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रविवार, 5 फ़रवरी 2017

लालकिला कवि सम्मेलन : वो कविताएं पढ़ती रहीं, हम सीटियां बजाते रहे


4 फरवरी को लालकिले पर आयोजित कवि सम्मेलन में इस बार दो वजहों से गया। एक तो ये कि मैं पिछले बारह सालों से दिल्ली में रहते हुए कभी लालकिला नहीं गया। दूसरा कि मेरे पुराने साथी अभिनव शाह से आखिरी बार जब क़रीब छह साल पहले मिला था तो वो कुंवारे थे और अब एक बच्चे के पिता हैं और ऐसा ही विकास मेरा भी हुआ है। ऐसे में इस तरह के कवि सम्मेलनों से अच्छी कोई जगह नहीं जहां घिसी-पिटी बातें सुनने से ज़्यादा अपनी बात करने के हज़ार मौक़े मिलते हैं।

एक ऐसा खचाखच भरा कवि सम्मेलन जिसे दूरदर्शन के ज़माने में टीवी पर देखकर लगता था कि शर्ट या कोट पर फूलों वाला गोल बैज लगाकर कविताएं पढ़ने वाले कवि ही आगे चलकर महान कहलाते होंगे। इस बार वहां पहुंचा तो पाया कि जितनी कुर्सियां भरी थीं, उससे ज़्यादा ख़ाली थीं। 8 बजे से तय कवि सम्मेलन का पहला डेढ़ घंटा फूल मालाएं देने, एक-दूसरे की पीठ खुजाने और मुख्यमंत्री, उप मुख्यमंत्री, उप-उप-मंत्री, गुपचुप मंत्री को सम्मानित करते ही बीता। कुमार विश्वास सिर्फ अतिथि के तौर पर बुलाए गए थे मगर अपनी आदत से बाज़ नहीं आए और कम से कम 15 मिनट कवियों का परिचय पढ़कर ख़राब किया। जिस दिल्ली हिंदी अकादमी ने इस सम्मेलन की मेज़बानी की थी उसकी उपाध्यक्ष मैत्रेयी पुष्पा को इस फालतू के डेढ़ घंटे में एक शब्द भी बोलने का मौक़ा नहीं मिला। इस बीच लालकिला और आसपास से लोग आते रहे और फूलों से लदे,पंजाब से लौटे आम आदमी पार्टी के मंत्री जाते रहे।
इसके बाद के डेढ़ घंटे में एक-एक कर जिस भी कवि को बुलाया गया उसने कविता के अलावा इतनी बातें कहीं जिन्हें पढ़-पढ़ कर हम सोशल मीडिया, व्हाट्स ऐप पर हज़ार बार हंस चुके हैं और इतनी ही बार फॉरवर्ड-म्यूट कर चुके हैं। कविता के नाम पर चार पंक्तियां, चार पंक्तियां कहते-कहते कवि इतना कुछ फालतू कहते रहे कि अफसोस हुआ कि ये सब नमूने हमारी बिरादरी के ही हैं। डियर राष्ट्रवादी-सांस्कृतिक चेतना के कवियों! भीड़ को बांधनेका मतलब रस्सी से बांधना थोड़े होता है। उसे कविताएं भी चाहिए। कोई संपत सरल, सुदीप भोला या कुंवर बेचैन जैसे ठीकठाक कवि बिठाकर 25 बुरे कवियों को दिल्ली के लालकिले से पेश करने का जो अपराध साल-दर-साल सरकारी खर्चे से हो रहा है, उसका पाप पता नहीं श्रोताओं के सर जाना चाहिए या प्रस्तोताओं के।

आम आदमी पार्टी के सबसे ख़ास आदमी केजरीवाल ने सम्मेलन के शुरू में कहा कि कवि हमारी पार्टी और मोदी जी की पार्टी को भर-भर के गालियां दे सकते हैं। ऐसा आदेश प्राप्त होते ही, चूंकि इस सम्मेलन का चेक दिल्ली सरकार से मिलना था, कवियों ने अपने बासी चुटकुले नोटबंदी, छप्पन इंच वगैरह पर ही सीमित रखे और दिल्ली सरकार को बेनिफिट ऑफ डाउटमिला। कुमार विश्वास से इस कदर विश्वास उठता जा रहा है कि वो केजरीवाल की तुलना लाल बहादुर शास्त्री से कर बैठे मगर फिर भी कोई आश्चर्य नहीं हुआ।

मंच संचालक रास बिहारी गौड़ साहब एक (अ)भूतपूर्व मंच संचालक कुमार विश्वास की मौजूदगी से इस कदर नर्वस और मर्द-बरबस दिखे कि एक महिला कवि के कुछ सेकेंड देर से माइक तक पहुंचने पर पूरे घटियापन से बोल गए कि माइक तक आने से पहले भी मेक-अप करना नहीं भूलतीं। महिला कवि ने माइक पर आने से पहले सबके सामने उन्हें ऐसे घूरा कि वो उनका संचालन अंत-अंत तक कुरूप और नीरस ही रहा होगा। बिहार से आए एक सांवले सज्जन शंभू शिखर अपने रंग-रूप पर कटाक्ष सुनकर इतने उत्साहित थे कि ज़ोर-ज़ोर से पानी का तुक वानी और निष्ठा का तुक विष्ठासे लगाकर तालियों की भीख मांगते रहे। जनता ने किसी भी कवि को इस मामले में निराश नहीं किया। राष्ट्रीय कवि सम्मेलन में आयी लालकिले की जनता ने महिला कवियों के ताली मांगने पर सीटियां भी बजाईं और जवान, पाकिस्तान, नौजवान जैसा कुछ भी सुनने पर उछल-उछल कर भारत माता की जय के नारे से पूरे चांदनी चौक की रात ख़राब की।

मुझे कवि सम्मेलनों से कोई चिढ़ नहीं है। मैं ख़ुद भी माइक पर कविताएं पढ़ने में बहुत भावुक महसूस करता हूं। लेकिन अगर आपको पिछले दस-बारह साल से इस तरह के मंचों पर एक ही धुन सुनने को मिले, बस गवैयों के चेहरे बदलते रहे तो चिढ़ होनी चाहिए। अगर आपको कुमार विश्वास की नर्सरी से निकले तमाम झाड़-झंखार, घास-फूस ही एक मंच पर लालकिले तक राष्ट्रीयसम्मान बटोरते कवियों की लिस्ट में दिखें तो गुस्सा भी आना चाहिए। कवि सम्मेलनों के आगे राष्ट्रीय लगा देने से कोई आयोजन महत्वपूर्ण नहीं हो सकता। तालियों और सीटियों के बीच कविताएं आखिरी मेट्रो पकड़कर घर भाग गई हैं। हो सके तो उन्हें पकड़िए। राष्ट्र हित में जारी।

आखिरी बात -
अगर दिल्ली की हिंदी अकादमी को लगता है कि रात के आठ बजे कोई कवि सम्मेलन शुरू करवाकर वो कविता को सबके लिए (महिलाओं, बच्चों के लिए भी) उपलब्ध करवा सकती है तो अभी दिल्ली दूर है। ऐसे कवि सम्मेलन में सिर्फ मैत्रेयी पुष्पा आ सकती हैं क्योंकि उन्हें उपाध्यक्ष होने की मजबूरी है, एक-दो महिला कवि आ सकती हैं क्योंकि उन्हें संचालक सरस्वती वंदना के लिए बुलाएगा। या फिर कुछ घरेलू महिलाएं जिन्हें आखिरी मेट्रो तक पति के साथ प्रोग्राम देखने की इजाज़त है।
इसके अलावा मर्द ही मर्द हैं राष्ट्रीय कवि सम्मेलन में।

निखिल आनंद गिरि

शनिवार, 25 जनवरी 2014

ये मुल्क 'मॉकरी' है..छब्बीस जनवरी है..

छब्बीस जनवरी है..
छब्बीस जनवरी है..

कहीं मूंछ की लड़ाई,
कहीं भेड़िया है भाई,
दुबकी-सी गिलहरी है..
छब्बीस जनवरी है..

सच मारता है फांकी,
ये राजपथ की झांकी,
बस झूठ से भरी है..
छब्बीस जनवरी है..

हर सिम्त मातमपुर्सी,
फिर भी उन्हें है कुर्सी,
अपने लिए दरी है..
छब्बीस जनवरी है..

दाता मुझे बचा ले
मौला मुझे बचा ले..
इतनी पुलिस खड़ी है,
छब्बीस जनवरी है..

छप्पन किसी की छाती,
कोई नेहरू के नाती,
बापू की किरकिरी है..
छब्बीस जनवरी है..

सब 'आम' हो खड़े हैं..
बहुरूपिये बड़े हैं..
वोटों की लॉटरी है..
छब्बीस जनवरी है..

आए अगस्त जब तक,
सब मस्त फिर से तब तक,
ये मुल्क 'मॉकरी' है..
छब्बीस जनवरी है..
छब्बीस जनवरी है..

निखिल आनंद गिरि

बुधवार, 1 जनवरी 2014

खस्ताहाल मुबारक हो..

आम आदमी के सिर पर,
बत्ती लाल मुबारक हो..
फेंकू-पप्पू के दंगल में,
केजरीवाल मुबारक हो..
आसाराम मुबारक हो,
तेजपाल मुबारक हो..
यूपी तुझको सालों साल,
खस्ताहाल मुबारक हो..
प्रजातंत्र की थाली में..
काली दाल मुबारक हो..
दिल की जलती बस्ती को,
और पुआल मुबारक हो..
हो ना हो, मगर फिर भी..
नया ये साल मुबारक हो..

निखिल आनंद गिरि

रविवार, 20 जनवरी 2013

'अजी, आंख में पड़ गया था कुछ..'

आंखें

दो आंखें..
आंसू दो झरते हैं..
दो आंखों से..
दो आंखो की पीड़ा एक..

दो दिशाओं में तकती हैं..
दो आंखें..                                          
दोनों तरफ अंधेरा एक..

रोना

सबसे बुरा रोना वह
जब रोने के बाद 
ख़ुद ही पोछने पड़े आंसू
और दीवारों से करने पड़े बहाने
'अजी, आंख में पड़ गया था कुछ..
या कि प्याज़ बड़ी ज़ालिम चीज़ है यार..''

खिड़की

शौचालयों की कमी में,
वो छिप कर बैठ जाती हैं
नोकिया या वोडाफोन के इश्तेहारों तले,
कोई रेलगाड़ी जब गुज़रती है हहाती हुई,
वो कपड़े ठीक करती हैं
खड़ी हो जाती हैं..
इश्तेहार बन कर रह जाती हैं..
खिड़कियों से ताड़ती कई निगाहों के लिए..

बीमारी

मैं नींद की गोली लेता रहा
ख़ुद से बातें करता रहा
सपनों के साथ वक्त बिताने को
बीमारी अच्छा बहाना थी

गदहे

राजनीति के युवराज वही
जो दो नंबर के कर सके काम
वही लंबी रेस का घोड़ा
बाक़ी सब गदहे
भारत भ्रष्ट महान !

मोमबत्ती

पिघलने से पहले तक
जितना जलती है मोमबत्ती
रोशनी की उम्मीद बढ़ाती है
मोमबत्ती कोई चुनाव चिह्न नहीं
इसीलिए उम्मीद का मतलब धोखा नहीं
उम्मीद ही समझा जाए

आम आदमी

एक नई पार्टी मेंबर बना रही है,
लोगों को नई टोपी पहना रही है
टोपी पर लिखा होता है 'आम आदमी'
पांच रुपये की रसीद कटाकर
आम आदमी नई टोपी पहन रहा है...

निखिल आनंद  गिरि

ये पोस्ट कुछ ख़ास है

मृत्यु की याद में

कोमल उंगलियों में बेजान उंगलियां उलझी थीं जीवन वृक्ष पर आखिरी पत्ती की तरह  लटकी थी देह उधर लुढ़क गई। मृत्यु को नज़दीक से देखा उसने एक शरीर ...

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