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शुक्रवार, 23 जून 2017

इस देश का हर दर्शक ‘ट्यूबलाइट’ है, जिसे सलमान खान पसंद है

जिस तरह गांधीगिरी पर संजय दत्त का कॉपीराइट है, परफेक्शन वाली भूमिकाओं पर आमिर खान का, हाथों के विस्तार से प्रेम रचने पर शाहरूख ख़ान का, उसी तरह बेसिरपैर की फिल्मों का कॉपीराइट सिर्फ और सिर्फ सलमान खान पर है। आप दबंग देख लें, दबंग-2 देख लें या कोई भी सलमान की फिल्म, बंदे को यक़ीन है कि फिल्म में कहानी का लेवल गिरता जाएगा और दर्शक झक मार कर आते रहेंगे।

तो इस तरह ट्यूबलाइटसलमान के यक़ीन की फिल्म है, जिसे इस बार ईद तो क्या नरेंद्र मोदी भी फ्लॉप होने से नहीं बचा पाएंगे, ऐसा मेरा यक़ीन है। फ्लॉप-हिट तो ख़ैर अपनी जगह है, फिल्म में बेवकूफी का भी एक लॉजिक होता है, जो सलमान की फिल्मों में नहीं है। अच्छा हुआ कि वो इस फिल्म के प्रोड्यूसर ही बने, निर्देशक नहीं वरना एकाध अच्छे गाने और सुंदर कैमरा भी दर्शकों को नसीब नहीं होता।

फिल्म की कहानी कुछ नहीं है। आप सलमान को देखने जा रहे हैं और आधे घंटे में ही फिल्म में शाहरूख खान नज़र आने लगते हैं।  फिर शाहरूख एक बोतल को लेकर अटक जाते हैं कि सलमान की फिल्म है तो वो इस बोतल को भी नचा सकता है। जब तक बोतल नहीं नाचती, शाहरूख फिल्म से जाते ही नहीं। फिल्म में गांधीजी भी आ जाते हैं। वो फिल्म से अंत तक नहीं जाते। सलमान ने उनकी कही बातों की चिट बना ली है और वो गांधी जी के नाम पर दर्शकों के साथ वही करता है जो देश की हर बड़ी हस्ती आम लोगों के साथ करती आई है। गांधी के नाम पर उल्लू बनाने के क्रम में सलमान ख़ान इतनी बार भारत माता की जय चिल्लाता है कि दोबारा भी अगर हिरण को मारने का मुकदमा चले तो वो बाइज्ज़त बरी कर दिया जाए।

अब आते हैं फिल्म की बची-खुची कहानी पर। 1962 के दौरान भारत-चीन के बीच जंग में कुमाऊं के एक पहाड़ी गांव से भरत सिंह बिष्ट सेना में शामिल होकर लड़ने जाता है। उसका भाई, यानी सलमान खान, जो दिमाग से थोड़ा कमज़ोर है, अपने भाई के लौटने का इंतज़ार करता है। इस बीच एक चीनी मूल के मां-बेटे उसी गांव में रहने आ जाते हैं। सलमान को उनमें दुश्मन दिखते हैं, मगर ओम पुरी गांधी के पक्के चेले हैं, सो सलमान को चीनी दुश्मनमें भी दोस्त देखने पर यक़ीन करवाते हैं। यहां पर मुझे जितेंद्र की एक फिल्म हातिमताईयाद आती है, जिसमें राजकुमार हातिम सात सवालों की खोज में निकलता है और एक-एक सवाल को डीकोड करते हुए एक परी को मुक्त करता जाता है। यहां सलमान वो ट्यूबलाइटहातिम है और गांधी जी के वचन को डीकोड करता जाता है।

‘FAITH MOVES MOUNTAINS’ जैसी कहावत की बत्ती बनाती हुई सलमान की इस फिल्म में दिखाया गया है कि अगर कुंग फू वाले पोज़ में कोई पहाड़ों की तरफ घूर कर देखता रहे तो भूकंप भी ला सकता है। और तो और पूरब दिशा की तरफ इसी पोज़ में देखते रहने की वजह ही भारत-चीन की जंग भी ख़त्म हुई थी। यक़ीन न हो तो 1962 के दैनिक जागरण का कुमाऊं संस्करण देख लीजिए। मुझे यकीन है इसी दैनिक जागरण में ख़बर छपेगी कि एक दिन किसी हिंदू हृदय सम्राट ने सलमान वाले पोज़ में संसद की छत पर खड़े होकर भारत को हिंदू राष्ट्र घोषित कर दिया है।

सलमान खान जब फिल्म के अंत में एक भावुक सीन में रोते हैं तो इस नादान दर्शक को भी रोना आता है। मगर वो खुशी के आंसू हैं कि जैसे-तैसे ये फिल्म ख़त्म तो हुई। मुझे यक़ीन है कि इसी फिल्म में काम करने की वजह से ओम पुरी को दिल का दौरा पड़ा और वो फिल्मी ही नहीं पूरी दुनिया को छोड़ गए।

अंत में मैं उस प्रोमोकोड का शुक्रिया अदा करना चाहता हूं जिसकी वजह से इस फिल्म को देखने के लिए कम पैसे देने पड़े। 

निखिल आनंद गिरि

शुक्रवार, 2 अक्तूबर 2015

अच्छे दिनों की कविता

गांधी सिर्फ एक नाम नहीं थे,
जिनके नाम पर तीन बंदर हुए
या बहुत-से आंदोलन

एक दौर थे जिसमे हुमारे दादा हुए

दादाजी कहते रहे हमेशा
'गांधीजी ने ये किया वो किया
उनकी मौत पर नहीं जला चूल्हा पूरे गाँव में
कोई औरत भेस बदलकर बचाती रही भगत सिंह को'

या फिर पिताजी को ही ले लीजिये
वो सुनाते हैं जब अपने दौर के बारे में
तो कई अच्छी बातें हैं बताने को
जैसे जब बारिश होती थी हुमचकर
उनके समय में
तो हेलीकाप्टर से खाना आता था उनके लिए
महामारी में मरते थे बच्चे
तो सरकार एक भरोसे का नाम थी।

जैसे नेहरू के भाषणों में पुलिस नहीं होती थी
या फिर इन्दिरा गांधी हाथी पर सवार होकर चलती थीं कभी कभी
घरों में चोरियाँ कम थीं
या फिर किसी ने बकरी चुरा भी ली
तो दो दिन दूह कर
लौटा आता था बकरी ।

सबके अपने अपने दौर थे
जैसे एक हमारा भी
जिस पर लिखी जा सकती है एक मुकम्मल कविता
जैसे जब जन्म हुआ मेरा
तो पुलिस वाले
दौड़ा-दौड़ा कर मारते थे सिखों को
और इन्दिरा गांधी की हत्या उनके घर में ही हुई
जैसा कि बी बी सी ने बताया

जब किताबों का दौर आया तो
धनंजय चटर्जी को सरेआम फांसी हुई
एक स्कूली लड़की से बलात्कार के जुर्म में
गांधी हमारे दौर की किताबों में नहीं
नोटों पर थे
और औरतें मदद करना तो दूर,
मदद मांग भी नहीं सकती किसी मर्द से।

इस तरह जितना बड़े हुए
जोड़ी जा सकती है एक और बुरे दिन की तारीख
कहीं बारिश नहीं होती ऐसी
कि डूबकर लिखी जा सके कविता
जैसे टैगोर लिखते रहे बारिश के दिनों में।

जितना बदलना था बदल चुका समय
अब सिर्फ़ होता है क्रूर
जिसमें परछाईं भी भरोसे के लायक नहीं।

निखिल आनंद गिरि

गुरुवार, 2 अक्तूबर 2014

गांधी जी के नाम पर

हाथी घोड़ा पालकी
जय जय मोहन'लाल' की

गांधी जी गुजरात में
मोदी की हर बात में

गांधी जी अमरीका
मोदी के आगे फीका

गांधी जी के चेले,
नोट-लोट कर खेले

गांधी जी की लाठी
गुंडों की सहपाठी

गांधी जी की झाड़ू
झूमे पीकर दारू

गांधी जी की खादी
पहिने सब फ़सादी

सत्य अहिंसा नारा
मुल्क चीख कर हारा

गांधी जी के बंदर
घोटाले में अंदर

गांधी जी के नाम पर
छोड़ तमाशा काम कर

हाथी घोड़ा पालकी
जय जय मोहन'लाल' की

निखिल आनंद गिरि

मंगलवार, 22 जुलाई 2014

मजबूरी का नाम प्रभाष जोशी

एक थे प्रभाष जोशी और एक है प्रभाष परंपरा न्यास। इन्हीं के सौजन्य से राजघाट के पास गांधी स्मृति परिसर में वरिष्ठ पत्रकार प्रभाष जोशी की याद में सालाना आयोजन होता है। इस बार भी हुआ। कार्यक्रम के लिए निमंत्रण भेजने वाले सज्जन ने आखिर में ये भी लिख दिया था कि डिनर की भी व्यवस्था है। उन्हें डर रहा होगा कि आजकल बिना खाने-पीने के कौन गांधी टाइप सीधे-सादे कार्यक्रमों में जाता है। प्रभाष जोशी एक बड़े पत्रकार थे। उनके नाम पर हर तरह के लोगों को जुटते देखना अच्छा लगता है। नामवर सिंह से लेकर राजनाथ सिंह तक। सोचता हूं कितने पत्रकार ऐसे बचे हैं, जिनके जाने के बाद बाघ-बकरी जैसे लोग एक ही सभा में इकट्ठा होने को समय निकाल पायेंगे।  

डेढ़ घंटे की देरी से कार्यक्रम इसीलिए शुरु हुआ कि राजनाथ सिंह नहीं पहुंचे थे। गांधी के सत्याग्रह मंडप में हर आदमी गांधी से बड़ा लग रहा था। सब सलाम-दुआ में ही व्यस्त थे। एक-दूसरे को  बड़ा बनाने में। कुर्सी पर बिठाने में। जान-पहचान निकालने-बढ़ाने में। ज़िंदगी भर मीडिया के भीतर-बाहर की बुराइयों पर लिखते रहने वाले प्रभाष जी की सभा में मंच पर सबसे आगे इंडिया टीवी का भी माइक था जहां एक एंकर को बड़े लोगों के पास जानेको इतनी बार उकसाया गया कि उसे आत्महत्या की कोशिश करनी पड़ी।

सभा में डिनर के अलावा सबसे असरदार रहा वरिष्ठ पत्रकार बीजी वर्गीज का संबोधन। उनके बारे में अब तक सिर्फ किताबों में पढ़ा था। हिंदी के पत्रकारों और तमाम वक्ताओं को उनसे सीखना चाहिए कि समय-सीमा में बोलना भी कला होती है। साढ़े चार पन्नों का लिखा हुआ भाषण जिसमें एक शब्द भी फालतू का नहीं। कह के लेने वाला अंदाज़। तीस मिनट में ही तीन सौ सालों के मीडिया के बदलते माहौल पर सब कुछ कह डाला। आरुषि से लेकर वैदिक तक। प्रेस कमीशन की ज़रूरत से लेकर रेडियो की हालत तक। हिंदी वाले तो भाषण कंबोडिया पर बात शुरू करते हुए कंब ऋषि तक पहुंच जाते हैं। राजनाथ सिंह को तो छोड़िए, पता नहीं नामवर सिंह को इस कार्यक्रम में क्यूं बुलाया गया था जब उन्हें सिर्फ तुलसीदास की चौपाई सुनाकर ही बात ख़त्म करनी थी। इससे बढ़िया तो रामबहादुर राय ही अपनी बात थोडा विस्तार से रखते।

कई बार सोचता हूं कि देश भर में जो सभाएं, गोष्ठियां, सेमिनार वगैरह होते हैं उसमें काम की कितनी बातें निकलकर आ पाती होंगी। काम की बातें आ भी जाती हों तो कितने लोग अमल करते हैं। जिनके लिए बातें होती हैं, उनमें से कितने लोगों तक ये पहुंच पाती हैं। जो लोग जुटते हैं, उसमें कितने लोगों का मकसद सचमुच सभा में शामिल होना होता है। कहना मुश्किल है।
क्या ऐसी सभाएं बड़े स्तर पर नहीं हो सकतीं जिसमें सिर्फ छोटे लोग आए हों। क्या प्रभाष जोशी की पहचान सिर्फ बड़े नेताओं या लोगों से ही थी। आम लोगों के बीच रहकर उन्होंने जो रिपोर्टिंग की, उन्हें बुलाकर मंच पर सबसे आगे क्यों नहीं बिठाया जाता। उन्हें ख़ास तौर पर डिनर के लिए क्यों नहीं निमंत्रण भेजा जाता।

तरह-तरह के पत्रकार इस कार्यक्रम में मौजूद थे। ख़बरों की दलाली के नाम पर नौ हजार चूहे खाकर शायद हज करने पहुंचे थे। इन जैसे नकली चेलों से ये पूछा जाना चाहिए कि अपने-अपने चैनल का कौन सा स्पेशल शो ड्रॉप करके इस कार्यक्रम की रिपोर्ट दिखाई गई। कितने मिनट दिखाई गई। सिर्फ माइक ही दिखाने को रखा था या कैमरे के साथ जोड़ा भी था। इस कार्यक्रम की बातें सुनकर कितने लोगों ने अपने चैनल में अनाप-शनाप चलाना बंद कर दिया। नहीं किया तो इन सभाओं में जुटकर क्या मिल जाता है।


सबसे बुरा होता है परंपरा के नाम पर किसी की याद को ढोते रहना। जैसे अध्यक्ष के तौर पर कोई बूढ़ा आदमी ढोया जाता है। जैसे ख़बरों के नाम पर अफवाहें और दुनिया भर का कूड़ा ढोया जाता है।

निखिल आनंद गिरि 

रविवार, 4 नवंबर 2012

एक डरे हुए आदमी का शब्दकोष

मेरा परिचय एक ऐसे आदमी से है,
जिसकी प्रेमिका मेज़ पर पड़ा ग्लोब घुमाती है
तो वो भूकंप के डर से
भागता है बाहर की ओर
पसीने से तरबतर,

बाहर खुले मैदान नहीं है...
बाहर लालची जेबें हैं लोगों की
जेब में ज़बान है और मुंह में पिस्तौलें...
बाहर कहीं आग नहीं है
मगर बहुत सारा धुंआ है..
गाड़ियों का बहुत सारा शोर है
जैसे पूरा शहर कोई मौत का कुंआ है...

मेरा परिचय एक ऐसे आदमी से है
जो शहर में अपनी पहचान बताने से डरता है
और गांव में अब कोई पहचानता नहीं है....
सिर्फ इसीलिए बचा हुआ है वह आदमी
कि नहीं हुए धमाके समय पर इस साल...
कि कुछ दिन और मिले प्यार करने को...
कुछ दिन और भूख सताएगी अभी...

उसने हाथ से ही उखाड़ लिया है
दाईं ओर का आखिरी दुखता दांत
सही समय पर दफ्तर पहुंचना मजबूरी है
और दानव डाक्टर की फीस से बचना भी ज़रूरी है....
दुखे तो दुखे थोड़ी देर आत्मा...
बहे तो बहे थोड़ी देर खून....
अपरिचित नहीं है ख़ून का रंग

अभी कल ही तो कूदा था एक स्टंटमैन
पंद्रह हज़ार करोड़ में बने एक मॉल से...
और उसकी लाश ही वापस आई थी ज़मीन पर...
पंद्रह हज़ार के गद्दे बिछे होते ज़मीन पर
तो एक स्टंटमैन बचाया जा सकता था...
मगर छोड़िए, इस बेतुकी बहस को
कविता में जगह देने से
शिल्प बिगड़ने का ख़तरा है...

तो सुनिए, इस बुरे समय में...
एक डरे हुए आदमी के शब्दकोष में
लोकतंत्र किसी दूसरी ग्रह का शब्द है...
तो सुनिए, इस बुरे समय में...
एक डरे हुए आदमी के शब्दकोष में
लोकतंत्र किसी दूसरी ग्रह का शब्द है...
जिसका अर्थ किसी हिंदू हिटलर की मूंछ है....
और उसके दांतों से वही महफूज़ है...
जिसके शरीर पर जनेऊ है
और पीछे एक वफादार पूंछ है...

डरा हुआ आदमी सड़क पर देखता सब है
कह पाता कुछ भी नहीं शोर में
सड़क पर जल उठी लाल बत्ती
एक भूखा, मासूम हाथ
काले शीशे के भीतर घुसा
भीतर बैठे कुत्ते ने काट खाया हाथ
कब कैसे पेश आना है
ख़ूब समझते हैं एलिट कुत्ते

एक डरे हुए आदमी के शब्दकोश में
गांव सिर्फ इसीलिए सुरक्षित है
कि वहां अब भी लाल बत्ती नहीं है
दरअसल उस डरे हुए आदमी की ज़िंदगी
भिखारी की फटी हुई जेब है
ख़ाली हो रहे हैं दिन-हफ्ते
और भरे जाने का फरेब है...

एक डरे हुए आदमी की ज़िंदगी
उस आदिवासी औरत के पेट में
पल रहे बच्चे का पहला रुदन है...
जो गांव की सब ज़मीन बेचकर
पालकी में लादकर
उबड़-खाबड़ रास्तों से लाया गया
शहर के इमरजेंसी वार्ड में
जिसने एक बोझिल जन्म लेकर आंखे खोलीं
ख़ूब रोया और मर गया....
उस डरे हुए आदमी के दरवाज़े पर
हर घड़ी दस्तक देता बुरा समय है
जो दरवाज़ा खुलते ही पूछेगा
उसी भाषा, गांव और जाति का नाम
फिर छीन लेगा पोटली में बंधा चूरा-सत्तू
और गोलियों से छलनी कर देगा...

इस बुरे समय की सबसे अच्छी बात ये है कि
एक डरा हुआ आदमी अब भी
सुंदर कविता लिखना चाहता है...

निखिल आनंद गिरि
(यह कविता पाखी के अक्टूबर-नवंबर अंक में छपी है। इसके साथ ही एक और कविता  ''लिपटकर रोने की सख्त मनाही है'' को भी पत्रिका में जगह मिली है।)

रविवार, 22 जनवरी 2012

पांड़े जी की प्रेमकथा और गांधी जी से सहानुभूति

कुछ लोग कहते हैं कि घर चलाना देश चलाने से भी ज़्यादा मुश्किल है। देश में आजकल कुछ भी अच्छा चल नहीं रहा। मां घर बहुत अच्छा चला लेती है। अगर मेरी मां के पास डिग्रियां होतीं तो वो शायद देश की राष्ट्रपति भी बन सकती थीं। अगर स्कूल में बच्चे बढ़ने लगें तो टीचर बढ़ा दिए जाते हैं। ज़्यादा टीचर ही नहीं, क्लास के भीतर भी दो-तीन मॉनिटर होते हैं। फिर देश तो इतना बड़ा है। जब मुल्क की आबादी तीस करोड़ थी तब भी देश में एक ही प्रधानमंत्री था। अब जब आबादी चार गुना बढ़ी है तो प्रधानमंत्री चार क्यों नहीं हुए। इतने बड़े देश में क्या आपको एक प्रधानमंत्री एक-चौथाई प्रधानमंत्री की तरह नहीं लगता। आप इसे किसी पार्टी के खिलाफ या पक्ष में चुनाव प्रचार का हिस्सा मत समझिए। इससे पहले कि चुनाव आयोग कोई कार्रवाई करे, मैं हाथ को दस्ताने से ढंककर घूमता हूं। भला हो दिल्ली की इस सर्दी का। वैसे, मेरा विचार है कि हाथी-बैल की मूर्तियां ढंकने से अच्छा, गांधीजी की ही मूर्तियां ढंक दी जाएं। सब प्रचार-दुष्प्रचार तो उन्हीं के नाम पर होता है और इतनी ठंड में भी उघाड़े बदन खड़े रहते हैं चौक-चौराहे पर।


मेरे एक दोस्त हैं। पांड़े जी। बड़े उदास, अकेले और अलग-थलग रहने वाले इंसान। इंटरनेट की दुनिया से कोसों दूर थे। हमने एक दिन चिकेन के लालच में उनके यहां वक्त गुज़ारा और फेसबुक का नया नया चस्का लगा दिया। तीन दिन बाद पूछा कि कैसे हैं पांड़े जी। तो बोले कि भाई आप महान हैं। इतने सारे दोस्त मिल गए हैं कि और कुछ सोचने का टाइम ही नहीं बचता। फिर शरमाते हुए बोले कि एक कन्या भी मिल गईं हैं फेसबुक पर। बस बात बढी ही है। मैंने कहा, मिल भी आइए। बोले, नहीं मिलने का कोई चांस नहीं। पासपोर्ट बनाना होगा। दो दिन बाद फिर फोन किया तो पता चला पासपोर्ट ऑफिस के पास खड़े हैं। फटाफट पासपोर्ट वाला जुगाड़ ढूंढ रहे हैं। सात दिन में पासपोर्ट हाथ में और फिर विदेश। हमने कहा कि विदेश जाने से पहले हमारे नाम पर एक मुर्गी की कुर्बानी तो बनती है। संडे को मुर्गी खाने पहुंचे तो देखा न मुर्गी है न पांड़े जी का रोमांटिक मूड। हमने पूछा क्या हुआ तो बोले कि अरे यार, ई फेसबुक अकाउंट डिलीट कर दीजिए हमारा। साला, बहुत गड़बड़ चीज़ है। एक हफ्ता टाइम बरबाद हो गया। जैसे ही प्रोपोज किए, ब्लॉक कर दिया हमको। हद्द है, बताइए, हम कोई ऐसा-वैसा आदमी हैं क्या। अगर कोई और है तो बता देती। हमको रोज़ चैट पर एतना टाइम क्यों देती थी। चूंकि पांड़े जी मुर्गी अच्छी पकाते थे, तो हमने उनका हौसला बढ़ाया और कहा, ‘’पांड़े जी, फेसबुक के आगे जहां और भी है...’’..

बहरहाल, पांड़े जी ने ठान लिया है कि अब इस फेसबुक पर अपनी प्रेम कथा की हैप्पी एंडिंग ढूंढ कर ही रहेंगे। हिंदुस्तान न सही, पाकिस्तान में ही सही। फेसबुक पर क्या पंडित, क्या मौलवी, सब एक ही स्टेटस के चट्टे-बट्टे हैं। यूं भी इस देश में धर्मनिरपेक्षता का आलम ये है कि 22 कैरेट पंडित के घर में भी बच्चे सलमान, आमिर या शाहरुख ख़ान बनने का सपना देखते हैं और मांएं फिर भी खुश होती हैं।

निखिल आनंद गिरि

रविवार, 30 जनवरी 2011

ये प्रेम त्रिकोणों का शहर है...

यहां दिल्ली पुलिस आपकी सेवा में सदैव तत्पर है...
प्यार ढूंढना हो तो कहीं और जाएं

जब तुम्हारे होंठ छुए, तो मालूम हुआ...
ये प्रेम त्रिकोणों का शहर है....
और उदास रौशनी का
जहां दाईं और बाईं ओर सिर्फ लड़ाईयां हैं
और बीच में हैं फ्लाईओवर.....

हम अपनी रीढ़ तले सख्त ज़मीन रखकर सोते हैं...
और आप मेरी कविताओं में रुई ढूंढते हैं...
इतनी खुशफहमी कहां से खरीद कर लाए हैं...
आप कह सकते हैं शर्तियां...
मैं किसी ऐसी बीमारी से मरूंगा...
जिसमें सीधी रीढ़ लाइलाज हो जाती है...

हमें ठीक तरह से याद है....
आधे दाम पर बेची गईं थी स्कूल की किताबें....
जिनमें लिखा था तीसरे पन्ने पर-
'चाहता हूं देश की धरती तुझे कुछ और भी दूं...'

चाहता हूं कि चुरा लूं सब तालियां,
जब वो भाषण दे रहे होंगे भीड़ में
नोंच लूं उनकी आंखों से नींद,
ताकि खूंखार सपने न देख पाएं कभी...

काश! किताबों में एकाध पन्ने जुड़ जाते चाहने भर से,
जैसे आ से आंदोलन, क से क्रांति...
जैसे ज़िंदा रहने के लिए ऑक्सीजन या दिल नहीं,
दुम ज़रूरी है....
और प्यार करने के लिए कंडोम.....

फाड़ दीजिए धर्म-शिक्षा के तमाम पन्ने...
कि सांसों के भी रंग होते हैं अब...
ये 1948 नहीं कि मरते वक्त
हे राम ! कहने की आज़ादी हो....

निखिल आनंद गिरि

शनिवार, 2 अक्तूबर 2010

चौंक तेरे इस देश की हालत क्या हो गई बापू....

गांधी जी के लिए ये निर्देश नोएडा ऑथोरिटी ने लगवाया है....अब अयोध्या से लेकर कॉमनवेल्थ तक देश में इतना कुछ घट रहा है....तो गांधी जी और कर भी क्या सकते हैं चौंकने के सिवा....फ्लाईओवर देखकर भी चौंक जाएंगे बापू....उनके ज़माने में तो इतना भी नहीं था...हैप्पी बर्थडे बापू...

निखिल आनंद गिरि

ये पोस्ट कुछ ख़ास है

मृत्यु की याद में

कोमल उंगलियों में बेजान उंगलियां उलझी थीं जीवन वृक्ष पर आखिरी पत्ती की तरह  लटकी थी देह उधर लुढ़क गई। मृत्यु को नज़दीक से देखा उसने एक शरीर ...

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