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रविवार, 8 सितंबर 2013

वो प्यार नहीं था..

कभी-कभी सोचता हूं...
(इतना काफी है मानने के लिए कि ज़िंदा हूं)
कि आकाश तक जाने का कोई पुल होता तो हम छोड़ देते धरती
किसी अमावस की रात में...
और मुझे मालूम है कि,
पिता नहीं, वो तो खर्राटे भर रहे होंगे..
मां भी नहीं, वो थक कर अभी चूर हुई होगी...
तुम ही मुझे आधे रास्ते से उतार लाओगी
कान पकड़े किसी हेडमास्टर की तरह...
जबकि चांद एक सीढ़ी भर दूर बचेगा...
अंधी रात को क्या मालूम उसे तुमने नीरस किया है।

तुम्हारी तेज़ कलाई जब देखी थी आखिरी बार,
मुझे नहीं आता था बुखार नापना...
मेरी धड़कनों में वही रफ्तार है अभी...
इस वक्त जब ले रहा हूं सांसें...
और हर सांस में डर है मरने का...
तुम्हें भूलने का इससे भी बड़ा...
 
ये बचपना नहीं तो और क्या
कि जिस चौराहे से गुज़रिए वहां भगवान मिलते हैं
इस आधार पर मान लिया जाए,
कि बचपन की हर चीज़ वहम थी...
मौत के डर से हमने बनाए भगवान,
जिन्हें मरने का शौक होता है,
वो बार-बार प्यार करते हैं...

जबकि, प्यार कहीं भी, कभी भी हो सकता है...
छत पर खड़े हुए तो सूखे कपड़ों के बीच में..
और जब सबसे बुरे लगते हैं हम आईने में, तब भी...

तो सुनो, कि मैं सोचने लगा हूं अब..
तुमने चांद से सीढ़ी भर दूर मुझे मौत दी थी...
और सो गयी थीं गहरी नींद में...
वो प्यार नहीं था,
प्यार कोई इतवार की अलसाई सुबह तो नहीं,
कि इसे सोकर बिता दिया जाए

निखिल आनंद गिरि

रविवार, 17 मार्च 2013

ओ आसमान की परियों !!

जब हर तरफ बसंत था..
हर दिन, हर रात, हर पहर..

तुमने चांद को चांद कहा
मैंने चांद ही सुना..
(ऊब की हद तक चांद)
तुमने जो कहा भला-बुरा
सब भला सुना मैंने...
ग्लोब से बढ़कर..
एक चेहरा तुम्हारा..
उन लकीरों में ही
सब पढ़े मैंने
महाद्वीप, महादेश वगैरह वगैरह..

फूल झरते थे बिना बात के भी..
सपनों में भी उतर आती थी खुशबू..
सब सन्नाटे, संगीत से बढ़कर..
सब भाषाओं से बढ़कर एक अनंत मौन..

तब एक बार आई थी बड़ी बीमारी,
और मैं हंसते-हंसते ठीक हुआ था..
एक बार गिरा था मैं तीसरी मंज़िल से,
मगर जाने किस ख़याल में बचा रहा साबुत...
मैं एक बार आसमान को तकता,
तो तीन परियां कहीं से उतर आतीं..
मेरा माथा सहलातीं और मैं सो जाया करता..

कैसे आई इतनी झूठी
इतनी मीठी, इतनी लंबी नींद
बिना नींद की गोली के..

अब जब जागा हूं..
हर तरफ बंजर है..
हर तरफ अंधेरे..
कोई और नहीं आसपास,
सिवाय एक अनजान चेहरे के..
उजाला बनकर मेरे साथ खड़ा है..
मेरे सब कालेपन के बावजूद..

ये बसंत नहीं है
आसमान की परियों..
कोई नया मौसम है..
मैं जीने लगा हूं शायद..
तुम्हारी यादें धुधला रही हैं..
आसमान की परियों...
मैं जाग रहा हूं..

निखिल आनंद गिरि

शुक्रवार, 14 अक्तूबर 2011

सुनो मठाधीश !


हिंदी की साहित्यिक मैगज़ीन पाखी के अक्टूबर अंक में प्रकाशित कविता।
रांची से एक पाठक और फेसबुक फ्रेंड प्रशांत ने ये कविता पढ़ी
और मुझे ये स्कैन कॉपी भेजी..उनका शुक्रिया..

ये कोई मठ तो नहीं

और आप मठाधीश भी नहीं...

कि जहां आने से पहले हम चप्पलें उतार कर आएं

और फिर झुक जाएं अपने घुटनों पर...

और आप तने रहें ठूंठ की तरह,

भगवान होना इस सदी का सबसे बड़ा बकवास है हुज़ूर !


काश! पीठ पर भी आंखे होती आपकी

मगर आपके तो सिर्फ कान हैं...

जिनमें भरी हुई है आवाज़

कि आप, सिर्फ आप महान हैं...


काश होती आंखे तो देख पाते

कि कैसे पान चबा-चबा कर चमचे आपके,

याद करते हैं आपकी मां-बहनों को...

क्या उन्हें लादकर ले जाएंगे साथ आखिरी वक्त में...

सब छलावा है, छलावा है मेरे आका !


वो कुर्सी जो आपको कायनात लगती है,

दीमक चाट जाएंगे उसकी लकड़ियों को,

और उस दोगली कुर्सी के गुमान में

आप घूरते हैं हमें..


हमारी पुतलियों के भीतर झांकिए कभी...

हमारे जवाब वहीं क़ैद हैं,

हम पलटकर घूर नहीं सकते।

अभी तो पुतलियों में सपने हैं,

मजबूरियां हैं, मां-बाप हैं...

बाद में आपकी गालियां हैं, आप हैं...


चलिए मान लिया कि सब आपकी बपौती है...

ये टिपिर-टिपिर चलती उंगलियां,

उंगलियों की आवाज़ें...

ये ख़ूबसूरत दोशीज़ा चेहरे

जिनकी उम्र आपकी बेटियों के बराबर है हाक़िम...

हमारी भी तो अरज सुनिएगा हुज़ूर...

हुकूमतें हरम से नहीं, सिपहसालारों से चलती हैं...

निखिल आनंद गिरि
(http://www.pakhi.in/oct_11/kavita_nikhil.php)

शुक्रवार, 7 जनवरी 2011

कद्दूकस और तीसरे पीरियड में छुट्टी...

युवा कहानीकार (और मेरे साथी) गौरव सोलंकी को राजस्थान पत्रिका ने इस कहानी के लिए विशेष सम्मान दिया है....क्या इत्तेफाक है कि कुछ दिन पहले ही उनकी कहानियों को मेरे ब्लॉग पर डालने के लिए हम दोनों ने समीक्षा का बहाना ढूंढा था...खैर, ये बहाना भी  बुरा नहीं...

कद्दूकस मुझे बहुत प्यारा लगता था। उसे देखकर हमेशा लगता था, जैसे अभी चलने लगेगा। बहुत बाद में मैंने जाना कि कुछ चीजों के होने का आपको उम्र भर इंतज़ार करना पड़ता है। उस से पहले मैंने रसोई में कई काँच के गिलास तोड़े, बोलना और छिपकर रोना सीखा।

मेरी माँ शहर की सबसे सुन्दर औरत थी और हम सब यह बात जानते थे। मैं भी, जो बारह साल का था और चाचा भी, जो बत्तीस साल के थे। ऐसा जान लेने के बाद एक स्थायी अपराधबोध सा हमारे भीतर बस जाता था। हम सब आपस में घर-परिवार की बहुत सारी बातें करते और उस से बाहर निकल आने की कोशिश करते लेकिन आखिर में हम सो या रो ही रहे होते। मैं अकेला था और मेरे भाई बहन नहीं थे। वे होते तो हम सब एक साथ अकेले होते। हमारा घर ही ऐसा था। बाद में मैंने अख़बारों में वास्तुशास्त्र के बारे में पढ़ा तो पता चला कि सदर दरवाज़ा दक्षिण की ओर नहीं होना चाहिए था और रसोई के पूर्वी कोने में जो लोहे की टंकी रखी थी, जिसमें माँ आटा और मैं अपनी कॉमिक्स रखता था, उसे घर में कहीं नहीं होना चाहिए था।

मैं आठवें बरस में था, जब मैंने आत्महत्या की पहली कोशिश की। मैं रसोई में चाकू अपनी गर्दन पर लगाकर खड़ा था और आँगन से मुझे देखकर माँ दौड़ी चली आ रही थी। वह मेरे सामने आकर रुक गई और प्यार से मुझे उसे फेंक देने को कहने लगी। मेरा चेहरा तना हुआ था और मैं अपना गला काट ही लेना चाहता था कि न जाने आसमान में मुझे कौनसा रंग दिखा या माँ की बिल्लौरी आँखें ही मुझे सम्मोहित कर गईं, मैंने चाकू फेंक दिया। फिर माँ ने मुझे बहुत प्यार किया और बहुत मारा। मगर उसने मुझसे ऐसा करने की वज़ह नहीं पूछी। उसे लगा होगा कि कोई वज़ह नहीं है।

मेरी माँ बहुत सुन्दर थी और वह नाराज़ भी हो जाती थी तो भी उससे ज़्यादा दिनों तक गुस्सा नहीं रहा जा सकता था। उसके शरीर की घी जैसी खुशबू हमारे पूरे घर में तैरती रहती थी और आख़िर पूरे शहर की तरह हम भी उसमें डूब जाते थे।

पूरा शहर, जिसके मेयर से लेकर रिक्शे वाले तक उसके दीवाने थे। वह नाचती थी तो घर टूट जाते थे, पत्नियां अपने पतियों से रूठकर रोने लगती थीं, स्कूलों के सबसे होनहार बच्चे आधी छुट्टी में घर भाग आते थे, बाज़ार बन्द हो जाते थे और कभी कभी दंगे भी हो जाते थे।

यह 2002 की बात है। फ़रीदा ऑडिटोरियम में माँ का डांस शो था। उसमें तीन हज़ार लोग बैठ सकते थे और एक हफ़्ते पहले से ही टिकटें ब्लैक में बिकने लगी थीं। इसी का फ़ायदा उठाकर महेश प्रजापति और निर्मल शर्मा नाम के दो आदमियों ने ब्लैक में फ़र्ज़ी टिकटें भी बेचनी शुरु कर दीं। वे पचास रुपए वाली एक टिकट दो सौ रुपए में बेच रहे थे और इस तरह उन्होंने पाँच सौ नकली टिकटें बेच डालीं। शो रात दस बजे था। आठ बजते बजते सब लोग ऑडिटोरियम के बाहर जुटने लगे। नौ बजे से एंट्री शुरु हुई। साढ़े नौ बजते बजते तीन हज़ार लोग अन्दर थे और पाँच सौ नाराज़ लोग बाहर। उनमें बूढ़े भी थे, औरतें भी और बच्चे भी। उन्हें आयोजकों ने अन्दर घुसने नहीं दिया, जबकि वे दावा करते रहे कि उन्होंने दो-दो सौ रुपए देकर टिकटें खरीदी हैं। यह उनमें से अधिकांश की एक दिन की आमदनी थी और मिस माधुरी का शो नहीं होता, तो वे इससे चार दिन का खर्चा चला सकते थे। वे परिवार वाले थे और उन्हें अब अपने बच्चों और पत्नियों के आगे बेइज्जत होना पड़ रहा था। उन्हें न ही महेश प्रजापति दिखाई दे रहा था और न ही निर्मल शर्मा। सिपाही अब उन्हें धकेलकर परिसर से बाहर निकालने लगे थे। वे कह रहे थे कि उनकी बात सुनी जाए। उनकी बात नहीं सुनी गई।

तभी भीड़ में से एक ग्यारह बारह साल के लड़के ने यूं ही चिल्लाकर कहा कि निर्मल शर्मा और महेश प्रजापति स्टेशन पर गए हैं और बाराखंभा एक्सप्रेस से दिल्ली भाग जाने वाले हैं। पाँच सात मिनट में ही पाँच सौ लोग यह बात जान गए और वे तेजी से स्टेशन की ओर बढ़ गए। जबकि उनमें से अधिकांश को नहीं पता था कि बाराखंभा एक्सप्रेस कहाँ से आती है और कहाँ को जाती है और उसका वक्त क्या है। वे सब दस बजे तक स्टेशन पहुँचे। वहाँ उन्हें पता लगा कि बाराखंभा एक्सप्रेस के आने का सही वक्त साढ़े चार बजे है, मगर वह सुबह सात बजे तक आएगी। वह अँधेरी रात थी और स्टेशन मास्टर ने अपने जीवन में पहली बार इतने लोग एक साथ देखे थे। उसे लगा कि ये सब लोग कहीं जाना चाहते हैं और वह ख़ुशी के मारे टिकट खिड़की खोलकर बैठ गया। यह जानकर कि ट्रेन सुबह आएगी, भीड़ आधे घंटे में वापस लौट गई। जाने से पहले उन्होंने सुबह सात बजे से पहले स्टेशन आने का संकल्प लिया और आठ दस लोगों को रात भर वहीं निगरानी के लिए छोड़ दिया। यह बहुत बड़ी बात भी नहीं थी कि दो सौ रुपए पानी में चले गए थे मगर वह तारीख ही ऐसी थी कि बात बड़ी होती जा रही थी। बाद में जब मैंने पागलों की तरह वास्तुशास्त्र पढ़ा तो जाना कि फ़रीदा ऑडिटोरियम और स्टेशन, दोनों के दरवाज़े उनसे ठीक विपरीत दिशाओं में थे, जिनमें उन्हें होना चाहिए था। साथ ही माँ ने उस दिन लाल रंग की स्कर्ट पहनी थी और वह जब शो में आई थी तो उसने पहले बायां पैर स्टेज पर रखा था।

लाल रंग ख़ून का रंग था और यह हम सब भूल गए थे।

वहाँ जो लोग रुके, संयोगवश आरिफ़, इंतख़ाब आलम, नासिर, जब्बार, सुहैल, सरफ़राज़ के पिता, नवाब अली, शौकत और उसका चार साल का बेटा थे। उन्होंने चने खरीदकर खाए और रात में दो दो बार चाय पी। सुबह पौने आठ बजे ट्रेन आई तो नासिर और शौकत को छोड़कर सब बैठे बैठे सो गए थे। रात वाले दस बीस लोग और आ जुटे थे। कुछ बच्चे भी अपने पिताओं के साथ तमाशा देखने आए थे। ज़्यादातर लोग मिस माधुरी का शो भूल चुके थे और बस निर्मल शर्मा और महेश प्रजापति को मार पीटकर घर लौट जाना चाहते थे। शौकत को उसी दिन अपनी ससुराल से अपनी बीवी को लाना था और अब वह जल्दी पीछा छुड़ाकर घर लौट जाना चाहता था। वह जब पानी पीने के लिए प्याऊ की ओर गया तो जब्बार की बहन सबीना (शायद उसका यही नाम था...और धीरे धीरे आप देखेंगे कि इतने सारे नामों का कोई ख़ास अर्थ नहीं रह जाएगा) उसे देखकर मुस्कुराई। वह किसी दूसरी ट्रेन से बनारस जा रही थी और सुबह से स्टेशन पर खड़ी थी।

जवाब में शौकत भी मुस्कुराया। फिर वह बिना कुछ बोले प्याऊ की टोंटी से मुँह लगाकर पानी पीने लगा। तभी मोहनीश अग्रवाल नाम के एक लड़के ने, जो ट्रेन से उतरकर चाय पी रहा था और जिसने नारंगी साफा बाँध रखा था, समझा कि सबीना उसे देखकर मुस्कुराई है। वह सबीना के पास आकर खड़ा हो गया और बोलने लगा कि नम्बर दे दो और आई लव यू। सबीना घबरा गई और उसने शब्बार पुकारा (उसने शौकत से शुरु किया लेकिन घबराहट के बावज़ूद उसे इतना होश था कि अपने भाई को ही पुकारे)। बीस पच्चीस लोग, जिन्हें एक स्कूली लड़के ने रात अपने मन से बनाकर कह दिया था कि निर्मल शर्मा और महेश प्रजापति बाराखंभा एक्सप्रेस से जाएँगे, पागलों की तरह स्टेशन और ट्रेन के डिब्बे छान रहे थे। तभी उन्हें सबीना की पुकार सुनी। सबसे पहले शौकत उसके पास पहुँचा और उसने मोहनीश अग्रवाल को एक थप्पड़ मारा। जवाब में मोहनीश अग्रवाल ने भी शौकत को थप्पड़ मारा। चाय पी रहे उसके दो तीन दोस्त भी आगे आ गए। वे और आगे आ ही रहे थे कि तभी भीड़ ने उन्हें घेर लिया। निर्मल शर्मा भी उसी तरह तिलक लगाए रखता था, जिस तरह मोहनीश अग्रवाल ने लगा रखा था। भीड़ के ज़्यादातर लोगों ने उसे टिकट खरीदते हुए बस एक नज़र ही देखा था, इसलिए उन्हें लगा कि यही निर्मल शर्मा है और इसीलिए सबीना चिल्लाई है। कुछ लोग सबीना की दाद देने लगे और बाकी मोहनीश अग्रवाल और उसके साथियों को मारने लगे।

बाद में जो हुआ, वह यह था कि मेरे शहर के सैंकड़ों लोग अचानक स्टेशन पर आ गए। उनके पास पैट्रोल के गैलन थे और लाठियाँ भी। बच्चे भी थे, जो ट्रेन पर पत्थर फेंक रहे थे। उनमें से कोई ऐसा नहीं था, जिसने मिस माधुरी के शो का टिकट खरीदा था। टिकट वाली ठगी के शिकार तो मोहनीश अग्रवाल को पीटकर ही पेट भर चुके थे। वे सब हैरान होकर देख रहे थे कि ट्रेन चल पड़ी है और भीड़ ने एक डिब्बे में आग लगा दी है।

मैं नहीं जानता कि सब ख़त्म कर डालने पर आमादा वह भीड़ अचानक कहाँ से आ गई थी, लेकिन मुझे लगता रहा कि मोहनीश अग्रवाल वह हरकत न करता और जब्बार, शौकत और बाकी लोग उस समय स्टेशन पर न होते तो शायद कुछ भी न हुआ होता। मोहनीश दो चार फ़िकरे कसता और अपनी ट्रेन चलने पर उसमें चढ़ जाता। सबीना कुछ देर परेशान रहती और भूल जाती। जब्बार उस समय किसी की साइकिल का पंक्चर लगा रहा होता और दोपहर में अपने घर जाकर खाना खाकर आधा घंटा सोता। लेकिन यह सब नहीं हुआ। आगे बहुत सी हत्याएँ और पुलिसिया प्रताड़नाएँ थीं। ख़ून के कई हफ़्ते और अमावस सी नफ़रत। मेरी माँ मिस माधुरी उस दिन देर तक सोती रही। तीसरे पीरियड में मेरी छुट्टी हो गई थी और चाचा मुझे लेने आए थे।

गौरव सोलंकी

(पूरी कहानी पढ़ने के लिए गौरव के निजी ब्लॉग पर चक्कर लगा सकते हैं...)


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ये पोस्ट कुछ ख़ास है

मृत्यु की याद में

कोमल उंगलियों में बेजान उंगलियां उलझी थीं जीवन वृक्ष पर आखिरी पत्ती की तरह  लटकी थी देह उधर लुढ़क गई। मृत्यु को नज़दीक से देखा उसने एक शरीर ...

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