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बुधवार, 13 दिसंबर 2023

पटना पुस्तक मेला - कवियों से पटी हुई भू है, पहचान कहां इसमें तू है!


दिल्ली में जगह जगह पर सस्ती किताबों के ठेले लगते हैं। सौ से अधिक लोग तो किसी ख़ाली दिन किताबें पलटने के लिए जुटे ही रहते हैं। आम तौर पर इन सस्ती जगहों पर भी अंग्रेज़ी की किताबें महंगी मिलती हैं। हिंदी की या तो नहीं मिलती या बेहद कम दाम में मिलती हैं। मैंने कई पुराने हिंदी उपन्यास इन्हीं सस्ते मेलों से खरीदे हैं।
पटना के गांधी मैदान में दिसंबर के पहले हफ्ते में लगने वाले सालाना पुस्तक मेले में पहली बार जाना हुआ। लोग उतने ही थे जितना दिल्ली वाले सस्ते ठेलों पर जुटते थे। सोशल मीडिया पर प्रचार ज़्यादा था।
कई साल बाद बिहार लौटने पर बिहार की स्मृति अब भी 16 साल पुरानी ही बनी हुई थी।  अख़बार को चाट चाट कर पढ़ने वाले लोग, एक एक पन्ना बांट बांट कर सामूहिक पाठ की कंजूस आदत वाला मेरा राज्य। पुस्तक मेले में 20 रुपए का प्रवेश टिकट लेकर घुसना थोड़ा आधुनिक महसूस करवा रहा था। वो भी तब जब मुझे मेले के एक मंच से कविता पाठ के लिए आमंत्रित किया गया था।  मुझे लगा चलो सबके लिए ये बराबरी अच्छी ही है।
अंदर पहुंचकर मित्र आयोजकों ने टिकट लेकर मेरे अंदर आने पर अफ़सोस ज़ाहिर किया। 
20 रुपए इतने भी नहीं होते कि मैं उसके ना मिलने पर नाराज़ हो जाऊं या किसी साथी को फोन करूं। जुगाड़ वाले लोग मेले में सिर्फ आत्माओं की तरह भटकते हैं, चवन्नी की किताबें भी नहीं खरीदते; ये निजी अनुभवों से कह रहा हूं।
किताबें खरीदने के लिए बहुत ज़्यादा विकल्प थे भी नहीं। वाणी, राजकमल, सेतु और प्रभात वगैरह को छोड़ दें तो मोमो चाट के स्टॉल बराबर कुछ किताब की दुकानें और थीं बस।
पटना पुस्तक मेला ठंड में एकदम सिकुड़ा हुआ था। पटना की जगह पूर्णिया या फारबिसगंज में होता तो भी इससे बड़ा होता।
तिस पर एक और मेला गांधी मैदान में ही लगा हुआ था "मेरी कमीज़ उसकी कमीज़ से सफ़ेद" वाली तर्ज़ पर। कौन असली मेला है, कौन नकली, गब्बर सिंह को कुछ पता नहीं।
कार्यक्रमों के आयोजन ठीक थे मगर टाइमिंग इतनी ख़राब थी कि दो दो कविता पाठ अलग अलग मंचों से एक ही समय में शुरू होते थे। श्रोता वही, कवि वही तो कार्यक्रम दो जगह क्यों!
शारदा सिन्हा के साथ फ़ैज़ की कविताओं को भिड़ा दिया गया तो न शारदा सिन्हा को सुन पाए न फैज़ को बिना शोर के सुना पाए।
इस तरह की कई कमियों के बावजूद पटना पुस्तक मेले में जाना सुखद रहा। नए कवि मित्र बने। पटना शहर में कवियों की आबादी दिल्ली शहर से अधिक है, ये मेरी कविगणना में मालूम पड़ा। 
अब मेला खत्म हो चुका है। गांधी मैदान में अब फिर से गांधी की मूर्ति के नीचे धड़धड़ रील्स बनेंगी। दिल को कुछ दिन तक मेला याद आयेगा फिर किसी अगले मेला की तरफ झुक जायेगा। यही संसार का नियम है।

निखिल आनंद गिरि

रविवार, 5 फ़रवरी 2017

लालकिला कवि सम्मेलन : वो कविताएं पढ़ती रहीं, हम सीटियां बजाते रहे


4 फरवरी को लालकिले पर आयोजित कवि सम्मेलन में इस बार दो वजहों से गया। एक तो ये कि मैं पिछले बारह सालों से दिल्ली में रहते हुए कभी लालकिला नहीं गया। दूसरा कि मेरे पुराने साथी अभिनव शाह से आखिरी बार जब क़रीब छह साल पहले मिला था तो वो कुंवारे थे और अब एक बच्चे के पिता हैं और ऐसा ही विकास मेरा भी हुआ है। ऐसे में इस तरह के कवि सम्मेलनों से अच्छी कोई जगह नहीं जहां घिसी-पिटी बातें सुनने से ज़्यादा अपनी बात करने के हज़ार मौक़े मिलते हैं।

एक ऐसा खचाखच भरा कवि सम्मेलन जिसे दूरदर्शन के ज़माने में टीवी पर देखकर लगता था कि शर्ट या कोट पर फूलों वाला गोल बैज लगाकर कविताएं पढ़ने वाले कवि ही आगे चलकर महान कहलाते होंगे। इस बार वहां पहुंचा तो पाया कि जितनी कुर्सियां भरी थीं, उससे ज़्यादा ख़ाली थीं। 8 बजे से तय कवि सम्मेलन का पहला डेढ़ घंटा फूल मालाएं देने, एक-दूसरे की पीठ खुजाने और मुख्यमंत्री, उप मुख्यमंत्री, उप-उप-मंत्री, गुपचुप मंत्री को सम्मानित करते ही बीता। कुमार विश्वास सिर्फ अतिथि के तौर पर बुलाए गए थे मगर अपनी आदत से बाज़ नहीं आए और कम से कम 15 मिनट कवियों का परिचय पढ़कर ख़राब किया। जिस दिल्ली हिंदी अकादमी ने इस सम्मेलन की मेज़बानी की थी उसकी उपाध्यक्ष मैत्रेयी पुष्पा को इस फालतू के डेढ़ घंटे में एक शब्द भी बोलने का मौक़ा नहीं मिला। इस बीच लालकिला और आसपास से लोग आते रहे और फूलों से लदे,पंजाब से लौटे आम आदमी पार्टी के मंत्री जाते रहे।
इसके बाद के डेढ़ घंटे में एक-एक कर जिस भी कवि को बुलाया गया उसने कविता के अलावा इतनी बातें कहीं जिन्हें पढ़-पढ़ कर हम सोशल मीडिया, व्हाट्स ऐप पर हज़ार बार हंस चुके हैं और इतनी ही बार फॉरवर्ड-म्यूट कर चुके हैं। कविता के नाम पर चार पंक्तियां, चार पंक्तियां कहते-कहते कवि इतना कुछ फालतू कहते रहे कि अफसोस हुआ कि ये सब नमूने हमारी बिरादरी के ही हैं। डियर राष्ट्रवादी-सांस्कृतिक चेतना के कवियों! भीड़ को बांधनेका मतलब रस्सी से बांधना थोड़े होता है। उसे कविताएं भी चाहिए। कोई संपत सरल, सुदीप भोला या कुंवर बेचैन जैसे ठीकठाक कवि बिठाकर 25 बुरे कवियों को दिल्ली के लालकिले से पेश करने का जो अपराध साल-दर-साल सरकारी खर्चे से हो रहा है, उसका पाप पता नहीं श्रोताओं के सर जाना चाहिए या प्रस्तोताओं के।

आम आदमी पार्टी के सबसे ख़ास आदमी केजरीवाल ने सम्मेलन के शुरू में कहा कि कवि हमारी पार्टी और मोदी जी की पार्टी को भर-भर के गालियां दे सकते हैं। ऐसा आदेश प्राप्त होते ही, चूंकि इस सम्मेलन का चेक दिल्ली सरकार से मिलना था, कवियों ने अपने बासी चुटकुले नोटबंदी, छप्पन इंच वगैरह पर ही सीमित रखे और दिल्ली सरकार को बेनिफिट ऑफ डाउटमिला। कुमार विश्वास से इस कदर विश्वास उठता जा रहा है कि वो केजरीवाल की तुलना लाल बहादुर शास्त्री से कर बैठे मगर फिर भी कोई आश्चर्य नहीं हुआ।

मंच संचालक रास बिहारी गौड़ साहब एक (अ)भूतपूर्व मंच संचालक कुमार विश्वास की मौजूदगी से इस कदर नर्वस और मर्द-बरबस दिखे कि एक महिला कवि के कुछ सेकेंड देर से माइक तक पहुंचने पर पूरे घटियापन से बोल गए कि माइक तक आने से पहले भी मेक-अप करना नहीं भूलतीं। महिला कवि ने माइक पर आने से पहले सबके सामने उन्हें ऐसे घूरा कि वो उनका संचालन अंत-अंत तक कुरूप और नीरस ही रहा होगा। बिहार से आए एक सांवले सज्जन शंभू शिखर अपने रंग-रूप पर कटाक्ष सुनकर इतने उत्साहित थे कि ज़ोर-ज़ोर से पानी का तुक वानी और निष्ठा का तुक विष्ठासे लगाकर तालियों की भीख मांगते रहे। जनता ने किसी भी कवि को इस मामले में निराश नहीं किया। राष्ट्रीय कवि सम्मेलन में आयी लालकिले की जनता ने महिला कवियों के ताली मांगने पर सीटियां भी बजाईं और जवान, पाकिस्तान, नौजवान जैसा कुछ भी सुनने पर उछल-उछल कर भारत माता की जय के नारे से पूरे चांदनी चौक की रात ख़राब की।

मुझे कवि सम्मेलनों से कोई चिढ़ नहीं है। मैं ख़ुद भी माइक पर कविताएं पढ़ने में बहुत भावुक महसूस करता हूं। लेकिन अगर आपको पिछले दस-बारह साल से इस तरह के मंचों पर एक ही धुन सुनने को मिले, बस गवैयों के चेहरे बदलते रहे तो चिढ़ होनी चाहिए। अगर आपको कुमार विश्वास की नर्सरी से निकले तमाम झाड़-झंखार, घास-फूस ही एक मंच पर लालकिले तक राष्ट्रीयसम्मान बटोरते कवियों की लिस्ट में दिखें तो गुस्सा भी आना चाहिए। कवि सम्मेलनों के आगे राष्ट्रीय लगा देने से कोई आयोजन महत्वपूर्ण नहीं हो सकता। तालियों और सीटियों के बीच कविताएं आखिरी मेट्रो पकड़कर घर भाग गई हैं। हो सके तो उन्हें पकड़िए। राष्ट्र हित में जारी।

आखिरी बात -
अगर दिल्ली की हिंदी अकादमी को लगता है कि रात के आठ बजे कोई कवि सम्मेलन शुरू करवाकर वो कविता को सबके लिए (महिलाओं, बच्चों के लिए भी) उपलब्ध करवा सकती है तो अभी दिल्ली दूर है। ऐसे कवि सम्मेलन में सिर्फ मैत्रेयी पुष्पा आ सकती हैं क्योंकि उन्हें उपाध्यक्ष होने की मजबूरी है, एक-दो महिला कवि आ सकती हैं क्योंकि उन्हें संचालक सरस्वती वंदना के लिए बुलाएगा। या फिर कुछ घरेलू महिलाएं जिन्हें आखिरी मेट्रो तक पति के साथ प्रोग्राम देखने की इजाज़त है।
इसके अलावा मर्द ही मर्द हैं राष्ट्रीय कवि सम्मेलन में।

निखिल आनंद गिरि

सोमवार, 16 जनवरी 2017

पुस्तक मेला हो तो दिल्ली में हो वरना नहीं हो

प्रगति मैदान मेट्रो स्टेशन से ही मुंह में भोंपू (लाउडस्पीकर) लगाकर सीआईएसएफ का जवान जब दाएं जाएं-बाएं जाएं करता है तो एहसास हो जाता है कि कितनी भीड़ होगी मेले में। नीचे उतरिए तो मेले के बाहर भी मेला। फुचके का, गुब्बारे का, मोबाइल कवर का, 80 प्रतिशत छूट वाली डिक्शनरी का। फिर भीतर सारे स्टॉल।

हिंदी के हॉल में मिलने वाले ज्यादा, ख़रीदने वाले कम। लिखने वाले ज़्यादा पढ़ने वाले कम। हिंदी वाले हॉल में किसी राजा बुकस्टॉल पर नज़र गई और वहां अंग्रेज़ी की किताबों पर मछली ख़रीदने जैसी भीड़ दिखी तो मन रुक गया - ‘अंग्रेज़ी की किताबें 100 रुपये, सौ-सौ रुपये। जो मर्ज़ी छांट लो।एक दुबला-सा लड़का एक स्टूल पर खड़ा होकर लोगों को बुलाए जा रहा था। लोग किताबें छांट रहे थे। जैसे पालिका मार्केट में लोअर छांटते हैं, लड़कियां जनपथ में ऊनी चादरें छांटती हैं।
मैंने धीरे से पूछा-हिंदी की किताबें?  तो उसी सुर में बोला – ‘’उधर। पच्चास रुपये, पच्चास रुपये।‘’ उधर नज़र गई तो एक तरफ सुख की खोजथी, एक तरफ कॉल गर्लऔर बीच में भगत सिंह की अमर गाथा’! सब पचास रुपये में। मैंने सोचा कि हिंदी की किताबों को सम्मान से रख तो लेते कम से कम। भगत सिंह के साथ कॉल गर्ल को बेच रहे हैं, वो भी अंग्रेज़ी से आधे दाम पर। शर्म आनी चाहिए। फिर आगे बढ़ा तो एक बाबा चिल्ला-चिल्ला कर सत्यार्थ प्रकाशबेच रहे थे। बोल रहे थे आधे घंटे में जीवन नहीं बदला तो पैसे वापसी की पूरी गारंटी। मैंने चुपके से रास्ता ही बदल लिया। सिर्फ स्टॉल ही नहीं पूरी हॉल ही छोड़ आया।
अंग्रेज़ी वाले हॉल में घुसा तो वहां पेंग्विन और नेशनल बुक ट्रस्ट पर भारी भीड़ थे। लोग वहीं बैठकर पूरी-पूरी किताब पढ़ रहे थे। मुझे बढ़िया आइडिया लगा। सात दिनों में कम से एक किताब तो पूरी की ही जा सकती है। साल में कम से कम एक किताब तो पढ़नी ही चाहिए। वहां भी ‘’किताबों का पालिका बाज़ार’’ लगा हुआ था। अंग्रेज़ी वाले नए पाठकों की भीड़ उस दुकान पर थी। बिना जाने-सुने-पहचाने लेखकों की सुंदर किताबें 100 रुपये में ख़रीदना अंग्रेज़ी वालों के लिए मोज़े ख़रीदने जैसा रहा होगा। हिंदी वाले तो इतना जेब में रखे-रखे नई हिंदी वाले स्टॉल पर चार दिन घूम आते हैं।
ज़्यादा नहीं लिखूंगा। आप बस तस्वीरों को देखकर फील कीजिए। दिल्ली की सबसे ख़ास बात ये है कि ये सबको बराबर दिखने-महसूस करने के पूरे मौके देती है। किताबों की इतनी दुकानों में आप सिर्फ घूम कर लौट आते हैं या एकाध किताबें ख़रीदते भी हैं, क्या फर्क पड़ता है। सबके साथ मेले में रहने का भरम अकेले लौटने से ही पूरा होता है। जैसे हम दुनिया से लौटते हैं एक दिन। 
निखिल आनंद गिरि

बुधवार, 12 दिसंबर 2012

''मज़ाक़'' की भी हद होती है, ज्ञानोदय !!

नवंबर 2012 का 'नया ज्ञानोदय' हाथ में है। इस अंक में जितेंद्र भाटिया ने नोबेल विजेता साहित्यकार मो यान की कहानी का अनुवाद किया है। कहानी इतनी बेहतरीन है कि अनुवाद की ख़बसूरती पर ध्यान बाद में जाता है। वर्तनी पर और बाद में। मगर 'नया ज्ञानोदय' में इतनी ज़्यादा अशुद्धियां हो तो सिर्फ कहानी पढ़कर संतुष्ट नहीं हुआ जा सकता। ऐसी पत्रिकाओं से उम्मीद रहती है कि वो भाषा का ज्ञान बढ़ाने में मदद करेंगी। मगर, नुक़्ते ने सारा खेल ख़राब किया है। या तो नुक़्ते लगाने ही नहीं थे और लगाने थे तो दोबारा फिल्टर किया जाना चाहिए था।

अब कहानी का शीर्षक ही देखिए। मज़ाक की भी हद होती है, शिफू! जब 'ज़' वाला एक नुक्ता लग सकता है तो  'क' को तो अफसोस रह ही जाएगा ना। और फिर दो नुक़्ते लगा देने में कितनी रोशनाई ही ख़र्च हो जाती। नुक़्ते को लेकर ऐसी ग़लतियां इस लंबी कहानी में कई जगह है।
उसे काम मिला एक कारख़ाने में, जहां देखा जाए तो उसकी 'जिन्दगी' किसी किसान से बुरी नहीं थी। इस 'ख़ुशक़िस्मती' के लिए डिंग अपने समाज का शुकग्रुज़ार था...(पेज 22)
अगर ख़ुशक़िस्मती में सही-सही नुक़्ते लग सकते हैं, तो 'ज़िंदगी' से नुक़्ता क्यों ग़ायब है?

इसी पन्ने पर 'फ़ौज़ी' शब्द में एक नुक़्ता बेवजह डाल दिया गया है। नुक़्ता प्रयोग न करना भूल है, मगर ग़लत जगह नुक़्ता लगा देना अपराध की तरह है।
भीड़ के समूचे शोर के बीच अंडे देते वक़्त 'मुर्गियों' की कुड़कुड़ाहट की तरह कुछ औरतों के स्वर साफ़ सुने जा सकते थे। (पेज 23)
जब नुक़्ता लगाना ही है तो 'मुर्ग़ियां' भी इसकी हक़दार हैं। और अगले पैरा में 'कारख़ाना' भी।
छंटनी की पहली ख़बरों के फैलते ही वह 'कारखाने' के मैनेजर से मिलने गया था।
इसी पेज पर एक और लाइन है - 'उसी वक़्त एक सफ़ेद रंग की आधुनिक चिरोकी जीप हॉर्न बजाती हुई गेट के भीतर 'दाखिल' हुई'। यहां भी जीप को नुक़्ते के साथ 'दाख़िल' होना चाहिए था। ख़ैर...

पूरी क़िताब की बात ही छोड़ दीजिए, 21 पन्नों की इस लंबी और अनोखी कहानी में ही नुक़्ते से जुड़ी सैकड़ों ग़लतियां हैं। ध्यान दिलाना मुझे इस लिए ज़रूरी लगा क्योंकि मैंने इस क़िताब को राजधानी दिल्ली के सबसे मशहूर बुद्धिजीवियों से लेकर गांव के रेलवे स्टेशनों तक बिकते देखा है। सो, इसमें छपा हर शब्द भाषा की हर कसौटी पर माप-तौल कर बाहर आना चाहिए। वरना एक से बढ़कर एक पत्रिकाएं बिना किसी बड़े बैनर के भी शुद्ध वर्तनी के साथ छप-बिक रही हैं। यूं भी हिंदी में उर्दू और फ़ारसी के शब्दों के इस्तेमाल को लेकर कन्फ्यूज़न बहुत ज़्यादा है। अगर कन्फ्यूज़न दूर न किया जा सके तो बेहतर हो कि नुक़्ते लगाए ही न जाएं। कम से कम ग़लत जगह तो न ही लगाएं जाएं।

'नतीज़तन' (पेज 26), 'ख़ुशफहम' (पेज 28) , 'शिनाख्त' , 'फैक्टरी', 'मुसाफिरों', 'हरफनमौला', 'सख्त' (सभी पेज 29), 'तफरीह', 'तूफान', 'ज़ायकेदार' (सभी पेज 30), 'क़रतब', 'दिलक़श', 'फिकरे' (पेज 32), 'अक्स', 'ख़ुशमिजाज़ी'  सिर्फ टाइपिंग की ग़लतियां नहीं कही जा सकतीं। और अगर सिर्फ टाइपिंग की ग़लतियां भी है तो मेरा ख़याल है टाइपराइटर बदल  देना चाहिए।

माथे की बिंदी बाथरूम की दीवार पर चिपकी दिखे, तो न माथा ख़ूबसूरत दिखता है और न ही दीवार।

(लेखक ने हिंदी की क़िताबी पढ़ाई आठवीं में ही छोड़ दी थी। इसीलिए हिंदी को बेहतर करने के लिए ऐसी ही दो-चार क़िताबों का सहारा है। भावनाओं को समझिए।)

निखिल आनंद गिरि

रविवार, 13 मई 2012

गौरव सोलंकी को गुस्सा क्यों आता है ?

गौरव सोलंकी को तब से जानता हूं, जब वो सिर्फ एक इंजीनियर थे। सिर्फ एक कवि थे! लोकप्रिय बाद में हुए। और कहानीकार उसके भी बाद हुए। हिंदी सेवा के नाम पर कमाने-खाने वाली एक वेबसाइट 'हिंदयुग्म' के स्वघोषित ''सीईओ'' शैलेश के साथ गौरव और मैं लंबे वक्त तक साथ रहे। आज गौरव का नाम हिंदी साहित्य के चर्चित युवा साहित्यकारों में शुमार है। हिंदी साहित्य और सिनेमा के  प्रति उनकी ईमानदारी समझने के लिए इतना बताना ही काफी है कि आईआईटी से पढ़ाई पूरी करने के बाद उन्होंने अपने जुनून को समय देने के लिए एक 'अच्छी-खासी' नौकरी से तौबा कर ली। मगर हिंदी साहित्य के मठों ने उन्हें क्या दिया, ये इस लेख को पढ़कर समझिए। ये भारतीय ज्ञानपीठ को लिखा गया 
एक पत्र है, जिसे गौरव सोलंकी ने लिखा है। 
इस ख़त के गुस्से में मुझे भी शामिल समझिए।

आदरणीय ...... ,
भारतीय ज्ञानपीठ
खाली स्थान इसलिए कि मैं नहीं जानता कि भारतीय ज्ञानपीठ में इतना ज़िम्मेदार कौन है जिसे पत्र में सम्बोधित किया जा सके और जो जवाब देने की ज़हमत उठाए. पिछले तीन महीनों में मैंने इस खाली स्थान में कई बार निदेशक श्री रवीन्द्र कालिया का नाम भी लिखा और ट्रस्टी श्री आलोक जैन का भी, लेकिन नतीजा वही. ढाक का एक भी पात नहीं. मेरे यहां सन्नाटा और शायद आपके यहां अट्टहास.
खैर, कहानी यह जो आपसे बेहतर कौन जानता होगा लेकिन फिर भी दोहरा रहा हूं ताकि सनद रहे.
पिछले साल मुझे मेरी कविता की किताब ‘सौ साल फिदा’ के लिए भारतीय ज्ञानपीठ ने नवलेखन पुरस्कार देने की घोषणा की थी और उसी ज्यूरी ने सिफारिश की थी कि मेरी कहानी की किताब ‘सूरज कितना कम’ भी छापी जाए. जून, 2011 में हुई उस घोषणा से करीब नौ-दस महीने पहले से मेरी कहानी की किताब की पांडुलिपि आपके पास थी, जो पहले एक बार ‘अज्ञात’ कारणों से गुम हो गई थी और ऐन वक्त पर किसी तरह पता चलने पर मैंने फिर जमा की थी.
मां-बहन को कम से कम यह तो खुद तय करने दीजिए कि वे क्या पढ़ें या क्या नहीं. उन्हें आपके इस उपकार की ज़रूरत नहीं है. उन्हें उनके हाल पर छोड़ दीजिए. उन्हें यह 'अश्लीलता' पढ़ने दीजिए कि कैसे एक कहानी की नायिका अपना बलात्कार करने वाले पिता को मार डालती है. लेकिन मैं जानता हूं कि इसी से आप डरते हैं
ख़ैर, मार्च में कविता की किताब छपी और उसके साथ बाकी पांच लेखकों की पांच किताबें भी छपीं, जिन्हें पुरस्कार मिले थे या ज्यूरी ने संस्तुत किया था. सातवीं किताब यानी मेरा कहानी-संग्रह हर तरह से तैयार था और उसे नहीं छापा गया. कारण कोई नहीं. पन्द्रह दिन तक मैं लगातार फ़ोन करता हूं और आपके दफ़्तर में किसी को नहीं मालूम कि वह किताब क्यों नहीं छपी. आखिर पन्द्रह दिन बाद रवीन्द्र कालिया और प्रकाशन अधिकारी गुलाबचन्द्र जैन कहते हैं कि उसमें कुछ अश्लील है. मैं पूछता हूं कि क्या, तो दोनों कहते हैं कि हमें नहीं मालूम. फिर एक दिन गुलाबचन्द्र जैन कहते हैं कि किताब वापस ले लीजिए, यहां नहीं छप पाएगी. मैं हैरान. दो साल पांडुलिपि रखने और ज्यूरी द्वारा चुने जाने के बाद अचानक यह क्यों? मैं कालिया जी को ईमेल लिखता हूं. वे जवाब में फ़ोन करते हैं और कहते हैं कि चिंता की कोई बात नहीं है, बस एक कहानी 'ग्यारहवीं ए के लड़के' की कुछ लाइनें ज्ञानपीठ की मर्यादा के अनुकूल नहीं है. ठीक है, आपकी मर्यादा तो आप ही तय करेंगे, इसलिए मैं कहता हूं कि मैं उस कहानी को फ़िलहाल इस संग्रह से हटाने को तैयार हूं. वे कहते हैं कि फिर किताब छप जाएगी.
लेकिन रहस्यमयी ढंग से फिर भी ‘कभी हां कभी ना कभी चुप्पी’ का यह बेवजह का चक्र चलता रहता है और आख़िर 30 मार्च को फ़ोन पर कालिया जी कहते हैं कि ज्ञानपीठ के ट्रस्टी आलोक जैन मेरे सामने बैठे हैं और यहां तुम्हारे लिए माहौल बहुत शत्रुतापूर्ण हो गया है, इसलिए मुझे तुम्हें बता देना चाहिए कि तुम्हारी कहानी की किताब नहीं छप पाएगी. मैं हैरान हूं. 'शत्रुतापूर्ण' एक खतरनाक शब्द है और तब और भी खतरनाक, जब 'देश की सबसे बड़ी साहित्यिक संस्था' का मुखिया पहली किताब के इंतज़ार में बैठे एक लेखक के लिए इसे इस्तेमाल करे. मुझसे थोड़े पुराने लेखक ऐसे मौकों पर मुझे चुप रहने की सलाह दिया करते हैं, लेकिन मैं फिर भी पूछता हूं कि क्यों? शत्रुतापूर्ण क्यों? हम यहां कोई महाभारत लड़ रहे हैं क्या? आपका और मेरा तो एक साहित्यिक संस्था और लेखक का रिश्ता भर है. लेकिन इतने में आलोक जैन तेज आवाज में कुछ बोलने लगते हैं. कालिया जी कहते हैं कि चाहे तो सीधे बात कर लो. मैं उनसे पूछता हूं कि क्या कह रहे हैं 'सर'?
तो जो वे बताते हैं, वह यह कि तुम्हारी कहानियां मां-बहन के सामने पढ़ने लायक कहानियां नहीं हैं. आलोक जी को मेरा 'फ्रैंकनैस' पसंद नहीं है, मेरी कहानियां अश्लील हैं. क्या सब की सब? हां, सब की सब. उन्हें तुम्हारे पूरे 'एटीट्यूड' से प्रॉब्लम है और प्रॉब्लम तो उन्हें तुम्हारी कविताओं से भी है, लेकिन अब वह तो छप गई. फ़ोन पर कही गई बातों में जितना अफसोस आ सकता है, वह यहां है. मैं आलोक जी से बात करना चाहता हूं लेकिन वे शायद गुस्से में हैं, या पता नहीं. कालिया जी मुझसे कहते हैं कि मैं क्यों उनसे बात करके खामखां खुद को हर्ट करना चाहता हूं? यह ठीक बात है. हर्ट होना कोई अच्छी बात नहीं. मैं फ़ोन रख देता हूं और सन्न बैठ जाता हूं.
जो वजहें मुझे बताई गईं, वे थीं 'अश्लीलता' और मेरा 'एटीट्यूड'.
अश्लीलता एक दिलचस्प शब्द है. यह हवा की तरह है, इसका अपना कोई आकार नहीं. आप इसे किसी भी खाली जगह पर भर सकते हैं. जैसे आपके लिए फिल्म में चुंबन अश्लील हो सकते हैं और मेरे एक साथी का कहना है कि उसे हिन्दी फिल्मों में चुम्बन की जगह आने वाले फूलों से ज़्यादा अश्लील कुछ नहीं लगता. आप बच्चों के यौन शोषण पर कहानी लिखने वाले किसी भी लेखक को अश्लील कह सकते हैं. क्या इसका अर्थ यह भी नहीं कि आप उस विषय पर बात नहीं होने देना चाहते. आपका यह कृत्य मेरे लिए अश्लील नहीं, आपराधिक है. यह उन लोकप्रिय अखबारों जैसा ही है जो बलात्कार की खबरों को पूरी डीटेल्स के साथ रस लेते हुए छापते हैं, लेकिन कहानी के प्लॉट में सेक्स आ जाने से कहानी उनके लिए अपारिवारिक हो जाती है (मां-बहन के पढ़ने लायक नहीं), बिना यह देखे कि कहानी की नीयत क्या है.
मां-बहन को कम से कम यह तो खुद तय करने दीजिए कि वे क्या पढ़ें या क्या नहीं. उन्हें आपके इस उपकार की ज़रूरत नहीं है. उन्हें उनके हाल पर छोड़ दीजिए. उन्हें यह 'अश्लीलता' पढ़ने दीजिए कि कैसे एक कहानी की नायिका अपना बलात्कार करने वाले पिता को मार डालती है. लेकिन मैं जानता हूं कि इसी से आप डरते हैं.मेरा एक पुराना परिचित कहता था कि वह खूब पॉर्न देखता है, लेकिन अपनी पत्नी को नहीं देखने देता क्योंकि फिर उसके बिगड़ जाने का खतरा रहेगा. क्या यह मां-बहन वाला तर्क वैसा ही नहीं है? अगर हमने उनके लिए दुनिया इतनी ही अच्छी रखी होती तो मुझे ऐसी कहानियां लिखने की नौबत ही कहाँ आती? यह सब कुछ मेरी कहानियों में किसी जादुई दुनिया से नहीं आया, न ही ये नर्क की कहानियां हैं. और अगर ये नर्क की, किसी पतित दुनिया की कहानियां लगती हैं तो वह दुनिया ठीक हम सबके बीच में है. मैं जब आया, मुझे दुनिया ऐसी ही मिली, अपने तमाम कांटों, बेरहमी और बदसूरती के साथ. आप चाहते हैं कि उसे इगनोर किया जाए. मुझे सच से बचना नहीं आता, न ही मैंने आपकी तरह उसके तरीके ईज़ाद किए हैं. सच मुझे परेशान करता है, आपको कैसे बताऊं कि कैसे ये कहानियां मुझे चीरकर, रुलाकर, तोड़कर, घसीटकर आधी रात या भरी दोपहर बाहर आती हैं और कांच की तरह बिखर जाती हैं. मेरी ग़लती बस इतनी है कि उस कांच को बयान करते हुए मैं कोमलता और तथाकथित सभ्यता का ख़याल नहीं रख पाता. रखना चाहता भी नहीं.
आख़िर 30 मार्च को फ़ोन पर कालिया जी कहते हैं कि ज्ञानपीठ के ट्रस्टी आलोक जैन मेरे सामने बैठे हैं और यहां तुम्हारे लिए माहौल बहुत शत्रुतापूर्ण हो गया है
लेकिन इसी बीच मुझे याद आता है कि भारतीय ज्ञानपीठ में 'अभिव्यक्ति' की तो इतनी आज़ादी रही कि पिछले साल ही 'नया ज्ञानोदय' में छपे एक इंटरव्यू में लेखिकाओं के लिए कहे गए 'छिनाल' शब्द को भी काटने के काबिल नहीं समझा गया. मेरी जिस कहानी पर आपत्ति थी, वह भी 'नया ज्ञानोदय' में ही छपी थी और तब संपादकीय में भी कालिया जी ने उसके लिए मेरी प्रशंसा की थी. मैं सच में दुखी हूं, अगर उस कहानी से ज्ञानपीठ की मर्यादा को धक्का लगता है. लेकिन मुझे ज़्यादा दुख इस बात से है कि पहले पत्रिका में छापते हुए इस बात के बारे में सोचा तक नहीं गया. लेकिन तब नहीं, तो अब मेरे साथ ऐसा क्यों? यहां मुझे खुद पर लगा दूसरा आरोप याद आता है- मेरा एटीट्यूड.
मुझे नहीं याद कि मैं किसी काम के अलावा एकाध बार से ज़्यादा ज्ञानपीठ के दफ़्तर आया होऊं. मुझे फ़ोन वोन करना भी पसंद नहीं, इसलिए न ही मैंने 'कैसे हैं सर, आप बहुत अच्छे लेखक, संपादक और ईश्वर हैं' कहने के लिए कभी कालिया जी को फ़ोन किया, न ही आलोक जी को. यह भी गलत बात है वैसे. बहुत से लेखक हैं, जो हर हफ़्ते आप जैसे बड़े लोगों को फ़ोन करते हैं, मिलने आते हैं, आपके सब तरह के चुटकुलों पर देर तक हँसते हैं, और ऐसे में मेरी किताब छपे, पुरस्कार मिले, यह कहाँ का इंसाफ़ हुआ? माना कि ज्यूरी ने मुझे चुना लेकिन आप ही बताइए, आपके यहाँ दिखावे के अलावा उसका कोई महत्व है क्या?
ऊपर से नीम चढ़ा करेला यह कि मैंने हिन्दी साहित्य की गुटबाजियों और राजनीति पर अपने अनुभवों से 'तहलका' में एक लेख लिखा. वह शायद बुरा लग गया होगा. और इसके बाद मैंने ज्ञानपीठ में नौकरी करने वाले और कालिया जी के लाड़ले 'राजकुमार' लेखक कुणाल सिंह को नाराज कर दिया. मुझे पुरस्कार मिलने की घोषणा होने के दो-एक दिन बाद ही कुणाल ने एक रात शराब पीकर फ़ोन किया था और बदतमीजी की थी. उस किस्से को इससे ज़्यादा बताने के लिए मुझे इस पत्र में काफ़ी गिरना पड़ेगा, जो मैं नहीं चाहता. ख़ैर, यही बताना काफ़ी है कि हमारी फिर कभी बात नहीं हुई और मैं अपनी कहानी की किताब को लेकर तभी से चिंतित था क्योंकि ज्ञानपीठ में कहानी-संग्रहों का काम वही देख रहे थे. मैंने अपनी चिंता कालिया जी को बताई भी, लेकिन ज़ाहिर सी बात है कि उससे कुछ हुआ नहीं.
वैसे वे सब बदतमीजी करें और आप सहन न करें, यह तो अपराध है ना? वे राजा-राजकुमार हैं और आपका फ़र्ज़ है कि वे आपको अपमानित करें तो बदले में आप 'सॉरी' बोलें. यह अश्लील कहाँ है? ज्ञानपीठ इन्हीं सब चीजों के लिए तो बनाया गया है शायद! हमें चाहिए कि आप सबको सम्मान की नज़रों से देखें, अपनी कहानियां लिखें और तमाम राजाओं-राजकुमारों को खुश रखें. मेरे साथ के बहुत से काबिल-नाकाबिल लेखक ऐसा ही कर भी रहे हैं. ज्ञानपीठ से ही छपे एक युवा लेखक हैं जिन पर कालिया जी और कुणाल को नाराज़ कर देने का फ़ोबिया इस कदर बैठा हुआ है कि दोनों में से किसी का भी नाम लेते ही पूछते हैं कि कहीं मैं फ़ोन पर उनकी बातें रिकॉर्ड तो नहीं कर रहा और फिर काट देते हैं. अब ऐसे में क्या लिक्खा जाएगा? हम बात करते हैं अभिव्यक्ति, ग्लोबलाइजेशन और मानवाधिकारों की.
ख़ैर, राजकुमार चाहते रहे हैं कि वे किसी से नाराज़ हों तो उसे कुचल डालें. चाहना भी चाहिए. यही तो राजकुमारों को शोभा देता है. वे किसी को भी गाली दे सकते हैं और किसी की भी कहानी या किताब फाड़कर नाले में फेंक सकते हैं. कोलकाता के एक कमाल के युवा लेखक की कहानी आपकी पत्रिका ‘नया ज्ञानोदय’ के एक विशेषांक में छपने की घोषणा की गई थी, लेकिन वह नहीं छपी और रहस्यमयी तरीके से आपके दफ़्तर से, ईमेल से उसकी हर प्रति गायब हो गई क्योंकि इसी बीच राजकुमार की आंखों को वह लड़का खटकने लगा. एक लेखक की किताब नवलेखन पुरस्कारों के इसी सेट में छपी है और जब वह प्रेस में छपने के लिए जाने वाली थी, उसी दिन संयोगवश उसने आपके दफ़्तर में आकर अपनी किताब की फ़ाइल देखी और पाया कि उसकी पहली कहानी के दस पेज गायब थे. यह संयोग ही है कि उसकी फ़ाइनल प्रूफ़ रीडिंग राजकुमार ने की थी और वे उस लेखक से भी नाराज़ थे. किस्से तो बहुत हैं. अपमान, अहंकार, अनदेखी और लापरवाही के. मैं तो यह भी सुनता हूं कि कैसे पत्रिका के लिए भेजी गई किसी गुमनाम लेखक की कहानी अपना मसाला डालकर अपनी कहानी में तब्दील की जा सकती है.
लेकिन अकेले कुणाल को इस सबके लिए जिम्मेदार मानना बहुत बड़ी भूल होगी. वे इतने बड़े पद पर नहीं हैं कि ऊपर के लोगों की मर्ज़ी के बिना यह सब कर सकें. समय बहुत जटिल है और व्यवस्था भी. सब कुछ टूटता-बिगड़ता जा रहा है और बेशर्म मोहरे इस तरह रखे हुए हैं कि ज़िम्मेदारी किसी की न रहे.
नामवर जी, आप सुन रहे हैं कि मेरी 'सम्मानित' की गई किताब क्या है? वह जिसके बारे में अखबारों में बड़े गौरवशाली शब्दों में कुछ छपा था और जून की एक दोपहर आपने फ़ोन करके बधाई दी थी, वह ख़ालिस गंदगी है.
मैं फिर भी आलोक जैन जी को ईमेल लिखता हूं. उसका भी कोई जवाब नहीं आता. मैं फ़ेसबुक पर लिखता हूं कि मेरी किताब के बारे में भारतीय ज्ञानपीठ के ट्रस्टी की यह राय है. इसी बीच आलोक जैन फ़ोन करते हैं और मुझे तीसरी ही वजह बताते हैं. वे कहते हैं कि यूं तो उन्हें मेरा लिखा पसंद नहीं और वे नहीं चाहते थे कि मेरी कविताओं को पुरस्कार मिले (उन्होंने भी पढ़ी तब प्रतियोगिता के समय किताब?), लेकिन फिर भी उन्होंने नामवर सिंह जी की राय का आदर किया और पुरस्कार मिलने दिया. (यह उनकी महानता है!) वे आगे कहते हैं, "लेकिन एक लेखक को दो विधाओं के लिए नवलेखन पुरस्कार नहीं दिया जा सकता." लेकिन जनाब, पहली बात तो यह नियम नहीं है कहीं और है भी, तो पुरस्कार तो एक ही मिला है. वे कहते हैं कि नहीं, अनुशंसा भी पुरस्कार है और उन्होंने 'कालिया' को पुरस्कारों की घोषणा के समय ही कहा था कि यह गलत है. उनकी आवाज ऊंची होती जाती है और वे ज्यादातर बार सिर्फ 'कालिया' ही बोलते हैं.
वे कहते हैं कि एक बार ऐसी गलती हो चुकी है, जब कालिया ने कुणाल सिंह को एक बार कहानी के लिए और बाद में उपन्यास के लिए नवलेखन पुरस्कार दिलवा दिया. अब यह दुबारा नहीं होनी चाहिए. तो पुरस्कार ऐसे भी दिलवाए जाते हैं? और अगर वह ग़लती थी तो क्यों नहीं उसे सार्वजनिक तौर पर स्वीकार किया जाता और वह पुरस्कार वापस लिया जाता? मेरी तो किताब को ही पुरस्कार कहकर नहीं छापा जा रहा. और यह सब पता चलने में एक साल क्यों लगा? क्या लेखक का सम्मान कुछ नहीं और उसका समय?
यह सब पूछने पर वे लगभग चिल्लाने लगते हैं कि वे हस्तक्षेप नहीं करेंगे, कालिया जी जो भी 'गंदगी' छापना चाहें, छापें और भले ही ज्ञानपीठ को बर्बाद कर दें. नामवर जी, आप सुन रहे हैं कि मेरी 'सम्मानित' की गई किताब क्या है? वह जिसके बारे में अखबारों में बड़े गौरवशाली शब्दों में कुछ छपा था और जून की एक दोपहर आपने फ़ोन करके बधाई दी थी, वह ख़ालिस गंदगी है. इसके बाद आलोक जी गुस्से में फ़ोन काट देते हैं. ज्ञानपीठ का ही एक कर्मचारी मुझसे कहता है कि चूंकि तकनीकी रूप से मेरे कहानी-संग्रह को छापने से मना नहीं किया जा सकता, इसलिए मुझे उकसाया जा रहा है कि मैं खुद ही अपनी किताब वापस ले लूं, ताकि जान छूटे.
सब कुछ अजीब है. चालाक, चक्करदार और बेहद अपमानजनक. शायद मेरे बार-बार के ईमेल्स का असर है कि आलोक जैन, जो कह रहे थे कि वे कभी ज्ञानपीठ के कामकाज में हस्तक्षेप नहीं करते, मुझे एक दिन फ़ोन करते हैं और कहते हैं, "मैंने कालिया से किताब छापने के लिए कह दिया है. थैंक यू." वे कहते हैं कि उनकी मेरे बारे में और पुरस्कार के बारे में राय अब तक नहीं बदली है और ये जो भी हैं - बारह शब्दों के दो वाक्य - मुझे बासी रोटी के दो टुकड़ों जैसे सुनते हैं. यह तो मुझे बाद में पता चलता है कि यह भी झूठी तसल्ली भर है ताकि मैं चुप बैठा रहूं.
फ़ोन का सिलसिला चलता रहता है. वे अगली सुबह फिर से फ़ोन करते हैं और सीधे कहते हैं कि आज महावीर जयंती है, इसलिए वे मुझे क्षमा कर रहे हैं. लेकिन मेरी गलती क्या है? तुमने इंटरनेट पर यह क्यों लिखा कि मैंने तुम्हारी किताब के बारे में ऐसा कहा? उन्हें गुस्सा आ रहा है और वे जज्ब कर रहे हैं. वे मुझे बताते जाते हैं, फिर से वही, कि मेरी दो किताबों को छापने का निर्णय गलत था, कि मैं खराब लिखता हूं, लेकिन फिर भी उन्होंने कल कहा है कि किताब छप जाए, इतनी किताब छपती हैं वैसे भी. मैं अपना पक्ष रखना चाहता हूं कि मेरी क्या गलती है, मुझे आप लोगों ने चुना, फिर जाने क्यों छापने से मना किया, फिर कहा कि छापेंगे, फिर मना किया और अब फिर टुकड़े फेंकने की तरह छापने का कह रहे हैं. और जो भी हो, आप इस तरह कैसे बात कर सकते हैं अपने एक लेखक से? लेकिन मैं जैसे ही बोलने लगता हूं, वे चिल्लाने लगते हैं- जब कह रहा हूं कि मुझे गुस्सा मत दिला तू. कुछ भी करो, कुछ भी कहो, कोई तुम्हारी बात नहीं सुनेगा, कोई तुम्हारी बात का यक़ीन नहीं करेगा, उल्टे तुम्हारी ही भद पिटेगी. इसलिए अच्छा यही है कि मुझे गुस्सा मत दिलाओ. यह धमकी है. मैं कहता हूं कि आप बड़े आदमी हैं लेकिन मेरा सच, फिर भी सच ही है, लेकिन वे फिर चुप करवा देते हैं. बात उनकी इच्छा से शुरू होती है, आवाज़ें उनकी इच्छा से दबती और उठती हैं और कॉल पूरी.
कभी तू, कभी तुम, कभी चिल्लाना, कभी पुचकारना, सार्वजनिक रूप से सम्मानित करने की बात करना और फ़ोन पर दुतकारकर बताना कि तुम कितने मामूली हो- हमारे पैरों की धूल. मुझे ठीक से समझ नहीं आ रहा कि नवलेखन पुरस्कार लेखकों को सम्मानित करने के लिए दिए जाते हैं या उन्हें अपमानित करने के लिए. यह उनका एंट्रेंस टेस्ट है शायद कि या तो वे इस पूरी व्यवस्था का 'कुत्ता' बन जाएं या फिर जाएं भाड़ में. और इस पूरी बात में उस 'गलती' की ओर किसी का ध्यान नहीं जाता, जब आप अपने यहां काम करने वाले लेखक को यह पुरस्कार देते हैं, दो बार. और दूर-दराज के कितने ही लेखकों की कहानियां-कविताएं-किताबें महीनों आपके पास पड़ी रहती हैं और ख़त्म हो जाती हैं. बहुत लिख दिया. शायद यही 'एटीट्यूड' और 'फ्रैंकनैस' है मेरा, जिसकी बात कालिया जी ने फ़ोन पर की थी. लेकिन क्या करूं, मुझसे नहीं होता यह सब. मैं इन घिनौनी बातचीतों, मामूली उपलब्धियों के लिए रचे जा रहे मामूली षड्यंत्रों और बदतमीज़ फ़ोन कॉलों का हिस्सा बनने के लिए लिखने नहीं लगा था, न ही अपनी किताब को आपके खेलने की फ़ुटबॉल बनाने के लिए. माफ़ कीजिए, मैं आप सबकी इस व्यवस्था में कहीं फिट नहीं बैठता. ऊपर से परेशानियां और खड़ी करता हूं. आपके हाथ में बहुत कुछ होगा (आपको तो लगता होगा कि बनाने-बिगाड़ने की शक्ति भी) लेकिन मेरे हाथ में मेरे लिखने, मेरे आत्मसम्मान और मेरे सच के अलावा कुछ नहीं है. और मैं नहीं चाहता कि सम्मान सिर्फ़ कुछ हज़ार का चेक बनकर रह जाए या किसी किताब की कुछ सौ प्रतियाँ. मेरे बार-बार के अनुरोध जबरदस्ती किताब छपवाने के लिए नहीं थे सर, उस सम्मान को पाने के लिए थे, जिस पर पुरस्कार पाने या न पाने वाले किसी भी लेखक का बुनियादी हक होना चाहिए था. लेकिन वही आप दे नहीं सकते. मैं देखता हूं यहाँ लेखकों को - संस्थाओं और उनके मुखियाओं के इशारों पर नाचते हुए, बरसों सिर झुकाकर खड़े रहते हुए ताकि किसी दिन एक बड़े पुरस्कार को हाथ में लिए हुए खिंचती तस्वीर में सिर उठा सकें. लेकिन उन तस्वीरों में से मुझे हटा दीजिए और कृपया मेरा सिर बख़्श दीजिए. फ़ोन पर तो आप किताब छापने के लिए तीन बार ‘हां’ और तीन बार ‘ना’ कह चुके हैं, लेकिन आपने अब तक मेरे एक भी पत्र का जवाब नहीं दिया है. आलोक जी के आख़िरी फ़ोन के बाद लिखे गए एक महीने पहले के उस ईमेल का भी, जिसमें मैंने कालिया जी से बस यही आग्रह किया था कि जो भी हो, मेरी किताब की अंतिम स्थिति मुझे लिखकर बता दी जाए, मैं इसके अलावा कुछ नहीं चाहता. उनका एसएमएस ज़रूर आया था कि जल्दी ही जवाब भेजेंगे. उस जल्दी की मियाद शायद एक महीने में ख़त्म नहीं हुई है.
मैं जानता हूं कि आप लोग अपनी नीयत के हाथों मजबूर हैं. आपके यहां कुछ धर्म जैसा होता हो तो आपको धर्मसंकट से बचाने के लिए और अपने सिर को बचाने के लिए मैं ख़ुद ही नवलेखन पुरस्कार लेने से इनकार करता हूं और अपनी दोनों किताबें भी भारतीय ज्ञानपीठ से वापस लेता हूं, मुझे चुनने वाली उस ज्यूरी के प्रति पूरे सम्मान के साथ, जिसे आपने थोड़े भी सम्मान के लायक नहीं समझा. कृपया मेरी किताबों को न छापें, न बेचें. और जानता हूं कि इनके बिना कैसी सत्ता, लेकिन फिर भी आग्रह कर रहा हूं कि हो सके तो ये पुरस्कारों के नाटक बन्द कर दें और हो सके, तो कुछ लोगों के पद नहीं, बल्कि किसी तरह भारतीय ज्ञानपीठ की वह मर्यादा बचाए रखें, जिसे बचाने की सबसे ज़्यादा ज़रूरत है.
सुनता हूं कि आप शक्तिशाली हैं. लोग कहते हैं कि आपको नाराज़ करना मेरे लिए अच्छा नहीं. हो सकता है कि साहित्य के बहुत से खेमों, प्रकाशनों, संस्थानों से मेरी किताबें कभी न छपें, आपके पालतू आलोचक लगातार मुझे अनदेखा करते रहें और आपके राजकुमारों और उनके दरबारियों को महान सिद्ध करते रहें, या और भी कोई बड़ी कीमत मुझे चुकानी पड़े. लेकिन फिर भी यह सब इसलिए ज़रूरी है ताकि बरसों बाद मेरी कमर भले ही झुके, लेकिन अतीत को याद कर माथा कभी न झुके, इसलिए कि आपको याद दिला सकूं कि अभी भी वक़्त उतना बुरा नहीं आया है कि आप पच्चीस हज़ार या पच्चीस लाख में किसी लेखक को बार-बार अपमानित कर सकें, इसलिए कि हम भले ही भूखे मरें लेकिन सच बोलने का जुनून बहुत बेशर्मी से हमारी ज़बान से चिपककर बैठ गया है और इसलिए कि जब-जब आप और आपके साहित्यिक वंशज इतिहास में, कोर्स की किताबों में, हिन्दी के विश्वविद्यालयों और संस्थानों में महान हो रहे हों, तब-तब मैं अपने सच के साथ आऊं और उस भव्यता में चुभूं.
तब तक शायद हम सब थोड़े बेहतर हों और अपने भीतर की हिंसा पर काबू पाएँ.
गौरव सोलंकी
11/05/2012
(फोटो 'तहलका' वेबसाइट से 'साभार')

गुरुवार, 22 मार्च 2012

विवेक मिश्र की कहानियां चुराना मना है...

विवेक मिश्र को मैं पिछले कुछ महीनों से जानता हूं। उनकी कई कविताएं पढ़ी हैं। कुछ कहानियां भी पढ़ी हैं। एकाध साहित्यिक कार्यक्रमों में मंच पर भी साथ रहे हैं। शिल्पायन से छपा उनका कहानी-संग्रह ''हनियां तथा अन्य कहानियां'' लगभग पूरा पढ़ चुका हूं। विवेक मिश्र ने खुद ही ये किताब मुझे पढ़ने के लिए दी थी। उनसे जब भी मुलाकात हुई, 'हनियां' का ज़िक्र उनकी ज़ुबान पर ज़रूर आया। उन्हें उम्मीद भी रही होगी कि मैं 'हनियां' कहानी पढ़ते ही उन्हें फोन करूंगा और अपनी प्रतिक्रिया दूंगा। मगर, मैंने जब उन्हें फोन किया और उनके कहानी संग्रह पर बात की तो हनियां का ज़िक्र बहुत बाद में आया। पहला और सबसे ज़्यादा ज़िक्र 'तितली' का आया था। एक पाठक के लिहाज से यही कहूंगा कि हनियां एक सफल (चर्चित) और लंबी कहानी भले रही हो, मगर छोटी कहानी 'तितली' में विवेक मिश्र ज़्यादा ओरिजिनल लगते हैं।

पिता की मौत के बाद दिल्ली में घर में तीन अकेली लड़कियों की कहानी है' तितली'। 14 साल की बड़ी बेटी अंशु, छोटी बेटी बिन्नी और इन दोनों की विधवा मां। अंशु की उम्र उसे 'दिल्ली की हवा' में तितली की तरह उड़ने को बेकरार करती है, मगर एक अनजान-सा डर और मां-बिन्नी की चिंता उसे हर बार रोक लेती है। मगर, जब एक दिन दिल्ली की हवा अंशु को उड़ाकर ले जाती है तब उसे अहसास होता है कि अपनी भरपूर उड़ान के भरम में अपने पंख ही गंवा बैठी है। आखिर तक आते-आते कहानी बिन्नी के जवान होते हाथों में उस तितली को महफूज़ कर देती है। दिल्ली नाम के अंधे कुंए में अपनी मर्ज़ी से डूबने का एक चक्र जारी रहता है।

अचानक इस कहानी का ज़िक्र इसलिए क्योंकि फेसबुक पर हिंदी कहानी के जानकारों की वॉल के ज़रिए हाल ही में पढ़ने में आया कि जयश्री रॉय नाम की लेखिका पर उनकी कहानी ''बारिश, समंदर और एक रात..'' के लिए 'तितली' के कुछ हिस्से हूबहू 'चुराने' के आरोप थे। कथादेश में उनकी इस कहानी को पढकर ही पता चला कि वो गोवा में रहती हैं और बिहार से उनका ताल्लुक है। चर्चित कवियत्री और कहानीकार भी हैं। मेरा दुर्भाग्य कि मैं जयश्री जी को नहीं जानता। मैंने उनकी कहानी कई बार पढ़ी और सचमुच 'तितली' और 'बारिश, समंदर और एक रात...' लगभग एक जैसी कहानियां हैं। 'समंदर,बारिश और एक रात' जय श्री राय की कथादेश के मार्च-2012 में प्रकाशित कहानी है। यह कहानी भी एक युवा अवस्था में कदम रखती युवती की कहानी है जो अपनी ग्रेनी के साथ गोआ में रहती है। उसके पिता घर छोड़कर विदेश चले गए हैं। वह भी एक रात बाहर निकल कर एक आकर्षक युवक के संपर्क में आती है। उसके साथ जाकर दुनिया देखना चाहती है,जीना चाहती है। एक बहुत हसीन रात में लड़की का बॉयफ्रेन्ड लड़की को घर से बाहर पार्टी में चल कर एन्जाय करने को कहता है। वह मान जाती है दोनो नाचते-गाते हैं। करीब आते हैं, भरपूर प्यार करते हैं। उन्हें प्यार करते हुए लड़के के साथी देख लेते हैं। वह उसे एक खाली गोदाम में ले जाते हैं और नशे की हालत में उसके साथ बलात्कार करते हैं। लड़की को जब होश आता है। तब वह समंदर किनारे बैठी रह जाती है।

लोगों के नाम और जगह बदल दिए जाएं तो दोनों कहानियों में घटनाएं एक ही सिलसिले में होती नज़र आती हैं। कई जगह शब्द या पूरे-पूरे वाक्य भी मिलते नज़र आते हैं। मुमकिन है कि जयश्री ने 'तितली' पढ़ी हो और उस कहानी से प्रेरित होकर अपनी कहानी गढ़ी है, जो मुझे ग़लत नहीं दिखता। दुख इस बात का है कि फेसबुक पर दोनों 'पक्षों' (खेमों) की ओर से तमाम तरह के उल्टे-सीधे तीर चलते रहे और आखिर में जयश्री रॉय ने विवेक मिश्र से माफी मांग ली। हिंदी के लगभग तमाम लेखकों को तो वैसे भी अपनी जेब से पैसा खर्च कर लिखना-छपना पड़ता है और उस पर भी अगर रही-सही पूंजी यानी कहानी में ही सेंध पड़ने लगे तो बेचारा लेखक क्या करेगा। कई बार मैं भी अपने ब्लॉग का सामान किसी और ब्लॉग पर उस ब्लॉगर के नाम से छपा देख चुका हूं। मगर, मुझे इस मामले को 'कानूनन' आगे बढ़ाने के कोई नियम ही नहीं पता। अगर आप मदद कर सकें, तो मेहरबानी होगी।

हैरत की बात ये है कि विवेक मिश्र के साथ ऐसा पहली बार नहीं हुआ है। उनकी 'हनियां' कहानी किसी टीवी सीरियल ने हूबहू उड़ा ली तो मामला कोर्ट तक चला गया। एक और कहानी 'बदबू' के बारे में तो कुछ पाठकों ने ये तक कह दिया कि गुलज़ार की कहानी 'हिलसा' में इसकी नकल दिखती है। हर बार विवेक मिश्र के साथ ही ऐसा क्यों होता है। फिल्मी दुनिया में इस तरह के आरोपों के पीछे पब्लिसिटी बटोरने के मकसद भी होते हैं, मगर हिंदी साहित्य की फटेहाल दुनिया में शायद ही विवेक मिश्र या जयश्री रॉय को इसका कोई फायदा होने वाला है। यहां मामला करोड़ों का नहीं कौड़ी भर का है।


निखिल आनंद गिरि
(इस विवाद में इतनी देर से टांग अड़ाने की वजह ये है कि मैं इन दिनों फेसबुक या बाहरी दुनिया से कटा हुआ था। जब जागा, तभी सवेरा...)


सोमवार, 27 जून 2011

रो चुके बहुत...

प्यार हमें कहीं भी हो सकता है...

उन लड़कियों से भी जिनसे कभी मिले नहीं...

और मिलना संभव भी नहीं...


जहां हम नहाते हैं,

उसकी दीवारों पर एक बिंदी देखती है लाल रंग की...

शर्म से लाल है शायद...

बताइए क्या प्यार करने को इतनी वजह काफी नहीं...


क्या हंसना सिर्फ इसीलिए नहीं होता

कि रो चुके होते हैं हम बहुत....

बहुत रो चुके होते हैं हम....

और भूल जाते हैं अगली बार रोना।


कभी-कभी अकेले में

हम सबसे बुरे होते हैं...

और तब मरने के लिए इतनी वजह काफी होती है कि

जीने का तरीका ही नहीं आया

कभी-कभी मरना शौक की तरह ज़रूरी लगता है...

कोई डांटे इस बुरी लत पर

और हम आधा छोड़कर मरना, जी उठें...


और सुनिए, यहां गोली मार देने के लिए

ये ज़रूरी नहीं कि आपका झगड़ा हो...

इतनी वजह काफी है कि

आपके पास बंदूक है...
 
निखिल आनंद गिरि
 
(इस कविता को हिंदी मैगज़ीन पाखी के जून अंक में भी जगह मिली है)

ये पोस्ट कुछ ख़ास है

मृत्यु की याद में

कोमल उंगलियों में बेजान उंगलियां उलझी थीं जीवन वृक्ष पर आखिरी पत्ती की तरह  लटकी थी देह उधर लुढ़क गई। मृत्यु को नज़दीक से देखा उसने एक शरीर ...

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