youth लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
youth लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

रविवार, 1 जनवरी 2017

तीस की उम्र


चांद तक जाती हुई एक सीढी
टूट जाती है शायद
टूट जाते हैं सब संवाद
चांद जैसी धवल प्रेमिकाओं से
तीस की उम्र तक आते-आते।

अकेले कमरे में सिर्फ सिगरेट ही नहीं जलती
पुरानी उम्र जलती है कमरे में
भूख जलती है पेट में,
बिस्तर पर
यादें जलती हैं
ज़िंदगी जलकर सोना हो जाती है
तीस की उम्र तक आते-आते।

समय इतनी तेज़ी से घूमता है
इस उम्र में
कि सब कुछ थम-सा जाता है
आंखें नाचती हैं केवल।
बहुत-सी सांसे भरकर
रोकना होता है भीतर का ज्वार
बहुत तो नहीं रुक पाता फिर भी।

कंधे पर एक तरफ होता है
तमाम ज़िम्मेदारियों का बोझ
बेटी जागती है रात भर
तो प्रेमगीत लोरियां बनते हैं।
पिता पहली बार लगते हैं बूढे
मां किसी खोई हुई चाबी का उदास छल्ला।
दूसरे कंधे पर झूलता है ऐसे में
सूखी पत्तियों की तरह हरा प्रेम।

दुनिया में सब कुछ हो रहा होता है पूर्ववत
कुछ भी नया नहीं
सड़क पर लुटते रहते हैं मोबाइल
बहकते रहते हैं नए लौंडे
कानून तब भी अंधा
एक ही तराज़ू पर तोलता रहा है
उम्र और जुर्म के बटखरे।

सिर्फ नया होता है
एक उम्र का दूसरी उम्र में प्रवेश
अपनी-अपनी बालकनी में खड़े सब भाई-बंधु
युद्ध के मैदान में अचानक जैसे।
तीस की उम्र का रथ होता है एक
कोई सारथी नहीं
जिसके पहिए घिसने लगते हैं पहली बार।

('तद्भव' पत्रिका में प्रकाशित)

निखिल आनंद गिरि

शनिवार, 26 मार्च 2011

शादियों का इतिहास नहीं होता...

शादियां करना उन्हें बहुत पसंद था। और अपनी तस्वीरों की जगह बिल्लियों या लाल गुलाब लगाना भी उन्हें अच्छा लगता था। उन्हें लगता कि कोई है जो सिर्फ उनके लिए बना है। वो दुनिया की सबसे महंगी कार में सवार होकर आएगा और उस वक्त समय सबसे खूबसूरत लगेगा। जबकि, ये वो दौर था जब एक सुनामी आती तो मोहब्बत की हज़ारों कहानियां बहाकर ले जाती। इनमें कई महंगी कारें भी थीं, जिन्हें बहता देखकर लोग रोना तक भूल गए थे।

वो एक यादगार शाम थी क्योंकि पहली बार उसने एक लड़के को मुंह पर गंदी गाली बकी थी (कुछ गालियां अच्छी भी होती होंगी, शायद मां के मुंह से निकलने वाली)।  कहने वाले कहते रहे कि दोनों एक दूसरे से प्यार करते हैं मगर लड़की का गुस्सा कम होने का नाम नहीं ले रहा था। लड़के ने कुछ नहीं कहा था। उसे पहली बार की हर चीज़ अच्छी लगती थी। इसीलिए वो कई बार पहला प्यार कर चुका था। कई बार पहली गाली नहीं खाई थी। उसने गाली खाने के बाद लड़की से पूछा कि क्या उसे चूम सकता है। लड़की ने थोड़ी देर कुछ नहीं कहा और फिर अपनी आंखे बंद कर ली।

ये शहर उसे मरने की फुर्सत भी नहीं देता था और जीने के लिए जो ज़रूरतें उसकी थीं, वो कहीं भी पूरी की जा सकती थीं। वो अपने पिता के लिए कोई बीमा पॉलिसी लेना चाहता था मगर दुनिया की कोई भी बीमा पॉलिसी बूढ़े लोगों का खयाल नहीं रखती थी। उन्हे ज़िंदा लोग अच्छे लगते थे और वो नहीं जिनकी जेब में सिर्फ पेंशन आती हो।

शहर में कई मोहल्ले थे और मोहल्ले में कई पेचीदा गलियां जहां छतों के बीच फासले इतने कम थे कि नफरत को पनाह नहीं मिलती थी। इन गलियों में हर रोज़ कोई नई प्रेम कहानी जन्म लेती थी। इन गलियों का इतिहास गूगल पर नहीं मिलता था। इनके नक्शे किसी इतिहास की किताब में भी नहीं मिलते थे। इतिहास सिर्फ उतना ही बताता रहा जितना इम्तिहानों में पास करने के लिए ज़रूरी होता है। वो इतिहास में अपनी जगह बनाना चाहता था इसीलिए उसे शादियों में कोई दिलचस्पी नहीं थी। उसे शादियों से बेहतर सुनामी लगती थी, जहां बड़ी से बड़ी कारें कागज़ की नाव की तरह बहती थीं और पॉलिसी के कागज़ भी।

निखिल आनंद गिरि

बुधवार, 5 जनवरी 2011

ठूंठ पीढ़ियां, बेबस माली...

जिन पेड़ों ने फल नहीं दिए,

उन्हें भी सींचा गया था सलीके से

भरपूर खाद-पानी और देखभाल के साथ..

हवा भी उतनी ही मिली थी उन्हें,

जितनी बाक़ी पेड़ों के नसीब में थी....

उम्मीद के लंबे अंतराल ने दिया

माली को ठूँठ पेड़ों का दुख..


ये दुख नहीं बना चर्चा का विषय

बुद्धू बक्से के बुद्धिजीवियों के बीच

या किसी भी अखबार के पन्ने पर,


पीढ़ी दर पीढ़ी उगते रहे ठूंठ

और घेरते रहे जगह,

फलदार पेड़ों के बरक्स....


फलदार पेड़ों को क्या था..

झूमकर लहराते रहे अपनी किस्मत पर....

ठूंठ पेड़ों से बिना उलझे,

मुंह घुमाकर समझते रहे,

कि हर ओर हरी है दुनिया....


उधर मालियों ने फिर भी सींचा,

नए बीजों को, नई उम्मीद से...

जब तक नीरस नहीं हुई पूरी पीढ़ी...


फिर बेबस मालियों ने सोचा उपाय

ठूंठ पेड़ों से कुछ काम निकाला जाये..

गर्दन में फंसाकर फंदे,

वो झूल गए इन्हीं पेड़ों पर...

और थोड़े-से फलदार पेड़ देखते रहे

अपनी तयशुदा मौत का पहला भाग...


काश! फलदार पेड़ों ने किया होता प्रतिरोध

ज़रा-सा भी,

तो ठूंठ पेड़ों में फल तो नहीं आते,

मगर वो समय रहते शर्म से

टूटकर गिर ज़रूर जाते,


ज़िंदा रहते माली

ताकि,

फलदार पेड़ों की भी हरी रहती डाली....


निखिल आनंद गिरि

Subscribe to आपबीती...

सोमवार, 20 दिसंबर 2010

दे दो न इसको आवाज़ साथी...

उम्र की कच्ची सड़कों पर जब, हम-तुम अल्हड़ मस्त चाल में;
सब कुछ पीछे छोड़ बढ़े थे...
तुमको भी सब याद ही होगा...

नर्म ज़ुबां में भोली नज़्में,
मैं गढ़ता था, तुम सुनती थीं..
एक नज़्म जो अटक गई थी,
नटखट थोड़ी, नकचढ़ी सी...
उम्र की सीढ़ी पर चुपके से...
मैंने तुम्हारे रस्ते में रख छोड़ी थी...
रिश्तों की पोशाक ओढ़ाकर.
थोड़ा-सा बहला फुसलाकर
तुमको भी सब याद ही होगा...

बहकी-बहकी नज़्म को तुमने,
ठोकर मारी और गुज़र गए...
अल्हड़, अगड़ाई लेती नज़्म वो
रिश्तों की पोशाक लपेटे,
सुबक-सुबक कर, कहीं दुबक कर...
उम्र के रस्ते में खोई थी...
तुमको भी सब याद ही होगा...

आज अचानक किसी गली में,
वक्त के लब पर...
वही नज़्म फिर से,
मुझे दिख पड़ी है...
मिसरे वही हैं, बहर भी वही है...
रिश्तों की पोशाक ज़रा-सी रफू हुई है...

वही शरारत, नज़्म में अब भी...
भोलापन, अंगड़ाई वही है...
तुम्हारी ठोकर से जो एक रिश्ता
हौले-हौले सुबक रहा था,
उम्र की कच्ची सड़कों पर,
बरसों से दुबक रहा था...

उन्हीं लबों की इसे फिर तलब है....
दे दो न इसको आवाज़ साथी....

निखिल आनंद गिरि

Subscribe to आपबीती...

शनिवार, 19 दिसंबर 2009

देखना तुम...

ये बदहवासी से ठीक पहले के क्षण हैं,

मेरी पीठ पर पटके जा रहे हैं कोड़े

कि मेरी रीढ़ टूट जाए...

वो मुझे सांप बना देना चाहते हैं,

कि मैं रेंगता रहूं उम्र भर...

उनकी बजाई बीन पर...

ये बदहवासी से ठीक पहले की घड़ी है..

मेरी आंखों के आगे अंधेरा छाने वाला है...

इस एक पल को जीना चाहता हूं मैं...

करना चाहता हूं सौ तरह की बातें तुमसे...

खोलना चहता हूं मौन की मोटी गठरी..

तुम कहां हो??

मैं चीख रहा हूं ज़ोर-ज़ोर से...

शायद आवाज़ कहीं पहुंचेगी...

कोड़े खाने के फायदे हैं बहुत..

ये चीख मुझे गूंगा कर देगी देखना.....

मेरे पांवों में बांध रखी हैं,

समय ने कस कर बेड़ियां...

मैं भूलने लगा हूं

अपने बूढ़े पिता का चेहरा...

ये बदहवासी के पहले की आखिरी घड़ी है....

मां याद है मुझे,

पसीना पोंछती मां,

बेटों की डांट खाती मां...

तुम कहां हो,

तुम्हें छूना चाहता हूं एक बार..

हाथ भूल गए हैं स्पर्श का स्वाद...

मैं पीछे मुड़कर दबोच लेना चाहता हूं कोड़ा,

मगर ऐसा कर नहीं सकता..

मैं बदहवास होने लगा हूं अब...

मुझ पर और कोड़े बरसाए जाएं..

मुझे प्यास लग रही है,

मैं चखना चाहता हूं आंसू का स्वाद..

ये बदहवासी के आंसू हैं...

रोप दिए जाएं सौ करोड़ लोगों की छाती में..

कि झुकने न पाए उनकी रीढ़

बीन बजाते संपेरों के आगे...

कहां-कहां ढूंढोगे मुझे..

मैं हर सीने में हूं..

दुआ करो कि खाद-पानी मिले मेरे आंसूओ को,

याद रखना संपेरों,

मेरे आंसू उग आए

तो निर्मूल हो जाओगे तुम....

…………………………………………………………..

ये पोस्ट कुछ ख़ास है

मृत्यु की याद में

कोमल उंगलियों में बेजान उंगलियां उलझी थीं जीवन वृक्ष पर आखिरी पत्ती की तरह  लटकी थी देह उधर लुढ़क गई। मृत्यु को नज़दीक से देखा उसने एक शरीर ...

सबसे ज़्यादा पढ़ी गई पोस्ट