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बुधवार, 22 दिसंबर 2010

इन दिनों...

तेरी रुखसत का असर हैं इन दिनों,
दर्द मेरा हमसफ़र है इन दिनों....

मर भी जाऊं तो ना पलकों को भिगा,
हादसों का ये शहर है इन दिनों....

अब खुदा तक भी दुआ जाती नही,
फासला कुछ इस कदर है इन दिनों.....

कश्तियों
 का रुख न तूफां मोड़ दें,
साहिलों को यही डर है इन दिनों...


पाँव क्यों उसके ज़मी पर हो भला,
आदमी अब चांद पर है इन दिनों....


क्या कहू, मैं क्यों कही जाता नही,
खुद से खुद तक का सफ़र है इन दिनों......


हम कहॉ जाएँ, किधर जाएँ 'निखिल',
नाआशना हर रह्गुजर है इन दिनों.....

निखिल आनंद गिरि
(इस गीत को यहां सुना भी जा सकता है...
http://kavita.hindyugm.com/2008/01/9.html)

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