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बुधवार, 9 फ़रवरी 2011

कच्ची उम्र की लड़कियां...


ये कविता तीन साल पुरानी है...मन हुआ शेयर की जाए, तो कर दिया...

कभी-कभी होता है यूं भी,

कि घर से कच्ची उम्र में ही भाग जाती हैं लड़कियां,

और पिता कर देते हैं,

जीते-जी बेटी की अंत्येष्टि...

हो जाता है परिवार का बोझ हल्का..


और कभी यूं भी कि,

बेटियां करती हैं इश्क

और पिता देते हैं मौन सहमति

ताकि बच सके शादी का खर्च,

बेटियां मन ही मन देती हैं

पिता को धन्यवाद...

और पिता भी दब जाता है

बेटी के एहसान तले....


कच्ची उम्र में मर्ज़ी से

ब्याह रचाने वाली लड़कियां,

सदी का सबसे महान इतिहास लिख रही हैं

इतिहास जिसका रंग न लाल है न गेरुआ,

इतिहास जिनमें उनका प्रेमी एक है,

पति भी एक

और भविष्य भी एक ही है....

उनकी आंखों में सबके लिए प्यार है

आमंत्रण रहित..


आप चाहें तो आज़मा लें,

अंजुरी-भर प्यार का आचमन

सिखा देगा जीवन को

अपना शर्तों पर जीने का शऊर...


कच्ची उम्र की लड़कियां

जो पैदा होती हैं

दो-तीन कमरे वाले घरों में,

दूरदर्शन या विविध भारती के शोर में

नीम अंधेरे में,

लैंप की मीठी रौशनी में

पढ़ती हैं,

कुछ रूटीन किताबें

और पवित्र चिट्ठियां..

शादी कर उतारती हैं पिता का बोझ,

बनती हैं माएं...


सच कहूं,

उनकी छाती में दूध होता है अमृत-सा,

अपना बहाव ख़ुद तय कर सकने वाली ये लड़कियां,

मुझे लगती हैं गंगा मईया...

जो कभी दूषित नहीं हो सकती...


इतिहास उन्हें कभी नहीं भूल सकता,

जिन्होंने अपनी मजबूर मांओं के साथ,

एक ही तकिये पर सिर रखकर सोते हुए,

रचा है नयी सदी का नया इतिहास

धानी रंग में...

निखिल आनंद गिरि

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