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सोमवार, 29 अक्तूबर 2012

नो 'हिंदी-विंदी', सिर्फ 'इंग्लिश-विंग्लिश'...

अगर विदेशी लोकेशन पर शूट करना हिंदी सिनेमा के निर्देशकों के लिए मुनाफा कमाने की मजबूरी है, तब तो ठीक है, वरना 'इंग्लिश-विंग्लिश' जैसी कहानी हिंदुस्तान के किसी भी शहर में शूट की जा सकती थी। शशि (श्रीदेवी) को अपने घर में सिर्फ इसीलिए इज़्ज़त नहीं मिलती क्योंकि उसकी हिंदी अंग्रेज़ी से ज़्यादा अच्छी है। लेकिन, अंग्रेज़ी मीडियम स्कूल में पढ़ रहे उसके बच्चों के लिए उनकी मम्मी का अच्छी हिंदी जानना (और अंग्रेज़ी नहीं जानना) लड्डू बनाने के काम जैसा मामूली और बेकार है।
स्कूल जाती बेटी मां को बार-बार ताने देकर एहसास दिलाती रहती है कि इस सदी में अंग्रेज़ी न जानना आपको तरक्की के सूचकांक में कितने साल पीछे कर देता है।

इस फिल्म में शुरु के कई हिस्से  अच्छे तो हैं, मगर फिल्म जिस उम्मीद से देखने गया था, वहां खरी नहीं उतरी। मुझे लगा था कि बढ़िया कहानी चुनने के बाद  निर्देशिका गौरी शिंदे इसकी कहानी को भाषा के मोर्चे पर आगे ले जाएंगी। हिंदी और दूसरी देसी भाषाओं को हिंदुस्तान में अंग्रेज़ी के बराबर खड़ा करने की फिल्मी कोशिश की जाएगी। वो उद्दंड बेटी जो 'तुम पढ़ाओगी मुझे 'इंग्लिश लिटरेचर'! कहकर अपनी मां को बार-बार तार-तार कर देती है, आखिर-आखिर तक अपने अंग्रेज़ी घमंड और बड़बोलेपन के लिए मां से माफी मांगेगी, मगर ऐसा कुछ नहीं हुआ। हिंदुस्तान के कई इलाकों में अंग्रेज़ी की दहशत (और श्रद्धा) में जी रहे करोड़ों हिंदी लोगों की कहानी न कहते हुए गौरी इस कहानी को सीधा अमरीका उड़ा ले गईं। फिर, अमरीका में अंग्रेज़ी सिखाने वाले एक कोचिंग सेंटर में नायिका को भर्ती करा दिया और फिल्म को ग्लोबल टच दे दिया। फिल्म हल्का-हल्का इमोशनल टच देती हुई निकल गई। एक हाउसवाइफ की कहानी बनकर रह गई जो आखिर-आखिर तक अंग्रेज़ी बोलना सीख ही जाती है और अपने घर में सम्मान पा जाती है। स्मार्ट मॉम के लिए तालियां...

मगर, हिंदी का क्या हुआ। सिर्फ टूल के तौर पर फिल्म में इसका इस्तेमाल हुआ। स्थापित तो अंग्रेज़ी ही हुई ना। और सिर्फ हिंदी ही नहीं। फ्रेंच, उर्दू जैसी दुनिया भर की तमाम ज़रूरी भाषाएं हांफती-दौड़ती,  फीस भरकर अंग्रेज़ी सीखती दिखीं। कुल मिलाकर फिल्म अंग्रेज़ी का प्रचार करती ही दिखी। किसी और भाषा को सम्मान देने के बजाय बाज़ार की उसी भाषा को सम्मान देती दिखी, जिसके आगे दुनिया भर की कई भाषाओं की बड़ी से बड़ी प्रतिभाएं पानी भरती दिखती हैं। हिंदी के दिग्गजों का तो हाल ही मत पूछिए। वो दिल्ली में हिंदी की खाते हैं और न्यूयॉर्क में हिंदी सम्मेलन के नाम पर ऐतिहासिक सेमिनार और फूहड़ बहसें करते हैं। ये फिल्म भी उसी बहस का एक विस्तार जैसा लगी। बस, प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का ब्रिटेन में दिया वो असल बयान भी फिल्म में जोड़ देते जिनमें वो बहुत कृतज्ञ थे कि अंग्रेज़ों ने हमें इतनी महान भाषा सिखाई।

ऐसी फिल्में प्रोपैगेंडा फिल्मों की तरह लगती हैं। जैसे सिनेमा की शुरुआत में अमरीकी नस्लवाद पर मुहर लगाती फिल्में बनती थीं या फिर बाद में हिटलर और नाज़ी वैभव का प्रचार करती फिल्में। एक ख़ास सोच से निकली हुई निर्देशक के पास फिल्म बनाने को बजट तो था मगर कहानी का कैनवस बड़ा करने का साहस नहीं था। वरना, वो देश भर के अंग्रेज़ी सिखाने वाले कोचिंग संस्थानों का एक मोंटाज ज़रूर दिखातीं जो 100 रुपये में भी अंग्रेज़ी सिखा देने का दावा करते हैं, फरेब करते हैं। वो मेरे तेलुगु दोस्त प्रदीप या तमिल दोस्त राजगोपाल सुब्रह्मण्यम का वो दर्द भी दिखाती कि कैसे उनका अंग्रेज़ी ज्ञान भी हिंदी की दबंगई के आगे काम नहीं आता। जब वो रोज़ डीटीसी की बसों में हिंदी गालियां बकते कंडक्टरों से परेशान होते हैं और मुझे अफसोस होता है कि कम से कम देश की राजधानी में इन तमाम बसों, रास्तों और दफ्तरों के तमाम साइन बोर्ड्स संविधान में दर्ज सभी भाषाओं में क्यों नहीं हो सकते। वो हमारी मौक़ापरस्ती भी दिखातीं कि कैसे हिंदी के तमाम न्यूज़ चैनल, हिंदी सिनेमा के तमाम नायक, निर्देशक, हिंदी समाज के तमाम नेता, बुद्धिजीवी और तीसमारखां अंग्रेज़ी में बात करने पर कितना गर्व महसूस करते हैं। मुझे उदय प्रकाश की कविता 'एक भाषा हुआ करती है '  अचानक याद आ रही है -

दुनिया के सबसे बदहाल और सबसे असाक्षर, सबसे गरीब और
सबसे खूंखार सबसे काहिल और सबसे थके-लुटे लोगों की भाषा
अस्सी करोड़ या नब्बे करोड़ या एक अरब भुक्खड़ों, नंगों और गरीब-लफंगों की जनसंख्या की भाषा
वह भाषा जिसे वक्त-जरूरत तस्कर, हत्यारे, नेता,
दलाल, अफसर, भंडुए, रंडियाँ और जुनूनी
नौजवान भी बोला करते हैं
वह भाषा जिसमें
लिखता हुआ हर ईमानदार कवि पागल हो जाता है

बहरहाल, 'इंग्लिश-विंग्लिश' एक ठीकठाक फिल्म है। श्रीदेवी की वापसी है, मगर वो हवाहवाई नहीं हैं।
वो शशि हैं। हिंदुस्तान में अंग्रेज़ी से ग्रस्त एक परिवार के बीच से बचकर अमरीका में वक्त गुज़ारने पहुंची एक एलीट हिंदी हाउसवाइफ। शशि अमरीका के किसी पार्क में बेंच पर बैठकर देखती हैं कि कैसे दोनों हाथों और मुंह से नोचकर बर्गर खाए जाते हैं। वो ये भी महसूस करती है कि उसका पति सिर्फ उसे 'हग' करने में हिचकिचाता है और बाक़ी सबसे अपनापन जताने के लिए शिद्दत से गले मिलता है।  हिस्सों में फिल्म अच्छी है, मगर फिल्म की टार्गेट ऑडिएंस शायद कोई और है। बाज़ार होती दुनिया में कमज़ोर अंग्रेज़ी की कुंठा के मारे शर्मिंदगी झेल रही हिंदुस्तानी ऑडिएंस तक ये फिल्म पहुंच भी पाएगी या नहीं, कहना मुश्किल है।

दिल्ली मेट्रो का एक वाकया याद आ रहा है। ट्रेन के भीतर एक बच्ची उछल-उछल कर मेट्रो के स्टेशनों के नाम पढ़ रही थी और अपनी मां को खुशी से सुना रही थी। मां खुश हो रही थी, मगर जैसे ही उसने देखा कि बेटी अंग्रेज़ी में नहीं, बल्कि हिंदी में लिखे नामों को पढ़ने की कोशिश पर खुश हो रही है, वो ज़ोर से हंसने लगी और बच्ची के पिता को बोली - 'हिंदी में पढ़ रही है, घंटे भर में  तो पढ़ ही लेगी।' मुझे लगता है, 'इंग्लिश-विंग्लिश' उस बच्ची की मां को भी दिखाई जानी चाहिए। दुनिया भर के उन तमाम स्कूलों को भी जहां मातृभाषाएं ज़बरदस्ती छुड़वाई जाती हैं। अंग्रेज़ी नहीं बोलने पर एक रुपये का जुर्माना लगाने की धमकियां दी जाती हैं।

निखिल आनंद गिरि

रविवार, 6 फ़रवरी 2011

हम हैं ताना, हम हैं बाना, नाम-पता ना ठौर-ठिकाना...

वो चिट्ठी मेरे सामने ही आई थी जिसमें लिखा था कि आपको 15 फरवरी को साहित्य अकादमी सम्मान दिया जाना है...इस बार उन्हें सरकारी सम्मान मिला था तो टीवी पत्रकार के तौर पर मिलने जाना हुआ। मतलब, उनसे सवाल भी पूछने थे कि साहित्य अकादमी का पुरस्कार मिला तो कैसा लगा वगैरह वगैरह। ऐसा क्यों होता है कि मैं जब भी उदय प्रकाश से मिलता हूं, मुझे परिस्थितिवश रीटेक लेने ही पड़ते हैं। उदय प्रकाश मन ही मन झुंझलाते हैं, सामान्य होते हैं और फिर हमारी मुलाकात ख़त्म होती है।  उदय जी के आलोचक कुंठा में यहां तक कहते हैं कि उदय प्रकाश पूरे जीवन में 6-7 अच्छी कहानियां ही लिख सके हैं और साहित्य में उनका योगदान इतना ही भर है। खैर, अगर वो एक-दो भी कहते तो मैं मिलने ज़रूर जाता।
एक पल को भी नहीं लगा कि देश का सबसे बड़ा साहित्यिक सम्मान मिलने पर उदय प्रकाश खुश हों। ऐसा लगा कि मोहनदास को सरकारी पहचान मिलने में देरी अपनी सब हदें पार कर चुकी है....अब मोहनदास को एक लाख रुपये का नमकीन चेक खुश नहीं कर सकता।
बहरहाल, समंदर के किनारे पांव लटकाने भर से जिस तरह समंदर का पूरा अहसास होता है, वही इस छोटी मुलाकात  से हुआ। अपने पाठकों के लिए पूरा इंटरव्यू पेश है।  साहित्यिक पत्रिका ' पाखी ' ने भी इस लेख को जगह दी है..

निखिल- उदय प्रकाश को पढ़ने और पसंद करने वाली तीसरी पीढ़ी भी तैयार हो चुकी है। इस लिहाज से साहित्य अकादमी सम्मान मिलने में देरी नहीं हुई?

उदयजी– नहीं, ये तो नहीं कहूंगा। देखिए, इस तरह के जो सांस्थानिक सम्मान हैं, या इनकी स्वीकृतियां मैं कहता हूं; अच्छी रचनाओं को हमेशा देर से मिलती है और नहीं भी मिलती हैं। मैं कई बार कहता रहा हूं कि अगर आप अपने समय को व्यक्त कर रहे हैं और सचमुच आपकी रचनाएं, आपका साहित्य विपक्ष का साहित्य है, तो पुरस्कार के बजाय दंड की ज़्यादा गुंजाइश रहती है। तो खुशी है कि इसको एक सांस्थानिक स्वीकृति मिली और मोहनदास पर मिली। ये महत्वपूर्ण यूं भी है कि माना जाता था कि कहानी ऐसी विधा है, जिसको न कविता जैसी हैसियत प्राप्त है और न ही उपन्यास जैसी। तो ये बहुत इनफीरियर(निकृषट) जैसे जेंडर के समय में सोचते हैं ना कि तीसरा जेंडर (हंसते हुए)...उस तरह...तो (कहानी को) ये स्वीकृति, ये सम्मान नहीं था। निर्मल वर्मा को ज़रूर दिया गया था लेकिन किसी एक कहानी पर नहीं, कहानी संग्रह पर दिया गया था। ये पहली बार हुआ है कि एक कहानी को साहित्य अकादमी ने पुरस्कृत किया, और मोहनदास जैसी कहानी को। मैं इस मायने में कहना चाहूंगा; आप सब जानते हैं कि लगभग पिछले दस सालों से कहा जा रहा था कि समकालीन साहित्य के केंद्र में कहानी आ चुकी है, लेकिन ये विडंबना थी कि कहानी को केंद्र में आने के बावजूद, इतना बड़ा उसका पाठक समुदाय होने के बावजूद, इतना बड़ा पब्लिक स्फेयर और इतनी सारी पत्रिकाएं केंद्रित होने के बावजूद कहानी को जो सम्मान और जो गरिमा मिलनी चाहिए थी वो नहीं मिल रही थी, तो ये बहुत बड़ा डिपार्चर है। और ये कभी न भूलें कि साहित्य अकादमी ने इसके पहले किसी कहानी को पुरस्कृत नहीं किया है। खुशी है, बहुत खुशी है। मैं इसको दरअसल पाठकों के ही दबाव के कारण, उनकी आकांक्षाओं की सांस्थानिक स्वीकृति मानता हूं।

निखिल- आप तो कहते भी रहे हैं कि हिंदी के पावर स्ट्रक्चर (सत्ता प्रतिष्ठानों) से खुद को अलग ही रखते हैं, इस संदर्भ में भी पुरस्कार बड़ा है?

उदयजी – हां, इसे हर कोई जानता है कि एंटी एश्टैब्लिशमेंट(establishment) यानी व्यवस्था विरोधी उसके साहित्यकार हैं। मैं ही क्या, प्रेमचंद भी वही थे। मुक्तिबोध भी वही थे। हर लेखक कहीं न कहीं अपने समय की सत्ता व्यवस्था जो होती है, उससे अलग और उसके विपक्ष में जो प्रजा होती है, जनता होती है, नागरिक होते हैं, मनुष्य होते हैं, ये उनके जीवन की विडंबनाओं और उनकी आकांक्षाओं, सपनों की बात करता है और मोहनदास ऐसी ही कहानी है।

निखिल-  मोहननदास एक दलित पात्र को केंद्र में रखकर लिखी गई कहानी है। एक गैर-दलित/सवर्ण लेखक को ऐसी कहानी पर पुरस्कार मिलना क्या कहता है? वो भी तब जब दलित लेखकों का बड़ा समूह सक्रिय है?

उदय जी- (हंसते हैं) देखिए, मैं एक चीज़ बताऊं आपको...इस तरह की जो identities हैं ना, दलित हैं, माने intermediary identities हैं, सवर्ण identities हैं, जेंडर की identities हैं...मैं मानता हूं कि जो ऑथर है, लेखक, उसकी भी अलग आइडेंटिटी होती है। और लेखक से ज़्यादा दलित कोई हो ही नहीं सकता क्योंकि आप खुद देखिए, एक दलित ही अपने आपको पॉलिटिकली एसर्ट(?) कर सकता है। एक माइनॉरिटी ही अपने आप को राजनीतिक रूप से एसर्ट(?) कर सकता है। लेखक आज तक कभी अपने आप को एसर्ट(?) नहीं कर पाया क्योंकि किसी संगठन, समुदाय के रूप में, किसी कास्ट के रूप में वह होता ही नहीं है; लेखक हमेशा अकेला होता है। असंगठित होता है। और इसलिए आप जिसे उदाहरण देखें...आप परसों का उदाहरण ही लीजिए कि ज़फर पनाही, इतने महत्वपूर्ण, इतने संवेदनशील पत्रकार, उनको सज़ा और उनको 20 साल तक फिल्म न बनाने, लिखने की बंदिश, कठोर सज़ा दी गई। आप अपने यहां देखिए, एक चित्रकार बाहर है इस देश से। एक लेखिका, जानी-मानी, एक वाक्य बोलती है, वो भी संवैधानिक बात और उसपे देशद्रोह का मुकदमा चला दिया जाता है। तो लेखक होना और सच कहना ये बहुत कठिन है। इसलिए मैं मानता हूं कि लेखक से ज़्यादा दलित, अगर सच्चा लेखक है तो, और कोई होता नहीं है।

निखिल- आपके पाठक और आलोचक भी, और अब तो सरकारी संस्थान भी, कहते हैं कि आपकी कहानियों में जादुई पोएटिक टच होता है। तो आप पहले क्या मानते हैं खुद को, एक कवि या एक कहानीकार?

उदय – नहीं निखिल जी, मैं कवि ही हूं। और मैंने (हंसते हुए) शुरुआत अपनी रचनाओं की, बचपन में, कविताओं से ही की थी। कविता और पेंटिग से। और मेरा ये मानना है कि; उदाहरण भी देता हूं, दोस्तों से भी कहता हूं कि जैसे कुम्हार कोई होता है, मिट्टी से खेलता है, घड़े बनाता है, चाक पर चढ़ाता है तो उसकी ऊंगलियां जानती है कि ये मिट्टी कैसी है, इसे मैं क्या बनाऊं; लेकिन अगर धोखे से कभी वो कोई कमीज़ सिल दे...और लोग उसको दर्जी कहने लगें(हंसते हैं) तो मैं दोस्तों से कहता हूं कि मैं दरअसल कहानियां लिखता ज़रूर हूं लेकिन मैं हूं कवि ही। और आप पढ़ें, मोहनदास पढ़ें, आप कोई भी कहानी पढ़ें, वारेन हेस्टिंग्स का सांड अपने आप में एक कविता है। और एक ऐसी कविता जो आख्यानात्मक कविता है, इसको पाठकों ने पसंद भी किया है। बड़े पैमाने पर पसंद किया है। और जिन कहानियों को आप जानते होंगे, आलोचक या मठाधीश या आचार्य जिनको कहते हैं, जिनको वो दुरुह या दुर्गम कहानियां कहते थे, उनको इतनी बड़ी लोकप्रियता मिली। आज सारी भारतीय भाषाओं में इनका अनुवाद है, विदेशों में भी अनुवाद है। तो मैं कह सकता हूं कि पहली बार शायद मैं एक ऐसा लेखक हूं जिसकों पाठकों का और सारी भारतीय भाषाओं का और सभी का भरपूर प्यार, साथ मिला। मोहनदास नेपाली में भी अनूदित है। वहां भी ये बेस्टसेलर है। अभी नेपाल से लड़के आए थे। तो उर्दू में, अंग्रेज़ी में, जर्मन में, सारी भाषाओं में, कन्नड़, मलयालम, कोई ऐसी भाषा नहीं है, ओड़िया में है, मराठी में है। मराठी में बहुत लोकप्रिय है। आपने ये भी देखा होगा कि पिछली बार अमरावती में दलितों का सम्मेलन, 25000 दलित, वहां मोहनदास, मोहनदास हो रहा था। तो उन्होंने मुझे जो सम्मान दिया अमरावती में, उसने सचमुच जीवन की एक धारा बदल दी। वो एक मोड़ है मेरे जीवन का, बहुत निर्णायक मोड़ है, कि शायद लेखक होते हुए मैंने सचमुच ईमानदारी से; जो सबसे उत्पीड़ित हिस्सा है हमारे समाज का, उसकी आवाज़ और अंतरात्मा को छुआ है और उसके पीछे कोई राजनीतिक स्वार्थ नहीं था। वो एक कंसर्न था, ऐसी चिंता थी, जो हर लेखक को, हर नागरिक को होनी चाहिए।

निखिल – इसका मतलब आपको पहले ही बड़ी सम्मान दे चुके हैं देने वाले?

उदय – क्यों नहीं, जब मेधा पाटेकर ने किताब ‘एक भाषा हुआ करती है...’ का विमोचन किया तो मैंने लिखा कि मेरे लिए ये अब तक का सबसे बड़ी पुरस्कार है। मेधा जी ने लिखा है कि दलितों और पीड़ितों के जीवन के अनुभवों को वाणी देने वाले उदय प्रकाश की किताब का विमोचन करते हुए मुझे खुशी हो रही है। वृंदा करंदिकर, इतने बड़े कवि, जिनका मैं सचमुच सम्मान करता हूं, उन्होंने ‘अरेबा-परेबा’, जिसके मराठी की किताब का पुरस्कार दिया, वो पुरस्कार जो उन्हें ज्ञानपीठ से मिली हुई राशि थी, से चलने वाला पुरस्कार, बड़ा पुरस्कार माना जाता है, महाराष्ट्र फाउंडेशन का पुरस्कार। आप ‘पीली छतरी वाली लड़की’ को देखिए कि पेन अवार्ड मिला। पेन अवार्ड दिया ही इसीलिए जाता है जो ऑप्रेस्ड राइटिंग ऑफ द वर्ल्ड लिटरेचर, दबाई गई, दमित जो आवाज़ें हैं विश्व साहित्य की, उनको दिया जाने वाला सम्मान है। तो मैं ये मानता हूं कि, देखिए साहित्य सिर्फ भाषा का कौशल नहीं है, साहित्य सिर्फ शिल्प की बाज़ीगरी नहीं है और ये भी नहीं कि आप अभी दलित एरा चल रहा है तो दलितों पर एक कहानी लिख दी, कम्युनलिज़्म और सेक्यूलरिज़्म तल रहा है, तो आपने उस एजेंडे पर एक कहानी लिख दी। इतना आसान नहीं होता कुछ भी लिखना। कविता हो चाहे कहानी हो, जब तक अपने समय के जो वास्तविक संकट और अंतर्विरोध हैं, उनको आप नहीं पहचानेंगे, तब तक आप नहीं लिख पाएंगे कुछ भी।

निखिल – एक लेखक के लिए पढ़ना कितना ज़रूरी है। आपके महतवपूर्ण लेखक, कवि कौन रहे हैं?

उदय जी – बहुत...मैं पढ़ता बहुत हूं। सभी ने प्रभावित किया, सबकी प्रेरणाएं हैं। मैं किसका-किसका नाम लूं, विदेशी साहित्यकार भी हैं, अपनी भाषा के भी, अन्य भारतीय भाषाओं के भी साहित्यकार हैं। सबका योगदान है, आप संस्कार वहीं से पाते हैं। एलियट की बड़ी प्रसिद्ध पंक्ति है...जो उसका कथन है ‘tradition and the individual talent’…जो परंपरा है उसी में अपनी वैयक्तिक प्रतिभा भी प्रकट हो सकती है। अगर हम परंपराओं से परिचित नहीं होंगे तो सिर्फ वैयक्तिक प्रतिभाओं के दम पर उछलने-कूदने से कुछ नहीं होता। जैसे आप सिनेमा बनाते हैं, तो सिनेमा के पीछे 20वीं सदी से लेकर आज तक का पूरा इतिहास। उसमें कई बड़े-बड़े काम हो चुके हैं। आपके पहले तारकोवस्की, सत्यजीत रे, ऋत्विक घटक हो चुके हैं, अब आप उसके बाद बना रहे हैं। तो आपको पूरी परंपरा का, इतिहास का संज्ञान रहना चाहिए और तब आप कुछ नया कर पाएंगे। और आप सोचेंगे कि मैं मौलिक हूं, औप बिना परंपरा को जाने हुए आ जाएंगे तो हास्य पैदा होगा।

निखिल – हिंदी के साहित्यकारों में किन्हें पढ़ना बेहद ज़रूरी मानते हैं?

उदय – मैं तो...हज़ारीप्रसाद द्विवेदी के जो उपन्यास हैं, ज़रूर पढ़ना चाहिए, क्योंकि अलग तरह का पोस्ट-मॉडर्न(उत्तर-आधुनिक) उनका नैरेटिव है। दूसरा, मुक्तिबोध मेरी चेतना के केंद्र में रहे हैं, शमशेर को पढ़ना चाहिए। और अज्ञेय को जिनको लगातार निर्वासित-सा किया गया। आप पढ़के देखिए ‘शेखर एक जीवनी’,उनको पढना चाहिए। प्रेमचंद तो रहेंगे ही रहेंगे। उनको तो अवश्य पढ़ना चाहिए, हर कहानी पढ़नी चाहिए। फिर उसके बाद, आज़ादी के बाद, स्वातंत्र्योत्तर जो काल है, जिनकी जन्मशती हम मनाने जा रहे हैं, बाबा नागार्जुन। क्यों नहीं पढ़ना चाहिए। मैंने हाल ही में एक मैगज़ीन के लिए अंग्रेज़ी में लिखा है, कि बाबा नागार्जुन के बारे में धारणा बना दी गई कि वो पेडेस्ट्रियन पोएट हैं, सड़क में खड़े हुए; तो ऐसा नहीं है। आप सोचिए, जिसने मैथिली में लिखा हो, बांग्ला में लिखा हो, संस्कृत में लिखा हो, जो पाली जानता रहा हो, कितनी भाषाओं का ज्ञाता रहा हो। आइजनआवर, टीटो, नेहरू, मिसेज़ गांधी, रजनी पाम दत्त, चीन-भारत विवाद, इन सब पर जिनकी रिमार्केबल(उल्लेखनीय) कविताएं रही हों, उसको आप कहें कि वो एलिट नहीं है, अभिजात नहीं है, वो जनकवि हैं। आपने उनकी ऐसी छवि बना दी। बाबा नागार्जुन अभिजात के कवि थे, एक ऐसे एलिट पोएट थे, जो पीपुल्स एलीट थे, जनता के अभिजात। तो इसी रूप में देखिए, पुनर्व्याख्याओं की ज़रूरत है, पुनर्मूल्याकंन की ज़रूरत है। कोल्ड वॉर का जो समय था, आप जानते हैं कि इतनी ज़्यादा राजनीति थी कि एक तरफ सोशलिस्ट और एक तरफ कैपिटलिस्ट ब्लॉक है, उन दोनों की टकराहट के बीच जो साहित्य रचा गय, उसमें कहा गया कि ये तो ‘शिविरबंदी’ थी। ये उनके खेमे का है, ये हमारे खेमे का है। और आज भी आ देखते हैं कि तरह-तरह के लेखक संगठन बने हुए हैं, गुट बने हुए हैं, उससे बहुत नुकसान हो रहा है। आप सोचिए, शमशेर को लगभग ये मान लिया गया था कि वो प्रगतिशील नहीं हैं। मुक्तिबोध को तो मनोरोगी तक घोषित कर दिया गया था। लेकिन आज देखिए, मुक्तिबोध, शमशेर, अज्ञेय के बिना आप साहित्य की कल्पना नहीं कर सकते।

निखिल – आप कुछ संगठनों की तरफ इशारा कर रहे हैं। कहीं ऐसा तो नहीं कि राजधानी में पैठ जमाए इन संगठनों की शरण में आकर ही बड़ा साहित्यकार बना जा सकता है, अन्यथा कोई नहीं पूछेगा?

उदय – नहीं, ऐसा बिल्कुल नहीं है। अब मैं कहां से दिल्ली में रहता हूं। आप अपने समय को देखेंगे, समय के परिवर्तनों को देखेंगे, स्वीकृति देर से ही सही होगी ज़रूर। हां आपका कहना बिल्कुल सही है कि जो राजधानियां हैं, जिनमें दिल्ली भी है, और राज्य के जो सत्ता-केंद्र हैं, जैसे लखनऊ, भोपाल, पटना, वहां जो रहने वाले हैं, उनके लिए एक्सेस(पहुंच) हो जाता है। संगठनों से। वो वहीं रहते हैं, संपर्क बनाते हैं, प्रभाव बनाते हैं, गुट बनाते हैं और एक प्रेशर ग्रुप(दबाव समूह) बनाते हैं। ज़्यादातर यही होता है। मैं एमपी का हूं, कई पीढ़ियों से, मगर अब एमपी के लोगों को ये पता चला है, जब साहित्य अकादमी सम्मान मिला है। मगर, राज्य का शिखर सम्मान अब तक नहीं मिला है। शायद ही उस राज्य का कोई सरकारी सम्मान मिला हो। तो, राजधानियों में ज़रूर केंद्रित रहा है, जो दुर्भाग्यपूर्ण है। मैं ये संस्थाओं से भी कहूंगा कि बड़े शहरों, राजधानियों से अलग हटकर जो छोटे कस्बे, वहां के साहित्यकार, लेखक, कवियों पर भी ध्यान दें। और ये शिकायत बहुतों को है। ऐसे कई महत्वपूर्ण लेखक हैं; वैकम मोहम्मद बशीर, जिन्हें मलयालम का प्रेमचंद कहते हैं, वो कहां रहते थे। कोई त्रिवेंद्रम में नहीं रहते थे। छोटी सी जगह भैरप्पा....वसवन्ना, प्रसन्ना, कई नाम हैं। राजधानियों से थोड़ा विकेंद्रण, आपका कहना सही है, होना चाहिए। जानकीवल्लभ शास्त्री हैं, मुज़फ्फरपुर में पढ़े हैं, उनको सम्मान क्यों नहीं मिला। मुक्तिबोध, छत्तीसगढ़ के छोटे से खंडहर में रहते थे और उनको, अगर उस समय नेहरू जैसे लोग न होते, श्रीकांत वर्मा, नेमिचंद जैन, अशोक वाजपेयी, इन लोगों को श्रेय जाता है कि उन्होंने मुक्तिबोध को पहचान दी, केंद्रीयता दी। हम तो नेमिचंद जैन के आभारी हैं, कि मुक्तिबोध रचनावली पूरी की पूरी सामने आई...देश के सबसे अविकसित प्रदेश में पड़े थए मुक्तिबोध, वहां से।

निखिल – मौजूदा साहित्य में क्या संभावनाएं हैं?

उदय जी – निखिल जी, ये प्रतीक्षा का समय है। चीज़ें इतनी तेज़ी से बदली हैं, बहुत तेज़ी से बदली हैं और बदलती जा रही हैं। आप बेसिकली मानें, मोटे तौर पर तकनीक, पूंजी, श्रम; इन तीनों का क्या चरित्र है, क्या भूमिका है, स्वरूप किया हैं, इससे पता चलता है कि समाज कैसा बना, कैसे बदला। मैं बार-बार कहता रहा हूं कि ये जो 80 के बाद का दौर है, जेसे हम ग्लोबलाइज़ेशन कहते हैं, इसमें न सोचें कि सिर्फ नई अर्थव्यवस्था पैदा हुई है, टेक्नॉलॉजी नई आई है। उसने बड़े पैमाने पर समाज को बदल डाला है। इंटरनेट हैं, मोबाइल, आईपॉड हैं, कम्युनिकेशन(संप्रेषण) के दूसरे साधन हैं, कैपिटल-पूंजी फ्री हो गई हैं आवारा हो गई है। पहले वही पूंजीपति थे, जिनके पास बड़ कैपिटल था। अब फोर्ब्स की सूची में वो हैं, जिनके पास कोई उद्योग, फैक्ट्री नहीं हैं। ताज्जुब है। सर्विस सेक्टर जो नया आया है, पुराने श्रमिकों की हालत खराब कर दी है। आप लोग भी हैं; मीडिया, कॉल सेंटर वाले। यह जो वर्ग आया है नया, क्या इसकी पहचान है। हो क्या रहा है, मैं देख रहा हूं कि जो आज के जीवन में मनुष्य के सामने आने वाले संकट हैं, उनके जो अनुभव हैं, उनको व्यक्त करने वाली कहानियां अभी उस तरह से नहीं आई है। कहीं न कहीं एक हैंगओवर है पुराना, खुमारी इतिहास की, अभी उतरी नहीं है। राजनीति कहीं नहीं है। आप पढ़े फुकुयामा को, पोस्ट ह्यूमन फ्यूचर, साफ कहता है आपका जो समय है, उसकी ड्राइविंग सीट पर राजनीति नहीं है। अब वो है पूरी की पूरी कैपिटल और टेक्नोलॉजी और राजनीति जो है उसकी खिदमतगार, सेवक की भूमिका में है। ये न सोचें कि इस समय कोई भारत का प्रधानमंत्री है, मुख्यमंत्री है। ये सबके सब कॉरपोरेट पूंजी के प्रबंधक हैं। सारी नीतियां बन रही हैं। ऐसे समय में अपने मनुष्य के संकट को देखना बहुत बड़ा टास्क है, साहित्यकारों की ज़िम्मेदारी है।

निखिल – अंत में, कवि उदय प्रकाश क्या कहना चाहेंगे?

उदय – (हंसते हुए) मुझे कविताएं तो याद नहीं रहती अपनी, फिर भी कुछ पंक्तियां जो बार-बार कहता हूं...

आदमी मरने के बाद कुछ नहीं बोलता
आदमी मरने के बाद कुछ नहीं सोचता
कुछ नहीं बोलने और कुछ नहीं सोचने पर
आदमी मर जाता है
(ये इंटरव्यू उदय जी के घर पर 23 दिसंबर 2010 को लिया गया था)
 
निखिल आनंद गिरि

ये पोस्ट कुछ ख़ास है

मृत्यु की याद में

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