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गुरुवार, 23 अगस्त 2018

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नाम साहित्यकार प्रभु जोशी का खुला ख़त

माननीय प्रधानमंत्री जी,
नोबेल पुरस्कार से सम्मानित विश्व कवि पाब्लो नेरूदा, जब सुबह-सुबह रेडियो से पांच मिनट के लिए बोला करते थे तो उनका पूरा देश कान लगा कर धैर्य से उनको सुना करता था। वह इस उत्कण्ठा से सुनता था कि वे कितने सुन्दर और समर्थ मुहावरे में अपनी बात रखते हैं कि जिससे ‘विचार’ और ‘भाषा’ दोनों ही सम्पन्न हो उठते हैं। कहना न होगा, आप स्वयम् जानते होंगे कि इन दिनों स्पेनिश भाषा का आकर्षण अमेरिका में इतना अधिक बढ़ा हुआ है कि अंग्रेज़ी, जो कि दुनिया भर में अपने साम्राज्यवादी संकल्प से, तमाम देशों की भाषाओं को विस्थापित करने में लगी है, ‘स्पेंग्लिश’ न बन जाये।
मैंने पिछले दिनों आपके ‘मन की बात’ कार्यक्रम का प्रसारण सुना तो यह लगा कि आप अपने समूचे सोच और दृष्टि में, मूलतः एक राजनीतिक व्यक्ति हैं, नतीज़तन, आपके लिए ‘भाषा’ प्राथमिक नहीं है, बल्कि केवल ‘सम्प्रेषण’ ही आपका अन्तिम अभीष्ट है। राजनीति के साथ यही है कि भाषा को वह इसी इकहरी भूमिका से भिन्न नहीं देखती है। कहना न होगा कि आपके बोलने से आपके कार्यक्रम के श्रोताओं के लिए एक बहुत स्पष्ट सूचना यह जाती है कि आपकी दृष्टि में हिन्दी, एक असमर्थ और अपर्याप्त भाषा है, और उसमें अंग्रेज़ी के शब्दों की मिलावट नहीं की गई तो वह अपाहिज भाषा रहेगी, जो चलकर ‘आज के युवाओं’ तक नहीं पहुँच सकेगी।
शायद, इसी सोच के चलते आप अपने प्रसारण के दौरान हिन्दी में अधिक से अधिक अंग्रेज़ी के शब्दों की मिलावट की जरूरत को बिलकुल नहीं भूलते। मसलन, अगर आप अपनी मन की बात में, भारत सरकार के किसी भी मंत्रालय या विभाग का उल्लेख करते हैं तो आप इरादतन उसके लिए, पिछले सात दशकों से प्रचलित रहे हिन्दी के शब्द को हटाकर, उसकी जगह अंग्रेज़ी के शब्द का ही प्रयोग करते हैं। जैसे, ‘आयकर’ शब्द बोलना हो तो आप निश्चय ही ‘इनकम टैक्स’ शब्द का प्रयोग करना ज़रूरी समझेंगे।
माननीय प्रधानमंत्रीजी, आपकी ‘मन की बात’ के प्रसारण की इस भाषा का एक त्वरित प्रभाव यह हुआ कि आपके सरकारी अमले ने तुरन्त मंत्रालयों और भारत-सरकार के तमाम विभागों के नामों को अंग्रेज़ी में ही लिखना और व्यवहार करना शुरू कर दिया है। जैसे, अब आगे से हिन्दी के शब्दों के उपयोग की ज़रूरत नहीं रहनी है।
यह बहुत स्वाभाविक बात है कि जब वे देखते हैं कि उनके देश के प्रधानमंत्री ही ‘बहुत अच्छी हिन्दी बोलने जानने के बावजूद’, जब हिन्दी की शब्दावली को अपने प्रसारण में इरादतन छोड़ कर, अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग कर रहे हैं तो उनके लिए यह खुली छूट है या कहें कि एक साफ-साफ संकेत है कि वे निर्भीक होकर ज़ल्दी से ज़ल्दी से हिन्दी की शब्दावली छोड़कर, उसकी जगह अंग्रेजी के शब्दों का धड़ल्ले से इस्तेमाल करें।
आप को शायद यह पता न हो कि आज स्थिति यह है कि भारत-सरकार के तमाम सरकारी कार्यक्रमों और नीतियों के प्रचार-प्रसार संबंधी, रेडियो और टेलीविजन या कि अखबारों में, जो विज्ञापन आते हैं, उनसे हिन्दी के शब्दों को खदेड़ कर बाहर कर दिया गया है। नौकरशाही की प्रवृत्ति को आप बेहतर जानते होंगे। हमारी मालवी बोली में एक कहावत है, ‘चाय से ज्यादा केतली गर्म होती है।’ सरकार से ज़्यादा उस की नौकरशाही उतावली होती है। याद रखिये, श्रीमती इंदिरा गांधी को आपातकाल में यदि सबसे बड़े भ्रम में रखा था और वे अन्त में हार गई थीं-तो इसमें उनकी नौकरशाही की बहुत बड़ी भूमिका थी। मुझे सन्देह नहीं कि आपकी नौकरशाही अपने इस इतिहास को भूली नहीं होगी।
निस्सन्देह आप देश के पहले ऐसे प्रधानमंत्री हैं, जो लगभग पूरी दुनिया की परिक्रमा लगा चुके हैं और इस ऐतिहासिक लेकिन सबसे कटु और धूर्त-सत्य को साम्राज्यवादी कूटनीतियों के ज़रिए, आप अभी तक बहुत अच्छे-से जान चुके होंगे कि अफ्रीकी महाद्वीप की तमाम भाषाओं को, ब्रिटिश कौंसिल द्वारा तैयार की गई कूटनीति से किस तरह ख़त्म किया गया। वे कहते हैं, बीसवीं सदी में हमारा ध्यान केवल अफ्रीकी महाद्वीप पर था, अब हमारा ध्यान भारत पर है।
अगर आप जानते हैं तो अच्छा ही है, फिर भी मैं उस कूटनीति को संक्षिप्त में यहाँ ज़रूर ही बताना चाहूँगा। दरअसल, अफ्रीकी महाद्वीप की भाषाओं के संहार की धूर्त कूटनीति थी, वहां की तमाम प्रचलित और जीवित भाषाओं को नष्ट कर के उन्हें ‘बोली’ में बदल दो। इसे कहते है, ‘ग्रेजुअल-क्रियोलाइजेशन ऑफ लैंग्विज़’। इस कूटनीति के तहत यह योजना बनाई जाती है कि जिस देश की भाषा को विस्थापित करना हो उस देश की भाषा में, धीरे-धीरे, अंग्रेज़ी शब्दों की मिलावट की जाये- और, इस मिलावट को एक धूर्त-युक्ति से यह भ्रम फैलाया और प्रचारित किया जाये कि यह ‘रिलिग्विफिकेशन’ है। यह तो आपकी भाषा का ‘पुनसृजन’ है और अंग्रेज़़ी के शब्दो को मिलाने के बाद यह भाषा, अधिकतम लोगों तक अधिकतम संप्रेषण करेगी। इसलिए, उन्होंने अफ्रीकी भाषाओं में सबसे पहले एफ.एम. रेडियो के माध्यम से, उनमें अंग्रेज़ी के शब्दों की मिलावट करना शुरू की।
पहले उन्होंने यह भ्रम निर्मित किया कि रेडियो की भाषा में यह जो मिलावट की जा रही है वह युवाओं के केवल ‘मनोरंजन के लिए’ ही है, और धीरे-धीरे अफ्रीका की पूरी पीढ़ी को मनोरंजन की भाषा, जिसमें अंग्रेज़ी के शब्दों की मिलावट थी, में पूरी तरह डुबो दिया। यह कूटनीति थी ‘कीलिंग विथ इण्टरटेण्मेण्ट, अर्थात्’ मनोरंजन से भाषा और युवा पीढ़ी, दोनों को ही मारना। नील  पोस्टमैन ने इसे कहा है, ‘आनन्दवाद ज़रिये भाषा के दमन की सिध्दान्तिकी।’
हमारे यहां भारत में भी, सबसे पहिले एफ.एम. रेडियो के ज़रिए हिन्दी में अंग्रेज़ी शब्दों को मनोरंजन की आड़ में, बेधड़क ढंग से मिलाकर, प्रसारण करने का काम रेडियो-मिर्ची ने किया। वैसे, यह एम.एफ. टेक्नोलॉजी की अघोषित नीति थी। क्योंकि, इसमें प्रत्यक्ष विदेशी निवेश था- और उसकी एक अघोषित शर्त ही होती है, आपको वहां की देशज-भाषा का ‘विस्थापन’-‘ लैंग्विज़-शिफ्ट’ करना है। और, याद होगा आपको कि किसी भी ‘संस्कृति और समाज को गुलाम बनाना है तो पहले उसकी भाषा को नष्ट करो। उसे ‘विचार की भाषा’ के स्थान से हटाओ। केवल बोल-चाल की बना कर रख दो। वह ‘डायलैक्ट’ बन जाये। यह लार्ड मैकाले के समय की नीति थी। लेकिन आज के नव साम्राज्यवाद का तो अब घोषित रूप से कहना ही यही है कि We dont enter a country with Gun boats rather with language and culture बाद इसके तो हम पाते हैं कि वे तो खुद ही हमारे गुलाम बनने के लिए बेताब हैं। और सत्ताओं को अपनी मुट्ठी में करना तो और भी आसान है। यह सच आप से अधिक और कौन जानता होगा।
इसलिए माननीय प्रधानमंत्रीजी, अब वे अपनी ‘संस्कृति’ और ‘भाषा’ के अचूक हथियारों से किसी देश मे घुसते हैं और भारत जैसे बरसों तक गुलाम रहे देश में तो उनके द्वारा, ‘सांस्कृतिक विनिमय’ की आड़ में, ‘सांस्कृतिक-अपहरण’ हो चुका है। ‘भाषा और भूषा’, संस्कृति के आधार हैं-निश्चय ही उसमें ‘भोजन’ भी शामिल है, और ये तीनों ही घटक अब लगभग विदा कर दिये जाने के कगार पर हैं। भाषा, भूषा और भोजन की बिदाई के बाद तो आप नाम-मात्र को भारतीय रह जायेंगें। हमारे मध्य-प्रदेश में तो प्राथमिक कक्षा से अंग्रेज़ी शुरू कर दी है। और अब विद्यालयों में बच्चियों के लिये भी दुपट्टा और सलवार-कमीज़ के हटाकर, उसकी जगह, लैगिंग्स जैसा ‘हॉट-वीयर’ पहनना अनिवार्य कर दिया गया है।
बहरहाल, प्रधामंत्री जी, मैं आपसे ‘भाषा के विस्थापन’ के संदर्भ में ‘ग्रेजुअल क्रियोलाइजेशन’ जैसे सामासिक पद का उल्लेख कर रहा था।   हकी़क़तन, इस कूटनीति के अंतरगत होता यह है कि धीरे-धीरे स्थानीय भाषाओं में अंग्रेजी की शब्दावली को बढ़ाते हुए उसे ‘सत्तर प्रतिशत’ कर दीजिये। कोई आपत्ति उठाये तो कहो- ‘भाई ये तो महज ‘शेयर्ड वक्युब्लरी’ है। शामिल शब्दावली। यह ‘बोलचाल’ की आसानी के लिए है।’ इस तरह एक सुनियोजित रूप से भाषा, ‘बोली’ में बदल दी जाती है।
व्याकरण, भाषा की मांस-पेशियाँ और अस्थियों के समान होती है। नतीज़तन, सबसे पहले उस भाषा की व्याकरण के हाथ-पैर तोड़ दो। इसके बाद उनका उस भाषा के खात्मे का अन्तिम चरण कहा जाता है, जिसे वे अंग्रेज़ी में कहते हैं- ‘फाइनल असाल्ट ऑन लैंग्विज’। यानी कि उस देश की भाषा पर ‘अन्तिम प्रहार’, जो उसका हमेशा के लिए ख़ात्मा कर देगा।
यह चरण है, सत्तर प्रतिशत अंग्रेजी के शब्दों को घुसेड़ कर बना दी गई वह भाषा, जिसे हम ‘हिंग्लिश’ कह-बोल रहे है। उस हिंग्लिश भाषा की लिपि बदल देना। इसे रोमन-लिपि में लिखना शुरू कर दीजिये- वह भाषा मर जायेगी। गेल ओमवत जैसी अमेरिकी प्रोफेसर, उस कूटनीति के भारत में प्रचार में सबसे पहले आगे आयीं। उन्होंने ही हमारे यहां के कुछ दलित विचारकों को इतना प्रभावित कर दिया कि वे ये कहने लगे कि दलित भाइयो, जब आपके घर में बच्चा जन्म ले तो उसके कानों में हिन्दी नहीं, ‘अंग्रेजी माता’ के शब्द फूंकों।
आज दलित विचारकों द्वारा यह प्रचार जारी है कि हिन्दी सीखना हमें सवर्णों का गुलाम बनाये रखेगा, इसलिए अंग्रेजी सीखो।
कहने की ज़रूरत नहीं कि प्रधानमंत्रीजी आप अपने ‘मन की बात’ नामक कार्यक्रम से पूरे देश को यह सूचना और संकेत दे रहे हैं कि भारतीय भाषाएं असमर्थ और अपर्याप्त भाषाएं है, इनकी बिदाई ज़रूरी है। क्योंकि आप हिन्दी के बजाय ‘हिंग्लिश’ बोल रहे हैं। एक स्वयभूं ‘राष्ट्र राज्य’ के शिखर पुरूष के द्वारा ‘हिंग्लिश को’ प्रामाणिक और बहुत भरोसे की भाषा की तरह उपयोग करना, एक राष्ट्र के लिए, एक बड़े ऐतिहासिक अनिष्ट की सूचना है।
माननीय प्रधानमंत्री जी, आपको यह स्मरण करा दूँ कि डेविड क्रिस्टल, एक चर्चित भाषाविद् और लेखक हैं, जिनकी पुस्तक है, ‘डेथ ऑफ लैंग्विज़’ है। वे पिछले वर्षों में भारत आये थे, उन्होंने ‘हिंग्लिश’ के बारे में, जो टिप्पणी की वह आँख खोलने के लिए पर्याप्त है। उन्होंने बार-बार हिन्दी को ‘हिंग्लिश’ बनाये जाने की बात पर लोगों का लगभग लताड़ कर कहा- ‘ जिसे आप ‘हिंग्लिश-हिंग्लिश’ कह रहे हैं, वह आपकी भाषा है नहीं हैं, वह हमारी भाषा है, क्योंकि इसे अंग्रेजी ने पैदा किया है। वह अंग्रेजी की एक नई ‘डायलेक्ट’ है। इस पर निश्चय ही अंग्रेज़ी की मिल्कियत है। हिन्दी की नहीं। फिर उसमें सत्तर प्रतिशत हैं, हमारी अंग्रेज़ी के शब्द।
इसलिए, उनके इस वक्तव्य की रौशनी में देखा जाये तो आप हिन्दी में प्रसारण नहीं कर रहे हैं-बल्कि अंग्रेजी की एक ‘डायलेक्ट’ में देश को संबोधित कर रहे हैं और आप उस पर अपनी हिन्दी होने का भ्रम न पालें, और ना ही यह भ्रम फैलायें कि ‘आप हिन्दी में देश से सम्वाद कर रहे है।’ हां यह भी बता दूं कि साथ ही इस कार्यक्रम के अन्त में एक उद्घोषणा आती है कि प्रधानमंत्रीजी का यह प्रसारण अन्य भारतीय क्षेत्रीय भाषाओं में अनूदित होकर प्रसारित होगा। इसका अर्थ यह कि आपने, जो भी अंग्रेजी के शब्द इस्तेमाल किये हैं, वे ‘जस के तस’ बांग्ला या तमिल अनुवाद में जायेंगे।
इस तरह आप बांग्ला को ‘बंग्लिश’ और तमिल को ‘तमलिश’ बनाने में मदद कर रहे हैं। आकाशवाणी में ‘नौकरशाह’ तो इस प्रसारण में कोई व्यवधान न आ जाये, इससे वे इतने डरे रहते हैं कि अंग्रेज़ी का शब्द हटा नहीं पायेंगे। वे ‘तमलिश’ और ‘बंग्लिश’ बना कर रहेगें।
माननीय प्रधानमंत्रीजी, अंग्रेजी की, सामाज्यवादी कूटनीति का कहना है कि अगर, किसी देश की भाषा का विस्थापन करना है तो केवल इसे एक ही ‘युवा पीढ़ी’ के जीवन में ही बदल दीजिए। इसलिए, यह प्रचार सारे भारतीय (!) मीडिया में होता है कि आज के भारतीय और, इस भ्रम को सत्य की तरह उन्हें स्वीकारने के लिए राजी कर लिया है। और वे सफल हो गये हैं आज जो ‘युवा’ आधुनिक होना चाहता है, वह हिन्दी बोलने-लिखने से सख़्त एतराज करता है। ‘युवा’ की भाषा अंग्रेजी और जीवन शैली पश्चिम की हो तो ही वह ‘युवा’ है।
इसलिए अभी तक देश हिन्दू-मुसलमान में बंटा हुआ था, अंग्रेजी मीडिया, उसे ‘मुस्लिम इंडिया’ कहते हैं। यही विभाजनकारी भाषा, अब ‘यंग इंडिया’ कहती है- जैसे, इण्डिया में एक दूसरा इंडिया है- ‘यंग इंडिया’। इस ‘यंग इंडिया’ के धोखादेह निर्माण में, हिन्दी के अखबारों में ‘लाइफ स्टाइल जर्नलिज्म’ के चार रंगीन पन्ने निकाले जाते हैं, जिसकी भाषा के बारे में मालिकों का स्पष्ट आदेश होता है कि इसमें सत्तर प्रतिशत अंग्रेजी के शब्दों की मिलावट की जाये। और अगर, ऐसा करने में किसी कर्मचारी को एतराज हो तो वह यह तय कर ले कि उसे हिन्दी प्यारी है या अपनी नौकरी।
दरअसल जबसे हिन्दी के अखबारों में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश शुरू हुआ है, वे हिन्दी के अखबार होकर हिन्दी को विदा करने की सुपारी ले चुके हैं। हिन्दी ने अपना ‘जीवन’ हिन्दी पत्रकारिता से पाया था, आज दुर्भाग्यवश सबसे बड़ा धोखा भी वह इसी हिन्दी पत्रकारिता से ही खा रही है। आपको, उदाहरण दे रहा हूं-
‘यूनिवर्सिटी कैम्पस में मार्क्सशीट के डिले होने पर, स्टूडेण्ट्स ने, वाइस चान्सलर के आफिस के सामने प्रोटेस्ट किया, वाइस-चान्सलर ने उन्हें एश्योर किया है कि इस वीक के लास्ट तक प्राब्लम साल्व हो जायेगी।’
अब अखबारों में, माता-पिता, छात्र-छात्रा, विश्वविद्यालय, चौराहा, कार्यालय, सोमवार, मंगलवार, बाज़ार, भाई-बहन कहे कि हर शब्द, अंग्रेज़ी का ही छापा जाता है।
ये भाषा, अख़बार के युवा के लिये लिखी-छापी जा रही है। और आप भी युवाओं को ऐसी ही भाषा में बात करने की दिशा मे ही बढ़ रहे हैं।
माननीय प्रधानमंत्रीजी, आप जब इसरायल की यात्रा पर गये थे तो मुझे लगा था कि आप जब वहाँ से लौटेंगे तो इस देश के लिए जन-जन के लिये एक बड़ी सच्ची, ज्ञान और ‘राष्ट्र-गौरव’ की बात लेकर लौटेंगे कि इसरायल जिसकी भाषा ढाई हज़ार साल पहले मृत हो चुकी, उस हिब्रू भाषा को उन्होंने पुनर्जीवित कर के, उसे राजकाज और शिक्षा की भाषा बना दिया और आज इसरायल के पास सत्रह नोबेल पुरस्कार है। वह इसलिए कि बीसवीं सदी का सारा ज्ञान-विज्ञान, उसने अपनी उसी दो हज़ार साल पहले मृत हो चुकी भाषा में ही विकसित कर लिया।
जापान के बारे में तो आपको यह पता है कि वह हमारे छत्तीसगढ़ के बस्तर ज़िले के भूगोल के बराबर ही है। प्रसिद्ध अमेरिकी विचारक थामस फ्रीडमेन ने लिखा था, ‘लिंच पिन ऑफ इकोनॉमी एण्ड टेक्नॉलाजी हेज शिफ्टेड फ्रॉम अमेरिका टू जापान।’ जब जापान और उसके पड़ोसी वाहन बनाने के उद्योग -ऑटो-मोबाइल्स- में उतरे तो दुनिया भर के देशों की सड़कों पर जो कारें दौड़ती हैं, इन्हीं देशों की है-क्योंकि, उनके यहाँ शिक्षा की भाषा, वही अपनी भाषा है। जिसमें लगभग दो हजार चिन्ह हैं। जब हिन्दी की बारहखड़ी में तो ‘अ से क्षत्रज्ञ’ तक केवल इतने ही शब्द है और इन शब्दों में संसार की सभी भाषाओं की ध्वनियां, उच्चरित हो सकती हैं।
दुर्भाग्यवश, जाने किस मूढ़ता में भारतीय भाषा को शिक्षा के प्राथमिक स्तर पर ही खत्म कर दिया जा रहा है।
मेरे बेटे ने पन्द्रह साल अमेरिका में पढ़ाई की और नैनो-टेक्नोलॉजी में पी.एच.डी की डिग्री हासिल की। वह कहता है अमेरिका में, जब जापान का युवक पढ़ाई के लिए आता है, तो वह सौ प्रतिशत जापानी हो जाता है, जबकि चीनी छात्र पढ़ने आता है तो वह एक सौ दस प्रतिशत चीनी हो जाता है- जबकि, भारत का युवा अमेरिका आता है तो वह अस्सी प्रतिशत अमेरिकी हो जाता है। दरअसल, भारत, अब इस एक ध्रुवीय संसार में अमेरिकाना हो रहा है। निश्चय ही वह उसकी नकल करेगा तो भी वह एक घटिया दर्जे की अनुकृति ही बनेगा और बन ही रहा है।
प्रधानमंत्रीजी आप से निवेदन है कि आप भाषा के साथ, केवल सम्प्रेषण का माध्यम भर की तरह व्यवहार न करें। चूंकि भाषा सामाजिक-सांस्कृतिक चिंतन-प्रक्रिया का भी आधार है। इस भाषा में दुनिया के गहनतम विषय पर भी विचार व्यक्त किया जा सकता है और चिन्तन सम्भव है। गांधी से लेकर जयप्रकाश तक इसमें सोचते विचारते थे और आप भी हिन्दी ही में सोचते और बोलते हैं। लेकिन, अब तो टेलिविज़न विज्ञापन आता है, जिसमें कहा जाता है, हिन्दी नहीं, अंग्रेज़ी ही सोचने की भाषा है।
प्रधानमंत्री महोदय, मैं आपको याद दिलाना चाहता हूँ कि ज्ञान आयोग के श्री सैम पित्रौदा हुआ करते थे, जिन्होंने प्रधानमंत्री कार्यालय को एक पत्र लिखकर कहा था कि भारत के केवल एक प्रतिशत लोग ही अंग्रेज़ी लिख-बोल सकते हैं, अतः हमें निन्यानवे प्रतिशत आबादी को अंग्रेज़ी सिखाना है, जिसके लिए, प्राथमिक कक्षाओं से ही अंग्रेज़ी सीखने को अनिवार्य कर दिया जाना चाहिये। दुर्भाग्यपूर्ण बात ये है कि उनके इस कथन पर किसी सांसद और हिन्दी के पत्रकार, लेखक या भाषा-भाषी ने उनसे ये नहीं पूछा कि पैसठ वर्षों में आप उस ‘एक प्रतिशत’ भारतीय को हिन्दी नहीं सिखा पाये तो निन्यानवे प्रतिशत भारतीयों को अंग्रेजी कितने वर्षों में सिखा पायेंगे और उस भाषा प्रचार-प्रसार और सिखाने-पढाने के धंधे- ‘लैंग्विज इकोनोमिक्स-’ का आकार क्या होगा।
आज अंग्रेजी का सिखाने पढ़ाने का व्यवसाय अरबों में कमाई कर रहा है। जब भारत में एक अरब बीस करोड़ को अंग्रेजी सिखाई जाने का कारोबार चलेगा तो अंग्रेज़ी-भाषा कितना धन कमायेगी।
अन्त में माननीय प्रधानमंत्रीजी आप से मेरा यही कहना है कि हम अहिन्दी-भाषी पूर्व प्रधानमंत्रियों के प्रति शिकायत रखते थे कि वे देश के लोगों से हिन्दी में नहीं बात कर रहे हैं। यह हिन्दी का नुकसान है लेकिन उन्होंने हिन्दी का उतना अहित नहीं किया, जितना अहित हिंग्लिश बोलकर तो आप कर रहे हैं। आप पूरे देश को ‘भाषा-विस्थापन’ का संकेत कर रहे हैं।
आप का दल और आप तो ‘सांस्कृतिक-राष्ट्रवाद’ की बात करते रहते हैं। क्या ये भाषा को नष्ट करने के बाद, बचा रहेगा। हो सकता है, ‘मंदिर-मस्जिद’ के बहाने धर्म का हो-हल्ला मचता रहे लेकिन आपके-हमारे उस धर्म की किताबें, एक दिन ‘अपाठ्य-लिपि’ में लिखी-छपी मानी जायेगी। क्योंकि हिन्दी के रोमन लिपि में लिखे जाने के बाद, करोड़ों किताबें कचरे में बदल जायेगी। आप से निवेदन है कि जब आपने अच्छी हिन्दी में देश के कोने-कोने में जाकर अपने दल को विजय दिलाई है। लेकिन आप दल और राजनीतिक से ऊपर उठकर, भाषा के बारे में चिंतन करें और देश में हिन्दी को विदाई करने के अभियान को स्थगित करें।
आपकी सरकार का राज-भाषा विभाग इस समय अपनी अन्तिम सांसें गिन रहा है। लोग उस विभाग की इरादतन भर्त्सना करते हैं, लेकिन उस विभाग के कारण सरकारी दफ़्तरों में हिन्दी थोड़ी-थोड़ी बची हुई थी।
याद कीजिए और संदर्भ दिखवा लीजिए, जब हिन्दी को सरल बनाने के बहाने उसको ‘विस्थापित’ करने के षडयंत्र का एक चरण, भारत-सरकार के गृह-मंत्रालय के राज-भाषा विभाग द्वारा एक परिपत्र जारी करके किया गया था- तब हिन्दी की ‘धोखा देह’ पत्रकारिता ने खुशी में झूमकर खबरें, छापी थी- ‘अब हिन्दी बोलने-समझने लायक भाषा बन जायेगी। उस परिपत्र में बताया गया था कि ‘भोजन’ शब्द कठिन है, इसलिये उसकी जगह ‘लंच’ शब्द प्रयोग मे लाया जाये।
लेकिन, अंग्रेज़ जानते हैं कि इन गुलामों को कभी अक़्ल नहीं आयेगी। वहां के अख़बारों ने हिन्दी में अंग्रेज़ी के शब्दों की मिलावट के, इस सरकारी ‘परिपत्र’ के संकेत पढ़ लिये थे। वहां के अख़बारों की ‘हेडलाइन्स’ यानि कि सुर्खियां थीं- ‘क्वीन्स लैंग्विज विंन्स इंडिया’। क्योंकि, यह परिपत्र, संविधान में सेंध का काम कर रहा था और उन्हें ये भरोसा है कि अगर दरार भी बन गई, वे उसे दरवाज़ा बना देगें। क्योंकि, जो केवल व्यवसाय के लिये आये उन्होंने पूरा देश हड़प लिया था।
दरअसल, अंग्रेज़ी को भारत की अन्य किसी भाषा से भय नहीं हैं। वे केवल हिन्दी से डरते हैं। क्योंकि, यह दुनिया की दूसरी सबसे वड़ी बोली जाने वाली भाषा है। और वे इसकी मृत्यु का पुख़्ता इंतज़ाम कर चुके हैं। क्योंकि, उन्होंने भारत में, हिन्दी की ‘बोलियों’ को ही हिन्दी के खिलाफ़ भिड़ा दिया है। यह रणनीति ब्रिटिश कौंसिल के जोशुआ फिशमैन की बुध्दि की उपज थी कि ‘ लैंग्विज़ वर्सेस डायलैक्ट’ का द्वन्द्व खड़ा कर के ही हिन्दी को कमज़ोर किया जा सकता है। दूसरी बात ये कि वे हिन्दी को ‘हिंग्लिश’ बनाकर रहेंगे और इस पर एतराज उठाने वाले को मुँह तोड़ जवाब देंगे-‘मूर्खो..! तुम्हारे देश का प्रधानमंत्री स्वयम् हमारी अंग्रेज़ी की ही ‘डायलेक्ट’ , हिंग्लिश ’ बोल रहा बोल रहा है।
उम्मीद है, मेरा यह पत्र पढ़ने का आप समय निकालेंगे। वर्ना तो आपकी नौकरशाही, जब इस पत्र का सारांश तैयार कर के आप को बतायेंगे तो निश्चय ही यह पूरा पत्र उनकी निगाह में एक बकवास होगा। लेकिन, यह बकवास नहीं, हिन्दी की आख़िरी हिचकी है। आप के कान इस हिचकी को, भारतीय महाद्वीप के प्रधानमंत्री की तरह सुन पा रहे हैं कि नहीं…..?
(साहित्यकार, चित्रकार, पत्रकार प्रभु जोशी हमारे समय में हमारी भाषा की शानदार हस्ती हैं। हिंदी में जिस तरह का कादो-कीचड़ फेंटकर इसे मुश्किल बताकर आसान बनाने की साज़िश में 'नई वाली हिंदी', 'जनता की मांग के हिसाब से हिंदी', 'स्मार्ट हिंदी' जैसे जुमले गढ़े जा रहे हैं, प्रभु जोशी उनकी पोल कई बरसों से खोलते रहे हैं। ये लेख सौतुक से साभार कॉपी किया गया है। )


शनिवार, 17 दिसंबर 2016

‘कड़क चाय’ ही नहीं, ‘कड़क लौंडे’ भी हमें कंगाल कर देंगे

विविध भारती के ज़माने से रेडियो सुनता आ रहा हूं। अब तो ख़ैर विविध भारती भी एफएम पर दिल्ली में सुनाई दे जाती है। मगर दिल्ली में एफएम के तौर पर मिर्ची, रेड या गोल्ड ही मशहूर हैं। रौनक यहां बउआहै तो नावेद यहां मुर्गा बनाता है। सारे चैनल दिल्ली वालों की बैंडबजाते हैं और यही दिल्ली के रेडियो का आधार कार्ड यानी पहचान है। दिल्ली के मशहूर 93.5 ‘RED FM’ के दो कड़क लौंडे (रेडियो जॉकी) आशीष और किसना के साथ एक शाम गुज़ारने का मौक़ा मिला। उनके शो अगला शो तेरी कार सेमें उन्हें दिल्ली की सबसे भरोसेमंद कार के तौर पर दिल्ली मेट्रो में रिकॉर्डिंग करनी थी और मैं उनके साथ था। रेडियो कितना बदल गया है, ये एहसास उन तीन घंटों में मुझे ख़ूब होता रहा।     

युनूस ख़ान (विविध भारती वाले) मेरे साथी हैं और जब भी उनसे फोन पर बात होती है, उनकी गहरी आवाज़ ये बताती है कि रेडियो की पुरानी ब्रांड पहचान के तौर पर इस तरह की आवाज़ों का वो आखिरी दौर हैं। 2016 में विविध भारती के साठ साल पूरे होने पर भी उनके कार्यक्रमों में पुराने लोगों से बातचीत, रिसर्च किए हुए प्रोग्राम और ठहरी हुई आवाज़ों के सिलसिले थे। इधर RED FM उसका एकदम विलोम था। उसके दोनों एंकर (कड़क लौंडे) किसी जमूरे की तरह कूद-कूद कर दो घंटे का शो तैयार कर रहे थे। अगर मैं युनूस ख़ान को कड़क लौंडा जैसा कुछ बोल कर इंप्रेसकरने की कोशिश करूं तो मुझे नहीं लगता वो ज़्यादा दिन मेरे दोस्त रहना पसंद करेंगे। मगर दिल्ली अपने एफएम रेडियो के प्रेज़ेंटर का सम्मान ऐसे ही करना चाहती है। वो चाहती है कि रेडियो उनकी बजाता रहे। ऐसा रेडियो वालों को लगता है।

दो घंटे का शो बनाने के लिए इन दो लौंडो के पास आधे घंटे का मेट्रो सफर था। यानी बाक़ी डेढ़ घंटे में ठूंस-ठूंस कर गाने और विज्ञापन भरे जाने थे। इस आधे घंटे की स्क्रिप्ट (जो एक पेज पर दस प्वाइंट्स का प्रिंट आउट) में सिर्फ ये लिखा था कि इन्हें किसके साथ प्रैंक(बेवकूफ बनाकर मज़े लेना) करना था और किससे डीएमआरसीका फुल फॉर्म पूछ कर इनाम देना है। दोनों एंकर्स सचमुच बहुत फुर्ती के साथ सब कुछ मैनेजकर रहे थे। कैमरे के आगे पोल डांसकरना, लोगों से बात-बात में मज़े लेना, दोड़-दौड़ कर इस कोच से उस कोच तक लोगोंको पकड़ना वगैरह वगैरह। तो रेडियो के दो घंटे का मसाला ऐसे तैयार होता है कि इसमें सैंकड़ों ग़लतियों, गालियों और बेवकूफियों की भरपूर गुंजाइश होती है।
दिल्ली के दो कड़क लौंडे

मुझे आकाशवाणी में एक बार युववाणीमें अपनी कविताएं पढ़ने के लिए बुलाया गया था। सिर्फ एक बनियाशब्द पर पूरी कविता बदलने की सलाह दे दी गई। कार्यक्रम तक नहीं रिकॉर्ड हुआ। ये एक सरकारी रेडियो की ज़िम्मेदारी का पैरामीटर है जहां प्राइवेट रेडियो कुछ भी चला सकता है। उसके पास इसकी न तो फुर्सत है, न सलाहियत कि इन फालतू बातों पर सोच पाए।

ये सब कहते हुए मैं उन दोनों एंकर्स की तारीफ करना चाहता हूं जो अपनी तरफ से शरीफ रहने की हर कोशिश करते हैं, मगर उनका चैनल उन्हें बदतमीज़बनाकर पैसा वसूल शो चाहता है। अकेले में बातचीत पर पता चला कि आशीष (कड़क लौंडा) को पुराने गाने पसंद थे, मेरी आवाज़ में कोई रेट्रो शो सुनने की इच्छा थी, मगर ख़ुद रेडियो के सामने वो ऐसे प्रेज़ेंट हो रहे थे जैसे उनकी ट्रेन छूट रही हो और उनके पास WhatsApp के ज़माने में भी कोई सबसे नया या गंभीर चुटकुला हंसाने को बचा हो। उनकी ज़िंदगी रेडियो पर किसी सेलेब्रिटी जैसी होगी, मगर एक शो करने के लिए उन्हें बहुत पापड़ बेलने पड़ते हैं। एक शो की भागमभाग रिकॉर्डिंग के बाद उनके चैनल की गाड़ी तक उनके पास टाइम से नहीं पहुंचती और उन्हें आज़ादपुर सब्ज़ी मंडी के किनारे भूखे-प्यासे घंटो इंतज़ार करना पड़ता है। आप मानेंगे ही नहीं।

इस तरह का रेडियो मुझे बहुत सुकून नहीं देता। बिना शक इस तरह के चैनल, जॉकी भी जल्दी ही मशहूर, फिर महान हो जाएंगे। मगर सच कहता हूं ये जो भी मेहनत करते हैं, उनकी वैल्यू गोलगप्पे के खट्टे पानी जितनी ही है। एक बार अंदर गया फिर फ्लश में बाहर। इस देश को न सिर्फ बेहतर मतदाता चाहिए, बल्कि बेहतर श्रोता भी चाहिए।

निखिल आनंद गिरि

गुरुवार, 31 जुलाई 2014

'सबसे अच्छी हत्याओं' का सीधा प्रसारण देखिए

 क्या कभी कोई और ज़माना ऐसा रहा होगा जिसमें आपकी ज़िंदगी से जुड़ी सभी बड़ी और ज़रूरी चीज़ें या तो चौराहे पर तमाशा देखते या फिर बेडरूम में लेटे-लेटे तय हो जाती हों। मेरी जानकारी में तो नहीं है। जैसे हमें क्या खाना है या क्या पहनना है, ये सब टीवी तय कर देता है। और हमें कहां-कहां से बचकर निकलना है, ये सड़क पर हो रहे लाठीचार्ज, ट्रैफिक जाम, गाली-गलौज या पागल भीड़ तय कर देती है। कई बार सोचता हूं कि मैं उस ज़माने में क्यूं आया जब हर चीज़ अपने सबसे बिकाऊ और भ्रष्ट दौर में है।

'लाइफ ओके है. हत्यारे टीवी पर हैं'
टेलीविज़न सिर्फ सबसे बिकाऊ, भ्रष्ट ही नहीं सबसे हिंसक दौर में भी है। कानपुर में एक पति ने अपने ड्राइवर को सुपारी देकर अपनी पत्नी की हत्या करवाई और चूंकि पति करोड़पति था तो टी.वी. के न्यूज़ चैनल कुत्ते की तरह ख़बर पर लपक पड़े। कमाल तो ये था कि कानपुर का आईजी अपनी पूरी पलटन के साथ टीवी कैमरे के सामने आता है और छप्पन इंच के सीने के साथ बताता है कि मेरे साथ हत्यारा पति और उसका ड्राइवर भी है जो पूरे मर्डर को 'विस्तार' से समझाएंगे। आईजी मुश्किल से दो-चार मिनट बोलता है और माइक ड्राइवर को देता है जो हत्या में शामिल था। इतनी शर्मनाक प्रेस कांफ्रेंस मैंने पहले कभी नहीं देखी। हत्यारे पति का जिस महिला से अफेयर था, उसका नाम कई बार आईजी की ज़ुबान पर आता है और वो 'इसे एडिट कर लीजिएगा' कहते हुए पूरे मर्डर की गाथा चाव से सुनाता जाता है। क्या टेलीविज़न का आविष्कार इसीलिए हुआ था कि हत्यारों की हत्या का वर्णन सुनने के लिए पूरा बुद्धि्जीवी मीडिया जुटा रहे और पुलिसवाले अपनी कामयाबी का सर्टिफिकेट बटोरें। टेलीविज़न को कुछ दिनों की छुट्टी पर चले जाना चाहिए।

एक चैनल है लाइफ ओके। जिस पर ज़िंदगी कहीं से भी ठीकठाक नज़र नहीं आती। चौबीस घंटे में कम से कम दस घंटे 'बेस्ट ऑफ सावधान इंडिया' चल रहा होता है। मतलब 'सावधान इंडिया' नाम के उन एपिसोड का दोबारा प्रसारण जिसने सबसे ज़्यादा टीआरपी बटोरी थी। इन एपिसोड्स में देश भर में घटी बड़ी वारदातों को मसालेदार बनाकर दिखाया जाता है। बचपन में सड़क किनारे की दुकानों पर बेस्ट ऑफ किशोर कुमार, मुकेश वगैरह बिकते थे और हम ख़रीदते भी थे। कुछ दिन बाद रेलेवे स्टेशन पर लाइफ ओके के सौजन्य से बेस्ट ऑफ मर्डर एपिसोड्स, बेस्ट ऑफ रेप एपिसो़ड्  सड़क किनारे बिकते दिख जाएं तो ताज्जुब मत कीजिएगा। बाज़ार में जो चीज़ बिक जाए, वो ही सही।

सड़क पर चलते हुए या मेट्रो में सफर करते हुए अचानक किसी का पैर पड़ जाए या कंधे सट जाएं तो गाली-गलौज शुरु हो जाती है। अगली बार ऐसा हो तो सारा दोष उसे ही मत दीजिएगा। कुछ दोष उनका भी है जो इस लाइव टेलीविज़न की हिंसक होती बॉडी लैंग्वेज को जान-बूझकर शह दे रहे हैं। शुक् है रेडियो फिर भी बचा हुआ है। अपने आखिरी वक्त में अगर मेरे पास रेडियो या टीवी में से किसी एक को चुनने का मौका मिले तो मैं रेडियो चुनना चाहू्ंगा। इसके पास आंखे पहले से ही नहीं हैं और ज़बान अभी भी अश्लील नहीं हुई है।

निखिल आनंद गिरि

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