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मंगलवार, 26 अक्तूबर 2010

लड़के सिर्फ जंगली...

क्या ऐसा नहीं हो सकता,

कि हम रोते रहें रात भर

और चांद आंसूओं में बह जाए,

नाव हो जाए, कागज़ की...

एक सपना जिसमें गांव हो,

गांव की सबसे अकेली औरत

पीती हो बीड़ी, प्रेमिका हो जाए....

मेरे हाथ इतने लंबे हों कि,

बुझा सकूं सूरज पल भर के लिए,

और मां जिस कोने में रखती थी अचार...

वहां पहुंचे, स्वाद हो जाएं....

गर्म तवे पर रोटियों की जगह पके,

महान होते बुद्धिजीवियों से सामना होने का डर

जलता रहे, जल जाए समय

हम बेवकूफ घोषित हो जाएं...

एक मौसम खुले बांहों में,

और छोड़ जाए इंद्रधनुष....

दर्द के सात रंग,

नज़्म हो जाए...

लड़कियां बारिश हो जाएं...

चांद हो जाएं, गुलकंद हो जाएं,

नरम अल्फाज़ हो जाएं....

और मीठे सपने....

लड़के सिर्फ जंगली....

निखिल आनंद गिरि

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