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बुधवार, 21 सितंबर 2011

ऐसा भी क्या हुआ कि उसे इश्क हो गया...

खुशबू के नाम पर हुए सौदे बहार में
छुपना पड़ा गुलों को भी दामाने-ख़ार में

बरसों के बाद टूटा वो तारा फ़लक से रात,
फिर से हुआ सुकून बहुत, इंतज़ार में...

ऐसा भी क्या हुआ कि उसे इश्क हो गया
कुछ तो कमी ही थी मां के दुलार में...

एक रोज़ ख़ाक होंगे सभी जीत के सामान
रखा नहीं है कुछ भी यहां जीत-हार में...

वहशी हुए तो घर में ही करने लगे शिकार
जंगल से ही उसूल भी लेते उधार में..

सब रहनुमाओं ने किए अपने पते भी एक
मिलना हो आपको तो पहुंचिए तिहाड़ में...

जिस फूल की तलब में गुज़री तमाम उम्र
वो फूल ही आया मेरे हिस्से, मज़ार में...

निखिल आनंद गिरि

 

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