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शनिवार, 17 सितंबर 2011

मुझे बार-बार ठुकराया जाना है...

चांद को आज होना था अनुपस्थित 
मगर वो उगा, आकाश में...

जैसे मुझे धोनी थी एड़ियां,
साफ करने थे घुटने, रगड़ कर...
तुमसे मिलने से पहले,
मगर हम मिले यूं ही....

हमारे गांव नहीं आने थे, उस रात
शहर की बातचीत में
मगर आए...

तुम्हारी हंसी में छिप जाने थे सब दुख,
मगर मैं नीयत देखने में व्यस्त था..

हमारी उम्र बढ़ जानी थी दस साल,
मगर लगा हम फिसल गए..
अपने-अपने बचपन में...
जहां मेरे पास किताबें हैं
और गुज़ार देने को तमाम उम्र
तुम्हारे पास जीने को है उम्र..
जिसमें मुझे बार-बार ठुकराया जाना है..
सांस-दर-सांस

हमें बटोरने थे अपने-अपने मौन
और खुश होकर विदा होना था...

मुझे सौंपनी थी आखिरी बरसात
तुम्हारे कंधों पर,
मगर तुम्हारे पास अपने मौसम थे...

मुझे तुमसे कोई और बात कहनी थी,
और मैं अचानक कहने लगा-
कि ये शहर डरावना है बहुत
क्योंकि रात को यहां कुत्ते रोते हैं
और मंदिरों के पीछे भी लोग पेशाब करते हैं..
इसीलिए रिश्तों से बू आती है यहां...

निखिल आनंद गिरि

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