।

नज़ीर अकबराबादी

होली की शुभकामनाओं सहित... 

मंगलवार, 8 मार्च 2011

प्यार क्या है, हवामिठाई है...

1) हमको ग़ैरों में कर लिया शामिल,

बस इसी बात पर दावत दे दी..

और सुना है कि सब दोस्त आए...


2) हर ज़ुबां पर इसी के चर्चे हैं,


इसकी क़ीमत भी चवन्नी जितनी

प्यार क्या है, हवामिठाई है...


3) एक वादा कभी किया भी नहीं,

एक रिश्ता कभी जिया भी नहीं..

आदमी आदमी का भी नहीं


4) साल गुज़रें तो ये ज़रूरी नहीं

हम भी दिन के हिसाब से गुज़रें

हमसे मत पूछिए कि उम्र क्या है...


5) थोड़ी-सी चाय गिरी तो ये मेहरबानी हुई...


सूखे कागज़ में भी स्वाद रहा, मीठा-सा...

वो भी नज़्मों को ज़रा देर तलक चखता रहा...


6) उनके होठों पे थीं, मांए-बहनें

अपने लब पर तो मुस्कुराहट थी,

शहर चिढ़ते हैं, गांव हंसते हैं...


7) ज़र्रे-ज़र्रे में बंदिशे-मज़हब,

जब कभी पेट में भी बल जो पड़े...

याद आता है जनेऊ पहले,


8) एक ही रात में क्या जादू हुआ,

दिन सलीके से उगे, बाद उसके

उफ्फ! अंधेरे हैं मेहरबान बहुत...


9) मेरी तहरीर में असर उसका,

ये तो बरसों से होता आया है...

सच भी इल्ज़ाम हो गया अब तो...

 
निखिल आनंद गिरि

रविवार, 27 फ़रवरी 2011

हम भला कौन सा मुद्दा रखते...

बड़े लोगों से ग़र वास्ता रखते,

आज हम भी कोई रूतबा रखते...

घर के भीतर ही अक्स दिख जाता,

काश! कमरे में आईना रखते...

तीरगी का सफ़र था, मुट्ठी में

एक अदना-सा सूरज का टुकड़ा रखते...

चांद को छूना कोई शर्त ना थी,

झुकी नज़रों से ही कोई रिश्ता रखते...

वक़्त के कटघरे में लोग अपने थे,

हम भला कौन-सा मुद्दा रखते....

दो किनारों की मोहब्बत थी "निखिल"

किसके बूते पर जिंदा रखते...

निखिल आनंद गिरि

रविवार, 20 फ़रवरी 2011

तुम्हें मंदिर की घंटियों में मैंने पाया है...

तुम्हे मंदिर की घंटियों में मैंने पाया है
मैं महसूस करता हूँ तुमको ही अज़ानों में,
अक्सर माँ की लोरी की तरह ही बोल तेरे,
अक्सर घोल देते हैं मिठास मेरे कानों में...
अब मंज़िल ही कोई, और राहगुजर कोई,
हुआ एक भी सफ़र मेरा और ना हमसफ़र कोई,
मैं फिर भी इन उम्मीदों के सहारे चल रहा हूँ,
कि अनगिन वेदना के क्षणों में जल रहा हूँ-
कि तुम इस धूप में भी बरगदों की छाँव बनकर,
कि बनकर तुम किसी झरने का कलकल स्वर ...
सुख, अमर सुख, दे सको मेरी थकानों में.....

मैं अगणित बार खंडित हो रहा हूँ, दिन-प्रतिदिन;
मैं कितनी बार जीते-जी मरा करता हूँ तुम बिन;
बहारें हैं ज़माने में, मेरी खातिर है पतझड़;
इस मायावी दुनिया में खड़ा हूँ हाशिये पर,
मेरी श्रद्धा, मेरा भी प्रेम अब मायावी बनेगा?
दो आत्माओं का मिलन (भी) दुनियावी बनेगा?
सजेंगे आस्था के फूल दुनिया की दुकानों में.....

मैं थक कर चूर हो जाऊं तो सहलाना मुझे तुम,
ये दुनिया जब लगे छलने तो बहलाना मुझे तुम;
ये सौदे, दोस्त-दुश्मन और अय्यारी की बातें;
मेरे बस की नही हमदम; ये दुनियादारी की बातें;
मेरे आँसू यही कहते हैं तुमसे बार-बार
' मुझे लेकर चलो इस मायावी दुनिया के पार'
दफ़न हो जाएँ किस्से भी हमारे दास्तानों में...

तुम्हे मंदिर की घंटियों में मैंने पाया है,
मैं महसूस करता हूँ तुमको ही अज़ानों में,
अक्सर माँ की लोरी की तरह ही बोल तेरे,
अक्सर घोल देते हैं मिठास मेरे कानों में...

निखिल आनंद गिरि

बुधवार, 16 फ़रवरी 2011

लो टाइड थी...

तुमने जो इक सागर जैसा दुख सौंपा था

अनजाने में...
खूब हिलोरें मार रहा है,

बहुत दिनों तक
दिल के सबसे भीतर के खाने में
जज़्ब किया था इस सागर को,
बहलाया भी...
बाहर बहुत उदासी है,
तुम मन के भीतर रहना सागर...

सब कुछ ठीक था,
मगर अचानक,
इक पूनम की चांद रात में
मैंने ये महसूस किया था
मन के भीतर टूटा था कुछ,
लो टाइड थी...
सब्र बांध का टूट गया था...
सागर रस्ता मांग रहा था...
होठों, आंखों के रस्ते से...

मुझको सब मालूम है साथी,
मेरे  होठों का खारापन,
आंखों में कुछ नमक के ढेले...
मुझको सब मालूम है साथी

जब भी तुम ऐसा कहती हो,
मेरी बातों में तल्खी है,
मेरी नज़र में पानी कम है...
तुमने जो इक सागर जैसा दुख सौंपा था..
छलक रहा है,
बरस रहा है...

देखो ना-
हम दोनों ने जो दुख बोया था
कितना बड़ा हुआ है आज....

सोमवार, 14 फ़रवरी 2011

रोटियों के नक्शे बिगड़ जाते होंगे

न चाहते हुए भी,
जब से मासूम पीठों पर,
किताबों का गट्ठर लदा होगा.....
मासूम चेहरों ने बना ली होगी,
बस्ते में अलबम रखने की जगह....

कई बार कच्चे रास्तों पर,
ढेला खाती होगी
आम की फुनगी,
और गिरते टिकोले बढ़ाते होंगे,
प्यार का वज़न...

बिना किसी वजह के,
जब डांट खाते होंगे
बड़े होते बेटे,
प्यार का अहसास,
पहली बार देता होगा थपकी.....

जब नहीं हुआ करते थे मोबाईल,
नहीं पढे जाते थे झटपट संदेश,
आंखें तब भी पढ़ लेती होंगी,
कि किससे होना है दो-चार...
और हो जाता होगा मौन प्यार

ये भी संभव है कि,
अनपढ़ मांएं या बेबस बहनें,
अक्सर याद करती होंगी चेहरा,
तो रोटियों के नक्शे बिगड़ जाते होंगे...

या फिर दाढ़ी बनाते पिता ही,
पानी या तौलिया मांगते वक्त,
अनजाने में पुकारते होंगे कोई ऐसा नाम,
जो शुरु नहीं होता,
मां के पहले अक्षर से....

एक सहज प्रक्रिया के लिए रची गयी रोज़ नयी तरकीबें,
प्यार ने पैदा किये हैं कितने वैज्ञानिक...

ये सरासर ग़लत है कि,
कवि,शायर या चित्रकार ही,
प्यार की बेहतर समझ रखते हैं.....

दरअसल,
जिसके पास मीठी उपमाएं नहीं होतीं
वो भी कर रहा होता है प्यार,
चुपके-चपके....

निखिल आनंद गिरि

बुधवार, 9 फ़रवरी 2011

कच्ची उम्र की लड़कियां...


ये कविता तीन साल पुरानी है...मन हुआ शेयर की जाए, तो कर दिया...

कभी-कभी होता है यूं भी,

कि घर से कच्ची उम्र में ही भाग जाती हैं लड़कियां,

और पिता कर देते हैं,

जीते-जी बेटी की अंत्येष्टि...

हो जाता है परिवार का बोझ हल्का..


और कभी यूं भी कि,

बेटियां करती हैं इश्क

और पिता देते हैं मौन सहमति

ताकि बच सके शादी का खर्च,

बेटियां मन ही मन देती हैं

पिता को धन्यवाद...

और पिता भी दब जाता है

बेटी के एहसान तले....


कच्ची उम्र में मर्ज़ी से

ब्याह रचाने वाली लड़कियां,

सदी का सबसे महान इतिहास लिख रही हैं

इतिहास जिसका रंग न लाल है न गेरुआ,

इतिहास जिनमें उनका प्रेमी एक है,

पति भी एक

और भविष्य भी एक ही है....

उनकी आंखों में सबके लिए प्यार है

आमंत्रण रहित..


आप चाहें तो आज़मा लें,

अंजुरी-भर प्यार का आचमन

सिखा देगा जीवन को

अपना शर्तों पर जीने का शऊर...


कच्ची उम्र की लड़कियां

जो पैदा होती हैं

दो-तीन कमरे वाले घरों में,

दूरदर्शन या विविध भारती के शोर में

नीम अंधेरे में,

लैंप की मीठी रौशनी में

पढ़ती हैं,

कुछ रूटीन किताबें

और पवित्र चिट्ठियां..

शादी कर उतारती हैं पिता का बोझ,

बनती हैं माएं...


सच कहूं,

उनकी छाती में दूध होता है अमृत-सा,

अपना बहाव ख़ुद तय कर सकने वाली ये लड़कियां,

मुझे लगती हैं गंगा मईया...

जो कभी दूषित नहीं हो सकती...


इतिहास उन्हें कभी नहीं भूल सकता,

जिन्होंने अपनी मजबूर मांओं के साथ,

एक ही तकिये पर सिर रखकर सोते हुए,

रचा है नयी सदी का नया इतिहास

धानी रंग में...

निखिल आनंद गिरि

रविवार, 6 फ़रवरी 2011

हम हैं ताना, हम हैं बाना, नाम-पता ना ठौर-ठिकाना...

वो चिट्ठी मेरे सामने ही आई थी जिसमें लिखा था कि आपको 15 फरवरी को साहित्य अकादमी सम्मान दिया जाना है...इस बार उन्हें सरकारी सम्मान मिला था तो टीवी पत्रकार के तौर पर मिलने जाना हुआ। मतलब, उनसे सवाल भी पूछने थे कि साहित्य अकादमी का पुरस्कार मिला तो कैसा लगा वगैरह वगैरह। ऐसा क्यों होता है कि मैं जब भी उदय प्रकाश से मिलता हूं, मुझे परिस्थितिवश रीटेक लेने ही पड़ते हैं। उदय प्रकाश मन ही मन झुंझलाते हैं, सामान्य होते हैं और फिर हमारी मुलाकात ख़त्म होती है।  उदय जी के आलोचक कुंठा में यहां तक कहते हैं कि उदय प्रकाश पूरे जीवन में 6-7 अच्छी कहानियां ही लिख सके हैं और साहित्य में उनका योगदान इतना ही भर है। खैर, अगर वो एक-दो भी कहते तो मैं मिलने ज़रूर जाता।
एक पल को भी नहीं लगा कि देश का सबसे बड़ा साहित्यिक सम्मान मिलने पर उदय प्रकाश खुश हों। ऐसा लगा कि मोहनदास को सरकारी पहचान मिलने में देरी अपनी सब हदें पार कर चुकी है....अब मोहनदास को एक लाख रुपये का नमकीन चेक खुश नहीं कर सकता।
बहरहाल, समंदर के किनारे पांव लटकाने भर से जिस तरह समंदर का पूरा अहसास होता है, वही इस छोटी मुलाकात  से हुआ। अपने पाठकों के लिए पूरा इंटरव्यू पेश है।  साहित्यिक पत्रिका ' पाखी ' ने भी इस लेख को जगह दी है..

निखिल- उदय प्रकाश को पढ़ने और पसंद करने वाली तीसरी पीढ़ी भी तैयार हो चुकी है। इस लिहाज से साहित्य अकादमी सम्मान मिलने में देरी नहीं हुई?

उदयजी– नहीं, ये तो नहीं कहूंगा। देखिए, इस तरह के जो सांस्थानिक सम्मान हैं, या इनकी स्वीकृतियां मैं कहता हूं; अच्छी रचनाओं को हमेशा देर से मिलती है और नहीं भी मिलती हैं। मैं कई बार कहता रहा हूं कि अगर आप अपने समय को व्यक्त कर रहे हैं और सचमुच आपकी रचनाएं, आपका साहित्य विपक्ष का साहित्य है, तो पुरस्कार के बजाय दंड की ज़्यादा गुंजाइश रहती है। तो खुशी है कि इसको एक सांस्थानिक स्वीकृति मिली और मोहनदास पर मिली। ये महत्वपूर्ण यूं भी है कि माना जाता था कि कहानी ऐसी विधा है, जिसको न कविता जैसी हैसियत प्राप्त है और न ही उपन्यास जैसी। तो ये बहुत इनफीरियर(निकृषट) जैसे जेंडर के समय में सोचते हैं ना कि तीसरा जेंडर (हंसते हुए)...उस तरह...तो (कहानी को) ये स्वीकृति, ये सम्मान नहीं था। निर्मल वर्मा को ज़रूर दिया गया था लेकिन किसी एक कहानी पर नहीं, कहानी संग्रह पर दिया गया था। ये पहली बार हुआ है कि एक कहानी को साहित्य अकादमी ने पुरस्कृत किया, और मोहनदास जैसी कहानी को। मैं इस मायने में कहना चाहूंगा; आप सब जानते हैं कि लगभग पिछले दस सालों से कहा जा रहा था कि समकालीन साहित्य के केंद्र में कहानी आ चुकी है, लेकिन ये विडंबना थी कि कहानी को केंद्र में आने के बावजूद, इतना बड़ा उसका पाठक समुदाय होने के बावजूद, इतना बड़ा पब्लिक स्फेयर और इतनी सारी पत्रिकाएं केंद्रित होने के बावजूद कहानी को जो सम्मान और जो गरिमा मिलनी चाहिए थी वो नहीं मिल रही थी, तो ये बहुत बड़ा डिपार्चर है। और ये कभी न भूलें कि साहित्य अकादमी ने इसके पहले किसी कहानी को पुरस्कृत नहीं किया है। खुशी है, बहुत खुशी है। मैं इसको दरअसल पाठकों के ही दबाव के कारण, उनकी आकांक्षाओं की सांस्थानिक स्वीकृति मानता हूं।

निखिल- आप तो कहते भी रहे हैं कि हिंदी के पावर स्ट्रक्चर (सत्ता प्रतिष्ठानों) से खुद को अलग ही रखते हैं, इस संदर्भ में भी पुरस्कार बड़ा है?

उदयजी – हां, इसे हर कोई जानता है कि एंटी एश्टैब्लिशमेंट(establishment) यानी व्यवस्था विरोधी उसके साहित्यकार हैं। मैं ही क्या, प्रेमचंद भी वही थे। मुक्तिबोध भी वही थे। हर लेखक कहीं न कहीं अपने समय की सत्ता व्यवस्था जो होती है, उससे अलग और उसके विपक्ष में जो प्रजा होती है, जनता होती है, नागरिक होते हैं, मनुष्य होते हैं, ये उनके जीवन की विडंबनाओं और उनकी आकांक्षाओं, सपनों की बात करता है और मोहनदास ऐसी ही कहानी है।

निखिल-  मोहननदास एक दलित पात्र को केंद्र में रखकर लिखी गई कहानी है। एक गैर-दलित/सवर्ण लेखक को ऐसी कहानी पर पुरस्कार मिलना क्या कहता है? वो भी तब जब दलित लेखकों का बड़ा समूह सक्रिय है?

उदय जी- (हंसते हैं) देखिए, मैं एक चीज़ बताऊं आपको...इस तरह की जो identities हैं ना, दलित हैं, माने intermediary identities हैं, सवर्ण identities हैं, जेंडर की identities हैं...मैं मानता हूं कि जो ऑथर है, लेखक, उसकी भी अलग आइडेंटिटी होती है। और लेखक से ज़्यादा दलित कोई हो ही नहीं सकता क्योंकि आप खुद देखिए, एक दलित ही अपने आपको पॉलिटिकली एसर्ट(?) कर सकता है। एक माइनॉरिटी ही अपने आप को राजनीतिक रूप से एसर्ट(?) कर सकता है। लेखक आज तक कभी अपने आप को एसर्ट(?) नहीं कर पाया क्योंकि किसी संगठन, समुदाय के रूप में, किसी कास्ट के रूप में वह होता ही नहीं है; लेखक हमेशा अकेला होता है। असंगठित होता है। और इसलिए आप जिसे उदाहरण देखें...आप परसों का उदाहरण ही लीजिए कि ज़फर पनाही, इतने महत्वपूर्ण, इतने संवेदनशील पत्रकार, उनको सज़ा और उनको 20 साल तक फिल्म न बनाने, लिखने की बंदिश, कठोर सज़ा दी गई। आप अपने यहां देखिए, एक चित्रकार बाहर है इस देश से। एक लेखिका, जानी-मानी, एक वाक्य बोलती है, वो भी संवैधानिक बात और उसपे देशद्रोह का मुकदमा चला दिया जाता है। तो लेखक होना और सच कहना ये बहुत कठिन है। इसलिए मैं मानता हूं कि लेखक से ज़्यादा दलित, अगर सच्चा लेखक है तो, और कोई होता नहीं है।

निखिल- आपके पाठक और आलोचक भी, और अब तो सरकारी संस्थान भी, कहते हैं कि आपकी कहानियों में जादुई पोएटिक टच होता है। तो आप पहले क्या मानते हैं खुद को, एक कवि या एक कहानीकार?

उदय – नहीं निखिल जी, मैं कवि ही हूं। और मैंने (हंसते हुए) शुरुआत अपनी रचनाओं की, बचपन में, कविताओं से ही की थी। कविता और पेंटिग से। और मेरा ये मानना है कि; उदाहरण भी देता हूं, दोस्तों से भी कहता हूं कि जैसे कुम्हार कोई होता है, मिट्टी से खेलता है, घड़े बनाता है, चाक पर चढ़ाता है तो उसकी ऊंगलियां जानती है कि ये मिट्टी कैसी है, इसे मैं क्या बनाऊं; लेकिन अगर धोखे से कभी वो कोई कमीज़ सिल दे...और लोग उसको दर्जी कहने लगें(हंसते हैं) तो मैं दोस्तों से कहता हूं कि मैं दरअसल कहानियां लिखता ज़रूर हूं लेकिन मैं हूं कवि ही। और आप पढ़ें, मोहनदास पढ़ें, आप कोई भी कहानी पढ़ें, वारेन हेस्टिंग्स का सांड अपने आप में एक कविता है। और एक ऐसी कविता जो आख्यानात्मक कविता है, इसको पाठकों ने पसंद भी किया है। बड़े पैमाने पर पसंद किया है। और जिन कहानियों को आप जानते होंगे, आलोचक या मठाधीश या आचार्य जिनको कहते हैं, जिनको वो दुरुह या दुर्गम कहानियां कहते थे, उनको इतनी बड़ी लोकप्रियता मिली। आज सारी भारतीय भाषाओं में इनका अनुवाद है, विदेशों में भी अनुवाद है। तो मैं कह सकता हूं कि पहली बार शायद मैं एक ऐसा लेखक हूं जिसकों पाठकों का और सारी भारतीय भाषाओं का और सभी का भरपूर प्यार, साथ मिला। मोहनदास नेपाली में भी अनूदित है। वहां भी ये बेस्टसेलर है। अभी नेपाल से लड़के आए थे। तो उर्दू में, अंग्रेज़ी में, जर्मन में, सारी भाषाओं में, कन्नड़, मलयालम, कोई ऐसी भाषा नहीं है, ओड़िया में है, मराठी में है। मराठी में बहुत लोकप्रिय है। आपने ये भी देखा होगा कि पिछली बार अमरावती में दलितों का सम्मेलन, 25000 दलित, वहां मोहनदास, मोहनदास हो रहा था। तो उन्होंने मुझे जो सम्मान दिया अमरावती में, उसने सचमुच जीवन की एक धारा बदल दी। वो एक मोड़ है मेरे जीवन का, बहुत निर्णायक मोड़ है, कि शायद लेखक होते हुए मैंने सचमुच ईमानदारी से; जो सबसे उत्पीड़ित हिस्सा है हमारे समाज का, उसकी आवाज़ और अंतरात्मा को छुआ है और उसके पीछे कोई राजनीतिक स्वार्थ नहीं था। वो एक कंसर्न था, ऐसी चिंता थी, जो हर लेखक को, हर नागरिक को होनी चाहिए।

निखिल – इसका मतलब आपको पहले ही बड़ी सम्मान दे चुके हैं देने वाले?

उदय – क्यों नहीं, जब मेधा पाटेकर ने किताब ‘एक भाषा हुआ करती है...’ का विमोचन किया तो मैंने लिखा कि मेरे लिए ये अब तक का सबसे बड़ी पुरस्कार है। मेधा जी ने लिखा है कि दलितों और पीड़ितों के जीवन के अनुभवों को वाणी देने वाले उदय प्रकाश की किताब का विमोचन करते हुए मुझे खुशी हो रही है। वृंदा करंदिकर, इतने बड़े कवि, जिनका मैं सचमुच सम्मान करता हूं, उन्होंने ‘अरेबा-परेबा’, जिसके मराठी की किताब का पुरस्कार दिया, वो पुरस्कार जो उन्हें ज्ञानपीठ से मिली हुई राशि थी, से चलने वाला पुरस्कार, बड़ा पुरस्कार माना जाता है, महाराष्ट्र फाउंडेशन का पुरस्कार। आप ‘पीली छतरी वाली लड़की’ को देखिए कि पेन अवार्ड मिला। पेन अवार्ड दिया ही इसीलिए जाता है जो ऑप्रेस्ड राइटिंग ऑफ द वर्ल्ड लिटरेचर, दबाई गई, दमित जो आवाज़ें हैं विश्व साहित्य की, उनको दिया जाने वाला सम्मान है। तो मैं ये मानता हूं कि, देखिए साहित्य सिर्फ भाषा का कौशल नहीं है, साहित्य सिर्फ शिल्प की बाज़ीगरी नहीं है और ये भी नहीं कि आप अभी दलित एरा चल रहा है तो दलितों पर एक कहानी लिख दी, कम्युनलिज़्म और सेक्यूलरिज़्म तल रहा है, तो आपने उस एजेंडे पर एक कहानी लिख दी। इतना आसान नहीं होता कुछ भी लिखना। कविता हो चाहे कहानी हो, जब तक अपने समय के जो वास्तविक संकट और अंतर्विरोध हैं, उनको आप नहीं पहचानेंगे, तब तक आप नहीं लिख पाएंगे कुछ भी।

निखिल – एक लेखक के लिए पढ़ना कितना ज़रूरी है। आपके महतवपूर्ण लेखक, कवि कौन रहे हैं?

उदय जी – बहुत...मैं पढ़ता बहुत हूं। सभी ने प्रभावित किया, सबकी प्रेरणाएं हैं। मैं किसका-किसका नाम लूं, विदेशी साहित्यकार भी हैं, अपनी भाषा के भी, अन्य भारतीय भाषाओं के भी साहित्यकार हैं। सबका योगदान है, आप संस्कार वहीं से पाते हैं। एलियट की बड़ी प्रसिद्ध पंक्ति है...जो उसका कथन है ‘tradition and the individual talent’…जो परंपरा है उसी में अपनी वैयक्तिक प्रतिभा भी प्रकट हो सकती है। अगर हम परंपराओं से परिचित नहीं होंगे तो सिर्फ वैयक्तिक प्रतिभाओं के दम पर उछलने-कूदने से कुछ नहीं होता। जैसे आप सिनेमा बनाते हैं, तो सिनेमा के पीछे 20वीं सदी से लेकर आज तक का पूरा इतिहास। उसमें कई बड़े-बड़े काम हो चुके हैं। आपके पहले तारकोवस्की, सत्यजीत रे, ऋत्विक घटक हो चुके हैं, अब आप उसके बाद बना रहे हैं। तो आपको पूरी परंपरा का, इतिहास का संज्ञान रहना चाहिए और तब आप कुछ नया कर पाएंगे। और आप सोचेंगे कि मैं मौलिक हूं, औप बिना परंपरा को जाने हुए आ जाएंगे तो हास्य पैदा होगा।

निखिल – हिंदी के साहित्यकारों में किन्हें पढ़ना बेहद ज़रूरी मानते हैं?

उदय – मैं तो...हज़ारीप्रसाद द्विवेदी के जो उपन्यास हैं, ज़रूर पढ़ना चाहिए, क्योंकि अलग तरह का पोस्ट-मॉडर्न(उत्तर-आधुनिक) उनका नैरेटिव है। दूसरा, मुक्तिबोध मेरी चेतना के केंद्र में रहे हैं, शमशेर को पढ़ना चाहिए। और अज्ञेय को जिनको लगातार निर्वासित-सा किया गया। आप पढ़के देखिए ‘शेखर एक जीवनी’,उनको पढना चाहिए। प्रेमचंद तो रहेंगे ही रहेंगे। उनको तो अवश्य पढ़ना चाहिए, हर कहानी पढ़नी चाहिए। फिर उसके बाद, आज़ादी के बाद, स्वातंत्र्योत्तर जो काल है, जिनकी जन्मशती हम मनाने जा रहे हैं, बाबा नागार्जुन। क्यों नहीं पढ़ना चाहिए। मैंने हाल ही में एक मैगज़ीन के लिए अंग्रेज़ी में लिखा है, कि बाबा नागार्जुन के बारे में धारणा बना दी गई कि वो पेडेस्ट्रियन पोएट हैं, सड़क में खड़े हुए; तो ऐसा नहीं है। आप सोचिए, जिसने मैथिली में लिखा हो, बांग्ला में लिखा हो, संस्कृत में लिखा हो, जो पाली जानता रहा हो, कितनी भाषाओं का ज्ञाता रहा हो। आइजनआवर, टीटो, नेहरू, मिसेज़ गांधी, रजनी पाम दत्त, चीन-भारत विवाद, इन सब पर जिनकी रिमार्केबल(उल्लेखनीय) कविताएं रही हों, उसको आप कहें कि वो एलिट नहीं है, अभिजात नहीं है, वो जनकवि हैं। आपने उनकी ऐसी छवि बना दी। बाबा नागार्जुन अभिजात के कवि थे, एक ऐसे एलिट पोएट थे, जो पीपुल्स एलीट थे, जनता के अभिजात। तो इसी रूप में देखिए, पुनर्व्याख्याओं की ज़रूरत है, पुनर्मूल्याकंन की ज़रूरत है। कोल्ड वॉर का जो समय था, आप जानते हैं कि इतनी ज़्यादा राजनीति थी कि एक तरफ सोशलिस्ट और एक तरफ कैपिटलिस्ट ब्लॉक है, उन दोनों की टकराहट के बीच जो साहित्य रचा गय, उसमें कहा गया कि ये तो ‘शिविरबंदी’ थी। ये उनके खेमे का है, ये हमारे खेमे का है। और आज भी आ देखते हैं कि तरह-तरह के लेखक संगठन बने हुए हैं, गुट बने हुए हैं, उससे बहुत नुकसान हो रहा है। आप सोचिए, शमशेर को लगभग ये मान लिया गया था कि वो प्रगतिशील नहीं हैं। मुक्तिबोध को तो मनोरोगी तक घोषित कर दिया गया था। लेकिन आज देखिए, मुक्तिबोध, शमशेर, अज्ञेय के बिना आप साहित्य की कल्पना नहीं कर सकते।

निखिल – आप कुछ संगठनों की तरफ इशारा कर रहे हैं। कहीं ऐसा तो नहीं कि राजधानी में पैठ जमाए इन संगठनों की शरण में आकर ही बड़ा साहित्यकार बना जा सकता है, अन्यथा कोई नहीं पूछेगा?

उदय – नहीं, ऐसा बिल्कुल नहीं है। अब मैं कहां से दिल्ली में रहता हूं। आप अपने समय को देखेंगे, समय के परिवर्तनों को देखेंगे, स्वीकृति देर से ही सही होगी ज़रूर। हां आपका कहना बिल्कुल सही है कि जो राजधानियां हैं, जिनमें दिल्ली भी है, और राज्य के जो सत्ता-केंद्र हैं, जैसे लखनऊ, भोपाल, पटना, वहां जो रहने वाले हैं, उनके लिए एक्सेस(पहुंच) हो जाता है। संगठनों से। वो वहीं रहते हैं, संपर्क बनाते हैं, प्रभाव बनाते हैं, गुट बनाते हैं और एक प्रेशर ग्रुप(दबाव समूह) बनाते हैं। ज़्यादातर यही होता है। मैं एमपी का हूं, कई पीढ़ियों से, मगर अब एमपी के लोगों को ये पता चला है, जब साहित्य अकादमी सम्मान मिला है। मगर, राज्य का शिखर सम्मान अब तक नहीं मिला है। शायद ही उस राज्य का कोई सरकारी सम्मान मिला हो। तो, राजधानियों में ज़रूर केंद्रित रहा है, जो दुर्भाग्यपूर्ण है। मैं ये संस्थाओं से भी कहूंगा कि बड़े शहरों, राजधानियों से अलग हटकर जो छोटे कस्बे, वहां के साहित्यकार, लेखक, कवियों पर भी ध्यान दें। और ये शिकायत बहुतों को है। ऐसे कई महत्वपूर्ण लेखक हैं; वैकम मोहम्मद बशीर, जिन्हें मलयालम का प्रेमचंद कहते हैं, वो कहां रहते थे। कोई त्रिवेंद्रम में नहीं रहते थे। छोटी सी जगह भैरप्पा....वसवन्ना, प्रसन्ना, कई नाम हैं। राजधानियों से थोड़ा विकेंद्रण, आपका कहना सही है, होना चाहिए। जानकीवल्लभ शास्त्री हैं, मुज़फ्फरपुर में पढ़े हैं, उनको सम्मान क्यों नहीं मिला। मुक्तिबोध, छत्तीसगढ़ के छोटे से खंडहर में रहते थे और उनको, अगर उस समय नेहरू जैसे लोग न होते, श्रीकांत वर्मा, नेमिचंद जैन, अशोक वाजपेयी, इन लोगों को श्रेय जाता है कि उन्होंने मुक्तिबोध को पहचान दी, केंद्रीयता दी। हम तो नेमिचंद जैन के आभारी हैं, कि मुक्तिबोध रचनावली पूरी की पूरी सामने आई...देश के सबसे अविकसित प्रदेश में पड़े थए मुक्तिबोध, वहां से।

निखिल – मौजूदा साहित्य में क्या संभावनाएं हैं?

उदय जी – निखिल जी, ये प्रतीक्षा का समय है। चीज़ें इतनी तेज़ी से बदली हैं, बहुत तेज़ी से बदली हैं और बदलती जा रही हैं। आप बेसिकली मानें, मोटे तौर पर तकनीक, पूंजी, श्रम; इन तीनों का क्या चरित्र है, क्या भूमिका है, स्वरूप किया हैं, इससे पता चलता है कि समाज कैसा बना, कैसे बदला। मैं बार-बार कहता रहा हूं कि ये जो 80 के बाद का दौर है, जेसे हम ग्लोबलाइज़ेशन कहते हैं, इसमें न सोचें कि सिर्फ नई अर्थव्यवस्था पैदा हुई है, टेक्नॉलॉजी नई आई है। उसने बड़े पैमाने पर समाज को बदल डाला है। इंटरनेट हैं, मोबाइल, आईपॉड हैं, कम्युनिकेशन(संप्रेषण) के दूसरे साधन हैं, कैपिटल-पूंजी फ्री हो गई हैं आवारा हो गई है। पहले वही पूंजीपति थे, जिनके पास बड़ कैपिटल था। अब फोर्ब्स की सूची में वो हैं, जिनके पास कोई उद्योग, फैक्ट्री नहीं हैं। ताज्जुब है। सर्विस सेक्टर जो नया आया है, पुराने श्रमिकों की हालत खराब कर दी है। आप लोग भी हैं; मीडिया, कॉल सेंटर वाले। यह जो वर्ग आया है नया, क्या इसकी पहचान है। हो क्या रहा है, मैं देख रहा हूं कि जो आज के जीवन में मनुष्य के सामने आने वाले संकट हैं, उनके जो अनुभव हैं, उनको व्यक्त करने वाली कहानियां अभी उस तरह से नहीं आई है। कहीं न कहीं एक हैंगओवर है पुराना, खुमारी इतिहास की, अभी उतरी नहीं है। राजनीति कहीं नहीं है। आप पढ़े फुकुयामा को, पोस्ट ह्यूमन फ्यूचर, साफ कहता है आपका जो समय है, उसकी ड्राइविंग सीट पर राजनीति नहीं है। अब वो है पूरी की पूरी कैपिटल और टेक्नोलॉजी और राजनीति जो है उसकी खिदमतगार, सेवक की भूमिका में है। ये न सोचें कि इस समय कोई भारत का प्रधानमंत्री है, मुख्यमंत्री है। ये सबके सब कॉरपोरेट पूंजी के प्रबंधक हैं। सारी नीतियां बन रही हैं। ऐसे समय में अपने मनुष्य के संकट को देखना बहुत बड़ा टास्क है, साहित्यकारों की ज़िम्मेदारी है।

निखिल – अंत में, कवि उदय प्रकाश क्या कहना चाहेंगे?

उदय – (हंसते हुए) मुझे कविताएं तो याद नहीं रहती अपनी, फिर भी कुछ पंक्तियां जो बार-बार कहता हूं...

आदमी मरने के बाद कुछ नहीं बोलता
आदमी मरने के बाद कुछ नहीं सोचता
कुछ नहीं बोलने और कुछ नहीं सोचने पर
आदमी मर जाता है
(ये इंटरव्यू उदय जी के घर पर 23 दिसंबर 2010 को लिया गया था)
 
निखिल आनंद गिरि

बुधवार, 2 फ़रवरी 2011

अकेले में नहीं मिलने वाली लड़कियां....

आप मुझसे प्रेम करते हैं...

तो चलिए मान लिया कि प्रेम करते हैं...

आपकी सभी शर्तें भी मान लीं...

कि ये नहीं कर सकते, वो कर सकते हैं...

अब जितना बच गया है शर्तों में...

उतना ही प्रेम कीजिए मुझसे...
 
देखना चाहता हूं कैसे बांटती हैं अकेलापन...
 
अकेले में नहीं मिलने वाली लड़कियां...
 
 
निखिल आनंद गिरि

रविवार, 30 जनवरी 2011

ये प्रेम त्रिकोणों का शहर है...

यहां दिल्ली पुलिस आपकी सेवा में सदैव तत्पर है...
प्यार ढूंढना हो तो कहीं और जाएं

जब तुम्हारे होंठ छुए, तो मालूम हुआ...
ये प्रेम त्रिकोणों का शहर है....
और उदास रौशनी का
जहां दाईं और बाईं ओर सिर्फ लड़ाईयां हैं
और बीच में हैं फ्लाईओवर.....

हम अपनी रीढ़ तले सख्त ज़मीन रखकर सोते हैं...
और आप मेरी कविताओं में रुई ढूंढते हैं...
इतनी खुशफहमी कहां से खरीद कर लाए हैं...
आप कह सकते हैं शर्तियां...
मैं किसी ऐसी बीमारी से मरूंगा...
जिसमें सीधी रीढ़ लाइलाज हो जाती है...

हमें ठीक तरह से याद है....
आधे दाम पर बेची गईं थी स्कूल की किताबें....
जिनमें लिखा था तीसरे पन्ने पर-
'चाहता हूं देश की धरती तुझे कुछ और भी दूं...'

चाहता हूं कि चुरा लूं सब तालियां,
जब वो भाषण दे रहे होंगे भीड़ में
नोंच लूं उनकी आंखों से नींद,
ताकि खूंखार सपने न देख पाएं कभी...

काश! किताबों में एकाध पन्ने जुड़ जाते चाहने भर से,
जैसे आ से आंदोलन, क से क्रांति...
जैसे ज़िंदा रहने के लिए ऑक्सीजन या दिल नहीं,
दुम ज़रूरी है....
और प्यार करने के लिए कंडोम.....

फाड़ दीजिए धर्म-शिक्षा के तमाम पन्ने...
कि सांसों के भी रंग होते हैं अब...
ये 1948 नहीं कि मरते वक्त
हे राम ! कहने की आज़ादी हो....

निखिल आनंद गिरि

शुक्रवार, 28 जनवरी 2011

यहां दिल्ली पुलिस आपकी सेवा में सदैव तत्पर है...

प्यार ढूंढना हो तो कहीं और जाएं

जब तुम्हारे होंठ छुए, तो मालूम हुआ...

ये प्रेम त्रिकोणों का शहर है....

और उदास रौशनी का

जहां दाईं और बाईं ओर सिर्फ लड़ाईयां हैं

और बीच में हैं फ्लाईओवर.....

हम अपनी रीढ़ तले सख्त ज़मीन रखकर सोते हैं...

और आप मेरी कविताओं में रुई ढूंढते हैं...

इतनी खुशफहमी कहां से खरीद कर लाए हैं...

आप कह सकते हैं शर्तियां...

मैं किसी ऐसी बीमारी से मरूंगा...

जिसमें सीधी रीढ़ लाइलाज हो जाती है...



हमें ठीक तरह से याद है....

आधे दाम पर बेची गईं थी स्कूल की किताबें....

जिनमें लिखा था तीसरे पन्ने पर-

'चाहता हूं देश की धरती तुझे कुछ और भी दूं...'



चाहता हूं कि चुरा लूं सब तालियां,

जब वो भाषण दे रहे होंगे भीड़ में

नोंच लूं उनकी आंखों से नींद,

ताकि खूंखार सपने न देख पाएं कभी...



काश! किताबों में एकाध पन्ने जुड़ जाते चाहने भर से,

जैसे आ से आंदोलन, क से क्रांति...

जैसे ज़िंदा रहने के लिए ऑक्सीजन या दिल नहीं,

दुम ज़रूरी है....

और प्यार करने के लिए कंडोम.....



फाड़ दीजिए धर्म-शिक्षा के तमाम पन्ने...

कि सांसों के भी रंग होते हैं अब...

ये 1948 नहीं कि मरते वक्त

हे राम ! कहने की आज़ादी हो....



इतना तबाह कर कि तुझे भी यक़ीं न हो,

इक था भरम के वास्ते, वो दोस्त भी न हो....

महफिल से वो गया तो सभी रौनकें गईं..

ऐसा न हो वो आए, मगर ज़िंदगी न हो

ठिठुरे हैं जो नसीब, उनका अलाव बन...

सूरज ही क्या कि सबके लिए रौशनी न हो

मेरी ही नज़र छीन ले, कोई शख्स क्यूं गिरे...

मौला तेरे किरदार में कोई कमी न हो...

तौबा कभी न चांद पर, हरगिज़ करेंगे इश्क

उतरे कहीं खुमार, तो पग भर ज़मीं न हो...

साए थे, शोर था बहुत, इतना सुन सका...

कंक्रीट के जंगल में कोई आदमी न हो...

मंज़िल मिली तो कह गए, बाक़ी है कुछ सफ़र

वो उम्र क्या कि उम्र भर आवारगी न हो

ले जाओ सब ये शोहरतें, ये भीड़, ये चमक

रोने के वक्त हंसने की बेचारगी न हो...



किसी धर्मग्रंथ या शोध में लिखा तो नहीं,

मगर सच है...

प्यार जितनी बार किया जाए,

चांद, तितली और प्रेमिकाओं का मुंह टेढ़ा कर देता है..

एक दर्शन हर बार बेवकूफी पर जाकर खत्म होता है...



आप पाव भर हरी सब्ज़ी खरीदते हैं

और सोचते हैं, सारी दुनिया हरी है....

चार किताबें खरीदकर कूड़ा भरते हैं दिमाग में,

और बुद्धिजीवियों में गिनती चाहते हैं...

आपको आसपास तक देखने का शऊर नहीं,

और देखिए, ये कोहरे की गलती नहीं...



ये गहरी साज़िशों का युग है जनाब...

आप जिन मैकडोनाल्डों में खा रहे होते हैं....

प्रेमिकाओं के साथ चपड़-चपड़....

उसी का स्टाफ कल भागकर आया है गांव से,



उसके पिता को पुलिस ने गोली मार दी,

और मां को उठाकर ले गए..

आप हालचाल नहीं, कॉफी के दाम पूछते हैं उससे...



आप वास्तु या वर्ग के हिसाब से,

बंगले और कार बुक करते हैं...

और समझते हैं ज़िंदगी हनीमून है..

दरअसल, हम यातना शिविरों में जी रहे हैं,

जहां नियति में सिर्फ मौत लिखी है...



या थूक चाटने वाली ज़िंदगी.....

आप विचारधारा की बात करते हैं....

हमें संस्कारों और सरकारों ने ऐसे टी-प्वाइंट पर छोड़ दिया है,



कि हम शर्तिया या तो बायें खेमे की तरफ मुड़ेंगे,

या तो मजबूरी में दाएं की तरफ..

पीछे मुड़ना या सीधे चलना सबसे बड़ा अपराध है...



जब युद्ध होगा, तब सबसे सुरक्षित होंगे पागल यानी कवि...

मां, तुम मेरा गला घोंट देना

अगर प्यास से मरने लगूं

और पानी कहीं न हो...



जब बांध सब्र का टूटेगा, तब रोएंगे....

अभी वक्त की मारामारी है, कुछ सपनों की लाचारी है,

जगती आंखों के सपने हैं...राशन, पानी के, कुर्सी के...

पल कहां हैं मातमपुर्सी के....इक दिन टूटेगा बांध सब्र का, रोएंगे.....



अभी वक्त पे काई जमी हुई, अपनों में लड़ाई जमी हुई,

पानी तो नहीं पर प्यास बहुत, ला ख़ून के छींटे, मुंह धो लूं,

इक लाश का तकिया दे, सो लूं,....जब बांध सब्र का टूटेगा तब रोएंगे.....



उम्र का क्या है, बढ़नी है, चेहरे पे झुर्रियां चढ़नी हैं...

घर में मां अकेली पड़नी है, बाबूजी का क़द घटना है,

सोचूं तो कलेजा फटना है, इक दिन टूटेगा......





उसने हद तक गद्दारी की, हमने भी बेहद यारी की,

हंस-हंस कर पीछे वार किया, हम हाथ थाम कर चलते रहे,

जिन-जिनका, वो ही छलते रहे....इक दिन टूटेगा बांध सब्र का रोएंगे...



जब तक रिश्ता बोझिल न हुआ, सर्वस्व समर्पण करते रहे,

तुम मोल समझ पाए ही नहीं, ख़ामोश इबादत जारी है,

हर सांस में याद तुम्हारी है...इक दिन टूटेगा बांध सब्र का रोएंगे...



अभी और बदलना है ख़ुद को, दुनिया में बने रहने के लिए,

अभी जड़ तक खोदी जानी है, पहचान न बचने पाए कहीं,

आईना सच न दिखाए कहीं! जब बांध सब्र का टूटेगा तब रोएंगे....



अभी रोज़ चिता में जलना है, सब उम्र हवाले करनी है,

चकमक बाज़ार के सेठों को, नज़रों से टटोला जाना है,

सिक्कों में तोला जाना है...इक दिन टूटेगा बांध सब्र का रोएंगे....



इक दिन नीले आकाश तले, हम घंटों साथ बिताएंगे,

बचपन की सूनी गलियों में, हम मीलों चलते जाएंगे,

अभी वक्त की खिल्ली सहने दे... जब बांध सब्र का टूटेगा तब रोएंगे..



मां की पथरायी आंखों में, इक उम्र जो तन्हा गुज़री है,

मेरे आने की आस लिए..उस उम्र का हर पल बोलेगा....

टूटे चावल को चुनती मां, बिन बांह का स्वेटर बुनती मां,

दिन भर का सारा बोझ उठा, सूना कमरा, सिर धुनती मां....

टूटे ऐनक की लौटेगी रौनक, जिस दिन घर लौटूंगा...



मां तेरे आंचल में सिर रख, मैं चैन से उस दिन सोऊंगा,

मैं जी भर कर तब रोऊंगा.....तू चूमेगी, पुचकारेगी,

तू मुझको खूब दुलारेगी...इस झूठी जगमग से रौशन,

उस बोझिल प्यार से भी पावन, जन्नत होगी, आंचल होगा....

मां! कितना सुनहरा कल होगा.....इक दिन टूटेगा बांध सब्र का, रोएंगे....



वहां हम छोड़ आए थे चिकनी परतें गालों की

वहीं कहीं ड्रेसिंग टेबल के आसपास

एक कंघी, एक ठुड्डी, एक मां...

गौर से ढूंढने पर मिल भी सकते हैं...



एक कटोरी हुआ करती थी,

जो कभी खत्म नहीं होती....

पीछे लिखा था लाल रंग का कोई नाम...

रंग मिट गया, साबुत रही कटोरी...



कूड़ेदानों पर कभी नहीं लिखी गई कविता

जिन्होंने कई बार समेटी मेरी उतरन

ये अपराधबोध नहीं, सहज होना है...



एक डलिया जिसमें हम बटोरते थे चोरी के फूल,

अड़हुल, कनैल और चमेली भी...

दीदी गूंथती थी बिना मुंह धोए..

और पिता चढ़ाते थे मूर्तियों पर....

और हमें आंखे मूंदे खड़े होना पड़ा....

भगवान होने में कितना बचपना था...



एक छत हुआ करती थी, जहां से दिखते थे,

हरे-उजले रंग में पुते, चारा घोटाले वाले मकान...

जहां घाम में बालों से, दीदी निकालती थी ढील....

जूं नहीं ढील, धूप नहीं घाम....

और सूखता था कोने में पड़ा...

अचार का बोइयाम...



एक उम्र जिसे हम छोड़ आए,

ज़िल्द वाली किताबों में...

मुरझाए फूल की तरह सूख चुकी होगी...

और ट्रेन में चढ़ गए लेकर दूसरी उम्र....

छोड़कर कंघी, छोड़कर ठुड्डी, छोड़कर खुशबू,



छोड़कर मां और बूढ़े होते पिता...

आगे की कविता कही नहीं जा सकती.....

वो शहर की बेचैनी में भुला दी गई, और उसका रंग भी काला है...



इस कविता में प्रेमिका भी आनी थी,

मगर पिता बूढ़े होने लगें,

तो प्रेमिकाओं को जाना होता है....

क्या ऐसा नहीं हो सकता,



कि हम रोते रहें रात भर



और चांद आंसूओं में बह जाए,



नाव हो जाए, कागज़ की...



एक सपना जिसमें गांव हो,



गांव की सबसे अकेली औरत



पीती हो बीड़ी, प्रेमिका हो जाए....



मेरे हाथ इतने लंबे हों कि,



बुझा सकूं सूरज पल भर के लिए,



और मां जिस कोने में रखती थी अचार...



वहां पहुंचे, स्वाद हो जाएं....



गर्म तवे पर रोटियों की जगह पके,



महान होते बुद्धिजीवियों से सामना होने का डर

जलता रहे, जल जाए समय



हम बेवकूफ घोषित हो जाएं...

एक मौसम खुले बांहों में,



और छोड़ जाए इंद्रधनुष....

दर्द के सात रंग,

नज़्म हो जाए...



लड़कियां बारिश हो जाएं...

चांद हो जाएं, गुलकंद हो जाएं,

नरम अल्फाज़ हो जाएं....

और मीठे सपने....

लड़के सिर्फ जंगली....

जब रात से निचोड़ लिए जाएंगे अंधेरे

और उगने लगेगा सूरज दोनों तरफ से..

जिन पेड़ों को तुम देखते हो रोमांस से,

उन्हें देखना सौभाग्य समझा जाएगा...

मिटा दिए जाएंगे रेगिस्तानों से पदचिह्न

और बाक़ी रहेंगे सिर्फ रुपये जैसे सरकारी निशान...

वर्जित क्षेत्रों में पूजे जाने के लिए....





इतना नीरस होगा समय कि,

दम घोंटकर कई बार मरना चाहेगी दुनिया...

समर्थ लोगों की बेबस दुनिया....



जब थोड़ी-सी प्यास और पसीना फेंटकर,

प्रयोगशालाओं में जन्म लेंगी कविताएं...

जैविक कूड़ा समझकर उड़ेल दिया जाएगा अकेलापन...

सूख चुके समुद्रों में....



लगातार युद्धों से थक चुके होंगे योद्धा...

खून का रंग उतना ही परिचित होगा,

जितनी मां....

चांद पर मिलेंगे ज़मीन के मुआवज़े

और कहीं नहीं होगा आकाश...



इतिहास ऊब चुका होगा बेईमान किस्सों से,

तब बड़े चाव से लिखी जाएंगी बेवकूफियां..

कि कैसे हम चौंके थे, बिना प्रलय के...



जब पहली बार हमने चखा था चुंबन का स्वाद...



या फिर भूख लगने पर बांट लिए थे शरीर....



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