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रविवार, 16 अक्तूबर 2016

कुछ त्रिवेणी

1) दुख छिपाता है ये मेरे तुझसे
या कि मुझसे ही छिप रहा है तू
कौन जाने कि कैसा कोहरा है...

2) जब वो कहता है प्यार कुछ भी नहीं
झुक-सी जाती हैं निगाहें उसकी
वो भी खुद को कहां समझता है

3) है मेरी रुह में किसका चेहरा?
नाम कई बार सुना लगता है
फिर क्यों अजनबी-सा लगता है..

4) सब हवा में उछाल देते हैं...
और मैं खामखा गुमान में हूं..
खोटा सिक्का हूं, चल नहीं सकता

5) ये भी क्या ख़ाक कोई दिन है भला
न कुछ सलाम, कुछ दुआ ही नहीं
आज कोई हादसा हुआ ही नहीं

6) हम भी बासी थे और उदासी भी
तो उसने दे दिए हमको ये सितम भी नए
हरेक उम्र की बात नई, ग़म भी नए

7) फिर किसी ने मुझे उम्मीद भर के देखा है
एक पत्थर से सांस की उम्मीद...
फिर मैं अपनी नज़र से गिरता हूं...

निखिल आनंद गिरि

गुरुवार, 14 अप्रैल 2011

वक्त से जब वो भिड़ गया होगा...

गांव से दूर एक दरिया था,
गांव में प्यास बहुत थी लेकिन...
उनकी किस्मत में कोई पुल न हुआ।

वक्त क़ैद था मु्ट्ठी में जब,
चार फीट के दोस्त थे सब,
चार दिनों में शादी है अब !

अब तो रोना भी भूल बैठा हूं,
एक हंसी भी उधार ली मैंने
एक आदत सुधार ली मैंने ।

मेरी बस्ती में कौन आएगा,
हाल पूछेगा, चला जाएगा...
अजनबी अजनबी रह जाएगा...

पहले होती थी रुहानी बातें,
अबके क़ीमत में जिस्म सौंपा है...
आओ फिर से भरम का सौदा करें।

एक कमरे में ज़िंदगी काटी,
एक बित्ते में मौत आएगी...
ख्वाब क्यों आसमान भर देखें...

ये न पूछो कि क्या हुआ होगा,
ज़र्रा-ज़र्रा ही लुट गया होगा...
वक्त से जब वो भिड़ गया होगा ।

मेरी ख़ामोश हसरतों में रहे,
उम्र की सारी सिलवटों में रहे...
मर चुके ख़्वाब बड़े होते रहे ।

बंद कमरे में कोई वहशी था,
आईने का ही क़त्ल कर डाला...
लाल है रंग इस अंधेरे का ।

निखिल आनंद गिरि

ये पोस्ट कुछ ख़ास है

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