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सोमवार, 16 जनवरी 2017

पुस्तक मेला हो तो दिल्ली में हो वरना नहीं हो

प्रगति मैदान मेट्रो स्टेशन से ही मुंह में भोंपू (लाउडस्पीकर) लगाकर सीआईएसएफ का जवान जब दाएं जाएं-बाएं जाएं करता है तो एहसास हो जाता है कि कितनी भीड़ होगी मेले में। नीचे उतरिए तो मेले के बाहर भी मेला। फुचके का, गुब्बारे का, मोबाइल कवर का, 80 प्रतिशत छूट वाली डिक्शनरी का। फिर भीतर सारे स्टॉल।

हिंदी के हॉल में मिलने वाले ज्यादा, ख़रीदने वाले कम। लिखने वाले ज़्यादा पढ़ने वाले कम। हिंदी वाले हॉल में किसी राजा बुकस्टॉल पर नज़र गई और वहां अंग्रेज़ी की किताबों पर मछली ख़रीदने जैसी भीड़ दिखी तो मन रुक गया - ‘अंग्रेज़ी की किताबें 100 रुपये, सौ-सौ रुपये। जो मर्ज़ी छांट लो।एक दुबला-सा लड़का एक स्टूल पर खड़ा होकर लोगों को बुलाए जा रहा था। लोग किताबें छांट रहे थे। जैसे पालिका मार्केट में लोअर छांटते हैं, लड़कियां जनपथ में ऊनी चादरें छांटती हैं।
मैंने धीरे से पूछा-हिंदी की किताबें?  तो उसी सुर में बोला – ‘’उधर। पच्चास रुपये, पच्चास रुपये।‘’ उधर नज़र गई तो एक तरफ सुख की खोजथी, एक तरफ कॉल गर्लऔर बीच में भगत सिंह की अमर गाथा’! सब पचास रुपये में। मैंने सोचा कि हिंदी की किताबों को सम्मान से रख तो लेते कम से कम। भगत सिंह के साथ कॉल गर्ल को बेच रहे हैं, वो भी अंग्रेज़ी से आधे दाम पर। शर्म आनी चाहिए। फिर आगे बढ़ा तो एक बाबा चिल्ला-चिल्ला कर सत्यार्थ प्रकाशबेच रहे थे। बोल रहे थे आधे घंटे में जीवन नहीं बदला तो पैसे वापसी की पूरी गारंटी। मैंने चुपके से रास्ता ही बदल लिया। सिर्फ स्टॉल ही नहीं पूरी हॉल ही छोड़ आया।
अंग्रेज़ी वाले हॉल में घुसा तो वहां पेंग्विन और नेशनल बुक ट्रस्ट पर भारी भीड़ थे। लोग वहीं बैठकर पूरी-पूरी किताब पढ़ रहे थे। मुझे बढ़िया आइडिया लगा। सात दिनों में कम से एक किताब तो पूरी की ही जा सकती है। साल में कम से कम एक किताब तो पढ़नी ही चाहिए। वहां भी ‘’किताबों का पालिका बाज़ार’’ लगा हुआ था। अंग्रेज़ी वाले नए पाठकों की भीड़ उस दुकान पर थी। बिना जाने-सुने-पहचाने लेखकों की सुंदर किताबें 100 रुपये में ख़रीदना अंग्रेज़ी वालों के लिए मोज़े ख़रीदने जैसा रहा होगा। हिंदी वाले तो इतना जेब में रखे-रखे नई हिंदी वाले स्टॉल पर चार दिन घूम आते हैं।
ज़्यादा नहीं लिखूंगा। आप बस तस्वीरों को देखकर फील कीजिए। दिल्ली की सबसे ख़ास बात ये है कि ये सबको बराबर दिखने-महसूस करने के पूरे मौके देती है। किताबों की इतनी दुकानों में आप सिर्फ घूम कर लौट आते हैं या एकाध किताबें ख़रीदते भी हैं, क्या फर्क पड़ता है। सबके साथ मेले में रहने का भरम अकेले लौटने से ही पूरा होता है। जैसे हम दुनिया से लौटते हैं एक दिन। 
निखिल आनंद गिरि

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