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शनिवार, 14 फ़रवरी 2015

लौटना

किसी अनमने दोपहर की
लंबी चुप से निकली कई-कई आवाज़ें
अंतरिक्ष से टकराकर लौट आती हैं
सपनों में प्रवेश कर जाती हैं चुपके से
ऐसे ही लौटना है एक दिन।

जैसे लौटता है पलटू महतो
हर तीन फीट की खुदाई के पास
बहुत सारी सांसे लेकर
एक कश बीड़ी के लिए।

जैसे लौटता है पिटकर
भगीरथ डोम
थाने से हलफनामे के बाद
बीवी-बच्चों के लिए
सूजा हुआ समय लेकर।

लौट आती हैं नानी-दादियां
झुर्रियों से पहले वाले दिनों में
छुट्टियां बिताने आए नाती-पोतों के संग।

लौटते हैं अच्छे मौसम
या जैसे रेलगाड़ियां
बेसुध इंतज़ार के बाद।

जैसे लौटती है पृथ्वी
अपनी धुरी पर
युगों की परिक्रमा के बाद।

प्रेमिकाएं लौट आती हैं
कभी-कभी पत्नियों के चेहरे में ।
किसी अकेले कमरे में
लौट आते हैं चुंबन वाले दिन
आईना निहारती बड़ी बहू के।
लौट आता है उधार गया रुपया
किसी परिचित के बटुए से।

देखना हम लौटेंगे एक दिन
उन पवित्र दोपहरों में
तीन दिन से लापता हुई
अचानक लौट आई बकरी की तरह।

जैसे लौटती है आदिवासी औरत
तेंदु की पत्तियां बेचकर
दिन भर की थकन लेकर
अपने परिवार के पास

और लोकगीत मुस्कुराते हैं।

निखिल आनंद गिरि
(पहल पत्रिका में प्रकाशित)

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