तुम्हारी देह,
पोंछ सकता मेरी आस्तीन से
तो पोंछ देता...
सर्पिल-सी बांहों के स्पर्श में,
दम घुटने लगा है....
सच जैसा कुछ भी सुनने पर
बेचैन हो जाता है भीतर का आदमी....
जानता हूँ,
कि मेरी उपलब्धियों पर खुश दिखने वाला....
मेरे मुड़ते ही रच देगा नई साजिश...
मैं सब जानता हूँ कि,
आईने के उस तरफ़ का शख्स,
मेरा कभी नही हो सकता....
रात के सन्नाटे में,
कुछ बीती हुई साँसों की गर्माहट,
मुझे पिघलाने लगती है....
मेरे होठों पर एक मैली-सी छुअन,
मेरी नसों में एक बोझिल-सा उन्माद,
तैरने लगता है...
तुम, जिसे मैं दुनिया का
इकलौता सच समझता था,
उस एक पल सबसे बड़ा छल लगती हो....
मुझे सबसे घिन्न आती है,
अपने चेहरे से भी.....
धो रहा हूँ अपना चेहरा,
रिस रहे हैं मेरे गुनाह...
चेहरा सूखे तो,
बैठूं कहीं कोने में...
और लिख डालूँ,
अपनी सबसे उदास कविता....
निखिल आनंद गिरि
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रविवार, 24 अक्तूबर 2010
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