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गुरुवार, 23 अगस्त 2018

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नाम साहित्यकार प्रभु जोशी का खुला ख़त

माननीय प्रधानमंत्री जी,
नोबेल पुरस्कार से सम्मानित विश्व कवि पाब्लो नेरूदा, जब सुबह-सुबह रेडियो से पांच मिनट के लिए बोला करते थे तो उनका पूरा देश कान लगा कर धैर्य से उनको सुना करता था। वह इस उत्कण्ठा से सुनता था कि वे कितने सुन्दर और समर्थ मुहावरे में अपनी बात रखते हैं कि जिससे ‘विचार’ और ‘भाषा’ दोनों ही सम्पन्न हो उठते हैं। कहना न होगा, आप स्वयम् जानते होंगे कि इन दिनों स्पेनिश भाषा का आकर्षण अमेरिका में इतना अधिक बढ़ा हुआ है कि अंग्रेज़ी, जो कि दुनिया भर में अपने साम्राज्यवादी संकल्प से, तमाम देशों की भाषाओं को विस्थापित करने में लगी है, ‘स्पेंग्लिश’ न बन जाये।
मैंने पिछले दिनों आपके ‘मन की बात’ कार्यक्रम का प्रसारण सुना तो यह लगा कि आप अपने समूचे सोच और दृष्टि में, मूलतः एक राजनीतिक व्यक्ति हैं, नतीज़तन, आपके लिए ‘भाषा’ प्राथमिक नहीं है, बल्कि केवल ‘सम्प्रेषण’ ही आपका अन्तिम अभीष्ट है। राजनीति के साथ यही है कि भाषा को वह इसी इकहरी भूमिका से भिन्न नहीं देखती है। कहना न होगा कि आपके बोलने से आपके कार्यक्रम के श्रोताओं के लिए एक बहुत स्पष्ट सूचना यह जाती है कि आपकी दृष्टि में हिन्दी, एक असमर्थ और अपर्याप्त भाषा है, और उसमें अंग्रेज़ी के शब्दों की मिलावट नहीं की गई तो वह अपाहिज भाषा रहेगी, जो चलकर ‘आज के युवाओं’ तक नहीं पहुँच सकेगी।
शायद, इसी सोच के चलते आप अपने प्रसारण के दौरान हिन्दी में अधिक से अधिक अंग्रेज़ी के शब्दों की मिलावट की जरूरत को बिलकुल नहीं भूलते। मसलन, अगर आप अपनी मन की बात में, भारत सरकार के किसी भी मंत्रालय या विभाग का उल्लेख करते हैं तो आप इरादतन उसके लिए, पिछले सात दशकों से प्रचलित रहे हिन्दी के शब्द को हटाकर, उसकी जगह अंग्रेज़ी के शब्द का ही प्रयोग करते हैं। जैसे, ‘आयकर’ शब्द बोलना हो तो आप निश्चय ही ‘इनकम टैक्स’ शब्द का प्रयोग करना ज़रूरी समझेंगे।
माननीय प्रधानमंत्रीजी, आपकी ‘मन की बात’ के प्रसारण की इस भाषा का एक त्वरित प्रभाव यह हुआ कि आपके सरकारी अमले ने तुरन्त मंत्रालयों और भारत-सरकार के तमाम विभागों के नामों को अंग्रेज़ी में ही लिखना और व्यवहार करना शुरू कर दिया है। जैसे, अब आगे से हिन्दी के शब्दों के उपयोग की ज़रूरत नहीं रहनी है।
यह बहुत स्वाभाविक बात है कि जब वे देखते हैं कि उनके देश के प्रधानमंत्री ही ‘बहुत अच्छी हिन्दी बोलने जानने के बावजूद’, जब हिन्दी की शब्दावली को अपने प्रसारण में इरादतन छोड़ कर, अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग कर रहे हैं तो उनके लिए यह खुली छूट है या कहें कि एक साफ-साफ संकेत है कि वे निर्भीक होकर ज़ल्दी से ज़ल्दी से हिन्दी की शब्दावली छोड़कर, उसकी जगह अंग्रेजी के शब्दों का धड़ल्ले से इस्तेमाल करें।
आप को शायद यह पता न हो कि आज स्थिति यह है कि भारत-सरकार के तमाम सरकारी कार्यक्रमों और नीतियों के प्रचार-प्रसार संबंधी, रेडियो और टेलीविजन या कि अखबारों में, जो विज्ञापन आते हैं, उनसे हिन्दी के शब्दों को खदेड़ कर बाहर कर दिया गया है। नौकरशाही की प्रवृत्ति को आप बेहतर जानते होंगे। हमारी मालवी बोली में एक कहावत है, ‘चाय से ज्यादा केतली गर्म होती है।’ सरकार से ज़्यादा उस की नौकरशाही उतावली होती है। याद रखिये, श्रीमती इंदिरा गांधी को आपातकाल में यदि सबसे बड़े भ्रम में रखा था और वे अन्त में हार गई थीं-तो इसमें उनकी नौकरशाही की बहुत बड़ी भूमिका थी। मुझे सन्देह नहीं कि आपकी नौकरशाही अपने इस इतिहास को भूली नहीं होगी।
निस्सन्देह आप देश के पहले ऐसे प्रधानमंत्री हैं, जो लगभग पूरी दुनिया की परिक्रमा लगा चुके हैं और इस ऐतिहासिक लेकिन सबसे कटु और धूर्त-सत्य को साम्राज्यवादी कूटनीतियों के ज़रिए, आप अभी तक बहुत अच्छे-से जान चुके होंगे कि अफ्रीकी महाद्वीप की तमाम भाषाओं को, ब्रिटिश कौंसिल द्वारा तैयार की गई कूटनीति से किस तरह ख़त्म किया गया। वे कहते हैं, बीसवीं सदी में हमारा ध्यान केवल अफ्रीकी महाद्वीप पर था, अब हमारा ध्यान भारत पर है।
अगर आप जानते हैं तो अच्छा ही है, फिर भी मैं उस कूटनीति को संक्षिप्त में यहाँ ज़रूर ही बताना चाहूँगा। दरअसल, अफ्रीकी महाद्वीप की भाषाओं के संहार की धूर्त कूटनीति थी, वहां की तमाम प्रचलित और जीवित भाषाओं को नष्ट कर के उन्हें ‘बोली’ में बदल दो। इसे कहते है, ‘ग्रेजुअल-क्रियोलाइजेशन ऑफ लैंग्विज़’। इस कूटनीति के तहत यह योजना बनाई जाती है कि जिस देश की भाषा को विस्थापित करना हो उस देश की भाषा में, धीरे-धीरे, अंग्रेज़ी शब्दों की मिलावट की जाये- और, इस मिलावट को एक धूर्त-युक्ति से यह भ्रम फैलाया और प्रचारित किया जाये कि यह ‘रिलिग्विफिकेशन’ है। यह तो आपकी भाषा का ‘पुनसृजन’ है और अंग्रेज़़ी के शब्दो को मिलाने के बाद यह भाषा, अधिकतम लोगों तक अधिकतम संप्रेषण करेगी। इसलिए, उन्होंने अफ्रीकी भाषाओं में सबसे पहले एफ.एम. रेडियो के माध्यम से, उनमें अंग्रेज़ी के शब्दों की मिलावट करना शुरू की।
पहले उन्होंने यह भ्रम निर्मित किया कि रेडियो की भाषा में यह जो मिलावट की जा रही है वह युवाओं के केवल ‘मनोरंजन के लिए’ ही है, और धीरे-धीरे अफ्रीका की पूरी पीढ़ी को मनोरंजन की भाषा, जिसमें अंग्रेज़ी के शब्दों की मिलावट थी, में पूरी तरह डुबो दिया। यह कूटनीति थी ‘कीलिंग विथ इण्टरटेण्मेण्ट, अर्थात्’ मनोरंजन से भाषा और युवा पीढ़ी, दोनों को ही मारना। नील  पोस्टमैन ने इसे कहा है, ‘आनन्दवाद ज़रिये भाषा के दमन की सिध्दान्तिकी।’
हमारे यहां भारत में भी, सबसे पहिले एफ.एम. रेडियो के ज़रिए हिन्दी में अंग्रेज़ी शब्दों को मनोरंजन की आड़ में, बेधड़क ढंग से मिलाकर, प्रसारण करने का काम रेडियो-मिर्ची ने किया। वैसे, यह एम.एफ. टेक्नोलॉजी की अघोषित नीति थी। क्योंकि, इसमें प्रत्यक्ष विदेशी निवेश था- और उसकी एक अघोषित शर्त ही होती है, आपको वहां की देशज-भाषा का ‘विस्थापन’-‘ लैंग्विज़-शिफ्ट’ करना है। और, याद होगा आपको कि किसी भी ‘संस्कृति और समाज को गुलाम बनाना है तो पहले उसकी भाषा को नष्ट करो। उसे ‘विचार की भाषा’ के स्थान से हटाओ। केवल बोल-चाल की बना कर रख दो। वह ‘डायलैक्ट’ बन जाये। यह लार्ड मैकाले के समय की नीति थी। लेकिन आज के नव साम्राज्यवाद का तो अब घोषित रूप से कहना ही यही है कि We dont enter a country with Gun boats rather with language and culture बाद इसके तो हम पाते हैं कि वे तो खुद ही हमारे गुलाम बनने के लिए बेताब हैं। और सत्ताओं को अपनी मुट्ठी में करना तो और भी आसान है। यह सच आप से अधिक और कौन जानता होगा।
इसलिए माननीय प्रधानमंत्रीजी, अब वे अपनी ‘संस्कृति’ और ‘भाषा’ के अचूक हथियारों से किसी देश मे घुसते हैं और भारत जैसे बरसों तक गुलाम रहे देश में तो उनके द्वारा, ‘सांस्कृतिक विनिमय’ की आड़ में, ‘सांस्कृतिक-अपहरण’ हो चुका है। ‘भाषा और भूषा’, संस्कृति के आधार हैं-निश्चय ही उसमें ‘भोजन’ भी शामिल है, और ये तीनों ही घटक अब लगभग विदा कर दिये जाने के कगार पर हैं। भाषा, भूषा और भोजन की बिदाई के बाद तो आप नाम-मात्र को भारतीय रह जायेंगें। हमारे मध्य-प्रदेश में तो प्राथमिक कक्षा से अंग्रेज़ी शुरू कर दी है। और अब विद्यालयों में बच्चियों के लिये भी दुपट्टा और सलवार-कमीज़ के हटाकर, उसकी जगह, लैगिंग्स जैसा ‘हॉट-वीयर’ पहनना अनिवार्य कर दिया गया है।
बहरहाल, प्रधामंत्री जी, मैं आपसे ‘भाषा के विस्थापन’ के संदर्भ में ‘ग्रेजुअल क्रियोलाइजेशन’ जैसे सामासिक पद का उल्लेख कर रहा था।   हकी़क़तन, इस कूटनीति के अंतरगत होता यह है कि धीरे-धीरे स्थानीय भाषाओं में अंग्रेजी की शब्दावली को बढ़ाते हुए उसे ‘सत्तर प्रतिशत’ कर दीजिये। कोई आपत्ति उठाये तो कहो- ‘भाई ये तो महज ‘शेयर्ड वक्युब्लरी’ है। शामिल शब्दावली। यह ‘बोलचाल’ की आसानी के लिए है।’ इस तरह एक सुनियोजित रूप से भाषा, ‘बोली’ में बदल दी जाती है।
व्याकरण, भाषा की मांस-पेशियाँ और अस्थियों के समान होती है। नतीज़तन, सबसे पहले उस भाषा की व्याकरण के हाथ-पैर तोड़ दो। इसके बाद उनका उस भाषा के खात्मे का अन्तिम चरण कहा जाता है, जिसे वे अंग्रेज़ी में कहते हैं- ‘फाइनल असाल्ट ऑन लैंग्विज’। यानी कि उस देश की भाषा पर ‘अन्तिम प्रहार’, जो उसका हमेशा के लिए ख़ात्मा कर देगा।
यह चरण है, सत्तर प्रतिशत अंग्रेजी के शब्दों को घुसेड़ कर बना दी गई वह भाषा, जिसे हम ‘हिंग्लिश’ कह-बोल रहे है। उस हिंग्लिश भाषा की लिपि बदल देना। इसे रोमन-लिपि में लिखना शुरू कर दीजिये- वह भाषा मर जायेगी। गेल ओमवत जैसी अमेरिकी प्रोफेसर, उस कूटनीति के भारत में प्रचार में सबसे पहले आगे आयीं। उन्होंने ही हमारे यहां के कुछ दलित विचारकों को इतना प्रभावित कर दिया कि वे ये कहने लगे कि दलित भाइयो, जब आपके घर में बच्चा जन्म ले तो उसके कानों में हिन्दी नहीं, ‘अंग्रेजी माता’ के शब्द फूंकों।
आज दलित विचारकों द्वारा यह प्रचार जारी है कि हिन्दी सीखना हमें सवर्णों का गुलाम बनाये रखेगा, इसलिए अंग्रेजी सीखो।
कहने की ज़रूरत नहीं कि प्रधानमंत्रीजी आप अपने ‘मन की बात’ नामक कार्यक्रम से पूरे देश को यह सूचना और संकेत दे रहे हैं कि भारतीय भाषाएं असमर्थ और अपर्याप्त भाषाएं है, इनकी बिदाई ज़रूरी है। क्योंकि आप हिन्दी के बजाय ‘हिंग्लिश’ बोल रहे हैं। एक स्वयभूं ‘राष्ट्र राज्य’ के शिखर पुरूष के द्वारा ‘हिंग्लिश को’ प्रामाणिक और बहुत भरोसे की भाषा की तरह उपयोग करना, एक राष्ट्र के लिए, एक बड़े ऐतिहासिक अनिष्ट की सूचना है।
माननीय प्रधानमंत्री जी, आपको यह स्मरण करा दूँ कि डेविड क्रिस्टल, एक चर्चित भाषाविद् और लेखक हैं, जिनकी पुस्तक है, ‘डेथ ऑफ लैंग्विज़’ है। वे पिछले वर्षों में भारत आये थे, उन्होंने ‘हिंग्लिश’ के बारे में, जो टिप्पणी की वह आँख खोलने के लिए पर्याप्त है। उन्होंने बार-बार हिन्दी को ‘हिंग्लिश’ बनाये जाने की बात पर लोगों का लगभग लताड़ कर कहा- ‘ जिसे आप ‘हिंग्लिश-हिंग्लिश’ कह रहे हैं, वह आपकी भाषा है नहीं हैं, वह हमारी भाषा है, क्योंकि इसे अंग्रेजी ने पैदा किया है। वह अंग्रेजी की एक नई ‘डायलेक्ट’ है। इस पर निश्चय ही अंग्रेज़ी की मिल्कियत है। हिन्दी की नहीं। फिर उसमें सत्तर प्रतिशत हैं, हमारी अंग्रेज़ी के शब्द।
इसलिए, उनके इस वक्तव्य की रौशनी में देखा जाये तो आप हिन्दी में प्रसारण नहीं कर रहे हैं-बल्कि अंग्रेजी की एक ‘डायलेक्ट’ में देश को संबोधित कर रहे हैं और आप उस पर अपनी हिन्दी होने का भ्रम न पालें, और ना ही यह भ्रम फैलायें कि ‘आप हिन्दी में देश से सम्वाद कर रहे है।’ हां यह भी बता दूं कि साथ ही इस कार्यक्रम के अन्त में एक उद्घोषणा आती है कि प्रधानमंत्रीजी का यह प्रसारण अन्य भारतीय क्षेत्रीय भाषाओं में अनूदित होकर प्रसारित होगा। इसका अर्थ यह कि आपने, जो भी अंग्रेजी के शब्द इस्तेमाल किये हैं, वे ‘जस के तस’ बांग्ला या तमिल अनुवाद में जायेंगे।
इस तरह आप बांग्ला को ‘बंग्लिश’ और तमिल को ‘तमलिश’ बनाने में मदद कर रहे हैं। आकाशवाणी में ‘नौकरशाह’ तो इस प्रसारण में कोई व्यवधान न आ जाये, इससे वे इतने डरे रहते हैं कि अंग्रेज़ी का शब्द हटा नहीं पायेंगे। वे ‘तमलिश’ और ‘बंग्लिश’ बना कर रहेगें।
माननीय प्रधानमंत्रीजी, अंग्रेजी की, सामाज्यवादी कूटनीति का कहना है कि अगर, किसी देश की भाषा का विस्थापन करना है तो केवल इसे एक ही ‘युवा पीढ़ी’ के जीवन में ही बदल दीजिए। इसलिए, यह प्रचार सारे भारतीय (!) मीडिया में होता है कि आज के भारतीय और, इस भ्रम को सत्य की तरह उन्हें स्वीकारने के लिए राजी कर लिया है। और वे सफल हो गये हैं आज जो ‘युवा’ आधुनिक होना चाहता है, वह हिन्दी बोलने-लिखने से सख़्त एतराज करता है। ‘युवा’ की भाषा अंग्रेजी और जीवन शैली पश्चिम की हो तो ही वह ‘युवा’ है।
इसलिए अभी तक देश हिन्दू-मुसलमान में बंटा हुआ था, अंग्रेजी मीडिया, उसे ‘मुस्लिम इंडिया’ कहते हैं। यही विभाजनकारी भाषा, अब ‘यंग इंडिया’ कहती है- जैसे, इण्डिया में एक दूसरा इंडिया है- ‘यंग इंडिया’। इस ‘यंग इंडिया’ के धोखादेह निर्माण में, हिन्दी के अखबारों में ‘लाइफ स्टाइल जर्नलिज्म’ के चार रंगीन पन्ने निकाले जाते हैं, जिसकी भाषा के बारे में मालिकों का स्पष्ट आदेश होता है कि इसमें सत्तर प्रतिशत अंग्रेजी के शब्दों की मिलावट की जाये। और अगर, ऐसा करने में किसी कर्मचारी को एतराज हो तो वह यह तय कर ले कि उसे हिन्दी प्यारी है या अपनी नौकरी।
दरअसल जबसे हिन्दी के अखबारों में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश शुरू हुआ है, वे हिन्दी के अखबार होकर हिन्दी को विदा करने की सुपारी ले चुके हैं। हिन्दी ने अपना ‘जीवन’ हिन्दी पत्रकारिता से पाया था, आज दुर्भाग्यवश सबसे बड़ा धोखा भी वह इसी हिन्दी पत्रकारिता से ही खा रही है। आपको, उदाहरण दे रहा हूं-
‘यूनिवर्सिटी कैम्पस में मार्क्सशीट के डिले होने पर, स्टूडेण्ट्स ने, वाइस चान्सलर के आफिस के सामने प्रोटेस्ट किया, वाइस-चान्सलर ने उन्हें एश्योर किया है कि इस वीक के लास्ट तक प्राब्लम साल्व हो जायेगी।’
अब अखबारों में, माता-पिता, छात्र-छात्रा, विश्वविद्यालय, चौराहा, कार्यालय, सोमवार, मंगलवार, बाज़ार, भाई-बहन कहे कि हर शब्द, अंग्रेज़ी का ही छापा जाता है।
ये भाषा, अख़बार के युवा के लिये लिखी-छापी जा रही है। और आप भी युवाओं को ऐसी ही भाषा में बात करने की दिशा मे ही बढ़ रहे हैं।
माननीय प्रधानमंत्रीजी, आप जब इसरायल की यात्रा पर गये थे तो मुझे लगा था कि आप जब वहाँ से लौटेंगे तो इस देश के लिए जन-जन के लिये एक बड़ी सच्ची, ज्ञान और ‘राष्ट्र-गौरव’ की बात लेकर लौटेंगे कि इसरायल जिसकी भाषा ढाई हज़ार साल पहले मृत हो चुकी, उस हिब्रू भाषा को उन्होंने पुनर्जीवित कर के, उसे राजकाज और शिक्षा की भाषा बना दिया और आज इसरायल के पास सत्रह नोबेल पुरस्कार है। वह इसलिए कि बीसवीं सदी का सारा ज्ञान-विज्ञान, उसने अपनी उसी दो हज़ार साल पहले मृत हो चुकी भाषा में ही विकसित कर लिया।
जापान के बारे में तो आपको यह पता है कि वह हमारे छत्तीसगढ़ के बस्तर ज़िले के भूगोल के बराबर ही है। प्रसिद्ध अमेरिकी विचारक थामस फ्रीडमेन ने लिखा था, ‘लिंच पिन ऑफ इकोनॉमी एण्ड टेक्नॉलाजी हेज शिफ्टेड फ्रॉम अमेरिका टू जापान।’ जब जापान और उसके पड़ोसी वाहन बनाने के उद्योग -ऑटो-मोबाइल्स- में उतरे तो दुनिया भर के देशों की सड़कों पर जो कारें दौड़ती हैं, इन्हीं देशों की है-क्योंकि, उनके यहाँ शिक्षा की भाषा, वही अपनी भाषा है। जिसमें लगभग दो हजार चिन्ह हैं। जब हिन्दी की बारहखड़ी में तो ‘अ से क्षत्रज्ञ’ तक केवल इतने ही शब्द है और इन शब्दों में संसार की सभी भाषाओं की ध्वनियां, उच्चरित हो सकती हैं।
दुर्भाग्यवश, जाने किस मूढ़ता में भारतीय भाषा को शिक्षा के प्राथमिक स्तर पर ही खत्म कर दिया जा रहा है।
मेरे बेटे ने पन्द्रह साल अमेरिका में पढ़ाई की और नैनो-टेक्नोलॉजी में पी.एच.डी की डिग्री हासिल की। वह कहता है अमेरिका में, जब जापान का युवक पढ़ाई के लिए आता है, तो वह सौ प्रतिशत जापानी हो जाता है, जबकि चीनी छात्र पढ़ने आता है तो वह एक सौ दस प्रतिशत चीनी हो जाता है- जबकि, भारत का युवा अमेरिका आता है तो वह अस्सी प्रतिशत अमेरिकी हो जाता है। दरअसल, भारत, अब इस एक ध्रुवीय संसार में अमेरिकाना हो रहा है। निश्चय ही वह उसकी नकल करेगा तो भी वह एक घटिया दर्जे की अनुकृति ही बनेगा और बन ही रहा है।
प्रधानमंत्रीजी आप से निवेदन है कि आप भाषा के साथ, केवल सम्प्रेषण का माध्यम भर की तरह व्यवहार न करें। चूंकि भाषा सामाजिक-सांस्कृतिक चिंतन-प्रक्रिया का भी आधार है। इस भाषा में दुनिया के गहनतम विषय पर भी विचार व्यक्त किया जा सकता है और चिन्तन सम्भव है। गांधी से लेकर जयप्रकाश तक इसमें सोचते विचारते थे और आप भी हिन्दी ही में सोचते और बोलते हैं। लेकिन, अब तो टेलिविज़न विज्ञापन आता है, जिसमें कहा जाता है, हिन्दी नहीं, अंग्रेज़ी ही सोचने की भाषा है।
प्रधानमंत्री महोदय, मैं आपको याद दिलाना चाहता हूँ कि ज्ञान आयोग के श्री सैम पित्रौदा हुआ करते थे, जिन्होंने प्रधानमंत्री कार्यालय को एक पत्र लिखकर कहा था कि भारत के केवल एक प्रतिशत लोग ही अंग्रेज़ी लिख-बोल सकते हैं, अतः हमें निन्यानवे प्रतिशत आबादी को अंग्रेज़ी सिखाना है, जिसके लिए, प्राथमिक कक्षाओं से ही अंग्रेज़ी सीखने को अनिवार्य कर दिया जाना चाहिये। दुर्भाग्यपूर्ण बात ये है कि उनके इस कथन पर किसी सांसद और हिन्दी के पत्रकार, लेखक या भाषा-भाषी ने उनसे ये नहीं पूछा कि पैसठ वर्षों में आप उस ‘एक प्रतिशत’ भारतीय को हिन्दी नहीं सिखा पाये तो निन्यानवे प्रतिशत भारतीयों को अंग्रेजी कितने वर्षों में सिखा पायेंगे और उस भाषा प्रचार-प्रसार और सिखाने-पढाने के धंधे- ‘लैंग्विज इकोनोमिक्स-’ का आकार क्या होगा।
आज अंग्रेजी का सिखाने पढ़ाने का व्यवसाय अरबों में कमाई कर रहा है। जब भारत में एक अरब बीस करोड़ को अंग्रेजी सिखाई जाने का कारोबार चलेगा तो अंग्रेज़ी-भाषा कितना धन कमायेगी।
अन्त में माननीय प्रधानमंत्रीजी आप से मेरा यही कहना है कि हम अहिन्दी-भाषी पूर्व प्रधानमंत्रियों के प्रति शिकायत रखते थे कि वे देश के लोगों से हिन्दी में नहीं बात कर रहे हैं। यह हिन्दी का नुकसान है लेकिन उन्होंने हिन्दी का उतना अहित नहीं किया, जितना अहित हिंग्लिश बोलकर तो आप कर रहे हैं। आप पूरे देश को ‘भाषा-विस्थापन’ का संकेत कर रहे हैं।
आप का दल और आप तो ‘सांस्कृतिक-राष्ट्रवाद’ की बात करते रहते हैं। क्या ये भाषा को नष्ट करने के बाद, बचा रहेगा। हो सकता है, ‘मंदिर-मस्जिद’ के बहाने धर्म का हो-हल्ला मचता रहे लेकिन आपके-हमारे उस धर्म की किताबें, एक दिन ‘अपाठ्य-लिपि’ में लिखी-छपी मानी जायेगी। क्योंकि हिन्दी के रोमन लिपि में लिखे जाने के बाद, करोड़ों किताबें कचरे में बदल जायेगी। आप से निवेदन है कि जब आपने अच्छी हिन्दी में देश के कोने-कोने में जाकर अपने दल को विजय दिलाई है। लेकिन आप दल और राजनीतिक से ऊपर उठकर, भाषा के बारे में चिंतन करें और देश में हिन्दी को विदाई करने के अभियान को स्थगित करें।
आपकी सरकार का राज-भाषा विभाग इस समय अपनी अन्तिम सांसें गिन रहा है। लोग उस विभाग की इरादतन भर्त्सना करते हैं, लेकिन उस विभाग के कारण सरकारी दफ़्तरों में हिन्दी थोड़ी-थोड़ी बची हुई थी।
याद कीजिए और संदर्भ दिखवा लीजिए, जब हिन्दी को सरल बनाने के बहाने उसको ‘विस्थापित’ करने के षडयंत्र का एक चरण, भारत-सरकार के गृह-मंत्रालय के राज-भाषा विभाग द्वारा एक परिपत्र जारी करके किया गया था- तब हिन्दी की ‘धोखा देह’ पत्रकारिता ने खुशी में झूमकर खबरें, छापी थी- ‘अब हिन्दी बोलने-समझने लायक भाषा बन जायेगी। उस परिपत्र में बताया गया था कि ‘भोजन’ शब्द कठिन है, इसलिये उसकी जगह ‘लंच’ शब्द प्रयोग मे लाया जाये।
लेकिन, अंग्रेज़ जानते हैं कि इन गुलामों को कभी अक़्ल नहीं आयेगी। वहां के अख़बारों ने हिन्दी में अंग्रेज़ी के शब्दों की मिलावट के, इस सरकारी ‘परिपत्र’ के संकेत पढ़ लिये थे। वहां के अख़बारों की ‘हेडलाइन्स’ यानि कि सुर्खियां थीं- ‘क्वीन्स लैंग्विज विंन्स इंडिया’। क्योंकि, यह परिपत्र, संविधान में सेंध का काम कर रहा था और उन्हें ये भरोसा है कि अगर दरार भी बन गई, वे उसे दरवाज़ा बना देगें। क्योंकि, जो केवल व्यवसाय के लिये आये उन्होंने पूरा देश हड़प लिया था।
दरअसल, अंग्रेज़ी को भारत की अन्य किसी भाषा से भय नहीं हैं। वे केवल हिन्दी से डरते हैं। क्योंकि, यह दुनिया की दूसरी सबसे वड़ी बोली जाने वाली भाषा है। और वे इसकी मृत्यु का पुख़्ता इंतज़ाम कर चुके हैं। क्योंकि, उन्होंने भारत में, हिन्दी की ‘बोलियों’ को ही हिन्दी के खिलाफ़ भिड़ा दिया है। यह रणनीति ब्रिटिश कौंसिल के जोशुआ फिशमैन की बुध्दि की उपज थी कि ‘ लैंग्विज़ वर्सेस डायलैक्ट’ का द्वन्द्व खड़ा कर के ही हिन्दी को कमज़ोर किया जा सकता है। दूसरी बात ये कि वे हिन्दी को ‘हिंग्लिश’ बनाकर रहेंगे और इस पर एतराज उठाने वाले को मुँह तोड़ जवाब देंगे-‘मूर्खो..! तुम्हारे देश का प्रधानमंत्री स्वयम् हमारी अंग्रेज़ी की ही ‘डायलेक्ट’ , हिंग्लिश ’ बोल रहा बोल रहा है।
उम्मीद है, मेरा यह पत्र पढ़ने का आप समय निकालेंगे। वर्ना तो आपकी नौकरशाही, जब इस पत्र का सारांश तैयार कर के आप को बतायेंगे तो निश्चय ही यह पूरा पत्र उनकी निगाह में एक बकवास होगा। लेकिन, यह बकवास नहीं, हिन्दी की आख़िरी हिचकी है। आप के कान इस हिचकी को, भारतीय महाद्वीप के प्रधानमंत्री की तरह सुन पा रहे हैं कि नहीं…..?
(साहित्यकार, चित्रकार, पत्रकार प्रभु जोशी हमारे समय में हमारी भाषा की शानदार हस्ती हैं। हिंदी में जिस तरह का कादो-कीचड़ फेंटकर इसे मुश्किल बताकर आसान बनाने की साज़िश में 'नई वाली हिंदी', 'जनता की मांग के हिसाब से हिंदी', 'स्मार्ट हिंदी' जैसे जुमले गढ़े जा रहे हैं, प्रभु जोशी उनकी पोल कई बरसों से खोलते रहे हैं। ये लेख सौतुक से साभार कॉपी किया गया है। )


रविवार, 17 जून 2018

ज़ी न्यूज़ ने बीजेपी को देश समझ लिया है

असली कविता वही है जो सरकारी चुनाव प्रचार के काम आ जाये। ज़ी न्यूज़ ने अभी से ही 'कवि युद्ध-2019' शुरू कर दिया है। फ को 'फ़' बोलने वाली अंतराष्ट्रीय कवियत्री अनामिका अम्बर जब नरेंद्र मोदी को फूल कहती हैं तो समझ ही नहीं आता कि तारीफ कर रही हैं या विरोध। सुदीप भोला ने कविता के नाम पर अमित शाह को 'शहंशाह' बनाकर फ़िल्मी पैरोडी पेश की है - 'एक मसीहा निकलता है, जिसे लोग अमित शाह कहते हैं'। पीछे कुछ प्रमुख पार्टियों के नेताओं के कट आउट्स खड़े हैं। सिर्फ बीजेपी के दो नेताओं (मोदी-शाह) को जगह मिली है, बाक़ी पार्टियों के एक नेता हैं। बल्कि बीजेपी का मनोज तिवारी तो 'शेरा' बनियान पहनकर 'कवि युद्ध' के ग्राफ़िक्स के सहारे बाहर से भी नम्बर बढ़ा रहा है।इन सबके बाद एक कविता में तो ये कवि 'बुद्धिजीवी' होने का भी मज़ाक बना रहे हैं। 

हे ईश्वर! इन्हें माफ करना, ये नहीं जानते ये क्या कर रहे हैं।

धूमिल, आप ठीक कहते थे -
'वे सब के सब तिजोरियों के
दुभाषिये हैं
वे वकील हैं,वैज्ञानिक हैं।
अध्यापक हैं, नेता हैं, दार्शनिक हैं
लेखक हैं, कवि हैं, कलाकार हैं।
यानी कि- कानून की भाषा बोलता हुआ
अपराधियों का एक संयुक्त परिवार है।'

निखिल आनंद गिरि

मंगलवार, 15 अगस्त 2017

मेरा देश बदल रहा है

'मेरा देश बदल रहा है
मेरा देश बदल रहा है..

देश का नक्शा मुंह दाबे,
बन्दर अदरक को चाभे
छम छम उछल रहा है
मेरा देश बदल रहा है।

बेदम बचपन बेचारा
जिसने मिलजुलकर मारा
दिल्ली टहल रहा है
मेरा देश बदल रहा है।

कवियों को चालाकी दो,
डुबकी दो, तैराकी दो
बच के निकल रहा है
मेरा देश बदल रहा है।

जनता को मत राशन दो
ठूंस ठूंस के भाषण दो
ये ही अमल रहा है
मेरा देश बदल रहा है।

अपने धन पर ताले हैं
काले धन को पाले हैं
सच अब निकल रहा है
मेरा देश बदल रहा है।

सूरज को गप से खा लो
राजा का मुंह झरका दो
ज़हर उगल रहा है
मेरा देश बदल रहा है।
मेरा देश..'

निखिल आनंद गिरि

गुरुवार, 9 मार्च 2017

पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन : देश घंटा बदल रहा है

पुरानी दिल्ली मेट्रो स्टेशन पर 7 मार्च की रात जिस तरह का मानसिक टॉर्चर मैंने झेला, वो किसी न किसी भले आदमी को रेल मंत्रालय तक ज़रूर पहुंचाना चाहिए। ये छोटी-सी आपबीती उसी की कोशिश भर है।
 
जयनगर से चली शहीद एक्सप्रेस में समस्तीपुर से मेरे कुछ घरेलू सामान की पार्सल बुकिंग थी। यहां जो ट्रेन दोपहर के बारह बजे पहुंचनी थी, रात के साढ़े ग्यारह बजे पहुंची। पार्सल छुड़वाने का कोई अनुभव नहीं होने के कारण मैं क़रीब तीन घंटे पहले से वहां पहुंचकर पार्सल ऑफिस के आसपास के चक्कर काट रहा था। बताया गया कि आजकल मामला डिजीटल है, तो ट्रेन से सामान उतरते ही प्लैटफॉर्म से ही ले जाया जा सकता है। प्लैटफॉर्म वाला बाबू अपनी इलेक्ट्रॉनिक एंट्री करेगा। फिर प्लैटफॉर्म से कोसों दूर स्टेशन के किसी सुदूर हिस्से में पार्सल ऑफिस के काउंटर से एक गेट पास बनाकर सामान रिलीज़ कराया जा सकता है। इसी उम्मीद से जब ट्रेन आई और मेरा सामान दिखा तो मैंने ठीक ऐसा ही किया। प्लैटफॉर्म वाले बाबू (बूढ़े बाबा) ने अपना काम तुरंत कर दिया तो पार्सल ऑफिस की तरफ दौड़ा। वहां जो बीती वो बताने लायक तो है, भुगतने लायक नहीं।
 
एक बुज़ुर्ग हरियाणवी मैडम आधी रात की ड्यूटी में थीं (अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर इसे नोट किया जाना चाहिए)। वो समय से दस मिनट पहले आ गई थीं तो अपने साथी पार्सल बाबूकी आखिरी फाइल वर्क निपटाने में मदद कर रही थीं। जो पोर्टर उनके सामने क्लियरेंस के लिए खड़ा था, उससे पूरे पारंपरिक तरीके से 100-100 रुपये बांट रही थीं। मैंने बहुत ही विनम्रता से आधी रात का हवाला देते हुए मेरा गेट पासबनाने को कहा तो बोलीं घोड़े पर सवार होकर आया है के, अभी तो ड्यूटी शुरु भी नहीं हुई मेरी। मैं आधे घंटे तक उनकी ड्यूटी शुरू होने का इंतज़ार करता रहा। घूमकर आया तो देखा बाहर ताला लगा है। पता चला कि मैडम भीतर सोती हैं और सुबह पांच बजे से ही काम शुरू करती हैं। किसी तरह ताला खुला तो मैडम का कंप्यूटर भी खुला। वो छत्तीस बार कोशिश करती रहीं, मगर मेरे पार्सल की ठीक से एंट्री नहीं कर पाईं। मुझे ताने देती रहीं कि उन्हें रात को परेशान कर रहा हूं और फिर किसी दूसरे साथी की मदद से लगभग ढाई बजे छह सौ ज़्यादा देने पर एक पास बन सका। मैं पैसे देने का विरोध करता तो बोलीं, कौण सा हमारी जेब में जाने हैं, ये तो सरकार का पैसा है। फिर स्टेशन से कहीं जाने लायक नहीं बचा। सारी रात मैंने पुरानी दिल्ली की सड़कों पर गुज़ारी।
 
किसी का नाम लेकर नौकरी खाने की कोई मंशा नहीं है। बस बताना चाहता हूं कि ये जो रेल मंत्री अपनी रेल को वर्ल्ड क्लास क्लेम करते रहते हैं, वो दरअसल पार्सल ऑफिस तक आते-आते थर्ड क्लास हो जाती है। पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन के बाहर निकलते ही दिल्ली मेट्रो के दफ्तर भी हैं, जहां एक बार इन बेकार रेलवे कर्मचारियों को सज़ा के तौर पर भेजा जाना चाहिए। एक आम यात्री की पूरी रात ख़राब होने पर न इन्हें कोई मलाल होगा, न इन्हें समझ आएगा कि ये देश का कितना नुकसान कर रहे हैं। फिर भी देश बदल रहा है’, ‘अच्छे दिनके प्रचारकों का मुंह बंद करके एक बार इन पार्सल ऑफिस तक ज़रूर भेजना चाहिए। ये हमारी राजधानी दिल्ली के एक रेलवे स्टेशन की कहानी है, जिसे आप भारत के हर हिस्से की कहानी के तौर पर देख सकते हैं। बस वो स्टेशन राजधानी से जितना दूर हो, उसके निकम्मेपन का अनुपात स्वादानुसार बढ़ाते जाइएगा।
 
अब आप राष्ट्रगान के लिए खड़े हो सकते हैं।

निखिल आनंद गिरि

रविवार, 13 नवंबर 2016

आएंगे..आ ही गए अच्छे दिन!

देश एक लंबी-सी कतार है
आपके बाग़ों में बहार है।
आएंगे, आ ही गए अच्छे दिन
जो न देख पाए, वो ग़द्दार है।
हमारी जेब पर ही बंदूकें,
कैसा पागल ये चौकीदार है।
फोड़ दी गुल्लकें भी बच्चों की
काला धन अब तलक फ़रार है।
जेब ख़ाली है, दवा कैसे करें
विकास का भूत यूं सवार है।


निखिल आनंद गिरि

बुधवार, 21 सितंबर 2016

अच्छे दिनों की गज़ल

दिल्ली की सड़कों पर कत्लेआम है, अच्छा है
अच्छे दिन में मरने का आराम है, अच्छा है।

छप्पन इंची सीने का क्या काम है सरहद पर, 
मच्छर तक से लड़ने में नाकाम है, अच्छा है।

बिना बुलाए किसी शरीफ के घर हो आते हैं
और ओबामा से भी दुआ-सलाम है, अच्छा है।

कचरा खाती गाय माता अपनी सड़कों पर,
गोरक्षक के घर में दूध-बादाम है, अच्छा है।

पढ़ने-लिखने वालों में, गद्दारी दिखती है
देशभक्त इस देश का झंडू बाम है, अच्छा है।

मन की बातमें अपने मन की उल्टी करते हैं
जन की बात न सुनने का निज़ाम है, अच्छा है।

निखिल आनंद गिरि

गुरुवार, 31 दिसंबर 2015

एक छोटी-सी ऑड-इवेन लव स्टोरी

ये बता पाना मुश्किल है कि प्यार पहले लड़की को हुआ या लड़के को, मगर हुआ। एक ऑड नंबर की कार से चलने वाली लड़की और इवेन नंबर से चलने वाले लड़के को आपस में प्यार हो गया। ऐसे वक्त में हुआ कि मिलने की मुश्किलें और बढ़ गईं। पहले सिर्फ घर से निकलने की दिक्कत थी, अब दिक्कत ये कि ऑड वाले दिन लड़की को पैदल, फिर रिक्शा और फिर मेट्रो से लड़के तक पहुंचना होता था। इवेन वाले दिन लड़के को यही सब करना पड़ता था।

अपनी प्रेम कहानियों की रक्षा स्वयं करें!
यह प्यार किसी और शहर या किसी और राजनैतिक दौर में हुआ होता तो वो रोज़ मिलते। ट्रैफिक जाम में घंटे भर फंसकर भी खुश होते। कोई दूसरी गाड़ी उनकी हेडलाइट या गाड़ी के किसी हिस्से को छू जाती तो भी एक-दूसरे को मुस्कुराकर रह जाते। शीशा चढ़ा लेते जब सामने की गाड़ी वाला ग़लत ट्रैफिक सिग्नल क्रॉस कर रहा होता और उन्हें घूर कर देख रहा होता। किसी सेंट्रल पार्क के बाहर अपनी गाड़ी पार्क करते और घंटो बातें करते। मोदी पर, केजरीवाल पर, आलू के पकौड़ों पर। फिर मुश्किल से विदा होते, घर पहुंचते ही मोबाइल से दोनों चिपक जाते। मगर इस दौर में तो बहुत मुश्किल हो गया था ये सब। ऑड तारीखों वाले दिन लड़के का मूड ख़राब रहता और इवेन वाले दिन लड़की का।
समय गुज़रता गया। प्यार करते-करते एक दिन गुज़रा, दो दिन गुज़रे, एक हफ्ता गुज़र गया, दो हफ्ते गुज़रने ही वाले थे। दिल्ली जैसे शहर में एक प्रेम कहानी का दो हफ्ते गुज़र जाना इतिहास का हिस्सा होने जैसा था। प्रेम कहानी के चौदहवें दिन अचानक जब आठ बज गए तो इवेन कार वाले लड़के ने थोड़ा हिचकते हुए ऑड वाली लड़की से कहा, अब हम कभी नहीं मिलेंगे। मैंने दरअसल एक इवेन वाली लड़की ढूंढ ली है। तुम भी एक ऑड वाला लड़का ढूंढ लो।

लड़की थोड़ी उदास हुई फिर बोली, मेरी चिंता मत करो, मैं सीएनजी के सहारे अकेले चलना पसंद करूंगी अब से, तुम्हें नई ज़िंदगी, नया साल मुबारक

निखिल आनंद गिरि

शनिवार, 7 नवंबर 2015

पुरानी यादें किसे लौटाएं..

कल एक अजीब बात हुई। एक महिला मित्र से आमने-सामने बैठकर बात कर रहा था और उसके नाम की जगह किसी दूसरे का नाम मुंह से निकल रहा था। ज़िंदगी में ऐसी कई छोटी-छाटी चीज़ें हैं जो बताती हैं कि हमारी ज़िंदगी में कुछ पीछे छूट गए लोग कितने ज़रूरी हैं। कई छोटी आदतें, एकाध बार मिले लोग, बहुत कम पढी गई किताबें या खिड़की से दिख रही कोई चि़ड़िया भी ज़िंदगी भर याद रह जाती है।

कई दिनों से कोई फिल्म नहीं देखी। ऐसा नहीं कि इस बीच अच्छी फिल्में नहीं आई हों या फिर मेरे नहीं देखने की वजह से फिल्म बनाने वालों ने भूख हड़ताल कर दी हो, फिर भी हर हफ्ते एक फिल्म नहीं देखना नई आदत जैसा है। एक तो ज़िंदगी काफी तेज़ी से आगे बढ़ रही है तो कुछ कामों के लिए वक्त निकालना मुश्किल पड़ रहा है। और दूसरा ये कि टीवी आपकी तमाम ज़रूरतें पूरी कर ही देता है। कोई नई फिल्म भी टीवी पर दो-तीन हफ्ते में वर्ल्ड टीवी प्रीमियर कर ही लेती है। और जब आप टीवी पर देखते हैं तो अकसर उसकी कहानी देखकर अफसोस भी नहीं रह जाता।

फिल्मों से ज़्यादा मज़ा अब न्यूज़ चैनल देखने में आता है। यहां ख़बरें पकाने को ही ख़बर लिखना मान लिया गया है। जैसे शाहरुख खान के 50 साल पूरे होने पर कहीं हल्के में देश के 'माहौल' पर कुछ कहा गया और उसे बुरी तरह लपक लिया गया। कौन पाकिस्तान जाएगा, कौन नहीं इस पर डिबेट शुरू हो गई। योगी, कैलाश जैसे सेकेंड क्लास नेताओं के बयान को जानबूझकर इतनी हवा दी जा रही है कि माहौल ज़्यादा ख़राब होने दिया जाए। मसाला बचा रहे बस। सच में कहीं 'असहिष्णुता' (INTOLERANCE) का माहौल है तो वो न्यूज़ चैनल में ही है। इस बात को मज़ाक से ज़्यादा एक आम दर्शक के गुस्से और विरोध के तौर पर लिया जाना चाहिए। 

रेल मंत्रालय में बरसों से कोई काम करने वाला आदमी नहीं दिखता। पुरानी पॉलिसी में ही फेरबदल करते रहने से न तो रेलवे का भला होने वाला है और न ही मुसाफिरों का। छठ के ठीक पहले टिकट कैंसल कराने में ज़्यादा 'सर्विस चार्ज' कटने का ऐलान जनता के साथ धोखे जैसा है। बजाय इसके कि आप दलाली कम करें, कम से कम पूजा के वक्त ट्रेन की संख्या बढ़ाएं, टीटी की गुंडागर्दी कम करें, ट्रेन के बाथरूम की हालत ठीक करें, टिकट घटाने-बढाने में ही सारी काबिलियत दिखाते रहते हैं। 

जिस तरह 'टिकट वापसी' में अब आधा ही पैसा वापस मिलने वाला है, उसी तरह सम्मान वापसी में भी सरकार को ऐसा ही कुछ करना चाहिए। सरकार को कहना चाहिए कि हम आपका आधा सम्मान ही ले सकते हैं। बाक़ी अपने पास रखिए, जिसका अफसोस आपको ज़िंदगी भर होते रहना चाहिए कि किसी न किसी निकम्मी सरकार से सम्मान लेने गए ही क्यों।
निखिल आनंद गिरि

सोमवार, 1 जून 2015

हैंगओवर

बारहमासा अमरूद की तरह नहीं

महामारी की तरह आते हैं
कभी-कभी अच्छे दिन

कभी नहीं जाने के लिए।
मक्खियां चखें तमाम अच्छी मिठाइयां

मच्छरों के लिए तमाम अच्छी नस्ल के ख़ून
चमगादड़ों के लिए सबसे दिलकश अंधेरे

और चूंकि जंगल नहीं के बराबर हैं
तो भेड़ियों-सियारों-लकड़बग्घों की रिहाइश के लिए

तमाम अच्छे शहर
गुजरात से दिल्ली से अमरीका से मंगल तक।


एक से एक रंगीन चश्मे इंडिया गेट पर
युवाओं के लिए हनी सिंह के सब देशभक्ति गीत,

सबसे तेज़ बुलेट कारें, सबसे अच्छी दुर्घटनाओ के लिए
सबसे मज़बूत लाठियां, सदैव तत्पर पुलिस के लिए

सबसे अच्छी हत्याओं का सीधा प्रसारण
सबसे रंगीन पर्दों पर।

सबसे अच्छे हाथी, कुलपतियों की तफरी के लिए
सबसे अच्छे पुरस्कार, अच्छे दिनों की याद में

लोटमलोट हुए राष्ट्रभक्तों, शांतिदूतों और साहित्यकारों के लिए।

 
सबसे अच्छे दिनों को हुड़-हुड़ हांकते

सबसे ज़्यादा मुस्कुराते लोग
बोरिंग सेल्फी की तरह

आत्ममुग्धता की बास मारते
प्रेम की तमाम संभावनाओं को ख़ारिज करते।

 
सबसे अच्छे नारे, मंदिर, शौचालय, बैनर

मूर्तियां, होर्डिंग और पोस्टर
शहर की सबसे सभ्य सड़कों पर

जिन पर इत्मीनान से लेंड़ी चुआते हो कौव्वे
और वहीं बीड़ी सुलगाने की जुगत में

कोई कवि या पागल
नाउम्मीदी की तमाम संभावनाओं के बीच

किसी चायवाले भद्रजन से मांगता हो माचिस
तो अच्छे दिनों के हैंगओवर में,

वह उड़ेल दे खौलती केतली से
किरासन या तेज़ाब जैसी कोई चीज़

और मुस्कुराकर कहे जय हिंद।
निखिल आनंद गिरि

रविवार, 17 मई 2015

अपने समय के बारे में

आप जब कहते हैं,

कि यह एक ख़राब समय है
तब आप कोस रहे होते हैं सिर्फ वर्तमान को

अतीत के पक्षपाती चश्मे से,
संभव है आपकी ख़राब घड़ी भर ही ख़राब हो समय।

दरअसल वह एक ख़राब समय था जो,

वीर्य की तरह बहता चला आया वर्तमान की नसों में।



जिस क़ातिल की सज़ा बदली सज़ा-ए-मौत में

(इसे रिहाई भी समझा जा सकता है)

उसने अतीत में झोंकी थी एक औरत तंदूर में।

समय तंदूर में झुलसा था तब

और आप अब काला बता रहे हैं।

अंधेरा पैदा करने के लिए

बहुत से धुंधले उजाले भी काफी हैं।


जिन चेलों ने आज बटोरे प्रशस्ति पत्र

उनके पत्रों पर कहीं दर्ज नहीं

कहां और कितने गुरुओं को बांटी थी कल कौन-सी बोतलें।


संभव यह भी है कि अच्छा समय ढंक दिया गया हो

किसी लोकतांत्रिक ढक्कन से।

जैसे आप खिड़कियां ढंकते हैं कमरों की,

और सुरक्षित महसूस करते हैं

आपकी बच्चियां लूडो खेलती हैं आराम से।

ठीक उसी लोकतांत्रिक समय खिड़की के बाहर,

जहां जब बच्चियां पैदा हुईं

तो मांओं ने छातियां ढंक दी उनकी

और आसमान की तरफ अश्लील और डरावनी संभावनाओं से देखा।


दरअसल यह एक अश्लील समय है,

हत्या की खबरों में सिबाका गीतमाला की तरह

दलित नरसंहार में सवर्णों की सकुशल रिहाई जैसे

दिल्ली में दम तोड़ता उत्तर-पूर्व जैसे

पृथ्वी की छाती पर उग आए मकान जैसे

बकरों की जगह उल्टे लटके मुसलमान जैसे।


इस वक्त आपके रंगीन चश्मे के भीतर

अगर दिख रहा है सच जैसा कुछ

तो सबसे अश्लील है भगवान
जिसे पसंद है समय का नंगा नाच।।


('पहल' पत्रिका (98वें अंक) में प्रकाशित
निखिल आनंद गिरि

सोमवार, 26 जनवरी 2015

उनका महान होना तय था

कोई गोत्र, कुल या नक्षत्र
तय होने से भी पहले
उनका महान होना तय था।



जंगल के जंगल काट दिए गए
उनका पलना बनाने में जुट गए गांव
जिन गांवों में बने उनके मुकुट
फुदने औऱ खिलौने भी
वहां आग लगा दी गई काम के बाद
और एक महल तैयार हुआ
गांव की राख पर।



तब दूध के दांत भी उगे नहीं थे
जब घर में आ गई थी गाय
और बहने लगी थी दूध-मलाई
जब वो बड़े हो रहे थे
तब तक तय हो चुका था
कोल्हू कौन होगा, बैल कौन?
पुट्ठे पर मलेगा तेल कौन?


तमाम किताबों पर उंगली फिरा दी उन्होंने
और उन्हें मान लिया गया,
ज्ञानी-ध्यानी, प्रकांड, छुट्टा सांड।


उनके मुंह से दुर्गंध आई,
तो वायु प्रदूषण एक गंभीर मुद्दा मान लिया गया



ऐसे तैयार हुए वो जीने के लिए,
न उन्हें किसी दुकान से आटा लेना था
न बस का नंबर पता करना था कभी
ख़ास तरह से तराशे गए कुछ लोग
जिनका पसीना तहख़ानों में रखा जाना था।
जिनके सफेद बालों पर शोध लिखे जाने थे
इस ग्रह पर सिर्फ राज करने के लिए आए थे।



उनके ज़बान पर नमक की तरह
चटा दिया गया विकास नाम का शब्द
और वो करते रहे जुगाली विकास की
अपनी पीठ घुमाकर ख़ुद ही देते रहे थपकी
घूमते रहे अमेठी, गुजरात से दिल्ली तक।



झूठ को इतना चिल्लाकर कहा,
इतना कलफ लगाकर,
कुतुब मीनार जितनी ऊंचाई से
कि सच ने ख़ुदकुशी कर ली।


निखिल आनंद गिरि
(पत्रिका 'पहल' के 98वें अंक में प्रकाशत)

गुरुवार, 2 अक्तूबर 2014

गांधी जी के नाम पर

हाथी घोड़ा पालकी
जय जय मोहन'लाल' की

गांधी जी गुजरात में
मोदी की हर बात में

गांधी जी अमरीका
मोदी के आगे फीका

गांधी जी के चेले,
नोट-लोट कर खेले

गांधी जी की लाठी
गुंडों की सहपाठी

गांधी जी की झाड़ू
झूमे पीकर दारू

गांधी जी की खादी
पहिने सब फ़सादी

सत्य अहिंसा नारा
मुल्क चीख कर हारा

गांधी जी के बंदर
घोटाले में अंदर

गांधी जी के नाम पर
छोड़ तमाशा काम कर

हाथी घोड़ा पालकी
जय जय मोहन'लाल' की

निखिल आनंद गिरि

शनिवार, 20 सितंबर 2014

एडहॉक ज़िंदगी के एडहॉक किस्से

कांट्रैक्ट, एडहॉक, टेंपररी एक ऐसा शब्द है जो इंसान अपने जन्म के साथ ही जीने लगता है। जैसे स्कूटर की स्टेपनी, घर की बालकनी या फिर आदमी की पैंट में चोर पॉकेट। यूं किसी काम के नहीं मगर इनके बिना किसी का काम ही नहीं चल सकता। जैैसे अंग्रेज़ी के फैशन वाले देश में हिंदी एडहॉक की ज़िंदगी काट रही है। जैसे बचपन ज़िंदगी की एडहॉक अवस्था है। जिस किसी का मूड ख़राब हुआ, किसी बच्चे को दो-चीन झापड़ रसीद कर दिए। जैसे देश की हर यूनिवर्सिटी में परमानेंट स्टाफ चौड़ा होकर घूमता है, मीटिंग-वीटिंग करता है और ऐडहॉक गदहे की तरह सारे काम करता है। देश का भविष्य एडहॉक लोग बना रहे हैं और क्रेडिट परमानेंट लोग ले जा रहे हैं।

दूरदर्शन और आकाशवाणी जैसी देश की सबसे बड़ी दो मीडिया संस्थाएं टेंपररी और कांट्रैक्ट कर्मचारियों के भरोसे ही चलती आ रही हैं। ये बात मीडिया के सारे लोग जानते भी हैं और मानते भी हैं। मगर कभी कोई छोटी-मोटी गलती हो जाए तो कांट्रैक्ट वाले, एडहॉक वाले की एक ही सज़ा होती है। सीधा नौकरी से निकाला। दूरदर्शन की उस टेंपररी न्यूज़रीडर ने भी इतनी भर ही गुस्ताखी की थी। चीन के राष्ट्रपति के नाम के आगे 'ग्यारह' जैसा शुभ विशेषण लगा दिया। सोचा अतिथि आए हैं, पीएम के जन्मदिन के दिन आए हैं, ग्यारह की भेंट चढ़ाना तो ज़रूरी है। तो सी या ज़ी (XI) ज़िनपिंग या शिनपिंग की जगह ग्यारह कह दिया। बस नौकरी चली गई।

ये चीन सचमुच में बहुत चालाक देश है। देश का नाम ऐसा है कि हम रोगी होने की हद तक पिएं और डायबिटीज़ हो जाए और राष्ट्रपति का नाम ऐसा कि हमारा पीएम तो क्या पीएम का बाप भी नाम लेने के बजाय 'सर' 'सर' करने लगे। अब समय आ गया है कि भारत की विदेश नीति में पड़ोसी देशों के नेताओं से सिंपल निकनेम रखने का दबाव डाला जाए। चिंटू, मिंटू, सोनू, मोनू, पिंकू टाइप। हमारे यहां के टीवी एंकर कम से कम अपनी नौकरी तो बचा सकेंगे। पहले ही बात-बात पर नौकरी जाने का ख़तरा बना रहता है। एक एंकर की नौकरी तो सिर्फ इसीलिए चली गई थी कि उसने बॉस की पसंद का लिपस्टिक नहीं लगाया था। एक एंकर ने राष्ट्रपति के संबोधन पर अपनी टिप्पणी करते हुए पढ़ दिया कि राष्ट्रपति महोदय ने सफलता का 'मलमूत्र' दिया।

देश दस सालों तक एडहॉक पीएम के भरोसे चलता रहा। बीजेपी भी आरएसएस की एडहॉक पार्टी ही है। मीडिया भी कॉरपोरेट घराने के लिए एडहॉक की तरह है। एक शादीशुदा आदमी एक परमानेंट संबंध जीता है और कई एडहॉक संबंध छिपाता रहता है। ज़िंदगी में हर कोई किसी दूसरे के लिए एडहॉक की भूमिका ही निभा रहा है ।  उफ्फ!!

निखिल आनंद गिरि


रविवार, 23 मार्च 2014

कौन कहता है कि साला मुल्क ये मुश्किल में है..

वोदका हाथों में है, योयो हमारे दिल में है,
कौन कहता है कि साला मुल्क ये मुश्किल में है..
गोलियां सीने पे खाने का ज़माना लद गया,
गोलियां खाने-खिलाने का मज़ा आई-पिल में है..
झोंपड़ी में रात काटें, बेघरों के रहनुमा,
कोठियां जिनकी मनाली या कि पाली हिल में है..
एक ही झंडे तले 'अकबर' की सेना, 'राम' की,
रंगे शेरों का तमाशा, अब तो मुस्तकबिल में है.
वक्त आया है मगर हम क्या बताएं आसमां,
कौन सुनता है हमारी, क्या हमारे दिल है..

निखिल आनंद गिरि

शनिवार, 25 जनवरी 2014

ये मुल्क 'मॉकरी' है..छब्बीस जनवरी है..

छब्बीस जनवरी है..
छब्बीस जनवरी है..

कहीं मूंछ की लड़ाई,
कहीं भेड़िया है भाई,
दुबकी-सी गिलहरी है..
छब्बीस जनवरी है..

सच मारता है फांकी,
ये राजपथ की झांकी,
बस झूठ से भरी है..
छब्बीस जनवरी है..

हर सिम्त मातमपुर्सी,
फिर भी उन्हें है कुर्सी,
अपने लिए दरी है..
छब्बीस जनवरी है..

दाता मुझे बचा ले
मौला मुझे बचा ले..
इतनी पुलिस खड़ी है,
छब्बीस जनवरी है..

छप्पन किसी की छाती,
कोई नेहरू के नाती,
बापू की किरकिरी है..
छब्बीस जनवरी है..

सब 'आम' हो खड़े हैं..
बहुरूपिये बड़े हैं..
वोटों की लॉटरी है..
छब्बीस जनवरी है..

आए अगस्त जब तक,
सब मस्त फिर से तब तक,
ये मुल्क 'मॉकरी' है..
छब्बीस जनवरी है..
छब्बीस जनवरी है..

निखिल आनंद गिरि

बुधवार, 25 दिसंबर 2013

विकास के रंगीन चुटकुले

सुबह के जिस अख़बार में चमक रहा था
आधे पेज के सरकारी विकास का विज्ञापन
वही अख़बार देखकर पूछा लड़की ने
ये सामूहिक बलात्कार क्या होता है?
पिता ने छठी मंज़िल से कूदकर खुदकुशी कर ली
लड़की की उम्र सात साल थी। 
उस शहर का नाम कुछ भी रख लीजिए
जहां एक दिन सब सरकारी अस्पतालों में,
निकाले गए थे मरीज़ों के गर्भाशय
और फिर बेच दिये थे सरकारी बाबुओं ने।
गर्भाशय की ख़ूबसूरत तस्वीर छापी थी अख़बार ने,
और अख़बार सबसे ज़्यादा बिका था।
हमारी लाशो में मसाले भरकर,
साबुत रखी जाती हैं लाशें
ख़ूब रंगीन नज़र आते हैं अख़बार
बौराने लगता है माथा
इतनी आती है सड़ांध
मगर शुक्र है टिशु पेपर का ज़माना है।
जिस दारोगा ने एक औरत को
चौकीदार बनाने का लालच देकर
थाने में ही सामूहिक बलात्कार किया
और फरार हो गया
उसकी जगह किसकी हाथों में डाली गई हथकड़ी?
जिस चौराहे पर एक लड़की का जुर्म बस इतना था
कि वो अकेली चल रही थी रात में
बेरहमी से मसली गई,
कुचली गई और नंगी कर दी गई 
किसके छपे पोस्टर अपराधियों के नाम पर,
एक चेहरा आपका तो नहीं?
व्यवस्था अगर नहीं हो सकती बेहतर
तो बेहतर है बदल दी जाए व्यवस्था
जहां-जहां नहीं पहुंच पाती पुलिस
और बलात्कार आराम से होते हैं
उन शरीफ मोहल्लों में
लाउडस्पीकर लगाकर पहले बकी जाएं गालियां
और फिर वंदे मातरम
और ये भी कि,
औरत की गोलाइयों के बाहर भी दुनिया गोल है।

ये पोस्ट कुछ ख़ास है

मृत्यु की याद में

कोमल उंगलियों में बेजान उंगलियां उलझी थीं जीवन वृक्ष पर आखिरी पत्ती की तरह  लटकी थी देह उधर लुढ़क गई। मृत्यु को नज़दीक से देखा उसने एक शरीर ...

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