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रविवार, 4 जनवरी 2015

दो रुपये का लोकतंत्र..

बचपन की एक बात समझी,
लगभग तीस साल की उम्र में
एक आदमी चौबीस घंटे में,
तीस लोगों की डांट खाता है
तीन सौ लोगों की डांट से बचता है
तीन हज़ार बार 'सर सर' कहता है
सर झुकाकर खच्चर की तरह,
तीस हज़ार लोगो के साथ,
रोज़ाना धक्के खाते आता-जाता है
शनीचर को तेल चढ़ाता है,
आप कहते हैं मन से नौकरी करता है
कंपनी का बड़ा वफादार है
बीवी-बच्चों से सच्चा प्यार है
मैं तब समझा ये अतिशयोक्ति अलंकार है!


और ये भी कि,
सभ्यताओं के इतिहास में
सिर्फ दुम छोटी होती गई
दुम हिलाना होता गया,
सभ्य होने की पक्की गारंटी।

वो डॉक्टर जो नब्ज़ पकड़ता था
और झट पकड़ लेता बीमारी भी
एक दिन मरा लाइलाज बीमारी से
एक बिल्ली रास्ता काटती ही थी
कि कट गई गाड़ी के नीचे आकर
एक सरकारी अस्पताल खुलना ही था
मर गया महामारी में सारा गांव
दो रिश्ते एक होने को ही थे,
कि सरकारी योजनाओं की तरह
टूट गए भरम के सारे पुल।

जीवन की काली कोठरी में
जब चीख़ती हैं सवालों की परछाईयां
''और कितना डूबोगे सूरज
अंधेरे के बोझ तले
कितना और..?''
उम्मीद की अकेली किरण होती है-
जैसे-तैसे ली गई
एक अंधेरी, बोझिल सांस।
और तब समझ आता है
विडंबना का शाब्दिक अर्थ
दरअसल, व्याकरण की नहीं लिखी गई किताब में
प्यार लोकतंत्र का ही पर्यायवाची शब्द है.
और लोकतंत्र उस अश्लील कहकहे का
जिसका वज़न दो रुपये की क़ीमत चुकाकर,
किसी भी शाम तोला जा सके इंडिया गेट पर


निखिल आनंद गिरि
(कविताओं की पत्रिका 'सदानीरा', मार्च-अप्रैल-मई 2014 अंक में प्रकाशित)

शनिवार, 1 मार्च 2014

नकली इंद्रधनुष

अगर बाज़ार सचमुच आपकी जेब में है..
हमारे कमरे में थोड़ी घास भर दीजिए...
कि हमें सोना है आकाश तले..
हम अपनी प्रेमिकाओं संग मुस्कुराएंगे
उस नकली घास पर लेटकर
और ज़मीनें बिक जाने का दुख भूल जाएंगे

बस ज़रा और इंतज़ार कीजिए
हम आते हैं डिग्रियां ही डिग्रियां लेकर
आपको मालामाल कर देंगे एक दिन
बारह घंटे धूप में बैठकर
और अपने प्रेम छुपा लेंगे कहीं

हम छुपा लेंगे आपकी ख़ातिर,
तमाम सिलवटें बिस्तर की
आखिरी चुंबन छिपा लेंगे कहीं..
कोई तोहफा जो ख़रीदा ही नहीं

इस बोनस में ख़रीदेंगे तोहफे
मंदी से ठीक पहले
छंटनी से ठीक पहले
किसी डिब्बे मे लपेटकर दीजिए दिलासे
हम सौंपेंगे अपनी पीढियों को..

उन्हें नहीं बताएंगे कभी भगवान कसम,
कि जिन्हें टिमटिम करता देख
तुतलाते रहे वो उम्र भर
और गाते रहे कोई किताबी धुन

वो दरअसल तारे नहीं बारूद हैं
फट पड़ेंगे किसी रोज़
वैज्ञानिकों की मोहब्बत में.

किसी फीके धमाके में उड़ जाएं पीढ़ियां
इससे पहले हमें सौंपने हैं उन्हें आसमान
नकली इंद्रधनुषों वाले..
('दूसरी परंपरा' पत्रिका में प्रकाशित)

निखिल आनंद गिरि


शनिवार, 18 मई 2013

एक मामूली आदमी की डायरी-1

आजकल दो चीज़ों से बहुत परेशान हूं। पहली तो ये कि मेरी किसी भी 'बड़े आदमी' से कोई पहचान नहीं है। जिससे भी मिलता हूं, वो किसी न किसी तगड़ी पहचान के साथ आगे बढ़ता दिखता है। कैरियर में सफल  लोगों पर कोई बातचीत होती है तो अक्सर सुनता हूं कि फलां जगह वो चुना गया क्योंकि वहां उसकी उनसे पहले से ही पहचान थी। उनके लिए स्पॉट फिक्सिंग एक अपराध नहीं जीवनशैली है। हर क्षेत्र में कोई पैनल या कमिटी किसी नई नियुक्ति नहीं करती। एक गिरोह करता है, जिसमें चुने जाने वाले का कोई न कोई सगा ज़रूर होता है। इतनी सी बात से पूरा आत्मविश्वास हिल जाता है। नौकरी में जहां भी रहा, वफादारी से काम करता रहा। लोग काम की तारीफ भी करते हैं। मगर दावे से नहीं कह सकता कि वहां का बॉस या कोई 'बड़ा आदमी' मेरे साथ फुर्सत में उठऩा-बैठना पसंद करे। क्या बडे पद पर पहुंचने के लिए कोई और योग्यता चाहिए होती है। इन दिनों जिस तरह का कंपनी राज है, उसमें अगले दिन नौकरी रहेगी या नहीं, कुछ पता नहीं होता। लेकिन फिर भी उन लोगों की तरह क्यों नहीं हो पाता जो अच्छी तरह जानते हैं कि नौकरी में बने रहने के लिए क्या-क्या किया जाना चाहिए। मुझे तो मोहल्ले में भी ठीक से कोई नहीं पहचानता। हमेशा डर लगा रहता है कि कोई भी मुझसे लड़ सकता है, जीत सकता है। कोई पुलिस वाला बिना बात की गाली बक सकता है। कोई दुकानदार मुझे सामान देने के लिए भीड़ के ख़त्म होने तक खड़ा रख सकता है। कोई नया लड़का ऊंची आवाज़ में मुझे नीचा दिखा सकता है। उम्र में जितना बड़ा होता जा रहा हूं, भीतर से उतना ही कमज़ोर भी।

दूसरी चीज़ परेशान करती है खुद को काबू में नहीं रख पाना। इतना कमज़ोर महसूस करने के बावजूद कई बार छोटी-छोटी बातों में ग़लत होता देखकर लड़ जाना अच्छा लगता है। अपना फायदा-नुकसान बाद में समझ आता है। चुप रहने की अदा सीखना चाहता हूं । वो लोग किस चक्की का आटा खाते हैं, जिन्हें कभी गुस्सा नहीं आता। हर बात में वो शांत दिखते हैं। उन्हें किसी चीज से कोई परेशानी नहीं होती। उन्हें लगता है कि जब तक उनके पास मोटी तनख़्वाह है, नौकरी सुरक्षित है, तब तक किसी और के लिए या किसी अच्छी वजह के लिए तर्क करना फालतू का काम है।

वो ग़लती से अगर किसी अनशन या आंदोलन के आसपास से गुजर भी जाएं तो नाक पर रुमाल रख लेते हैं। वो अपने घरों में बच्चों से क्या बातें करते होंगे, सोचता हूं। वो कसरत के लिए बच्चों को सांपों का वीडियो दिखाते होंगे। वो उन्हें इतना लचीला बना देना चाहते होंगे कि वो किसी बिल में दुबक कर आराम से ज़िंदगी गुजार सकें। वो जब स्कूल जाएं तो उनके लिए सबसे अच्छे पराठे हों, सबसे महंगे मोबाइल हों और सबसे अमीर दोस्त। वो अगर कॉलेज में पढने जाएं तो किताबों के बजाय किसी टीचर से सेटिंग करने में ज़्यादा माहिर हो सकें। अगर कभी पढ़ाने लग जाएं तो कॉपियां सही जांचने के बजाय ज्यादा कॉपियों के नाम पर ज़्यादा बिल भरने की कला सीख सकें। वो जिस पेशे में जाएं, महान बनन के तरीके ढूंढ निकालें। उनके लिए दोस्ती और दुश्मनी जेब में रखे चिल्लर से भी कम क़ीमती शब्द हों, जिनका इस्तेमाल मूंगफली खाने से लेकर किताबें छपवाने तक के लिए किया जा सके। ज़िंदगी उनके लिए प्रयोगशाला न होकर दलाली का अड्डा बन जाए। वो कृष्ण पक्ष में जिसके पीठ पीछे गालियां बकते रहें, जिनके खिलाफ उसूलों की दुहाई देते रहें, शुक्ल पक्ष में उनके साथ किट्टी पार्टियां करें, साहित्यिक विमर्श करें, एक-दूसरे की शादियों में लिफाफे लेकर जाएं और 'दोस्ती' के गाने साथ में गुनगुनाने लगें। वो रात को सोने से पहले एक गिलास गरम दूध पिएं, बुद्धिजीवी कहे जाएं और नए सांपों को अपनी तरह का बनाते जाएं। एक दिन वो और उनकी पाली-पोसी नई पीढी महान हो जाएं।

ऐसे कई नाम याद आ रहे हैं, जिनका नाम ले-लेकर ज़िक्र करने और ग़ुस्सा उतारने का मन हो रहा है, मगर इसमें कैरियर का नुकसान भी है और जान जाने का ख़तरा भी। बुद्धिजीवियों के गिरोह किसी आतंकवादी गिरोह से कहीं ज़्यादा ख़तरनाक होते हैँ। ये बात पूरे होशोहवास में कह रहा हूं और इसका हर जीवित व्यक्ति,कहानी या घटना से पूरा संबंध है। किसी भी हालत में इसे संयोग न समझा जाए।

निखिल आनंद गिरि

रविवार, 4 नवंबर 2012

एक डरे हुए आदमी का शब्दकोष

मेरा परिचय एक ऐसे आदमी से है,
जिसकी प्रेमिका मेज़ पर पड़ा ग्लोब घुमाती है
तो वो भूकंप के डर से
भागता है बाहर की ओर
पसीने से तरबतर,

बाहर खुले मैदान नहीं है...
बाहर लालची जेबें हैं लोगों की
जेब में ज़बान है और मुंह में पिस्तौलें...
बाहर कहीं आग नहीं है
मगर बहुत सारा धुंआ है..
गाड़ियों का बहुत सारा शोर है
जैसे पूरा शहर कोई मौत का कुंआ है...

मेरा परिचय एक ऐसे आदमी से है
जो शहर में अपनी पहचान बताने से डरता है
और गांव में अब कोई पहचानता नहीं है....
सिर्फ इसीलिए बचा हुआ है वह आदमी
कि नहीं हुए धमाके समय पर इस साल...
कि कुछ दिन और मिले प्यार करने को...
कुछ दिन और भूख सताएगी अभी...

उसने हाथ से ही उखाड़ लिया है
दाईं ओर का आखिरी दुखता दांत
सही समय पर दफ्तर पहुंचना मजबूरी है
और दानव डाक्टर की फीस से बचना भी ज़रूरी है....
दुखे तो दुखे थोड़ी देर आत्मा...
बहे तो बहे थोड़ी देर खून....
अपरिचित नहीं है ख़ून का रंग

अभी कल ही तो कूदा था एक स्टंटमैन
पंद्रह हज़ार करोड़ में बने एक मॉल से...
और उसकी लाश ही वापस आई थी ज़मीन पर...
पंद्रह हज़ार के गद्दे बिछे होते ज़मीन पर
तो एक स्टंटमैन बचाया जा सकता था...
मगर छोड़िए, इस बेतुकी बहस को
कविता में जगह देने से
शिल्प बिगड़ने का ख़तरा है...

तो सुनिए, इस बुरे समय में...
एक डरे हुए आदमी के शब्दकोष में
लोकतंत्र किसी दूसरी ग्रह का शब्द है...
तो सुनिए, इस बुरे समय में...
एक डरे हुए आदमी के शब्दकोष में
लोकतंत्र किसी दूसरी ग्रह का शब्द है...
जिसका अर्थ किसी हिंदू हिटलर की मूंछ है....
और उसके दांतों से वही महफूज़ है...
जिसके शरीर पर जनेऊ है
और पीछे एक वफादार पूंछ है...

डरा हुआ आदमी सड़क पर देखता सब है
कह पाता कुछ भी नहीं शोर में
सड़क पर जल उठी लाल बत्ती
एक भूखा, मासूम हाथ
काले शीशे के भीतर घुसा
भीतर बैठे कुत्ते ने काट खाया हाथ
कब कैसे पेश आना है
ख़ूब समझते हैं एलिट कुत्ते

एक डरे हुए आदमी के शब्दकोश में
गांव सिर्फ इसीलिए सुरक्षित है
कि वहां अब भी लाल बत्ती नहीं है
दरअसल उस डरे हुए आदमी की ज़िंदगी
भिखारी की फटी हुई जेब है
ख़ाली हो रहे हैं दिन-हफ्ते
और भरे जाने का फरेब है...

एक डरे हुए आदमी की ज़िंदगी
उस आदिवासी औरत के पेट में
पल रहे बच्चे का पहला रुदन है...
जो गांव की सब ज़मीन बेचकर
पालकी में लादकर
उबड़-खाबड़ रास्तों से लाया गया
शहर के इमरजेंसी वार्ड में
जिसने एक बोझिल जन्म लेकर आंखे खोलीं
ख़ूब रोया और मर गया....
उस डरे हुए आदमी के दरवाज़े पर
हर घड़ी दस्तक देता बुरा समय है
जो दरवाज़ा खुलते ही पूछेगा
उसी भाषा, गांव और जाति का नाम
फिर छीन लेगा पोटली में बंधा चूरा-सत्तू
और गोलियों से छलनी कर देगा...

इस बुरे समय की सबसे अच्छी बात ये है कि
एक डरा हुआ आदमी अब भी
सुंदर कविता लिखना चाहता है...

निखिल आनंद गिरि
(यह कविता पाखी के अक्टूबर-नवंबर अंक में छपी है। इसके साथ ही एक और कविता  ''लिपटकर रोने की सख्त मनाही है'' को भी पत्रिका में जगह मिली है।)

गुरुवार, 25 अक्तूबर 2012

तुम्हें इक झूठ कह देना था मुझसे..

दर-ओ-दीवार हैं, पर छत नहीं है।
हमें सूरज की भी आदत नहीं है।।

यहां सब सर झुकाए चल रहे हैं।
यहां हंसने की भी मोहलत नहीं है।।

तुम्हें इक झूठ कह देना था मुझसे।
मुझे सच सुनने की हिम्मत नहीं है।।

फ़क़त लाखो की ही अंधेरगर्दी !
'ये क्या खुर्शीद पर तोहमत नहीं है'!!

मैं पत्थर पर पटकता ही रहा सर।
मगर मरने की भी फुर्सत नहीं है।।

सभी को बेज़ुबां अच्छा लगा था।
मैं चुप रह लूं, मेरी फितरत नहीं है।।

(खुर्शीद = सूरज)

निखिल आनंद गिरि

सोमवार, 22 अक्तूबर 2012

दारू और बंदूक के बीच बापू की याद...


अक्टूबर के पहले हफ्ते की बात है। दिल्ली में क़ुतुब मीनार के पास एक क्लब में भारतीय मूल की ब्रिटिश लेखिका मोनिषा राजेश की पहली क़िताब 'अराउंड इंडिया..इन 80 ट्रेन्स' के लांच पर जाना हुआ। चार महीने तक भारत की अलग अलग ट्रेनों में लेखिका के सफ़र का अनुभव इस क़िताब की ख़ासियत थी। मौके पर बतौर मुख्य अतिथि पहुंचे एक पूर्व रेलमंत्री ने बातों बातों में अपनी तुलना महात्मा गांधी से कर दी। उन्होंने कहा कि जैसे गांधी को ट्रेन से उतार दिया गया था, वैसे ही उन्हें भी उतार दिया गया और फिर दोनों 'आज़ाद' हुए। गांधी को इस तरह चटखारे लेकर याद कर रहे मंत्रीजी को सुनने वालों में कुछ वरिष्ठ पत्रकारों के अलावा 25-30 बुलाए गए मेहमान थे। उनके हाथों में बियर की बोतलें भी थी।


गांधी कथा कहते नारायण देसाई
इस कार्यक्रम के चंद दिन बाद ही दिल्ली महात्मा गांधी को एक और ढंग से याद कर रही थी। महात्मा गांधी के प्रिय सचिव रहे महादेव भाई देसाई के पुत्र नारायण भाई देसाई के चिर-परिचित अंदाज़ में चार दिनों की 'गांधी कथा' का आयोजन किया गया था। एक विशाल सभागार में गांधी कथा सुनने का ये अनुभव जितना अनूठा था, उतना ही यादगार भी। दरअसल, ये दिल्ली में नारायण देसाई की आखिरी 'गांधी कथा' थी। सुनने वालों में कुछ नेता, बुद्धिजीवी, पत्रकार और सैंकड़ों लोग मौजूद रहे। हालांकि, पीने को यहां भी बोतलबंद पानी ही था, मगर 'गांधी कथा' के ज़रिए गांधी को दोबारा जीवंत करने की कोशिश काबिल-ए-तारीफ थी।

हम जैसे कोई युवाओं को गांधी का युग देखना नसीब नहीं हुआ। हां, गांधी का इस्तेमाल जगह-जगह देखते आए हैं। सेलेब्रिटी आंदोलनों में गांधी टोपी पहनने से लेकर घूस के लिए गांधी के नोट धराते लोग। आख़िरी आदमी का दुख बांटने के नाम पर लाखों-करोड़ों का फर्ज़ीवाड़ा करते लोग। ऐसे में नारायण देसाई की कही हर बात किसी दस्तावेज़ की तरह ज़रूरी हो जाती है, जिन्होंने सचमुच बापू के साथ लंबा समय गुज़ारा है। आज के संदर्भों के साथ दिल्ली की इस गांधी कथा को जोड़ना बहुत ज़रूरी और दिलचस्प हो जाता है। नारायण देसाई के मुताबिक उस वक्त भी गांधी के साथ आंदोलन में जुड़ने वाले 'चुनिंदा सक्रिय' (एक्टिव फ्यू) युवा ही थे। उन युवाओं के पास समाज के लिए एक विज़न था। वो 'व्यावहारिक आदर्शवादी' थे। मतलब ख़ुद को बदलकर समाज में वांछित बदलाव का सपना देखने वाले। आज हमारे आसपास टीवी या मीडिया ने जिस तरह के 'एक्टिव युवा' खड़े किए हैं, उनके सर पर भी आम आदमी की टोपी दिखती है। मगर, उनका चंपारण कैमरे से दिखाई देने वाली दिल्ली से ज़्यादा दूर नहीं जा पाता और नील के किसान भी बिजली बिल फाड़ने वाले मिडिल क्लास चेहरों से अलग नहीं हो पाते। वो कई रसूख वाले नेताओं पर उंगली उठाते हैं, फिर अचानक शांत हो जाते हैं फिर अचानक आंदोलन का नया शेड्यूल तय कर देते हैं। पुराना आंदोलन चार दिन में ही पुराना पड़ जाता है।

जिस कांग्रेस को खरी-खोटी सुनाने के नाम पर ही कई पार्टियां या लोग सियासत के हसीन सपने देखते नहीं थक रहे हैं, उस पार्टी का मूल चरित्र गांधी के वक्त कैसा था, ये भी जानना ज़रूरी है। लखनऊ अधिवेशन में जब कांग्रेस का अधिवेशन दूसरे कई 'संवेदनशील' मुद्दों पर रखा गया, तब बिहार से आए किसान राजकुमार शुक्ल की बात किस तरह गांधी ने सुनी और बाद में उन्हें मदद देने के आश्वासन को पूरा भी किया, उसकी तुलना मौजूदा राजनीतिक पतन को समझने में मदद करती है। इतिहास की किताबों में ये बातें कई जगह कई बार लिखी हैं। मगर, गांधी कथाओं जैसे आयोजन के ज़रिए उस दौर की प्रासंगिकता पर बहस हो और बिना ज़्यादा प्रचार-प्रायोजन के लोग सुनने भी आएं तो आश्चर्य और खुशी दोनों होती है।

गांधी ने सत्य के साथ किए अपने प्रयोगों में जो भी क़दम उठाए, उसका एक प्रतीकात्मक महत्व भी रहा। उनके आश्रम में तीन चीज़ें ज़रूरी थीं। प्रार्थना, स्वच्छता और चरखे से सूत कातना। प्रार्थना अगर आध्यात्मिक क्रांति का प्रतीक था, तो साफ-सफाई सामाजिक क्रांति का। ठीक ऐसे ही चरखे का प्रयोग स्वावलंबन और आर्थिक आज़ादी का प्रतीक कहा जा सकता है। मौजूदा राजनीति में ऐसे प्रतीक कम से कम मेरे लिए ढूंढ पाना थोड़ा मुश्किल है। ताज़ा प्रतीक लाल बत्ती और बंदूक ही नज़र आते हैं जिससे गांधी की अहिंसा के सिद्धांत का दूर-दूर तक कोई वास्ता नहीं है। मसलन, बापू की जन्मभूमि पोरबंदर का ही ताज़ा उदाहरण सामने है जब वहां के कांग्रेसी सांसद विट्ठल रठाड़िया ने 50 रुपये का टोल टैक्स मांगे जाने पर बंदूक तान कर अपनी 'सहनशीलता' का परिचय दिया। चाल, चरित्र और चिंतन में सभी पार्टियों में ऐसे सांसद रोज़ देखने-सुनने को मिल रहे हैं।

गांधी कथा के दौरान खादी के ज़रिए चले देशव्यापी आंदोलन को भी समझने का मौका मिला। एक बार जब विदेशी सामान का विरोध कर रहे सत्याग्रहियों को पुलिस पकड़कर ले जाने लगी तो एक महिला ने यूं ही एक अजनबी सत्याग्रही को पास बुलाकर अपने शरीर से तमाम गहने उतारकर थमा दिए और कहा कि इसे उसके घर पहुंचा दे। सत्याग्रही ने चौंककर पूछा कि उसे एक अजनबी पर इतना अटूट विश्वास कैसे है। महिला ने हंसते हुए कहा कि ये विश्वास मेरे और तुम्हारे शरीर पर पहनी गयी खादी ने दिया है। और किसी प्रमाण पत्र की ज़रूरत नहीं है। क्या आज खादी पर आम आदमी रत्ती भर भरोसा कर सकता है। जब खादी पहने एक केंद्रीय मंत्री ये कहता मिले कि घोटाले लाखों के नहीं करो़ड़ों के हों, तब मीडिया को उस पर ध्यान देना चाहिए।

क्या आज कोई आंदोलन या कोई हुजूम एक-दूसरे पर इतना भरोसा कर सकता है। हो सकता है, नारायण देसाई की बातें उनके निजी या काल्पनिक अनुभव भर ही हों, मगर हम जिस समाज में विकसित होने का दावा कर रहे हैं, क्या ये भरोसा या सामुदायिक निर्भरता कल्पना से ज़्यादा लग भी नहीं सकते। वो भी उस दिल्ली में जहां छह महीने बाद दो अकेली बहनें मरणासन्न हालत में कमरे से निकाली जाएं या फिर किसी बुज़ुर्ग दंपती के घर में दिनदहाड़े घुसकर उन्हें गोली मार दी जाए और सब कुछ लूट लिया जाए।

गांधीजी ने कहा था कि अगर स्वराज हासिल नहीं हुआ तो वो वापस अपने आश्रम में कभी क़दम नहीं रखेंगे। 15 अगस्त 1947 के बाद गांधी कभी वापस अपने आश्रम में नहीं लौटे। शायद जिस स्वराज का सपना गांधी ने देखा था, उन्हें वो पूरा होता नहीं दिखा। मगर, दिल्ली में उनके नाम पर होने वाली गांधी कथाएं और उन्हें सुनने आने वाली दिल्ली एक उम्मीद जैसी हैं। इन्हें और प्रचार दिए जाने की ज़रूरत है। कला के दूसरे माध्यमों के ज़रिए भी गांधी कथाएं कही-सुनी जानी चाहिए। जैसे महमूद फारूक़ी या दूसरे कलाकार दिल्ली के छोटे-बड़े मंचों पर दास्तानगोई के ज़रिए मंटो या दूसरे मुद्दों को ज़िंदा रखे हुए हैं। नारायण देसाई के साथ मंच पर मौजूद संगीत मंडली ने भी कमाल की मेहनत की थी। तीन घंटे की गांधी कथा को रोचक बनाए रखने के लिए नुक्कड़ शैली में लिखे 'गांधी गीतों' को सुनना बेहद ताज़ा अनुभव था। जहां साबरमती के नीर बधाई देते, जहां खरहा डट कर लोहा ले कुत्ते से...वहां पराक्रमी बापू का आश्रम स्थित है, गांधी का आश्रम स्थित है। क्या ऐसे कठिन गीत लिखना और कंपोज़ करना कोई आसान काम हैं।

आख़िर में एक बात और पूछने या कहने का मन कर रहा है। दिल्ली में कैसे भी साहित्यिक, राजनैतिक या सांस्कृतिक कार्यक्रम हों, दर्शक दीर्घा में कुछ बुद्धिजीवियों के चेहरे कभी नहीं बदलते। वो हर जगह नज़र आ जाते हैं। या तो उन्हें दिल्ली में रहते हुए भी फुर्सत बहुत है या फिर बुद्धिजीवी बने रहना उनकी हॉबी बन गई है।

निखिल आनंद गिरि

शुक्रवार, 27 जुलाई 2012

दिल्ली के आंदोलन को वीकएंड चाहिए, सेलेब्रिटी चाहिए...

होता है शब-ओ-रोज़ तमाशा मेरे आगे..
23 जुलाई को मेट्रो में सफर के दौरान अपनी सीट के बगल में बैठे एक सज्जन पर अचानक आया मैसेज मैंने चुपके से पढ़ लिया था। किसी 'एल एम अन्नाजी' ग्रुप की तरफ से मैसेज था जिसमें अपील लिखी थी कि '24 को अन्ना दिल्ली आ रहे हैं। मोटरसाइकिल वगैरह कुछ भी हो,  भारी संख्या में दिल्ली एयरपोर्ट आकर उनका सहयोग करें। सज्जन ने चुपचाप मोबाइल बंद कर जेब में रख लिया था। मैसेज डिलीट कर दिया था।

मैं लगभग रोज़ दिल्ली मेट्रो में लंबा सफर करता हूं। अच्छा लगे या बुरा, करना ही पड़ता है। पिछले साल इन दिनों में अच्छा लगा था। सफ़र आसानी से कट जाता था। ठसाठस भीड़ में अचानक 'मैं भी अन्ना, तू भी अन्ना, अब तो सारा देश है अन्ना' का एक कोरस सुनाई पड़ता और फिर देशभक्ति के तमाम नारे। सबके चेहरे खिल जाते। फिर कपिल सिब्बल को जमकर गालियां पड़तीं। बूढ़े लोग युवाओं को देश की हालत समझाने लगते। सफर आसानी से कट जाता था।  इस बार मेट्रो तक में भी 'मैं भी अन्ना, तू भी अन्ना' का कोरस ग़ायब है। किसी ने अब तक फोन करके नहीं पूछा कि 'अन्ना के आंदोलन में गए क्या?'

भ्रष्ट और चमचे नेता सेलेब्रिटी की तरह प्रोमोट हुए जा रहे हैं। राष्ट्रपति बन रहे हैं। दिल्ली में ही नया राष्ट्रपति शपथ ले रहा है। अंग्रेज़ी हुकूमत तो हमने देखी नहीं, मगर यहां देख रहे हैं कि एक बूढे आदमी के आगे-पीछे कैसे सैंकड़ों जवान, गाड़ियां, बंदूकों की सलामी, करोड़ों रुपये बर्बाद हुए जाते हैं। दिल्ली में ही उनके मुंह पर काला कपड़ा ढंका जा रहा है। एक ही दिन। न्यूज़ चैनल के मेरे दोस्त कहते हैं  अन्ना ने आंदोलन का ग़लत दिन चुन लिया है। कोई और दिन होता तो ठीकठाक कवरेज मिल जाती। अन्ना को फायदा मिल जाता ! क्या आंदोलन भी दिन देखकर करने पड़ते हैं?

दिल्ली में हो रहा एक आंदोलन वीकएंड (weekend) का इंतज़ार कर रहा है। शायद वीकेंड में भीड़ जुटे, सेलेब्रिटी आएं। अकेले अन्ना, अकेले युवा, अकेले मीडिया कुछ नहीं कर सकता। इस देश में आंदोलन को भी सेलेब्रिटी चाहिए। ओलिंपिक की मशाल को भी सेलेब्रिटी चाहिए। कैमरे फिर कुत्ते की तरह पीछे भागते हैं। इतने अरब लोगों के लिए इतने करोड़ भगवान पहले से ही हैं। हमें लोकपाल नहीं चाहिए, हमें ज़िंदा भगवान चाहिए। यही सच है। भगवान, जो कहीं नहीं है, कभी नहीं था।

(पिछले साल हुए टीम अन्ना के आंदोलन पर मेरे विचार यहां (लोकतंत्र का अगला भाग, अंतराल के बाद) पढ़ सकते हैं...)

निखिल आनंद गिरि

रविवार, 13 मई 2012

गौरव सोलंकी को गुस्सा क्यों आता है ?

गौरव सोलंकी को तब से जानता हूं, जब वो सिर्फ एक इंजीनियर थे। सिर्फ एक कवि थे! लोकप्रिय बाद में हुए। और कहानीकार उसके भी बाद हुए। हिंदी सेवा के नाम पर कमाने-खाने वाली एक वेबसाइट 'हिंदयुग्म' के स्वघोषित ''सीईओ'' शैलेश के साथ गौरव और मैं लंबे वक्त तक साथ रहे। आज गौरव का नाम हिंदी साहित्य के चर्चित युवा साहित्यकारों में शुमार है। हिंदी साहित्य और सिनेमा के  प्रति उनकी ईमानदारी समझने के लिए इतना बताना ही काफी है कि आईआईटी से पढ़ाई पूरी करने के बाद उन्होंने अपने जुनून को समय देने के लिए एक 'अच्छी-खासी' नौकरी से तौबा कर ली। मगर हिंदी साहित्य के मठों ने उन्हें क्या दिया, ये इस लेख को पढ़कर समझिए। ये भारतीय ज्ञानपीठ को लिखा गया 
एक पत्र है, जिसे गौरव सोलंकी ने लिखा है। 
इस ख़त के गुस्से में मुझे भी शामिल समझिए।

आदरणीय ...... ,
भारतीय ज्ञानपीठ
खाली स्थान इसलिए कि मैं नहीं जानता कि भारतीय ज्ञानपीठ में इतना ज़िम्मेदार कौन है जिसे पत्र में सम्बोधित किया जा सके और जो जवाब देने की ज़हमत उठाए. पिछले तीन महीनों में मैंने इस खाली स्थान में कई बार निदेशक श्री रवीन्द्र कालिया का नाम भी लिखा और ट्रस्टी श्री आलोक जैन का भी, लेकिन नतीजा वही. ढाक का एक भी पात नहीं. मेरे यहां सन्नाटा और शायद आपके यहां अट्टहास.
खैर, कहानी यह जो आपसे बेहतर कौन जानता होगा लेकिन फिर भी दोहरा रहा हूं ताकि सनद रहे.
पिछले साल मुझे मेरी कविता की किताब ‘सौ साल फिदा’ के लिए भारतीय ज्ञानपीठ ने नवलेखन पुरस्कार देने की घोषणा की थी और उसी ज्यूरी ने सिफारिश की थी कि मेरी कहानी की किताब ‘सूरज कितना कम’ भी छापी जाए. जून, 2011 में हुई उस घोषणा से करीब नौ-दस महीने पहले से मेरी कहानी की किताब की पांडुलिपि आपके पास थी, जो पहले एक बार ‘अज्ञात’ कारणों से गुम हो गई थी और ऐन वक्त पर किसी तरह पता चलने पर मैंने फिर जमा की थी.
मां-बहन को कम से कम यह तो खुद तय करने दीजिए कि वे क्या पढ़ें या क्या नहीं. उन्हें आपके इस उपकार की ज़रूरत नहीं है. उन्हें उनके हाल पर छोड़ दीजिए. उन्हें यह 'अश्लीलता' पढ़ने दीजिए कि कैसे एक कहानी की नायिका अपना बलात्कार करने वाले पिता को मार डालती है. लेकिन मैं जानता हूं कि इसी से आप डरते हैं
ख़ैर, मार्च में कविता की किताब छपी और उसके साथ बाकी पांच लेखकों की पांच किताबें भी छपीं, जिन्हें पुरस्कार मिले थे या ज्यूरी ने संस्तुत किया था. सातवीं किताब यानी मेरा कहानी-संग्रह हर तरह से तैयार था और उसे नहीं छापा गया. कारण कोई नहीं. पन्द्रह दिन तक मैं लगातार फ़ोन करता हूं और आपके दफ़्तर में किसी को नहीं मालूम कि वह किताब क्यों नहीं छपी. आखिर पन्द्रह दिन बाद रवीन्द्र कालिया और प्रकाशन अधिकारी गुलाबचन्द्र जैन कहते हैं कि उसमें कुछ अश्लील है. मैं पूछता हूं कि क्या, तो दोनों कहते हैं कि हमें नहीं मालूम. फिर एक दिन गुलाबचन्द्र जैन कहते हैं कि किताब वापस ले लीजिए, यहां नहीं छप पाएगी. मैं हैरान. दो साल पांडुलिपि रखने और ज्यूरी द्वारा चुने जाने के बाद अचानक यह क्यों? मैं कालिया जी को ईमेल लिखता हूं. वे जवाब में फ़ोन करते हैं और कहते हैं कि चिंता की कोई बात नहीं है, बस एक कहानी 'ग्यारहवीं ए के लड़के' की कुछ लाइनें ज्ञानपीठ की मर्यादा के अनुकूल नहीं है. ठीक है, आपकी मर्यादा तो आप ही तय करेंगे, इसलिए मैं कहता हूं कि मैं उस कहानी को फ़िलहाल इस संग्रह से हटाने को तैयार हूं. वे कहते हैं कि फिर किताब छप जाएगी.
लेकिन रहस्यमयी ढंग से फिर भी ‘कभी हां कभी ना कभी चुप्पी’ का यह बेवजह का चक्र चलता रहता है और आख़िर 30 मार्च को फ़ोन पर कालिया जी कहते हैं कि ज्ञानपीठ के ट्रस्टी आलोक जैन मेरे सामने बैठे हैं और यहां तुम्हारे लिए माहौल बहुत शत्रुतापूर्ण हो गया है, इसलिए मुझे तुम्हें बता देना चाहिए कि तुम्हारी कहानी की किताब नहीं छप पाएगी. मैं हैरान हूं. 'शत्रुतापूर्ण' एक खतरनाक शब्द है और तब और भी खतरनाक, जब 'देश की सबसे बड़ी साहित्यिक संस्था' का मुखिया पहली किताब के इंतज़ार में बैठे एक लेखक के लिए इसे इस्तेमाल करे. मुझसे थोड़े पुराने लेखक ऐसे मौकों पर मुझे चुप रहने की सलाह दिया करते हैं, लेकिन मैं फिर भी पूछता हूं कि क्यों? शत्रुतापूर्ण क्यों? हम यहां कोई महाभारत लड़ रहे हैं क्या? आपका और मेरा तो एक साहित्यिक संस्था और लेखक का रिश्ता भर है. लेकिन इतने में आलोक जैन तेज आवाज में कुछ बोलने लगते हैं. कालिया जी कहते हैं कि चाहे तो सीधे बात कर लो. मैं उनसे पूछता हूं कि क्या कह रहे हैं 'सर'?
तो जो वे बताते हैं, वह यह कि तुम्हारी कहानियां मां-बहन के सामने पढ़ने लायक कहानियां नहीं हैं. आलोक जी को मेरा 'फ्रैंकनैस' पसंद नहीं है, मेरी कहानियां अश्लील हैं. क्या सब की सब? हां, सब की सब. उन्हें तुम्हारे पूरे 'एटीट्यूड' से प्रॉब्लम है और प्रॉब्लम तो उन्हें तुम्हारी कविताओं से भी है, लेकिन अब वह तो छप गई. फ़ोन पर कही गई बातों में जितना अफसोस आ सकता है, वह यहां है. मैं आलोक जी से बात करना चाहता हूं लेकिन वे शायद गुस्से में हैं, या पता नहीं. कालिया जी मुझसे कहते हैं कि मैं क्यों उनसे बात करके खामखां खुद को हर्ट करना चाहता हूं? यह ठीक बात है. हर्ट होना कोई अच्छी बात नहीं. मैं फ़ोन रख देता हूं और सन्न बैठ जाता हूं.
जो वजहें मुझे बताई गईं, वे थीं 'अश्लीलता' और मेरा 'एटीट्यूड'.
अश्लीलता एक दिलचस्प शब्द है. यह हवा की तरह है, इसका अपना कोई आकार नहीं. आप इसे किसी भी खाली जगह पर भर सकते हैं. जैसे आपके लिए फिल्म में चुंबन अश्लील हो सकते हैं और मेरे एक साथी का कहना है कि उसे हिन्दी फिल्मों में चुम्बन की जगह आने वाले फूलों से ज़्यादा अश्लील कुछ नहीं लगता. आप बच्चों के यौन शोषण पर कहानी लिखने वाले किसी भी लेखक को अश्लील कह सकते हैं. क्या इसका अर्थ यह भी नहीं कि आप उस विषय पर बात नहीं होने देना चाहते. आपका यह कृत्य मेरे लिए अश्लील नहीं, आपराधिक है. यह उन लोकप्रिय अखबारों जैसा ही है जो बलात्कार की खबरों को पूरी डीटेल्स के साथ रस लेते हुए छापते हैं, लेकिन कहानी के प्लॉट में सेक्स आ जाने से कहानी उनके लिए अपारिवारिक हो जाती है (मां-बहन के पढ़ने लायक नहीं), बिना यह देखे कि कहानी की नीयत क्या है.
मां-बहन को कम से कम यह तो खुद तय करने दीजिए कि वे क्या पढ़ें या क्या नहीं. उन्हें आपके इस उपकार की ज़रूरत नहीं है. उन्हें उनके हाल पर छोड़ दीजिए. उन्हें यह 'अश्लीलता' पढ़ने दीजिए कि कैसे एक कहानी की नायिका अपना बलात्कार करने वाले पिता को मार डालती है. लेकिन मैं जानता हूं कि इसी से आप डरते हैं.मेरा एक पुराना परिचित कहता था कि वह खूब पॉर्न देखता है, लेकिन अपनी पत्नी को नहीं देखने देता क्योंकि फिर उसके बिगड़ जाने का खतरा रहेगा. क्या यह मां-बहन वाला तर्क वैसा ही नहीं है? अगर हमने उनके लिए दुनिया इतनी ही अच्छी रखी होती तो मुझे ऐसी कहानियां लिखने की नौबत ही कहाँ आती? यह सब कुछ मेरी कहानियों में किसी जादुई दुनिया से नहीं आया, न ही ये नर्क की कहानियां हैं. और अगर ये नर्क की, किसी पतित दुनिया की कहानियां लगती हैं तो वह दुनिया ठीक हम सबके बीच में है. मैं जब आया, मुझे दुनिया ऐसी ही मिली, अपने तमाम कांटों, बेरहमी और बदसूरती के साथ. आप चाहते हैं कि उसे इगनोर किया जाए. मुझे सच से बचना नहीं आता, न ही मैंने आपकी तरह उसके तरीके ईज़ाद किए हैं. सच मुझे परेशान करता है, आपको कैसे बताऊं कि कैसे ये कहानियां मुझे चीरकर, रुलाकर, तोड़कर, घसीटकर आधी रात या भरी दोपहर बाहर आती हैं और कांच की तरह बिखर जाती हैं. मेरी ग़लती बस इतनी है कि उस कांच को बयान करते हुए मैं कोमलता और तथाकथित सभ्यता का ख़याल नहीं रख पाता. रखना चाहता भी नहीं.
आख़िर 30 मार्च को फ़ोन पर कालिया जी कहते हैं कि ज्ञानपीठ के ट्रस्टी आलोक जैन मेरे सामने बैठे हैं और यहां तुम्हारे लिए माहौल बहुत शत्रुतापूर्ण हो गया है
लेकिन इसी बीच मुझे याद आता है कि भारतीय ज्ञानपीठ में 'अभिव्यक्ति' की तो इतनी आज़ादी रही कि पिछले साल ही 'नया ज्ञानोदय' में छपे एक इंटरव्यू में लेखिकाओं के लिए कहे गए 'छिनाल' शब्द को भी काटने के काबिल नहीं समझा गया. मेरी जिस कहानी पर आपत्ति थी, वह भी 'नया ज्ञानोदय' में ही छपी थी और तब संपादकीय में भी कालिया जी ने उसके लिए मेरी प्रशंसा की थी. मैं सच में दुखी हूं, अगर उस कहानी से ज्ञानपीठ की मर्यादा को धक्का लगता है. लेकिन मुझे ज़्यादा दुख इस बात से है कि पहले पत्रिका में छापते हुए इस बात के बारे में सोचा तक नहीं गया. लेकिन तब नहीं, तो अब मेरे साथ ऐसा क्यों? यहां मुझे खुद पर लगा दूसरा आरोप याद आता है- मेरा एटीट्यूड.
मुझे नहीं याद कि मैं किसी काम के अलावा एकाध बार से ज़्यादा ज्ञानपीठ के दफ़्तर आया होऊं. मुझे फ़ोन वोन करना भी पसंद नहीं, इसलिए न ही मैंने 'कैसे हैं सर, आप बहुत अच्छे लेखक, संपादक और ईश्वर हैं' कहने के लिए कभी कालिया जी को फ़ोन किया, न ही आलोक जी को. यह भी गलत बात है वैसे. बहुत से लेखक हैं, जो हर हफ़्ते आप जैसे बड़े लोगों को फ़ोन करते हैं, मिलने आते हैं, आपके सब तरह के चुटकुलों पर देर तक हँसते हैं, और ऐसे में मेरी किताब छपे, पुरस्कार मिले, यह कहाँ का इंसाफ़ हुआ? माना कि ज्यूरी ने मुझे चुना लेकिन आप ही बताइए, आपके यहाँ दिखावे के अलावा उसका कोई महत्व है क्या?
ऊपर से नीम चढ़ा करेला यह कि मैंने हिन्दी साहित्य की गुटबाजियों और राजनीति पर अपने अनुभवों से 'तहलका' में एक लेख लिखा. वह शायद बुरा लग गया होगा. और इसके बाद मैंने ज्ञानपीठ में नौकरी करने वाले और कालिया जी के लाड़ले 'राजकुमार' लेखक कुणाल सिंह को नाराज कर दिया. मुझे पुरस्कार मिलने की घोषणा होने के दो-एक दिन बाद ही कुणाल ने एक रात शराब पीकर फ़ोन किया था और बदतमीजी की थी. उस किस्से को इससे ज़्यादा बताने के लिए मुझे इस पत्र में काफ़ी गिरना पड़ेगा, जो मैं नहीं चाहता. ख़ैर, यही बताना काफ़ी है कि हमारी फिर कभी बात नहीं हुई और मैं अपनी कहानी की किताब को लेकर तभी से चिंतित था क्योंकि ज्ञानपीठ में कहानी-संग्रहों का काम वही देख रहे थे. मैंने अपनी चिंता कालिया जी को बताई भी, लेकिन ज़ाहिर सी बात है कि उससे कुछ हुआ नहीं.
वैसे वे सब बदतमीजी करें और आप सहन न करें, यह तो अपराध है ना? वे राजा-राजकुमार हैं और आपका फ़र्ज़ है कि वे आपको अपमानित करें तो बदले में आप 'सॉरी' बोलें. यह अश्लील कहाँ है? ज्ञानपीठ इन्हीं सब चीजों के लिए तो बनाया गया है शायद! हमें चाहिए कि आप सबको सम्मान की नज़रों से देखें, अपनी कहानियां लिखें और तमाम राजाओं-राजकुमारों को खुश रखें. मेरे साथ के बहुत से काबिल-नाकाबिल लेखक ऐसा ही कर भी रहे हैं. ज्ञानपीठ से ही छपे एक युवा लेखक हैं जिन पर कालिया जी और कुणाल को नाराज़ कर देने का फ़ोबिया इस कदर बैठा हुआ है कि दोनों में से किसी का भी नाम लेते ही पूछते हैं कि कहीं मैं फ़ोन पर उनकी बातें रिकॉर्ड तो नहीं कर रहा और फिर काट देते हैं. अब ऐसे में क्या लिक्खा जाएगा? हम बात करते हैं अभिव्यक्ति, ग्लोबलाइजेशन और मानवाधिकारों की.
ख़ैर, राजकुमार चाहते रहे हैं कि वे किसी से नाराज़ हों तो उसे कुचल डालें. चाहना भी चाहिए. यही तो राजकुमारों को शोभा देता है. वे किसी को भी गाली दे सकते हैं और किसी की भी कहानी या किताब फाड़कर नाले में फेंक सकते हैं. कोलकाता के एक कमाल के युवा लेखक की कहानी आपकी पत्रिका ‘नया ज्ञानोदय’ के एक विशेषांक में छपने की घोषणा की गई थी, लेकिन वह नहीं छपी और रहस्यमयी तरीके से आपके दफ़्तर से, ईमेल से उसकी हर प्रति गायब हो गई क्योंकि इसी बीच राजकुमार की आंखों को वह लड़का खटकने लगा. एक लेखक की किताब नवलेखन पुरस्कारों के इसी सेट में छपी है और जब वह प्रेस में छपने के लिए जाने वाली थी, उसी दिन संयोगवश उसने आपके दफ़्तर में आकर अपनी किताब की फ़ाइल देखी और पाया कि उसकी पहली कहानी के दस पेज गायब थे. यह संयोग ही है कि उसकी फ़ाइनल प्रूफ़ रीडिंग राजकुमार ने की थी और वे उस लेखक से भी नाराज़ थे. किस्से तो बहुत हैं. अपमान, अहंकार, अनदेखी और लापरवाही के. मैं तो यह भी सुनता हूं कि कैसे पत्रिका के लिए भेजी गई किसी गुमनाम लेखक की कहानी अपना मसाला डालकर अपनी कहानी में तब्दील की जा सकती है.
लेकिन अकेले कुणाल को इस सबके लिए जिम्मेदार मानना बहुत बड़ी भूल होगी. वे इतने बड़े पद पर नहीं हैं कि ऊपर के लोगों की मर्ज़ी के बिना यह सब कर सकें. समय बहुत जटिल है और व्यवस्था भी. सब कुछ टूटता-बिगड़ता जा रहा है और बेशर्म मोहरे इस तरह रखे हुए हैं कि ज़िम्मेदारी किसी की न रहे.
नामवर जी, आप सुन रहे हैं कि मेरी 'सम्मानित' की गई किताब क्या है? वह जिसके बारे में अखबारों में बड़े गौरवशाली शब्दों में कुछ छपा था और जून की एक दोपहर आपने फ़ोन करके बधाई दी थी, वह ख़ालिस गंदगी है.
मैं फिर भी आलोक जैन जी को ईमेल लिखता हूं. उसका भी कोई जवाब नहीं आता. मैं फ़ेसबुक पर लिखता हूं कि मेरी किताब के बारे में भारतीय ज्ञानपीठ के ट्रस्टी की यह राय है. इसी बीच आलोक जैन फ़ोन करते हैं और मुझे तीसरी ही वजह बताते हैं. वे कहते हैं कि यूं तो उन्हें मेरा लिखा पसंद नहीं और वे नहीं चाहते थे कि मेरी कविताओं को पुरस्कार मिले (उन्होंने भी पढ़ी तब प्रतियोगिता के समय किताब?), लेकिन फिर भी उन्होंने नामवर सिंह जी की राय का आदर किया और पुरस्कार मिलने दिया. (यह उनकी महानता है!) वे आगे कहते हैं, "लेकिन एक लेखक को दो विधाओं के लिए नवलेखन पुरस्कार नहीं दिया जा सकता." लेकिन जनाब, पहली बात तो यह नियम नहीं है कहीं और है भी, तो पुरस्कार तो एक ही मिला है. वे कहते हैं कि नहीं, अनुशंसा भी पुरस्कार है और उन्होंने 'कालिया' को पुरस्कारों की घोषणा के समय ही कहा था कि यह गलत है. उनकी आवाज ऊंची होती जाती है और वे ज्यादातर बार सिर्फ 'कालिया' ही बोलते हैं.
वे कहते हैं कि एक बार ऐसी गलती हो चुकी है, जब कालिया ने कुणाल सिंह को एक बार कहानी के लिए और बाद में उपन्यास के लिए नवलेखन पुरस्कार दिलवा दिया. अब यह दुबारा नहीं होनी चाहिए. तो पुरस्कार ऐसे भी दिलवाए जाते हैं? और अगर वह ग़लती थी तो क्यों नहीं उसे सार्वजनिक तौर पर स्वीकार किया जाता और वह पुरस्कार वापस लिया जाता? मेरी तो किताब को ही पुरस्कार कहकर नहीं छापा जा रहा. और यह सब पता चलने में एक साल क्यों लगा? क्या लेखक का सम्मान कुछ नहीं और उसका समय?
यह सब पूछने पर वे लगभग चिल्लाने लगते हैं कि वे हस्तक्षेप नहीं करेंगे, कालिया जी जो भी 'गंदगी' छापना चाहें, छापें और भले ही ज्ञानपीठ को बर्बाद कर दें. नामवर जी, आप सुन रहे हैं कि मेरी 'सम्मानित' की गई किताब क्या है? वह जिसके बारे में अखबारों में बड़े गौरवशाली शब्दों में कुछ छपा था और जून की एक दोपहर आपने फ़ोन करके बधाई दी थी, वह ख़ालिस गंदगी है. इसके बाद आलोक जी गुस्से में फ़ोन काट देते हैं. ज्ञानपीठ का ही एक कर्मचारी मुझसे कहता है कि चूंकि तकनीकी रूप से मेरे कहानी-संग्रह को छापने से मना नहीं किया जा सकता, इसलिए मुझे उकसाया जा रहा है कि मैं खुद ही अपनी किताब वापस ले लूं, ताकि जान छूटे.
सब कुछ अजीब है. चालाक, चक्करदार और बेहद अपमानजनक. शायद मेरे बार-बार के ईमेल्स का असर है कि आलोक जैन, जो कह रहे थे कि वे कभी ज्ञानपीठ के कामकाज में हस्तक्षेप नहीं करते, मुझे एक दिन फ़ोन करते हैं और कहते हैं, "मैंने कालिया से किताब छापने के लिए कह दिया है. थैंक यू." वे कहते हैं कि उनकी मेरे बारे में और पुरस्कार के बारे में राय अब तक नहीं बदली है और ये जो भी हैं - बारह शब्दों के दो वाक्य - मुझे बासी रोटी के दो टुकड़ों जैसे सुनते हैं. यह तो मुझे बाद में पता चलता है कि यह भी झूठी तसल्ली भर है ताकि मैं चुप बैठा रहूं.
फ़ोन का सिलसिला चलता रहता है. वे अगली सुबह फिर से फ़ोन करते हैं और सीधे कहते हैं कि आज महावीर जयंती है, इसलिए वे मुझे क्षमा कर रहे हैं. लेकिन मेरी गलती क्या है? तुमने इंटरनेट पर यह क्यों लिखा कि मैंने तुम्हारी किताब के बारे में ऐसा कहा? उन्हें गुस्सा आ रहा है और वे जज्ब कर रहे हैं. वे मुझे बताते जाते हैं, फिर से वही, कि मेरी दो किताबों को छापने का निर्णय गलत था, कि मैं खराब लिखता हूं, लेकिन फिर भी उन्होंने कल कहा है कि किताब छप जाए, इतनी किताब छपती हैं वैसे भी. मैं अपना पक्ष रखना चाहता हूं कि मेरी क्या गलती है, मुझे आप लोगों ने चुना, फिर जाने क्यों छापने से मना किया, फिर कहा कि छापेंगे, फिर मना किया और अब फिर टुकड़े फेंकने की तरह छापने का कह रहे हैं. और जो भी हो, आप इस तरह कैसे बात कर सकते हैं अपने एक लेखक से? लेकिन मैं जैसे ही बोलने लगता हूं, वे चिल्लाने लगते हैं- जब कह रहा हूं कि मुझे गुस्सा मत दिला तू. कुछ भी करो, कुछ भी कहो, कोई तुम्हारी बात नहीं सुनेगा, कोई तुम्हारी बात का यक़ीन नहीं करेगा, उल्टे तुम्हारी ही भद पिटेगी. इसलिए अच्छा यही है कि मुझे गुस्सा मत दिलाओ. यह धमकी है. मैं कहता हूं कि आप बड़े आदमी हैं लेकिन मेरा सच, फिर भी सच ही है, लेकिन वे फिर चुप करवा देते हैं. बात उनकी इच्छा से शुरू होती है, आवाज़ें उनकी इच्छा से दबती और उठती हैं और कॉल पूरी.
कभी तू, कभी तुम, कभी चिल्लाना, कभी पुचकारना, सार्वजनिक रूप से सम्मानित करने की बात करना और फ़ोन पर दुतकारकर बताना कि तुम कितने मामूली हो- हमारे पैरों की धूल. मुझे ठीक से समझ नहीं आ रहा कि नवलेखन पुरस्कार लेखकों को सम्मानित करने के लिए दिए जाते हैं या उन्हें अपमानित करने के लिए. यह उनका एंट्रेंस टेस्ट है शायद कि या तो वे इस पूरी व्यवस्था का 'कुत्ता' बन जाएं या फिर जाएं भाड़ में. और इस पूरी बात में उस 'गलती' की ओर किसी का ध्यान नहीं जाता, जब आप अपने यहां काम करने वाले लेखक को यह पुरस्कार देते हैं, दो बार. और दूर-दराज के कितने ही लेखकों की कहानियां-कविताएं-किताबें महीनों आपके पास पड़ी रहती हैं और ख़त्म हो जाती हैं. बहुत लिख दिया. शायद यही 'एटीट्यूड' और 'फ्रैंकनैस' है मेरा, जिसकी बात कालिया जी ने फ़ोन पर की थी. लेकिन क्या करूं, मुझसे नहीं होता यह सब. मैं इन घिनौनी बातचीतों, मामूली उपलब्धियों के लिए रचे जा रहे मामूली षड्यंत्रों और बदतमीज़ फ़ोन कॉलों का हिस्सा बनने के लिए लिखने नहीं लगा था, न ही अपनी किताब को आपके खेलने की फ़ुटबॉल बनाने के लिए. माफ़ कीजिए, मैं आप सबकी इस व्यवस्था में कहीं फिट नहीं बैठता. ऊपर से परेशानियां और खड़ी करता हूं. आपके हाथ में बहुत कुछ होगा (आपको तो लगता होगा कि बनाने-बिगाड़ने की शक्ति भी) लेकिन मेरे हाथ में मेरे लिखने, मेरे आत्मसम्मान और मेरे सच के अलावा कुछ नहीं है. और मैं नहीं चाहता कि सम्मान सिर्फ़ कुछ हज़ार का चेक बनकर रह जाए या किसी किताब की कुछ सौ प्रतियाँ. मेरे बार-बार के अनुरोध जबरदस्ती किताब छपवाने के लिए नहीं थे सर, उस सम्मान को पाने के लिए थे, जिस पर पुरस्कार पाने या न पाने वाले किसी भी लेखक का बुनियादी हक होना चाहिए था. लेकिन वही आप दे नहीं सकते. मैं देखता हूं यहाँ लेखकों को - संस्थाओं और उनके मुखियाओं के इशारों पर नाचते हुए, बरसों सिर झुकाकर खड़े रहते हुए ताकि किसी दिन एक बड़े पुरस्कार को हाथ में लिए हुए खिंचती तस्वीर में सिर उठा सकें. लेकिन उन तस्वीरों में से मुझे हटा दीजिए और कृपया मेरा सिर बख़्श दीजिए. फ़ोन पर तो आप किताब छापने के लिए तीन बार ‘हां’ और तीन बार ‘ना’ कह चुके हैं, लेकिन आपने अब तक मेरे एक भी पत्र का जवाब नहीं दिया है. आलोक जी के आख़िरी फ़ोन के बाद लिखे गए एक महीने पहले के उस ईमेल का भी, जिसमें मैंने कालिया जी से बस यही आग्रह किया था कि जो भी हो, मेरी किताब की अंतिम स्थिति मुझे लिखकर बता दी जाए, मैं इसके अलावा कुछ नहीं चाहता. उनका एसएमएस ज़रूर आया था कि जल्दी ही जवाब भेजेंगे. उस जल्दी की मियाद शायद एक महीने में ख़त्म नहीं हुई है.
मैं जानता हूं कि आप लोग अपनी नीयत के हाथों मजबूर हैं. आपके यहां कुछ धर्म जैसा होता हो तो आपको धर्मसंकट से बचाने के लिए और अपने सिर को बचाने के लिए मैं ख़ुद ही नवलेखन पुरस्कार लेने से इनकार करता हूं और अपनी दोनों किताबें भी भारतीय ज्ञानपीठ से वापस लेता हूं, मुझे चुनने वाली उस ज्यूरी के प्रति पूरे सम्मान के साथ, जिसे आपने थोड़े भी सम्मान के लायक नहीं समझा. कृपया मेरी किताबों को न छापें, न बेचें. और जानता हूं कि इनके बिना कैसी सत्ता, लेकिन फिर भी आग्रह कर रहा हूं कि हो सके तो ये पुरस्कारों के नाटक बन्द कर दें और हो सके, तो कुछ लोगों के पद नहीं, बल्कि किसी तरह भारतीय ज्ञानपीठ की वह मर्यादा बचाए रखें, जिसे बचाने की सबसे ज़्यादा ज़रूरत है.
सुनता हूं कि आप शक्तिशाली हैं. लोग कहते हैं कि आपको नाराज़ करना मेरे लिए अच्छा नहीं. हो सकता है कि साहित्य के बहुत से खेमों, प्रकाशनों, संस्थानों से मेरी किताबें कभी न छपें, आपके पालतू आलोचक लगातार मुझे अनदेखा करते रहें और आपके राजकुमारों और उनके दरबारियों को महान सिद्ध करते रहें, या और भी कोई बड़ी कीमत मुझे चुकानी पड़े. लेकिन फिर भी यह सब इसलिए ज़रूरी है ताकि बरसों बाद मेरी कमर भले ही झुके, लेकिन अतीत को याद कर माथा कभी न झुके, इसलिए कि आपको याद दिला सकूं कि अभी भी वक़्त उतना बुरा नहीं आया है कि आप पच्चीस हज़ार या पच्चीस लाख में किसी लेखक को बार-बार अपमानित कर सकें, इसलिए कि हम भले ही भूखे मरें लेकिन सच बोलने का जुनून बहुत बेशर्मी से हमारी ज़बान से चिपककर बैठ गया है और इसलिए कि जब-जब आप और आपके साहित्यिक वंशज इतिहास में, कोर्स की किताबों में, हिन्दी के विश्वविद्यालयों और संस्थानों में महान हो रहे हों, तब-तब मैं अपने सच के साथ आऊं और उस भव्यता में चुभूं.
तब तक शायद हम सब थोड़े बेहतर हों और अपने भीतर की हिंसा पर काबू पाएँ.
गौरव सोलंकी
11/05/2012
(फोटो 'तहलका' वेबसाइट से 'साभार')

गुरुवार, 5 अप्रैल 2012

लेखकों की रचनाओं की चोरी की एफआईआर तक दर्ज नहीं होती...

जयप्रकाश चौकसे
सलीम-जावेद की लिखी ‘जंजीर’ ने अमिताभ बच्चन को सितारा बनाया, प्रकाश मेहरा की कंपनी को ठोस आर्थिक आधार दिया और कालांतर में यह कल्ट फिल्म मानी गई। इसी फिल्म से आक्रोश की मुद्रा बॉक्स ऑफिस पर ऐसे सिक्के के रूप में चल पड़ी कि आज तक लोग उसे भुना रहे हैं। इतना ही नहीं, इसी आक्रोश ने अन्य फिल्मकारों को भी एक रास्ता बताया और इसी के विविध रूप हिंदुस्तानी सिनेमा में छा गए हैं। गोविंद निहलानी की ‘अर्धसत्य’ भी इसी का उनका अपना संस्करण है। सच तो यह है कि राजकुमार संतोषी की ‘घायल’, ‘घातक’ ही नहीं, वरन् आज की ‘दबंग’ छवि भी उसी आक्रोश के हंसोड़ संस्करण हैं।


अब प्रकाश मेहरा के सुपुत्र अपूर्व लखिया नामक निर्देशक के साथ ‘जंजीर’ का नया संस्करण बनाने जा रहे हैं। ये तमाम लोग अमिताभ बच्चन और जया से आशीर्वाद लेने जा रहे हैं, जबकि नए संस्करण में अमिताभ के अभिनय को नहीं दोहरा रहे हैं। आप मूल फिल्म की पटकथा पर फिल्म बना रहे हैं और उसमें जो भी परिवर्तन करेंगे, वह मूल की छवि को बिगाड़ देंगे। सारे नए संस्करणों में कलाकार नए होते हैं, उनकी व्याख्या भी अलग होती है और संगीत भी अलग होता है, परंतु पटकथा का आधार नहीं बदलते और सारे पंच संवाद भी दोहराए जाते हैं। आप दर्जन दफा ‘डॉन’ बना लो, परंतु ‘डॉन को पकड़ना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है’ संवाद को दोहराते हैं, क्योंकि इस पर हर कालखंड में तालियां पड़ती हैं। इसी तरह ‘देवदास’ को मनके की माला की तरह दोहराइए, परंतु मेरुमणि संवाद, राजिंदर सिंह बेदी का लिखा ‘कौन कम्बख्त बर्दाश्त करने को पीता है..’, दोहराकर गिनेंगे नहीं, जैसे माला में सौ मनके होते हैं, परंतु एक मेरुमणि होता है, जिसे फिराते हैं, परंतु गिनती में शुमार नहीं करते। इसी बात को महान गालिब ने यूं फरमाया है- ‘हम ब आलम बरकिनार कुफनाद अय, चूं इमामे सबह बैंरू अज शुमार ऊफनाद अय’।


यही मेरुमणि की तरह वो तमाम पटकथाएं बना दी गई हैं कि नए संस्करण के लिए कलाकार का आशीर्वाद लेने जा रहे हो और मूल के लेखकों के श्राप से भय नहीं लगता। उनकी इजाजत लेने की भी आवश्यकता नहीं महसूस होती। उनकी गिनती ही नहीं है। यह अन्याय इसलिए हो रहा है कि हमारे कॉपीराइट के नियम लचर हैं और अपना एक्सपायरी समय पार कर चुके हैं और इसका नया स्वरूप संसद की उन अलमारियों में धूल खा रहा है, जहां सरकारों ने अनेक नरकंकाल भी छिपाए हुए हैं।

आज के दौर में सुर्खियों में बने रहने और आशीर्वाद की मुद्रा में फोटो खिंचाने का शौक शायद सबसे बड़ा लालच है और ये वे लोग कर रहे हैं, जिनकी तस्वीरों ने अपनी अधिक संख्या के कारण अलग किस्म का प्रदूषण रचा है। बहरहाल, जावेद साहब के सुपुत्र फरहान अख्तर ने ‘डॉन’ बनाने से पहले सलीम साहब से इजाजत मांगी थी। प्रकाश मेहरा के बेटे सलीम और जावेद से मिलना तक गैरजरूरी समझते हैं। वे किस अहंकार की जंजीर से बंधे हैं। उनके पिता ‘जंजीर’ के पहले मात्र संघर्षरत फिल्मकार थे। यह संभव है कि ‘जंजीर’ की कमाई का दूध उन्होंने बचपन में पिया हो। दूध के कर्ज के रूप में भी मूल के लेखकों से मिला जा सकता है।

हिंदुस्तान में भ्रष्टाचार में पैसा खा जाते हैं, कोयले की खदान खा जाते हैं, धरती की अंतड़ियों से उसकी सदियों की खुराक चुरा लेते हैं और आकाश से परिंदों की उड़ान चुरा लेते हैं, नदियों से पानी और हवा से ऑक्सीजन चुरा लेते हैं और इन सभी चोरियों के खिलाफ आंदोलन है, परंतु लेखकों की रचनाओं की चोरी की एफआईआर किसी थाने में लिखी तक नहीं जा सकती। दरअसल इस मुल्क में मौलिकता का मूल्य नहीं, विचार-संपदा का सम्मान नहीं, भाषा सौंदर्य की कद्र नहीं। मुल्क इस तरह से मरते हैं, क्योंकि उन्हें तो कोई और मौलिक तरह से मरना भी नहीं आता।

(Courtsey : Dainik Bhaskar)

ये पोस्ट कुछ ख़ास है

मृत्यु की याद में

कोमल उंगलियों में बेजान उंगलियां उलझी थीं जीवन वृक्ष पर आखिरी पत्ती की तरह  लटकी थी देह उधर लुढ़क गई। मृत्यु को नज़दीक से देखा उसने एक शरीर ...

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