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शुक्रवार, 1 अप्रैल 2022

रिश्तों का सच

अपने बहुत क़रीबी, बहुत सुंदर रिश्तों में जब हम अपने साथ छोटी- छोटी,  ग़ैर ज़रूरी बातों में चालाकियां होते देखते हैं तो मन सहम जाता है क्योंकि मन भलीभांति जानता है कि अब कुछ भी सामान्य नहीं हो पायेगा ....

 मन  रिश्ते पर दुनियावी हिसाबों की सेंध लगाए जाने का अभ्यस्त है ... मन दोबारा छले जाने से ख़ौफ़जदा नहीं है.... मन को डर इस बात का है अब भरोसा कैसे करेगा किसी पर....  छले जाने का ये भयावह अनुभव किसी सच्चे इंसान का भरोसा भी नहीं करने देगा जल्दी .... 

मन अपने अनमनपन का ये ठौर भी दरकते देखता है....बेचैनी से...

आप चीखना चाहते हैं --" मत करो ऐसे...  खेलो मत यार...  मत ख़राब करो उसे जो बहुत सुन्दर है..और सुन्दरतम होने की असीम संभावनाए लिए हुए है ...कुछ हासिल नहीं होगा.. दोनों ही टूटेंगे ..जड़ से उखड़ने पर दोबारा पनपने की गुंजाइश हर बार नहीं होती न!!
उनको मालूम है आप नए धोखे अफ़ोर्ड नहीं कर सकते!

  "मुझे खोकर तुम एक ऐसा साथी खो दोगे जो तुम्हारे बारे में तुमसे ज़्यादा सोचता है  ...मैं तो टूटूंगा ही ..तुम भी साबुत कहां रह जाओगे ..."

पर आप ख़ामोशी से उस व्यक्ति को दूर होते हुए देखते हैं बस ... 

आप रिश्ते में दरिया हुए जाते हैं पर सामने वाले की सारी क़वायद आपसे किसी भी तरह एक कतरा हासिल करने की होती हैं  ...

रिश्ता ख़त्म हो जाता है ...आप अपने टुकड़े समेटने की कोशिश करते हैं  ... पर आपने अपने जिन भावों को उस प्यारे रिश्ते के इर्द-गिर्द सहेज दिया था वो भाव आपसे सवाल करते हैं---
'अब'?

और इस सवाल का कोई जवाब आपके पास नहीं होता....

(फेसबुक पर भूमिका पांडे की पोस्ट से साभार) 


गुरुवार, 12 अप्रैल 2012

रिश्तों की तरह होती हैं कुछ कविताएं...

हमारी चुप्पियों के बीच पुल की तरह था मुस्कुराना....
जिस पर आराम से तैरता रहा एक रिश्ता...
तुम किसी सूरज की तरह,
उग आती आधी रात में भी...
और मेरी सुबह थोड़ी लंबी हो जाती...
जैसे कुछ कविताएं अधूरी हैं तो सिर्फ इसीलिए,
कि भूल जाता हूं कई बार तुम्हारे नाम का मतलब
वैसे ही कई रातें इसीलिए अधूरी...
कि उगा ही नहीं मेरा सूरज...

वो धुन याद ही होगी,
जो आधी रात में ट्रेन हमें सुनाकर गुज़र जाती..
और तुम खिड़कियां बंद कर लेतीं...
हम जागते देर तक नींद में...

समंदर की लहरों ने नहीं देखी समंदर की गहराई,
मगर एक रिश्ता तो है...
सूरज की किरणों ने सूरज के सीने में झांककर भी नहीं देखा...
मगर तपिश है
गुनगुनी धूप है धरती पर...

कभी ट्रेन की खिड़की से दिख जाती हैं किताबें,
जिन्हें पढ़ नहीं पाते...
मगर याद रहती हैं तस्वीरें...
और हम सोचते रहते हैं यात्रा भर,
किताबों की लिखावट, मुलायम पन्ने वगैरह वगैरह....

रिश्तों की तरह होती हैं कुछ कविताएं...
मजबूरन ख़त्म करनी पड़ती है...
कविताओं की तरह होते हैं कुछ रिश्ते
बार-बार पढकर रुलाई आती है...

निखिल आनंद गिरि

बुधवार, 13 अक्तूबर 2010

स्तब्ध कर देने का सुख...

आईए ज़रा-सा बदलें,
खुश होने के तरीके...

जो भी दिखे सामने,
उछाल दें उसकी टोपी
और हंसें मुंह फाड़कर
बदहवासी की हद तक...

जिसे सदियों से जानने का भरम हो,
सामने पाकर ऐंठ ले मुंह
उचकाकर कंधे, बोलें-
'हालांकि, चेहरा पहचाना-सा है
मगर दिमाग का सारा ज़ोर लगाकर भी
माफ कीजिए, याद नहीं आ रहे आप'!
स्तब्ध कर देने का सुख,
फैशन है आजकल...

पिता की अक्ल भरी बातें,
सुनते रहें लगाकर कानों में हेडफोन,
और नाश्ते के लिए रिरियाती मां को
दुत्कार दें हर सुबह,
साबित कर दें भिखारन....
आह! सुख कितना सहज है..

आईए हम हो जाएं अश्वत्थामा
नहीं, नहीं, युधिष्ठिर
और खूब फैलाएं भ्रम
कि जो मरा वो हम थे...
आह! छल का सुख
मरते रहें अश्वत्थामा, हमें क्या...

पृथ्वी से निचोड़ ली जाएं
सब प्राकृतिक संपदाएं,
पेड़, फूल, जानवर और प्यार...
सब हो जाएं निर्वस्त्र...
ममता से बांझ धरती पर,
अभी-अभी नवजात जैसे...

आह! एक पीढ़ी का वर्तमान
बोझिल, सूना, नीरस
आह! एक बांझ भविष्य का रेखाचित्र...
खुश होने को गालिब ये खयाल अच्छा है....

निखिल आनंद गिरि

ये पोस्ट कुछ ख़ास है

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