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सोमवार, 22 मई 2023

मालदा से लौटकर

ऊपर कमीज़ है
नीचे गमछा
पीठ पर अमेरिकन टूरिस्टर का रफ़ू किया बैग।
दृश्य में वह आदमी
खेत की मेड़ पर उसी तरह बैठा है
जैसा बीस-पच्चीस साल पहले बैठा था।
जलकुंभियां उतनी ही स्थिर।

लड़कियां हैं पसीने से लथपथ
पढ़ाई कर लौटतीं
गोद में बच्चा लिए
निर्दोष आंखे लिए।

भैंसे लड़ रहे बीच सड़क पर
आदमी शांति से प्रतीक्षा में हैं
गाड़ियों के हैंंडल थामे
उन्हें कोई जल्दी नहीं।
लड़ाईयों के ख़त्म होने की प्रार्थना में
इसी तरह रहा जा सकता है
बिनी किसी हड़बड़ी।

एक सड़क है
जो कच्ची से पक्की हुई है
बैंक खुले हैं कई
कर्ज़ लेने वाले बढ़े हैं बहुत
और हॉर्न वाली मोटर साइकिलें

एक खुला हुआ रेलवे फाटक है
जहां सदियों का इंतज़ार है
ट्रेन के गुज़र जाने का।

गीत गाते बाउल भिक्षु हैं
बिना सुने खुदरा देते भले लोग
कानों में इयरफोन हैं।

हिंदुओं से ज़्यादा मुसलमान हैं
कहीं कोई आतंक नहीं फिर भी
ये ज़मीन अगर सदियों से है
तो हमारे मुल्क के नक्शे में
सबसे ज़्यादा दिखाई क्यूं नहीं देती।

कोई मेरी सरकार को पावर वाला चश्मा दे दो
या कागज़ वाला रेल टिकट।

निखिल आनंद गिरि

सोमवार, 1 जून 2015

हैंगओवर

बारहमासा अमरूद की तरह नहीं

महामारी की तरह आते हैं
कभी-कभी अच्छे दिन

कभी नहीं जाने के लिए।
मक्खियां चखें तमाम अच्छी मिठाइयां

मच्छरों के लिए तमाम अच्छी नस्ल के ख़ून
चमगादड़ों के लिए सबसे दिलकश अंधेरे

और चूंकि जंगल नहीं के बराबर हैं
तो भेड़ियों-सियारों-लकड़बग्घों की रिहाइश के लिए

तमाम अच्छे शहर
गुजरात से दिल्ली से अमरीका से मंगल तक।


एक से एक रंगीन चश्मे इंडिया गेट पर
युवाओं के लिए हनी सिंह के सब देशभक्ति गीत,

सबसे तेज़ बुलेट कारें, सबसे अच्छी दुर्घटनाओ के लिए
सबसे मज़बूत लाठियां, सदैव तत्पर पुलिस के लिए

सबसे अच्छी हत्याओं का सीधा प्रसारण
सबसे रंगीन पर्दों पर।

सबसे अच्छे हाथी, कुलपतियों की तफरी के लिए
सबसे अच्छे पुरस्कार, अच्छे दिनों की याद में

लोटमलोट हुए राष्ट्रभक्तों, शांतिदूतों और साहित्यकारों के लिए।

 
सबसे अच्छे दिनों को हुड़-हुड़ हांकते

सबसे ज़्यादा मुस्कुराते लोग
बोरिंग सेल्फी की तरह

आत्ममुग्धता की बास मारते
प्रेम की तमाम संभावनाओं को ख़ारिज करते।

 
सबसे अच्छे नारे, मंदिर, शौचालय, बैनर

मूर्तियां, होर्डिंग और पोस्टर
शहर की सबसे सभ्य सड़कों पर

जिन पर इत्मीनान से लेंड़ी चुआते हो कौव्वे
और वहीं बीड़ी सुलगाने की जुगत में

कोई कवि या पागल
नाउम्मीदी की तमाम संभावनाओं के बीच

किसी चायवाले भद्रजन से मांगता हो माचिस
तो अच्छे दिनों के हैंगओवर में,

वह उड़ेल दे खौलती केतली से
किरासन या तेज़ाब जैसी कोई चीज़

और मुस्कुराकर कहे जय हिंद।
निखिल आनंद गिरि

रविवार, 30 जनवरी 2011

ये प्रेम त्रिकोणों का शहर है...

यहां दिल्ली पुलिस आपकी सेवा में सदैव तत्पर है...
प्यार ढूंढना हो तो कहीं और जाएं

जब तुम्हारे होंठ छुए, तो मालूम हुआ...
ये प्रेम त्रिकोणों का शहर है....
और उदास रौशनी का
जहां दाईं और बाईं ओर सिर्फ लड़ाईयां हैं
और बीच में हैं फ्लाईओवर.....

हम अपनी रीढ़ तले सख्त ज़मीन रखकर सोते हैं...
और आप मेरी कविताओं में रुई ढूंढते हैं...
इतनी खुशफहमी कहां से खरीद कर लाए हैं...
आप कह सकते हैं शर्तियां...
मैं किसी ऐसी बीमारी से मरूंगा...
जिसमें सीधी रीढ़ लाइलाज हो जाती है...

हमें ठीक तरह से याद है....
आधे दाम पर बेची गईं थी स्कूल की किताबें....
जिनमें लिखा था तीसरे पन्ने पर-
'चाहता हूं देश की धरती तुझे कुछ और भी दूं...'

चाहता हूं कि चुरा लूं सब तालियां,
जब वो भाषण दे रहे होंगे भीड़ में
नोंच लूं उनकी आंखों से नींद,
ताकि खूंखार सपने न देख पाएं कभी...

काश! किताबों में एकाध पन्ने जुड़ जाते चाहने भर से,
जैसे आ से आंदोलन, क से क्रांति...
जैसे ज़िंदा रहने के लिए ऑक्सीजन या दिल नहीं,
दुम ज़रूरी है....
और प्यार करने के लिए कंडोम.....

फाड़ दीजिए धर्म-शिक्षा के तमाम पन्ने...
कि सांसों के भी रंग होते हैं अब...
ये 1948 नहीं कि मरते वक्त
हे राम ! कहने की आज़ादी हो....

निखिल आनंद गिरि

ये पोस्ट कुछ ख़ास है

मृत्यु की याद में

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