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शुक्रवार, 27 मई 2022

बेटी का स्कूल

कल स्कूल खुलेंगे कई दिन बाद 
क़ैद से निकलेंगी बच्चियाँ
नए पुराने दोस्तों से मिलेंगी

फरहाना के साथ लंच शेयर करेगी 
जेनिस के साथ खूब बातें करेगी
रवनीत बनेगी बेंच पार्टनर

फरहाना बताएगी वॉटर पार्क के क़िस्से
छपछप करती है वो अक्सर जाकर

जेनिस बताएगी कैसे मुर्गे की आवाज़ निकालकर
खिड़की के बाहर आता है रोज़ 
गुब्बारे वाला

रवनीत बताएगी 
गुरुद्वारे जाकर दुखभंजनी साहब गाती है वो 
हर बुधवार

मेरी बच्ची भी बताएगी 
नई जगहों के बार में 
जहाँ मम्मी ले जाती है उसे, 

बताएगी कोर्ट गयी थी घूमने 
पिछले मंगलवार
कोर्ट एक मस्त जगह है
जहाँ मम्मी-पापा बिल्कुल नहीं लड़ते
सिर्फ़ प्यार करते हैं मुझसे। 

बताएगी फरहाना को
वॉटरपार्क से बुरा नहीं है थाने जाना
पुलिस वाले अंकल देते हैं खूब सारी टौफियाँ
और पापा से काफी देर बातें करते हैं। 

जेनिस को बताएगी
घर पर आती रहती है पुलिस
जैसे उसके यहाँ आता है गुब्बारे वाला। 

अगली बार आई पुलिस तो वो रवनीत से सीखकर 
गाएगी दुखभंजनी साहेब

और रोएगी बिल्कुल नहीं।

निखिल आनंद गिरि

बुधवार, 11 सितंबर 2013

करवट..

वो सभी रिश्ते समाज से,
बेदख़ल कर दिए जाएं,
जिनमें रत्ती भर भी ईमानदारी हो.
उस भीड़ को दफ्न कर दिया जाए
जिसके पास मीठी तालियां हों बस..

तेज़ आंच में झुलसा दी जाएं,
वो तमाम बातें..
जो कही गईं
चांद के नाम पर,
प्यार की मजबूरी में,
नरम हों, ठंडी हों..

वो आंखें नोच ली जाएं,
जिन्हें देखकर लगता हो..
कि ख़ुदा है..
अब भी कहीं..

उस ज़िंदगी से मौत बेहतर,
जिसे ठोकरें तक नसीब नहीं..
एक करवट बदलनेे के लिए..

निखिल आनंद गिरि

रविवार, 8 सितंबर 2013

वो प्यार नहीं था..

कभी-कभी सोचता हूं...
(इतना काफी है मानने के लिए कि ज़िंदा हूं)
कि आकाश तक जाने का कोई पुल होता तो हम छोड़ देते धरती
किसी अमावस की रात में...
और मुझे मालूम है कि,
पिता नहीं, वो तो खर्राटे भर रहे होंगे..
मां भी नहीं, वो थक कर अभी चूर हुई होगी...
तुम ही मुझे आधे रास्ते से उतार लाओगी
कान पकड़े किसी हेडमास्टर की तरह...
जबकि चांद एक सीढ़ी भर दूर बचेगा...
अंधी रात को क्या मालूम उसे तुमने नीरस किया है।

तुम्हारी तेज़ कलाई जब देखी थी आखिरी बार,
मुझे नहीं आता था बुखार नापना...
मेरी धड़कनों में वही रफ्तार है अभी...
इस वक्त जब ले रहा हूं सांसें...
और हर सांस में डर है मरने का...
तुम्हें भूलने का इससे भी बड़ा...
 
ये बचपना नहीं तो और क्या
कि जिस चौराहे से गुज़रिए वहां भगवान मिलते हैं
इस आधार पर मान लिया जाए,
कि बचपन की हर चीज़ वहम थी...
मौत के डर से हमने बनाए भगवान,
जिन्हें मरने का शौक होता है,
वो बार-बार प्यार करते हैं...

जबकि, प्यार कहीं भी, कभी भी हो सकता है...
छत पर खड़े हुए तो सूखे कपड़ों के बीच में..
और जब सबसे बुरे लगते हैं हम आईने में, तब भी...

तो सुनो, कि मैं सोचने लगा हूं अब..
तुमने चांद से सीढ़ी भर दूर मुझे मौत दी थी...
और सो गयी थीं गहरी नींद में...
वो प्यार नहीं था,
प्यार कोई इतवार की अलसाई सुबह तो नहीं,
कि इसे सोकर बिता दिया जाए

निखिल आनंद गिरि

मंगलवार, 5 मार्च 2013

जिम जाती लड़की...

मेरी पार्वती बुआ घर का सारा काम करती थी
मगर मां की ननद नहीं थीं बुआ...
मां बताती है कि जब हम भी नहीं थे,
तब परबतिया एक लड़की जैसी थी
जिसके बाल उलझे थे
और हाथों में खुरपी थी...
उसके नाम के साथ हरदम एक गाली लगाकर
बुलाती थी बड़की माई...
खेत से दौड़ी चली आती थी बुआ
बिन चप्पल के, फटी साड़ी लपेटे....
 
बुआ दौड़ती थी, सच में दौड़ती थी...
वैसे नहीं जैसे ट्रेडमिल पर दौ़ड़ती हैं लड़कियां
दिल्ली के जिम में...
एसी में हांफतीं, झूठमूठ की..
डेढ़ कोस दूर बांध पर से लौटती थी बुआ
तीन गायों के साथ रोज़ाना
सारा गोबर टोकरी पर उठाए...
कम से कम एक पसेरी तो होगा ही..
सच में लाती थी गोबर...
वैसे नहीं जैसे जिम में होते हैं
झूठमूठ के बटखरे...
दो किलो, पांच किलो वगैरा वगैरा
 
इतना थककर भी बुआ खेलती थी कितकित
और गाती थी सामा चकवा के मीठे गीत
बुआ बैडमिंटन नहीं खेली कभी
जैसे झूठमूठ का खेलती हैं
पार्क में जाने वाली लड़कियां
जिन्हें घूरते रहते हैं हर उम्र के मर्द
बुआ ने शायद ही देखा हो कभी आईना
गोबर से घर लीपती गंदी बुआ
मिट्टी में सनी हुई काली बुआ
बुआ को देखता नहीं था कोई प्यार से
भैंस चराता नेटचुआ भी नहीं..
जैसे जिम वाली लड़की को देखते हैं सब...
और वो एक शोर को निर्गुण समझकर...
रिदम में चलाती है साइकिल झूठमूठ की...
 
अचानक याद आ गई मां जैसी पार्वती बुआ
जिम में लहराती जिस लड़की को देखकर
शर्त लगाकर कह सकता हूं मैं...
परबतिया नहीं हो सकता इसका नाम..
 
 
बुआ और बैडमिंटन वाली लड़की के बीच
मैं किसी बीमारू राज्य के पुल की तरह हूं
जो कभी भी भरभरा कर गिर सकता है
पार करने के बारे में सोचने तक से भी...
निखिल आनंद गिरि

शुक्रवार, 18 नवंबर 2011

उसे बचपन में सपने देखने की बीमारी थी..

एक दिन मेरी उम्र ऐसी थी कि मुझे बस प्यार करने का मन होता था। तब तुमसे मिलना हुआ और उस एक दिन हमने बहुत प्यार किया था। फिर वो दिन कभी नहीं आया। हमने उस रिश्ते का कोई नाम तो दिया था। क्या दिया था, ठीक से याद नहीं। उस नाम पर तुम्हें बहुत हंसी आई थी। तुम्हारा हंसना ऐसे था जैसे कोई मासूम बच्चा गिर पड़े और उसकी चोट पर मां खिलखिलाकर हंसती रहे। जैसे कोई रोटी मांग रहा हो और आप उसकी पेट पर लात मारकर हंसते रहें। फिर मैंने तुम्हें यूं देखा जैसे कोई कोमा में चला जाए और किसी के होने न होने से कोई फर्क ही नहीं पड़े। मैं तुमसे नफरत नहीं करता। नफरत करने में भी एक रिश्ता रखना पड़ता है। मैं तो तुमसे नफरत भी नहीं करना चाहता। यानी कोई रिश्ता नहीं रखना चाहता।


उसे सपने बहुत आते थे। उसके सपनों में एक पेड़ आता जिस पर कई तरह के फूल होते थे। वो सभी फूल एक ही रंग के होते थे। वो रोज़ सारे फूल तोड़कर तेज़ी से कहीं भागती थी। रास्ते में रेल की एक पटरी होती थी जहां अक्सर उसे इसी पार रुक जाना पड़ता। वो झुंझला कर फूल को पटरी के नीचे रख देती। सारी खुशबू कुचल कर ट्रेन जैसे ही आगे बढ़ती, सपना ख़त्म हो जाता था। लड़की की शादी तय हो चुकी थी। उसकी मां उसे तरह-तरह की नसीहतें देने लगी। मां ने कहा कि अब तुम्हें कम सोने की आदत डाल लेनी चाहिए। लड़की ने चुपचाप हामी भरी। जबकि असलियत ये थी कि लड़की को रात में नींद ही नहीं आती थी।

मैंने बचपन में एक गुल्लक ख़रीदी थी। मासूमियत देखिए कि जब उसमें खनकने भर पैसे इकट्ठा हो गए तो मैं अमीर होने के ख़्वाब देखने लगा। मैंने और भी कई ख़्वाब देखे। जैसे मैं अंधेरों के सब शहर ख़रीद लूंगा और गोदी में उठाए समंदर में बहा आऊंगा। जैसे मुझे ज़िंदगी जीने के कई मौके मिलेंगे और मैं उसे बीच सड़क पर नीलाम कर दूंगा। फिर किसी बूढ़े आदमी पर तरस खाकर उसे एकाध टुकड़ा उम्र सौंप दूंगा।

मुझे बूढे लोग अच्छे नहीं लगते। क्योंकि वो इतने सुस्त दिखने के बावजूद मुझसे पहले मौत के इतने करीब पहुंच चुके होते हैं जहां पहुंचने का मेरा बहुत मन करता है।

निखिल आनंद गिरि

सोमवार, 14 फ़रवरी 2011

रोटियों के नक्शे बिगड़ जाते होंगे

न चाहते हुए भी,
जब से मासूम पीठों पर,
किताबों का गट्ठर लदा होगा.....
मासूम चेहरों ने बना ली होगी,
बस्ते में अलबम रखने की जगह....

कई बार कच्चे रास्तों पर,
ढेला खाती होगी
आम की फुनगी,
और गिरते टिकोले बढ़ाते होंगे,
प्यार का वज़न...

बिना किसी वजह के,
जब डांट खाते होंगे
बड़े होते बेटे,
प्यार का अहसास,
पहली बार देता होगा थपकी.....

जब नहीं हुआ करते थे मोबाईल,
नहीं पढे जाते थे झटपट संदेश,
आंखें तब भी पढ़ लेती होंगी,
कि किससे होना है दो-चार...
और हो जाता होगा मौन प्यार

ये भी संभव है कि,
अनपढ़ मांएं या बेबस बहनें,
अक्सर याद करती होंगी चेहरा,
तो रोटियों के नक्शे बिगड़ जाते होंगे...

या फिर दाढ़ी बनाते पिता ही,
पानी या तौलिया मांगते वक्त,
अनजाने में पुकारते होंगे कोई ऐसा नाम,
जो शुरु नहीं होता,
मां के पहले अक्षर से....

एक सहज प्रक्रिया के लिए रची गयी रोज़ नयी तरकीबें,
प्यार ने पैदा किये हैं कितने वैज्ञानिक...

ये सरासर ग़लत है कि,
कवि,शायर या चित्रकार ही,
प्यार की बेहतर समझ रखते हैं.....

दरअसल,
जिसके पास मीठी उपमाएं नहीं होतीं
वो भी कर रहा होता है प्यार,
चुपके-चपके....

निखिल आनंद गिरि

शुक्रवार, 26 नवंबर 2010

खैर, मां तो मां है ना...

आज बहुत दिनों बाद लौटा हूँ घर,

एक बीत चुके हादसे की तरह मालूम हुआ है

की मेरी बंद दराज की कुछ फालतू डायरियां

(ऐसा माँ कहती है, तुम्हे बुरा लगे तो कहना,

कविता से हटा दूंगा ये शब्द....)

बेच दी गयी हैं कबाडी वाले को....

मैं तलाश रहा हूँ खाली पड़ी दराज की धूल,

कुछ टुकड़े हैं कागज़ के,

जिनकी तारीख कुतर गए हैं चूहे,

कोइ नज़्म है शायद अधूरी-सी...

सांस चल रही है अब तक...


एक बोझिल-सी दोपहर में जो तुमने कहा था,

ये उसी का मजमून लगता है..

मेरे लबों पे हंसी दिखी है...

ज़ेहन में जब भी तुम आती हो,

होंठ छिपा नहीं पाते कुछ भी....

खैर, मेरे हंस भर देने से,

साँसे गिनती नज़्म के दिन नहीं फिरने वाले..

वक़्त के चूहे जो तारीखें कुतर गए हैं,

उनके गहरे निशाँ हैं मेरे सारे ज़हन पर..


क्या बतलाऊं,

जिस कागज़ की कतरन मेरे पास पड़ी है,

उस पर जो इक नज़्म है आधी...

उसमे बस इतना ही लिखा है,

"काश! कि कागज़ के इस पुल पर,

हम-तुम मिलते रोज़ शाम को...

बिना हिचक के, बिना किसी बंदिश के साथी...."


नज़्म यहीं तक लिखी हुई है,

मैं कितना भी रो लूं सर को पटक-पटक कर,

अब ना तो ये नदी बनेगी,

ना ये पुल जिस पर तुम आतीं...

माँ ने बेच दिया है अनजाने में,

तुम्हारे आंसू में लिपटा कागज़ का टुकडा...

पता है मैंने सोच रखा था,

इक दिन उस कागज़ के टुकड़े को निचोड़ कर....

तुम्हारे आंसू अपनी नदी में तैरा दूंगा,

मोती जैसे,

मछली जैसे,

कश्ती जैसे,

बल खाती-सी..


खैर, माँ तो माँ ही है ना..

बहुत दिनों के बाद जो लौटा हूँ तो इतनी,

सज़ा ज़रूरी-सी लगती है...

निखिल आनंद गिरि

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ये पोस्ट कुछ ख़ास है

मृत्यु की याद में

कोमल उंगलियों में बेजान उंगलियां उलझी थीं जीवन वृक्ष पर आखिरी पत्ती की तरह  लटकी थी देह उधर लुढ़क गई। मृत्यु को नज़दीक से देखा उसने एक शरीर ...

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