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शुक्रवार, 4 दिसंबर 2015

तीन जोड़ी आँखें

एक पतंग थी
तीन दिशाएं थीं..
तीन दिशाओं में उड़ गईं तीन पतंगे थीं...

एक सपना था

तीन सपने थे
तीन सपनों के बराबर एक सपना था....

एक मौन था
एक रात थी
तीन युगों के बराबर एक रात थी

एक ख़ालीपन भर गया रात में
फिर मौन तिगुना हो गया
अंधेरे भर गए तीन गुना काले

एक रिश्ता खो गया उस रात में
ढूंढ रही हैं तीन जोड़ी आंखें...
एक-दूसरे से टकरा जाएंगी एक दिन अंधेरे में।

निखिल  आनंद गिरि



गुरुवार, 20 अगस्त 2015

क्षणिकाएं

छुट्टी
घर से निकला
घर से छुट्टी लेकर
दफ्तर घर हो गया।
मैं रोज़ नौ घंटे की छुट्टी पर रहता हूं
दफ्तर में।

विकल्प
चुनना एक व्यवस्था की तरह नहीं
व्यवस्था एक मजबूरी की तरह
जैसे हरे और पीले में चुनना हो लाल।
यह रंगों की अश्लीलता नहीं

व्यवस्था का अपाहिज होना है।
निखिल आनंद गिरि

बुधवार, 1 जुलाई 2015

सीढ़ियां

सीढियां कहीं नहीं जाती
कोई कंपन,  कोई धड़कन
नहीं उनकी शिराओं में
वो चुपचाप सुनती हैं
धम्म से चढ़ते हैं पैर उनकी छाती पर
और चले जाते हैं रास्ता बनाते।
सीढियां रास्ता नहीं हैं
इसीलिए टूटने लगी हैं।
जो सीढ़ियों की छाती पर चढ़ते हैं
उनसे सविनय निवेदन है
सीढ़ियों को कुछ रोज़ के लिए अकेला छोड़ दें।
उन्हें टूटने का डर नहीं
दुख है फिर से जोड़े जाने का

जोड़ा जाना सहानुभूति नहीं है

स्वार्थ है छातियां रौंदने का।
निखिल आनंद गिरि

ये पोस्ट कुछ ख़ास है

मृत्यु की याद में

कोमल उंगलियों में बेजान उंगलियां उलझी थीं जीवन वृक्ष पर आखिरी पत्ती की तरह  लटकी थी देह उधर लुढ़क गई। मृत्यु को नज़दीक से देखा उसने एक शरीर ...

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