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रविवार, 13 मई 2012

गौरव सोलंकी को गुस्सा क्यों आता है ?

गौरव सोलंकी को तब से जानता हूं, जब वो सिर्फ एक इंजीनियर थे। सिर्फ एक कवि थे! लोकप्रिय बाद में हुए। और कहानीकार उसके भी बाद हुए। हिंदी सेवा के नाम पर कमाने-खाने वाली एक वेबसाइट 'हिंदयुग्म' के स्वघोषित ''सीईओ'' शैलेश के साथ गौरव और मैं लंबे वक्त तक साथ रहे। आज गौरव का नाम हिंदी साहित्य के चर्चित युवा साहित्यकारों में शुमार है। हिंदी साहित्य और सिनेमा के  प्रति उनकी ईमानदारी समझने के लिए इतना बताना ही काफी है कि आईआईटी से पढ़ाई पूरी करने के बाद उन्होंने अपने जुनून को समय देने के लिए एक 'अच्छी-खासी' नौकरी से तौबा कर ली। मगर हिंदी साहित्य के मठों ने उन्हें क्या दिया, ये इस लेख को पढ़कर समझिए। ये भारतीय ज्ञानपीठ को लिखा गया 
एक पत्र है, जिसे गौरव सोलंकी ने लिखा है। 
इस ख़त के गुस्से में मुझे भी शामिल समझिए।

आदरणीय ...... ,
भारतीय ज्ञानपीठ
खाली स्थान इसलिए कि मैं नहीं जानता कि भारतीय ज्ञानपीठ में इतना ज़िम्मेदार कौन है जिसे पत्र में सम्बोधित किया जा सके और जो जवाब देने की ज़हमत उठाए. पिछले तीन महीनों में मैंने इस खाली स्थान में कई बार निदेशक श्री रवीन्द्र कालिया का नाम भी लिखा और ट्रस्टी श्री आलोक जैन का भी, लेकिन नतीजा वही. ढाक का एक भी पात नहीं. मेरे यहां सन्नाटा और शायद आपके यहां अट्टहास.
खैर, कहानी यह जो आपसे बेहतर कौन जानता होगा लेकिन फिर भी दोहरा रहा हूं ताकि सनद रहे.
पिछले साल मुझे मेरी कविता की किताब ‘सौ साल फिदा’ के लिए भारतीय ज्ञानपीठ ने नवलेखन पुरस्कार देने की घोषणा की थी और उसी ज्यूरी ने सिफारिश की थी कि मेरी कहानी की किताब ‘सूरज कितना कम’ भी छापी जाए. जून, 2011 में हुई उस घोषणा से करीब नौ-दस महीने पहले से मेरी कहानी की किताब की पांडुलिपि आपके पास थी, जो पहले एक बार ‘अज्ञात’ कारणों से गुम हो गई थी और ऐन वक्त पर किसी तरह पता चलने पर मैंने फिर जमा की थी.
मां-बहन को कम से कम यह तो खुद तय करने दीजिए कि वे क्या पढ़ें या क्या नहीं. उन्हें आपके इस उपकार की ज़रूरत नहीं है. उन्हें उनके हाल पर छोड़ दीजिए. उन्हें यह 'अश्लीलता' पढ़ने दीजिए कि कैसे एक कहानी की नायिका अपना बलात्कार करने वाले पिता को मार डालती है. लेकिन मैं जानता हूं कि इसी से आप डरते हैं
ख़ैर, मार्च में कविता की किताब छपी और उसके साथ बाकी पांच लेखकों की पांच किताबें भी छपीं, जिन्हें पुरस्कार मिले थे या ज्यूरी ने संस्तुत किया था. सातवीं किताब यानी मेरा कहानी-संग्रह हर तरह से तैयार था और उसे नहीं छापा गया. कारण कोई नहीं. पन्द्रह दिन तक मैं लगातार फ़ोन करता हूं और आपके दफ़्तर में किसी को नहीं मालूम कि वह किताब क्यों नहीं छपी. आखिर पन्द्रह दिन बाद रवीन्द्र कालिया और प्रकाशन अधिकारी गुलाबचन्द्र जैन कहते हैं कि उसमें कुछ अश्लील है. मैं पूछता हूं कि क्या, तो दोनों कहते हैं कि हमें नहीं मालूम. फिर एक दिन गुलाबचन्द्र जैन कहते हैं कि किताब वापस ले लीजिए, यहां नहीं छप पाएगी. मैं हैरान. दो साल पांडुलिपि रखने और ज्यूरी द्वारा चुने जाने के बाद अचानक यह क्यों? मैं कालिया जी को ईमेल लिखता हूं. वे जवाब में फ़ोन करते हैं और कहते हैं कि चिंता की कोई बात नहीं है, बस एक कहानी 'ग्यारहवीं ए के लड़के' की कुछ लाइनें ज्ञानपीठ की मर्यादा के अनुकूल नहीं है. ठीक है, आपकी मर्यादा तो आप ही तय करेंगे, इसलिए मैं कहता हूं कि मैं उस कहानी को फ़िलहाल इस संग्रह से हटाने को तैयार हूं. वे कहते हैं कि फिर किताब छप जाएगी.
लेकिन रहस्यमयी ढंग से फिर भी ‘कभी हां कभी ना कभी चुप्पी’ का यह बेवजह का चक्र चलता रहता है और आख़िर 30 मार्च को फ़ोन पर कालिया जी कहते हैं कि ज्ञानपीठ के ट्रस्टी आलोक जैन मेरे सामने बैठे हैं और यहां तुम्हारे लिए माहौल बहुत शत्रुतापूर्ण हो गया है, इसलिए मुझे तुम्हें बता देना चाहिए कि तुम्हारी कहानी की किताब नहीं छप पाएगी. मैं हैरान हूं. 'शत्रुतापूर्ण' एक खतरनाक शब्द है और तब और भी खतरनाक, जब 'देश की सबसे बड़ी साहित्यिक संस्था' का मुखिया पहली किताब के इंतज़ार में बैठे एक लेखक के लिए इसे इस्तेमाल करे. मुझसे थोड़े पुराने लेखक ऐसे मौकों पर मुझे चुप रहने की सलाह दिया करते हैं, लेकिन मैं फिर भी पूछता हूं कि क्यों? शत्रुतापूर्ण क्यों? हम यहां कोई महाभारत लड़ रहे हैं क्या? आपका और मेरा तो एक साहित्यिक संस्था और लेखक का रिश्ता भर है. लेकिन इतने में आलोक जैन तेज आवाज में कुछ बोलने लगते हैं. कालिया जी कहते हैं कि चाहे तो सीधे बात कर लो. मैं उनसे पूछता हूं कि क्या कह रहे हैं 'सर'?
तो जो वे बताते हैं, वह यह कि तुम्हारी कहानियां मां-बहन के सामने पढ़ने लायक कहानियां नहीं हैं. आलोक जी को मेरा 'फ्रैंकनैस' पसंद नहीं है, मेरी कहानियां अश्लील हैं. क्या सब की सब? हां, सब की सब. उन्हें तुम्हारे पूरे 'एटीट्यूड' से प्रॉब्लम है और प्रॉब्लम तो उन्हें तुम्हारी कविताओं से भी है, लेकिन अब वह तो छप गई. फ़ोन पर कही गई बातों में जितना अफसोस आ सकता है, वह यहां है. मैं आलोक जी से बात करना चाहता हूं लेकिन वे शायद गुस्से में हैं, या पता नहीं. कालिया जी मुझसे कहते हैं कि मैं क्यों उनसे बात करके खामखां खुद को हर्ट करना चाहता हूं? यह ठीक बात है. हर्ट होना कोई अच्छी बात नहीं. मैं फ़ोन रख देता हूं और सन्न बैठ जाता हूं.
जो वजहें मुझे बताई गईं, वे थीं 'अश्लीलता' और मेरा 'एटीट्यूड'.
अश्लीलता एक दिलचस्प शब्द है. यह हवा की तरह है, इसका अपना कोई आकार नहीं. आप इसे किसी भी खाली जगह पर भर सकते हैं. जैसे आपके लिए फिल्म में चुंबन अश्लील हो सकते हैं और मेरे एक साथी का कहना है कि उसे हिन्दी फिल्मों में चुम्बन की जगह आने वाले फूलों से ज़्यादा अश्लील कुछ नहीं लगता. आप बच्चों के यौन शोषण पर कहानी लिखने वाले किसी भी लेखक को अश्लील कह सकते हैं. क्या इसका अर्थ यह भी नहीं कि आप उस विषय पर बात नहीं होने देना चाहते. आपका यह कृत्य मेरे लिए अश्लील नहीं, आपराधिक है. यह उन लोकप्रिय अखबारों जैसा ही है जो बलात्कार की खबरों को पूरी डीटेल्स के साथ रस लेते हुए छापते हैं, लेकिन कहानी के प्लॉट में सेक्स आ जाने से कहानी उनके लिए अपारिवारिक हो जाती है (मां-बहन के पढ़ने लायक नहीं), बिना यह देखे कि कहानी की नीयत क्या है.
मां-बहन को कम से कम यह तो खुद तय करने दीजिए कि वे क्या पढ़ें या क्या नहीं. उन्हें आपके इस उपकार की ज़रूरत नहीं है. उन्हें उनके हाल पर छोड़ दीजिए. उन्हें यह 'अश्लीलता' पढ़ने दीजिए कि कैसे एक कहानी की नायिका अपना बलात्कार करने वाले पिता को मार डालती है. लेकिन मैं जानता हूं कि इसी से आप डरते हैं.मेरा एक पुराना परिचित कहता था कि वह खूब पॉर्न देखता है, लेकिन अपनी पत्नी को नहीं देखने देता क्योंकि फिर उसके बिगड़ जाने का खतरा रहेगा. क्या यह मां-बहन वाला तर्क वैसा ही नहीं है? अगर हमने उनके लिए दुनिया इतनी ही अच्छी रखी होती तो मुझे ऐसी कहानियां लिखने की नौबत ही कहाँ आती? यह सब कुछ मेरी कहानियों में किसी जादुई दुनिया से नहीं आया, न ही ये नर्क की कहानियां हैं. और अगर ये नर्क की, किसी पतित दुनिया की कहानियां लगती हैं तो वह दुनिया ठीक हम सबके बीच में है. मैं जब आया, मुझे दुनिया ऐसी ही मिली, अपने तमाम कांटों, बेरहमी और बदसूरती के साथ. आप चाहते हैं कि उसे इगनोर किया जाए. मुझे सच से बचना नहीं आता, न ही मैंने आपकी तरह उसके तरीके ईज़ाद किए हैं. सच मुझे परेशान करता है, आपको कैसे बताऊं कि कैसे ये कहानियां मुझे चीरकर, रुलाकर, तोड़कर, घसीटकर आधी रात या भरी दोपहर बाहर आती हैं और कांच की तरह बिखर जाती हैं. मेरी ग़लती बस इतनी है कि उस कांच को बयान करते हुए मैं कोमलता और तथाकथित सभ्यता का ख़याल नहीं रख पाता. रखना चाहता भी नहीं.
आख़िर 30 मार्च को फ़ोन पर कालिया जी कहते हैं कि ज्ञानपीठ के ट्रस्टी आलोक जैन मेरे सामने बैठे हैं और यहां तुम्हारे लिए माहौल बहुत शत्रुतापूर्ण हो गया है
लेकिन इसी बीच मुझे याद आता है कि भारतीय ज्ञानपीठ में 'अभिव्यक्ति' की तो इतनी आज़ादी रही कि पिछले साल ही 'नया ज्ञानोदय' में छपे एक इंटरव्यू में लेखिकाओं के लिए कहे गए 'छिनाल' शब्द को भी काटने के काबिल नहीं समझा गया. मेरी जिस कहानी पर आपत्ति थी, वह भी 'नया ज्ञानोदय' में ही छपी थी और तब संपादकीय में भी कालिया जी ने उसके लिए मेरी प्रशंसा की थी. मैं सच में दुखी हूं, अगर उस कहानी से ज्ञानपीठ की मर्यादा को धक्का लगता है. लेकिन मुझे ज़्यादा दुख इस बात से है कि पहले पत्रिका में छापते हुए इस बात के बारे में सोचा तक नहीं गया. लेकिन तब नहीं, तो अब मेरे साथ ऐसा क्यों? यहां मुझे खुद पर लगा दूसरा आरोप याद आता है- मेरा एटीट्यूड.
मुझे नहीं याद कि मैं किसी काम के अलावा एकाध बार से ज़्यादा ज्ञानपीठ के दफ़्तर आया होऊं. मुझे फ़ोन वोन करना भी पसंद नहीं, इसलिए न ही मैंने 'कैसे हैं सर, आप बहुत अच्छे लेखक, संपादक और ईश्वर हैं' कहने के लिए कभी कालिया जी को फ़ोन किया, न ही आलोक जी को. यह भी गलत बात है वैसे. बहुत से लेखक हैं, जो हर हफ़्ते आप जैसे बड़े लोगों को फ़ोन करते हैं, मिलने आते हैं, आपके सब तरह के चुटकुलों पर देर तक हँसते हैं, और ऐसे में मेरी किताब छपे, पुरस्कार मिले, यह कहाँ का इंसाफ़ हुआ? माना कि ज्यूरी ने मुझे चुना लेकिन आप ही बताइए, आपके यहाँ दिखावे के अलावा उसका कोई महत्व है क्या?
ऊपर से नीम चढ़ा करेला यह कि मैंने हिन्दी साहित्य की गुटबाजियों और राजनीति पर अपने अनुभवों से 'तहलका' में एक लेख लिखा. वह शायद बुरा लग गया होगा. और इसके बाद मैंने ज्ञानपीठ में नौकरी करने वाले और कालिया जी के लाड़ले 'राजकुमार' लेखक कुणाल सिंह को नाराज कर दिया. मुझे पुरस्कार मिलने की घोषणा होने के दो-एक दिन बाद ही कुणाल ने एक रात शराब पीकर फ़ोन किया था और बदतमीजी की थी. उस किस्से को इससे ज़्यादा बताने के लिए मुझे इस पत्र में काफ़ी गिरना पड़ेगा, जो मैं नहीं चाहता. ख़ैर, यही बताना काफ़ी है कि हमारी फिर कभी बात नहीं हुई और मैं अपनी कहानी की किताब को लेकर तभी से चिंतित था क्योंकि ज्ञानपीठ में कहानी-संग्रहों का काम वही देख रहे थे. मैंने अपनी चिंता कालिया जी को बताई भी, लेकिन ज़ाहिर सी बात है कि उससे कुछ हुआ नहीं.
वैसे वे सब बदतमीजी करें और आप सहन न करें, यह तो अपराध है ना? वे राजा-राजकुमार हैं और आपका फ़र्ज़ है कि वे आपको अपमानित करें तो बदले में आप 'सॉरी' बोलें. यह अश्लील कहाँ है? ज्ञानपीठ इन्हीं सब चीजों के लिए तो बनाया गया है शायद! हमें चाहिए कि आप सबको सम्मान की नज़रों से देखें, अपनी कहानियां लिखें और तमाम राजाओं-राजकुमारों को खुश रखें. मेरे साथ के बहुत से काबिल-नाकाबिल लेखक ऐसा ही कर भी रहे हैं. ज्ञानपीठ से ही छपे एक युवा लेखक हैं जिन पर कालिया जी और कुणाल को नाराज़ कर देने का फ़ोबिया इस कदर बैठा हुआ है कि दोनों में से किसी का भी नाम लेते ही पूछते हैं कि कहीं मैं फ़ोन पर उनकी बातें रिकॉर्ड तो नहीं कर रहा और फिर काट देते हैं. अब ऐसे में क्या लिक्खा जाएगा? हम बात करते हैं अभिव्यक्ति, ग्लोबलाइजेशन और मानवाधिकारों की.
ख़ैर, राजकुमार चाहते रहे हैं कि वे किसी से नाराज़ हों तो उसे कुचल डालें. चाहना भी चाहिए. यही तो राजकुमारों को शोभा देता है. वे किसी को भी गाली दे सकते हैं और किसी की भी कहानी या किताब फाड़कर नाले में फेंक सकते हैं. कोलकाता के एक कमाल के युवा लेखक की कहानी आपकी पत्रिका ‘नया ज्ञानोदय’ के एक विशेषांक में छपने की घोषणा की गई थी, लेकिन वह नहीं छपी और रहस्यमयी तरीके से आपके दफ़्तर से, ईमेल से उसकी हर प्रति गायब हो गई क्योंकि इसी बीच राजकुमार की आंखों को वह लड़का खटकने लगा. एक लेखक की किताब नवलेखन पुरस्कारों के इसी सेट में छपी है और जब वह प्रेस में छपने के लिए जाने वाली थी, उसी दिन संयोगवश उसने आपके दफ़्तर में आकर अपनी किताब की फ़ाइल देखी और पाया कि उसकी पहली कहानी के दस पेज गायब थे. यह संयोग ही है कि उसकी फ़ाइनल प्रूफ़ रीडिंग राजकुमार ने की थी और वे उस लेखक से भी नाराज़ थे. किस्से तो बहुत हैं. अपमान, अहंकार, अनदेखी और लापरवाही के. मैं तो यह भी सुनता हूं कि कैसे पत्रिका के लिए भेजी गई किसी गुमनाम लेखक की कहानी अपना मसाला डालकर अपनी कहानी में तब्दील की जा सकती है.
लेकिन अकेले कुणाल को इस सबके लिए जिम्मेदार मानना बहुत बड़ी भूल होगी. वे इतने बड़े पद पर नहीं हैं कि ऊपर के लोगों की मर्ज़ी के बिना यह सब कर सकें. समय बहुत जटिल है और व्यवस्था भी. सब कुछ टूटता-बिगड़ता जा रहा है और बेशर्म मोहरे इस तरह रखे हुए हैं कि ज़िम्मेदारी किसी की न रहे.
नामवर जी, आप सुन रहे हैं कि मेरी 'सम्मानित' की गई किताब क्या है? वह जिसके बारे में अखबारों में बड़े गौरवशाली शब्दों में कुछ छपा था और जून की एक दोपहर आपने फ़ोन करके बधाई दी थी, वह ख़ालिस गंदगी है.
मैं फिर भी आलोक जैन जी को ईमेल लिखता हूं. उसका भी कोई जवाब नहीं आता. मैं फ़ेसबुक पर लिखता हूं कि मेरी किताब के बारे में भारतीय ज्ञानपीठ के ट्रस्टी की यह राय है. इसी बीच आलोक जैन फ़ोन करते हैं और मुझे तीसरी ही वजह बताते हैं. वे कहते हैं कि यूं तो उन्हें मेरा लिखा पसंद नहीं और वे नहीं चाहते थे कि मेरी कविताओं को पुरस्कार मिले (उन्होंने भी पढ़ी तब प्रतियोगिता के समय किताब?), लेकिन फिर भी उन्होंने नामवर सिंह जी की राय का आदर किया और पुरस्कार मिलने दिया. (यह उनकी महानता है!) वे आगे कहते हैं, "लेकिन एक लेखक को दो विधाओं के लिए नवलेखन पुरस्कार नहीं दिया जा सकता." लेकिन जनाब, पहली बात तो यह नियम नहीं है कहीं और है भी, तो पुरस्कार तो एक ही मिला है. वे कहते हैं कि नहीं, अनुशंसा भी पुरस्कार है और उन्होंने 'कालिया' को पुरस्कारों की घोषणा के समय ही कहा था कि यह गलत है. उनकी आवाज ऊंची होती जाती है और वे ज्यादातर बार सिर्फ 'कालिया' ही बोलते हैं.
वे कहते हैं कि एक बार ऐसी गलती हो चुकी है, जब कालिया ने कुणाल सिंह को एक बार कहानी के लिए और बाद में उपन्यास के लिए नवलेखन पुरस्कार दिलवा दिया. अब यह दुबारा नहीं होनी चाहिए. तो पुरस्कार ऐसे भी दिलवाए जाते हैं? और अगर वह ग़लती थी तो क्यों नहीं उसे सार्वजनिक तौर पर स्वीकार किया जाता और वह पुरस्कार वापस लिया जाता? मेरी तो किताब को ही पुरस्कार कहकर नहीं छापा जा रहा. और यह सब पता चलने में एक साल क्यों लगा? क्या लेखक का सम्मान कुछ नहीं और उसका समय?
यह सब पूछने पर वे लगभग चिल्लाने लगते हैं कि वे हस्तक्षेप नहीं करेंगे, कालिया जी जो भी 'गंदगी' छापना चाहें, छापें और भले ही ज्ञानपीठ को बर्बाद कर दें. नामवर जी, आप सुन रहे हैं कि मेरी 'सम्मानित' की गई किताब क्या है? वह जिसके बारे में अखबारों में बड़े गौरवशाली शब्दों में कुछ छपा था और जून की एक दोपहर आपने फ़ोन करके बधाई दी थी, वह ख़ालिस गंदगी है. इसके बाद आलोक जी गुस्से में फ़ोन काट देते हैं. ज्ञानपीठ का ही एक कर्मचारी मुझसे कहता है कि चूंकि तकनीकी रूप से मेरे कहानी-संग्रह को छापने से मना नहीं किया जा सकता, इसलिए मुझे उकसाया जा रहा है कि मैं खुद ही अपनी किताब वापस ले लूं, ताकि जान छूटे.
सब कुछ अजीब है. चालाक, चक्करदार और बेहद अपमानजनक. शायद मेरे बार-बार के ईमेल्स का असर है कि आलोक जैन, जो कह रहे थे कि वे कभी ज्ञानपीठ के कामकाज में हस्तक्षेप नहीं करते, मुझे एक दिन फ़ोन करते हैं और कहते हैं, "मैंने कालिया से किताब छापने के लिए कह दिया है. थैंक यू." वे कहते हैं कि उनकी मेरे बारे में और पुरस्कार के बारे में राय अब तक नहीं बदली है और ये जो भी हैं - बारह शब्दों के दो वाक्य - मुझे बासी रोटी के दो टुकड़ों जैसे सुनते हैं. यह तो मुझे बाद में पता चलता है कि यह भी झूठी तसल्ली भर है ताकि मैं चुप बैठा रहूं.
फ़ोन का सिलसिला चलता रहता है. वे अगली सुबह फिर से फ़ोन करते हैं और सीधे कहते हैं कि आज महावीर जयंती है, इसलिए वे मुझे क्षमा कर रहे हैं. लेकिन मेरी गलती क्या है? तुमने इंटरनेट पर यह क्यों लिखा कि मैंने तुम्हारी किताब के बारे में ऐसा कहा? उन्हें गुस्सा आ रहा है और वे जज्ब कर रहे हैं. वे मुझे बताते जाते हैं, फिर से वही, कि मेरी दो किताबों को छापने का निर्णय गलत था, कि मैं खराब लिखता हूं, लेकिन फिर भी उन्होंने कल कहा है कि किताब छप जाए, इतनी किताब छपती हैं वैसे भी. मैं अपना पक्ष रखना चाहता हूं कि मेरी क्या गलती है, मुझे आप लोगों ने चुना, फिर जाने क्यों छापने से मना किया, फिर कहा कि छापेंगे, फिर मना किया और अब फिर टुकड़े फेंकने की तरह छापने का कह रहे हैं. और जो भी हो, आप इस तरह कैसे बात कर सकते हैं अपने एक लेखक से? लेकिन मैं जैसे ही बोलने लगता हूं, वे चिल्लाने लगते हैं- जब कह रहा हूं कि मुझे गुस्सा मत दिला तू. कुछ भी करो, कुछ भी कहो, कोई तुम्हारी बात नहीं सुनेगा, कोई तुम्हारी बात का यक़ीन नहीं करेगा, उल्टे तुम्हारी ही भद पिटेगी. इसलिए अच्छा यही है कि मुझे गुस्सा मत दिलाओ. यह धमकी है. मैं कहता हूं कि आप बड़े आदमी हैं लेकिन मेरा सच, फिर भी सच ही है, लेकिन वे फिर चुप करवा देते हैं. बात उनकी इच्छा से शुरू होती है, आवाज़ें उनकी इच्छा से दबती और उठती हैं और कॉल पूरी.
कभी तू, कभी तुम, कभी चिल्लाना, कभी पुचकारना, सार्वजनिक रूप से सम्मानित करने की बात करना और फ़ोन पर दुतकारकर बताना कि तुम कितने मामूली हो- हमारे पैरों की धूल. मुझे ठीक से समझ नहीं आ रहा कि नवलेखन पुरस्कार लेखकों को सम्मानित करने के लिए दिए जाते हैं या उन्हें अपमानित करने के लिए. यह उनका एंट्रेंस टेस्ट है शायद कि या तो वे इस पूरी व्यवस्था का 'कुत्ता' बन जाएं या फिर जाएं भाड़ में. और इस पूरी बात में उस 'गलती' की ओर किसी का ध्यान नहीं जाता, जब आप अपने यहां काम करने वाले लेखक को यह पुरस्कार देते हैं, दो बार. और दूर-दराज के कितने ही लेखकों की कहानियां-कविताएं-किताबें महीनों आपके पास पड़ी रहती हैं और ख़त्म हो जाती हैं. बहुत लिख दिया. शायद यही 'एटीट्यूड' और 'फ्रैंकनैस' है मेरा, जिसकी बात कालिया जी ने फ़ोन पर की थी. लेकिन क्या करूं, मुझसे नहीं होता यह सब. मैं इन घिनौनी बातचीतों, मामूली उपलब्धियों के लिए रचे जा रहे मामूली षड्यंत्रों और बदतमीज़ फ़ोन कॉलों का हिस्सा बनने के लिए लिखने नहीं लगा था, न ही अपनी किताब को आपके खेलने की फ़ुटबॉल बनाने के लिए. माफ़ कीजिए, मैं आप सबकी इस व्यवस्था में कहीं फिट नहीं बैठता. ऊपर से परेशानियां और खड़ी करता हूं. आपके हाथ में बहुत कुछ होगा (आपको तो लगता होगा कि बनाने-बिगाड़ने की शक्ति भी) लेकिन मेरे हाथ में मेरे लिखने, मेरे आत्मसम्मान और मेरे सच के अलावा कुछ नहीं है. और मैं नहीं चाहता कि सम्मान सिर्फ़ कुछ हज़ार का चेक बनकर रह जाए या किसी किताब की कुछ सौ प्रतियाँ. मेरे बार-बार के अनुरोध जबरदस्ती किताब छपवाने के लिए नहीं थे सर, उस सम्मान को पाने के लिए थे, जिस पर पुरस्कार पाने या न पाने वाले किसी भी लेखक का बुनियादी हक होना चाहिए था. लेकिन वही आप दे नहीं सकते. मैं देखता हूं यहाँ लेखकों को - संस्थाओं और उनके मुखियाओं के इशारों पर नाचते हुए, बरसों सिर झुकाकर खड़े रहते हुए ताकि किसी दिन एक बड़े पुरस्कार को हाथ में लिए हुए खिंचती तस्वीर में सिर उठा सकें. लेकिन उन तस्वीरों में से मुझे हटा दीजिए और कृपया मेरा सिर बख़्श दीजिए. फ़ोन पर तो आप किताब छापने के लिए तीन बार ‘हां’ और तीन बार ‘ना’ कह चुके हैं, लेकिन आपने अब तक मेरे एक भी पत्र का जवाब नहीं दिया है. आलोक जी के आख़िरी फ़ोन के बाद लिखे गए एक महीने पहले के उस ईमेल का भी, जिसमें मैंने कालिया जी से बस यही आग्रह किया था कि जो भी हो, मेरी किताब की अंतिम स्थिति मुझे लिखकर बता दी जाए, मैं इसके अलावा कुछ नहीं चाहता. उनका एसएमएस ज़रूर आया था कि जल्दी ही जवाब भेजेंगे. उस जल्दी की मियाद शायद एक महीने में ख़त्म नहीं हुई है.
मैं जानता हूं कि आप लोग अपनी नीयत के हाथों मजबूर हैं. आपके यहां कुछ धर्म जैसा होता हो तो आपको धर्मसंकट से बचाने के लिए और अपने सिर को बचाने के लिए मैं ख़ुद ही नवलेखन पुरस्कार लेने से इनकार करता हूं और अपनी दोनों किताबें भी भारतीय ज्ञानपीठ से वापस लेता हूं, मुझे चुनने वाली उस ज्यूरी के प्रति पूरे सम्मान के साथ, जिसे आपने थोड़े भी सम्मान के लायक नहीं समझा. कृपया मेरी किताबों को न छापें, न बेचें. और जानता हूं कि इनके बिना कैसी सत्ता, लेकिन फिर भी आग्रह कर रहा हूं कि हो सके तो ये पुरस्कारों के नाटक बन्द कर दें और हो सके, तो कुछ लोगों के पद नहीं, बल्कि किसी तरह भारतीय ज्ञानपीठ की वह मर्यादा बचाए रखें, जिसे बचाने की सबसे ज़्यादा ज़रूरत है.
सुनता हूं कि आप शक्तिशाली हैं. लोग कहते हैं कि आपको नाराज़ करना मेरे लिए अच्छा नहीं. हो सकता है कि साहित्य के बहुत से खेमों, प्रकाशनों, संस्थानों से मेरी किताबें कभी न छपें, आपके पालतू आलोचक लगातार मुझे अनदेखा करते रहें और आपके राजकुमारों और उनके दरबारियों को महान सिद्ध करते रहें, या और भी कोई बड़ी कीमत मुझे चुकानी पड़े. लेकिन फिर भी यह सब इसलिए ज़रूरी है ताकि बरसों बाद मेरी कमर भले ही झुके, लेकिन अतीत को याद कर माथा कभी न झुके, इसलिए कि आपको याद दिला सकूं कि अभी भी वक़्त उतना बुरा नहीं आया है कि आप पच्चीस हज़ार या पच्चीस लाख में किसी लेखक को बार-बार अपमानित कर सकें, इसलिए कि हम भले ही भूखे मरें लेकिन सच बोलने का जुनून बहुत बेशर्मी से हमारी ज़बान से चिपककर बैठ गया है और इसलिए कि जब-जब आप और आपके साहित्यिक वंशज इतिहास में, कोर्स की किताबों में, हिन्दी के विश्वविद्यालयों और संस्थानों में महान हो रहे हों, तब-तब मैं अपने सच के साथ आऊं और उस भव्यता में चुभूं.
तब तक शायद हम सब थोड़े बेहतर हों और अपने भीतर की हिंसा पर काबू पाएँ.
गौरव सोलंकी
11/05/2012
(फोटो 'तहलका' वेबसाइट से 'साभार')

शुक्रवार, 7 जनवरी 2011

कद्दूकस और तीसरे पीरियड में छुट्टी...

युवा कहानीकार (और मेरे साथी) गौरव सोलंकी को राजस्थान पत्रिका ने इस कहानी के लिए विशेष सम्मान दिया है....क्या इत्तेफाक है कि कुछ दिन पहले ही उनकी कहानियों को मेरे ब्लॉग पर डालने के लिए हम दोनों ने समीक्षा का बहाना ढूंढा था...खैर, ये बहाना भी  बुरा नहीं...

कद्दूकस मुझे बहुत प्यारा लगता था। उसे देखकर हमेशा लगता था, जैसे अभी चलने लगेगा। बहुत बाद में मैंने जाना कि कुछ चीजों के होने का आपको उम्र भर इंतज़ार करना पड़ता है। उस से पहले मैंने रसोई में कई काँच के गिलास तोड़े, बोलना और छिपकर रोना सीखा।

मेरी माँ शहर की सबसे सुन्दर औरत थी और हम सब यह बात जानते थे। मैं भी, जो बारह साल का था और चाचा भी, जो बत्तीस साल के थे। ऐसा जान लेने के बाद एक स्थायी अपराधबोध सा हमारे भीतर बस जाता था। हम सब आपस में घर-परिवार की बहुत सारी बातें करते और उस से बाहर निकल आने की कोशिश करते लेकिन आखिर में हम सो या रो ही रहे होते। मैं अकेला था और मेरे भाई बहन नहीं थे। वे होते तो हम सब एक साथ अकेले होते। हमारा घर ही ऐसा था। बाद में मैंने अख़बारों में वास्तुशास्त्र के बारे में पढ़ा तो पता चला कि सदर दरवाज़ा दक्षिण की ओर नहीं होना चाहिए था और रसोई के पूर्वी कोने में जो लोहे की टंकी रखी थी, जिसमें माँ आटा और मैं अपनी कॉमिक्स रखता था, उसे घर में कहीं नहीं होना चाहिए था।

मैं आठवें बरस में था, जब मैंने आत्महत्या की पहली कोशिश की। मैं रसोई में चाकू अपनी गर्दन पर लगाकर खड़ा था और आँगन से मुझे देखकर माँ दौड़ी चली आ रही थी। वह मेरे सामने आकर रुक गई और प्यार से मुझे उसे फेंक देने को कहने लगी। मेरा चेहरा तना हुआ था और मैं अपना गला काट ही लेना चाहता था कि न जाने आसमान में मुझे कौनसा रंग दिखा या माँ की बिल्लौरी आँखें ही मुझे सम्मोहित कर गईं, मैंने चाकू फेंक दिया। फिर माँ ने मुझे बहुत प्यार किया और बहुत मारा। मगर उसने मुझसे ऐसा करने की वज़ह नहीं पूछी। उसे लगा होगा कि कोई वज़ह नहीं है।

मेरी माँ बहुत सुन्दर थी और वह नाराज़ भी हो जाती थी तो भी उससे ज़्यादा दिनों तक गुस्सा नहीं रहा जा सकता था। उसके शरीर की घी जैसी खुशबू हमारे पूरे घर में तैरती रहती थी और आख़िर पूरे शहर की तरह हम भी उसमें डूब जाते थे।

पूरा शहर, जिसके मेयर से लेकर रिक्शे वाले तक उसके दीवाने थे। वह नाचती थी तो घर टूट जाते थे, पत्नियां अपने पतियों से रूठकर रोने लगती थीं, स्कूलों के सबसे होनहार बच्चे आधी छुट्टी में घर भाग आते थे, बाज़ार बन्द हो जाते थे और कभी कभी दंगे भी हो जाते थे।

यह 2002 की बात है। फ़रीदा ऑडिटोरियम में माँ का डांस शो था। उसमें तीन हज़ार लोग बैठ सकते थे और एक हफ़्ते पहले से ही टिकटें ब्लैक में बिकने लगी थीं। इसी का फ़ायदा उठाकर महेश प्रजापति और निर्मल शर्मा नाम के दो आदमियों ने ब्लैक में फ़र्ज़ी टिकटें भी बेचनी शुरु कर दीं। वे पचास रुपए वाली एक टिकट दो सौ रुपए में बेच रहे थे और इस तरह उन्होंने पाँच सौ नकली टिकटें बेच डालीं। शो रात दस बजे था। आठ बजते बजते सब लोग ऑडिटोरियम के बाहर जुटने लगे। नौ बजे से एंट्री शुरु हुई। साढ़े नौ बजते बजते तीन हज़ार लोग अन्दर थे और पाँच सौ नाराज़ लोग बाहर। उनमें बूढ़े भी थे, औरतें भी और बच्चे भी। उन्हें आयोजकों ने अन्दर घुसने नहीं दिया, जबकि वे दावा करते रहे कि उन्होंने दो-दो सौ रुपए देकर टिकटें खरीदी हैं। यह उनमें से अधिकांश की एक दिन की आमदनी थी और मिस माधुरी का शो नहीं होता, तो वे इससे चार दिन का खर्चा चला सकते थे। वे परिवार वाले थे और उन्हें अब अपने बच्चों और पत्नियों के आगे बेइज्जत होना पड़ रहा था। उन्हें न ही महेश प्रजापति दिखाई दे रहा था और न ही निर्मल शर्मा। सिपाही अब उन्हें धकेलकर परिसर से बाहर निकालने लगे थे। वे कह रहे थे कि उनकी बात सुनी जाए। उनकी बात नहीं सुनी गई।

तभी भीड़ में से एक ग्यारह बारह साल के लड़के ने यूं ही चिल्लाकर कहा कि निर्मल शर्मा और महेश प्रजापति स्टेशन पर गए हैं और बाराखंभा एक्सप्रेस से दिल्ली भाग जाने वाले हैं। पाँच सात मिनट में ही पाँच सौ लोग यह बात जान गए और वे तेजी से स्टेशन की ओर बढ़ गए। जबकि उनमें से अधिकांश को नहीं पता था कि बाराखंभा एक्सप्रेस कहाँ से आती है और कहाँ को जाती है और उसका वक्त क्या है। वे सब दस बजे तक स्टेशन पहुँचे। वहाँ उन्हें पता लगा कि बाराखंभा एक्सप्रेस के आने का सही वक्त साढ़े चार बजे है, मगर वह सुबह सात बजे तक आएगी। वह अँधेरी रात थी और स्टेशन मास्टर ने अपने जीवन में पहली बार इतने लोग एक साथ देखे थे। उसे लगा कि ये सब लोग कहीं जाना चाहते हैं और वह ख़ुशी के मारे टिकट खिड़की खोलकर बैठ गया। यह जानकर कि ट्रेन सुबह आएगी, भीड़ आधे घंटे में वापस लौट गई। जाने से पहले उन्होंने सुबह सात बजे से पहले स्टेशन आने का संकल्प लिया और आठ दस लोगों को रात भर वहीं निगरानी के लिए छोड़ दिया। यह बहुत बड़ी बात भी नहीं थी कि दो सौ रुपए पानी में चले गए थे मगर वह तारीख ही ऐसी थी कि बात बड़ी होती जा रही थी। बाद में जब मैंने पागलों की तरह वास्तुशास्त्र पढ़ा तो जाना कि फ़रीदा ऑडिटोरियम और स्टेशन, दोनों के दरवाज़े उनसे ठीक विपरीत दिशाओं में थे, जिनमें उन्हें होना चाहिए था। साथ ही माँ ने उस दिन लाल रंग की स्कर्ट पहनी थी और वह जब शो में आई थी तो उसने पहले बायां पैर स्टेज पर रखा था।

लाल रंग ख़ून का रंग था और यह हम सब भूल गए थे।

वहाँ जो लोग रुके, संयोगवश आरिफ़, इंतख़ाब आलम, नासिर, जब्बार, सुहैल, सरफ़राज़ के पिता, नवाब अली, शौकत और उसका चार साल का बेटा थे। उन्होंने चने खरीदकर खाए और रात में दो दो बार चाय पी। सुबह पौने आठ बजे ट्रेन आई तो नासिर और शौकत को छोड़कर सब बैठे बैठे सो गए थे। रात वाले दस बीस लोग और आ जुटे थे। कुछ बच्चे भी अपने पिताओं के साथ तमाशा देखने आए थे। ज़्यादातर लोग मिस माधुरी का शो भूल चुके थे और बस निर्मल शर्मा और महेश प्रजापति को मार पीटकर घर लौट जाना चाहते थे। शौकत को उसी दिन अपनी ससुराल से अपनी बीवी को लाना था और अब वह जल्दी पीछा छुड़ाकर घर लौट जाना चाहता था। वह जब पानी पीने के लिए प्याऊ की ओर गया तो जब्बार की बहन सबीना (शायद उसका यही नाम था...और धीरे धीरे आप देखेंगे कि इतने सारे नामों का कोई ख़ास अर्थ नहीं रह जाएगा) उसे देखकर मुस्कुराई। वह किसी दूसरी ट्रेन से बनारस जा रही थी और सुबह से स्टेशन पर खड़ी थी।

जवाब में शौकत भी मुस्कुराया। फिर वह बिना कुछ बोले प्याऊ की टोंटी से मुँह लगाकर पानी पीने लगा। तभी मोहनीश अग्रवाल नाम के एक लड़के ने, जो ट्रेन से उतरकर चाय पी रहा था और जिसने नारंगी साफा बाँध रखा था, समझा कि सबीना उसे देखकर मुस्कुराई है। वह सबीना के पास आकर खड़ा हो गया और बोलने लगा कि नम्बर दे दो और आई लव यू। सबीना घबरा गई और उसने शब्बार पुकारा (उसने शौकत से शुरु किया लेकिन घबराहट के बावज़ूद उसे इतना होश था कि अपने भाई को ही पुकारे)। बीस पच्चीस लोग, जिन्हें एक स्कूली लड़के ने रात अपने मन से बनाकर कह दिया था कि निर्मल शर्मा और महेश प्रजापति बाराखंभा एक्सप्रेस से जाएँगे, पागलों की तरह स्टेशन और ट्रेन के डिब्बे छान रहे थे। तभी उन्हें सबीना की पुकार सुनी। सबसे पहले शौकत उसके पास पहुँचा और उसने मोहनीश अग्रवाल को एक थप्पड़ मारा। जवाब में मोहनीश अग्रवाल ने भी शौकत को थप्पड़ मारा। चाय पी रहे उसके दो तीन दोस्त भी आगे आ गए। वे और आगे आ ही रहे थे कि तभी भीड़ ने उन्हें घेर लिया। निर्मल शर्मा भी उसी तरह तिलक लगाए रखता था, जिस तरह मोहनीश अग्रवाल ने लगा रखा था। भीड़ के ज़्यादातर लोगों ने उसे टिकट खरीदते हुए बस एक नज़र ही देखा था, इसलिए उन्हें लगा कि यही निर्मल शर्मा है और इसीलिए सबीना चिल्लाई है। कुछ लोग सबीना की दाद देने लगे और बाकी मोहनीश अग्रवाल और उसके साथियों को मारने लगे।

बाद में जो हुआ, वह यह था कि मेरे शहर के सैंकड़ों लोग अचानक स्टेशन पर आ गए। उनके पास पैट्रोल के गैलन थे और लाठियाँ भी। बच्चे भी थे, जो ट्रेन पर पत्थर फेंक रहे थे। उनमें से कोई ऐसा नहीं था, जिसने मिस माधुरी के शो का टिकट खरीदा था। टिकट वाली ठगी के शिकार तो मोहनीश अग्रवाल को पीटकर ही पेट भर चुके थे। वे सब हैरान होकर देख रहे थे कि ट्रेन चल पड़ी है और भीड़ ने एक डिब्बे में आग लगा दी है।

मैं नहीं जानता कि सब ख़त्म कर डालने पर आमादा वह भीड़ अचानक कहाँ से आ गई थी, लेकिन मुझे लगता रहा कि मोहनीश अग्रवाल वह हरकत न करता और जब्बार, शौकत और बाकी लोग उस समय स्टेशन पर न होते तो शायद कुछ भी न हुआ होता। मोहनीश दो चार फ़िकरे कसता और अपनी ट्रेन चलने पर उसमें चढ़ जाता। सबीना कुछ देर परेशान रहती और भूल जाती। जब्बार उस समय किसी की साइकिल का पंक्चर लगा रहा होता और दोपहर में अपने घर जाकर खाना खाकर आधा घंटा सोता। लेकिन यह सब नहीं हुआ। आगे बहुत सी हत्याएँ और पुलिसिया प्रताड़नाएँ थीं। ख़ून के कई हफ़्ते और अमावस सी नफ़रत। मेरी माँ मिस माधुरी उस दिन देर तक सोती रही। तीसरे पीरियड में मेरी छुट्टी हो गई थी और चाचा मुझे लेने आए थे।

गौरव सोलंकी

(पूरी कहानी पढ़ने के लिए गौरव के निजी ब्लॉग पर चक्कर लगा सकते हैं...)


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शुक्रवार, 5 नवंबर 2010

दीपावली पर 50 झंडू गानों का 'म्यूज़िकल बम'

बात कुछ यूं शुरू ही थी कि सितंबर के महीने में हम कानपुर घूमने निकले थे और अचानक अंताक्षरी के बीच कुछ दिलचस्प गानों का ज़िक्र होने लगा जिनका हुलिया आम हिंदुस्तानी गानों से थोड़ा अलग होता है.....इन्हें ‘झंडू’ गानों की कैटेगरी में रखा जा सकता था। दिमाग में ऐसे कई गाने एक साथ घूमने लगे और भीतर गुदगुदी होने लगी। फिर, कुछ ही दिन बाद हमारे दोस्त गौरव सोलंकी ने फेसबुक पर ऐतराज़ जताया कि इस बार के नेशनल अवार्ड में जिस गीत को पुरस्कार मिला है, उससे बेहतर गीतों को नज़रअंदाज़ कर दिया गया है। बात में दम था, तो हमने मज़ाक में ही एक ऐलान कर दिया कि ‘झंडू’ गानों का नया क्लब शुरू करते हैं...उन्हें हम अलग से अवार्ड देंगे। फेसबुक पर दो-चार झंडू गानों का स्टेटस लगाया और सोचा कि भड़ास पूरी हो गई। मगर, दोस्तों ने ऐसा बेहतरीन रिस्पांस दिया कि गानों की लिस्ट लंबी होती चली गई। फेसबुक पर कई अनजान दोस्तों ने भी गाने भेजे, और भेजते रहे। फिर हमारे पुराने ‘मनचले’ साथियों के पास झंडू गानों की भरमार थी, तो उन्होंने भी भरपूर मदद की। कई नए झंडू गाने मिले जिनसे मेरे दिमाग का पाला पहले नहीं पड़ा था। मैंने एफएम रेडियो के अपने दो-तीन साथियों से इन गानों पर बात भी कि क्या इन गानों पर आधारित कोई शो शुरू नहीं हो सकता। उन्होंने लगभग टाल ही दिया मगर उम्मीद हमने छोड़ी नहीं है। इन गानों की क्वालिटी पर किसी तरह से शक नहीं किया जा रहा। न ही इन्हें किसी तरह का अवार्ड हम देने वाले हैं। हां, हमारे भीतर का ‘झंडू’ मन इन्हें बार-बार याद करता है, ये किसी अवार्ड से कम है क्या। आप एक-एक गाना पढ़िए, बार-बार पढ़िए और देखिए आपके भीतर गुदगुदी होती है कि नहीं। यही हमारी असली ‘झंडू’ पहचान है, जिसे हम छिपाते-फिरते हैं।

तो देवियों और सज्जनों, दीपावली के मौके पर पेश है 50 झंडू गानों का धमाका.... पटाखा फोड़िए, दीये जलाइए, लड्डू खाइए, हर मौक पर इन झंडू गानों को गुनगुनाते रहिए और दीवाली को संगीतमय बना दीजिए। कमेंट करके बताइएगा ज़रूर कि इनमें झंडू बम, झंडू फुलझड़ी, झंडू रॉकेट आपको कौन-कौन से लगे...ये लिस्ट नए साल के पहले शतक पूरा करेगी, इस भरोसे के साथ...
आपका ‘झंडू’ साथी
निखिल आनंद गिरि

झंडू गानों की दुनिया में आपका स्वागत है..

1) ले पपियां झपियां पाले हम...

2) मैं लैला-लैला चिल्लाऊंगा, कुर्ता फाड़ के....

3) खा ले तिरंगा गोरिया फाड़ के, जा झाड़ के...

4) अंखियों से गोली मारे, लड़की कमाल रे..

5) जब तक रहेगा समोसे में आलू

6) बाय बाय बाय गुड नाइट, सी यू अगेन...कल फिर मिलेंगे तेरे मेरे नैन

7) तालों में नैनीताल, बाक़ी सब तलैया...

8) मैं एक लड़का पों पों पों....तू इक लड़की पोंपोंपों

9) एबीसीडीइएफ.....पीपीपी पिया...

10) गले में लाल टाई,घर में एक चारपाई, तकिया एक और हम दो...

11) ठंडी में पसीना चले,ना भूख ना प्यास लगे...डैडी से पूछूंगा..

12) पागल मुझे बना गया है सीट्टी बजाके...चक्कर कोई चला गया है सीट्टी बजाके...

13) आ आ ई, उ उ ओ...मेरा दिल ना तोड़ो

14) टनटनाटनटनटनटारा...चलती है क्या नौ से बारा...

15) तुरुरुतुरुरू, तुरूतुरू........कहां से करूं मैं प्यार शुरू...

16) मच्छी बन जाऊंगी, कबाब बन जाऊंगी, बोतलों में डाल दो शराब बन जाऊंगी

17) लड़की ये लड़की कममाल कर गई, धोती को फाड़ के रुमाल कर गई(मेरे हिसाब से lyrics थोड़ा अलग है)

18) गुटुंर, गुटुर, चढ़ गया ऊपर रे, अटरिया पे लोटन कबूतर रे...

19) मैं साइकिल से जा रही थी, वो मोटर से आ रहा था, किया टिनटिन का इशारा मुझे बदनाम किया ना...

20) मैं तुझको भगा लाया हूं तेरे घर से,तेरे बाप के डर से

21) नीले नैनों वाला तेरा लकी कबूतर...

22) तूतक तूतक तूतक तूतिया, आई लव यू....

23) तूतूतू, तूतूतारा.....फंस गया दिल बेचारा...

24) अंगना में बाबा, बाज़ार गई मां..कइसे आएं गोरी हम तोहरे घर मा..

25) इंडारू पिंडारू, तेरी चलती कमर है लट्टू, बांधूं इसपे नज़र का पट्टू..

26) ज़हर है कि प्यार है तेरा चुम्मा...

27) सारेगमपधनी...यू आर माई सजनी...

28) आआई उउओ मेरा दिल ना तोड़ो...

29) अईअईए....मंगता है क्या....गिडबोलो (रंगीला)

30) मैं तो रस्ते से जा रहा था, भेलपुरी खा रहा था, लड़की घुमा रहा था....तेरी नानी मरी तो मैं क्या करूं..

31) पटती है लड़की पटाने वाला चाहिए....

32) ओये वे मिकान्तो, तू नहीं जानतो, प्यार करना बहोत ज़रूरी है

फिल्म - हाय मेरी जान (1991)

33) अईअईया..करूं मैं क्या सुकूसुकू...दिल मेरा... हो गया सुकूसुकू...

34) मेरी छतरी के नीचे आ जा, क्यूं भीगे है कमला खड़ी खड़ी....

35) rain is falling छमाछमछम....लड़की ने आंख मारी, गिर गए हम....

36) जब भी कोई लड़की देखूं, मेरा दिल दीवाना बोले...ओलेओले ओले..

37) आंख मारके बोले हाऊ आर यू..हाथ मिलाकर बोले हाऊ डुयूडू...शहर की लड़की...

38) हम है तुमपे अटके यारा, दिल भी मारे झटके...क्योंकि तुम हो हटके...

39) दिन में लेती है, रात में लेती है...सुबह को लेती है, शाम को लेती है..अपने प्रीतम का, अपने जानम का नाम लेती है..!! (अमानत)

40) डालूंगा, डालूंगा...प्यार से मैं डालूंगा...नौलखा हार तेरे गले में डालूंगा !!(अमानत)

41) पुट ऑन द घुंघरू ऑन माई फीट एंड वाच माई ड्रामा...नाचूंगा अइ, गाऊंगा अइसे..होगा हंगामा, मैं हूं गरम धरम....कैसी शरम (तहलका)

42) शॉम शॉम शॉम शॉम शोमू शाय शाय (तहलका, अमरीश पुरी गायक!!)

43) कबूतरी बोले कबूतर से....मुझे छेड़ ना छत के ऊपर से...

44) टकटकाटक..मुझे दिल ना दिया तूने जब तक..पीछा करूंगा तब तक...टकटकाटक (कर्तव्य)

45) सूसूसू आ गया मैं क्या करूं....(तराज़ू)

46) मैं हूं रेलगाड़ी, मुझे धक्का लगा,इंजन गरम है मुझे धक्का लगा...

47) आया आया आया तूफान, भागा भागा भागा शैतान...

48) दिल की गेट की नेम प्लेट पे, लिखा है तेरा ना...धकधकधुकधुक होती है सुबह शाम...बूबा बूबा...मैं महबूबा

49) चींटी पहाड़ चली मरने के वास्ते, लड़की हुई जवान लड़के के वास्ते (हसीना मान जाएगी)

50 ) तैनू घोड़ी किन्ने चढ़ाया, भूतनी के...तैनू दूल्हा किसन बनाया भूतनी के...

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ये पोस्ट कुछ ख़ास है

मृत्यु की याद में

कोमल उंगलियों में बेजान उंगलियां उलझी थीं जीवन वृक्ष पर आखिरी पत्ती की तरह  लटकी थी देह उधर लुढ़क गई। मृत्यु को नज़दीक से देखा उसने एक शरीर ...

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