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गुरुवार, 9 मार्च 2017

पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन : देश घंटा बदल रहा है

पुरानी दिल्ली मेट्रो स्टेशन पर 7 मार्च की रात जिस तरह का मानसिक टॉर्चर मैंने झेला, वो किसी न किसी भले आदमी को रेल मंत्रालय तक ज़रूर पहुंचाना चाहिए। ये छोटी-सी आपबीती उसी की कोशिश भर है।
 
जयनगर से चली शहीद एक्सप्रेस में समस्तीपुर से मेरे कुछ घरेलू सामान की पार्सल बुकिंग थी। यहां जो ट्रेन दोपहर के बारह बजे पहुंचनी थी, रात के साढ़े ग्यारह बजे पहुंची। पार्सल छुड़वाने का कोई अनुभव नहीं होने के कारण मैं क़रीब तीन घंटे पहले से वहां पहुंचकर पार्सल ऑफिस के आसपास के चक्कर काट रहा था। बताया गया कि आजकल मामला डिजीटल है, तो ट्रेन से सामान उतरते ही प्लैटफॉर्म से ही ले जाया जा सकता है। प्लैटफॉर्म वाला बाबू अपनी इलेक्ट्रॉनिक एंट्री करेगा। फिर प्लैटफॉर्म से कोसों दूर स्टेशन के किसी सुदूर हिस्से में पार्सल ऑफिस के काउंटर से एक गेट पास बनाकर सामान रिलीज़ कराया जा सकता है। इसी उम्मीद से जब ट्रेन आई और मेरा सामान दिखा तो मैंने ठीक ऐसा ही किया। प्लैटफॉर्म वाले बाबू (बूढ़े बाबा) ने अपना काम तुरंत कर दिया तो पार्सल ऑफिस की तरफ दौड़ा। वहां जो बीती वो बताने लायक तो है, भुगतने लायक नहीं।
 
एक बुज़ुर्ग हरियाणवी मैडम आधी रात की ड्यूटी में थीं (अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर इसे नोट किया जाना चाहिए)। वो समय से दस मिनट पहले आ गई थीं तो अपने साथी पार्सल बाबूकी आखिरी फाइल वर्क निपटाने में मदद कर रही थीं। जो पोर्टर उनके सामने क्लियरेंस के लिए खड़ा था, उससे पूरे पारंपरिक तरीके से 100-100 रुपये बांट रही थीं। मैंने बहुत ही विनम्रता से आधी रात का हवाला देते हुए मेरा गेट पासबनाने को कहा तो बोलीं घोड़े पर सवार होकर आया है के, अभी तो ड्यूटी शुरु भी नहीं हुई मेरी। मैं आधे घंटे तक उनकी ड्यूटी शुरू होने का इंतज़ार करता रहा। घूमकर आया तो देखा बाहर ताला लगा है। पता चला कि मैडम भीतर सोती हैं और सुबह पांच बजे से ही काम शुरू करती हैं। किसी तरह ताला खुला तो मैडम का कंप्यूटर भी खुला। वो छत्तीस बार कोशिश करती रहीं, मगर मेरे पार्सल की ठीक से एंट्री नहीं कर पाईं। मुझे ताने देती रहीं कि उन्हें रात को परेशान कर रहा हूं और फिर किसी दूसरे साथी की मदद से लगभग ढाई बजे छह सौ ज़्यादा देने पर एक पास बन सका। मैं पैसे देने का विरोध करता तो बोलीं, कौण सा हमारी जेब में जाने हैं, ये तो सरकार का पैसा है। फिर स्टेशन से कहीं जाने लायक नहीं बचा। सारी रात मैंने पुरानी दिल्ली की सड़कों पर गुज़ारी।
 
किसी का नाम लेकर नौकरी खाने की कोई मंशा नहीं है। बस बताना चाहता हूं कि ये जो रेल मंत्री अपनी रेल को वर्ल्ड क्लास क्लेम करते रहते हैं, वो दरअसल पार्सल ऑफिस तक आते-आते थर्ड क्लास हो जाती है। पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन के बाहर निकलते ही दिल्ली मेट्रो के दफ्तर भी हैं, जहां एक बार इन बेकार रेलवे कर्मचारियों को सज़ा के तौर पर भेजा जाना चाहिए। एक आम यात्री की पूरी रात ख़राब होने पर न इन्हें कोई मलाल होगा, न इन्हें समझ आएगा कि ये देश का कितना नुकसान कर रहे हैं। फिर भी देश बदल रहा है’, ‘अच्छे दिनके प्रचारकों का मुंह बंद करके एक बार इन पार्सल ऑफिस तक ज़रूर भेजना चाहिए। ये हमारी राजधानी दिल्ली के एक रेलवे स्टेशन की कहानी है, जिसे आप भारत के हर हिस्से की कहानी के तौर पर देख सकते हैं। बस वो स्टेशन राजधानी से जितना दूर हो, उसके निकम्मेपन का अनुपात स्वादानुसार बढ़ाते जाइएगा।
 
अब आप राष्ट्रगान के लिए खड़े हो सकते हैं।

निखिल आनंद गिरि

बुधवार, 21 सितंबर 2016

अच्छे दिनों की गज़ल

दिल्ली की सड़कों पर कत्लेआम है, अच्छा है
अच्छे दिन में मरने का आराम है, अच्छा है।

छप्पन इंची सीने का क्या काम है सरहद पर, 
मच्छर तक से लड़ने में नाकाम है, अच्छा है।

बिना बुलाए किसी शरीफ के घर हो आते हैं
और ओबामा से भी दुआ-सलाम है, अच्छा है।

कचरा खाती गाय माता अपनी सड़कों पर,
गोरक्षक के घर में दूध-बादाम है, अच्छा है।

पढ़ने-लिखने वालों में, गद्दारी दिखती है
देशभक्त इस देश का झंडू बाम है, अच्छा है।

मन की बातमें अपने मन की उल्टी करते हैं
जन की बात न सुनने का निज़ाम है, अच्छा है।

निखिल आनंद गिरि

शुक्रवार, 2 अक्तूबर 2015

अच्छे दिनों की कविता

गांधी सिर्फ एक नाम नहीं थे,
जिनके नाम पर तीन बंदर हुए
या बहुत-से आंदोलन

एक दौर थे जिसमे हुमारे दादा हुए

दादाजी कहते रहे हमेशा
'गांधीजी ने ये किया वो किया
उनकी मौत पर नहीं जला चूल्हा पूरे गाँव में
कोई औरत भेस बदलकर बचाती रही भगत सिंह को'

या फिर पिताजी को ही ले लीजिये
वो सुनाते हैं जब अपने दौर के बारे में
तो कई अच्छी बातें हैं बताने को
जैसे जब बारिश होती थी हुमचकर
उनके समय में
तो हेलीकाप्टर से खाना आता था उनके लिए
महामारी में मरते थे बच्चे
तो सरकार एक भरोसे का नाम थी।

जैसे नेहरू के भाषणों में पुलिस नहीं होती थी
या फिर इन्दिरा गांधी हाथी पर सवार होकर चलती थीं कभी कभी
घरों में चोरियाँ कम थीं
या फिर किसी ने बकरी चुरा भी ली
तो दो दिन दूह कर
लौटा आता था बकरी ।

सबके अपने अपने दौर थे
जैसे एक हमारा भी
जिस पर लिखी जा सकती है एक मुकम्मल कविता
जैसे जब जन्म हुआ मेरा
तो पुलिस वाले
दौड़ा-दौड़ा कर मारते थे सिखों को
और इन्दिरा गांधी की हत्या उनके घर में ही हुई
जैसा कि बी बी सी ने बताया

जब किताबों का दौर आया तो
धनंजय चटर्जी को सरेआम फांसी हुई
एक स्कूली लड़की से बलात्कार के जुर्म में
गांधी हमारे दौर की किताबों में नहीं
नोटों पर थे
और औरतें मदद करना तो दूर,
मदद मांग भी नहीं सकती किसी मर्द से।

इस तरह जितना बड़े हुए
जोड़ी जा सकती है एक और बुरे दिन की तारीख
कहीं बारिश नहीं होती ऐसी
कि डूबकर लिखी जा सके कविता
जैसे टैगोर लिखते रहे बारिश के दिनों में।

जितना बदलना था बदल चुका समय
अब सिर्फ़ होता है क्रूर
जिसमें परछाईं भी भरोसे के लायक नहीं।

निखिल आनंद गिरि

बुधवार, 25 दिसंबर 2013

विकास के रंगीन चुटकुले

सुबह के जिस अख़बार में चमक रहा था
आधे पेज के सरकारी विकास का विज्ञापन
वही अख़बार देखकर पूछा लड़की ने
ये सामूहिक बलात्कार क्या होता है?
पिता ने छठी मंज़िल से कूदकर खुदकुशी कर ली
लड़की की उम्र सात साल थी। 
उस शहर का नाम कुछ भी रख लीजिए
जहां एक दिन सब सरकारी अस्पतालों में,
निकाले गए थे मरीज़ों के गर्भाशय
और फिर बेच दिये थे सरकारी बाबुओं ने।
गर्भाशय की ख़ूबसूरत तस्वीर छापी थी अख़बार ने,
और अख़बार सबसे ज़्यादा बिका था।
हमारी लाशो में मसाले भरकर,
साबुत रखी जाती हैं लाशें
ख़ूब रंगीन नज़र आते हैं अख़बार
बौराने लगता है माथा
इतनी आती है सड़ांध
मगर शुक्र है टिशु पेपर का ज़माना है।
जिस दारोगा ने एक औरत को
चौकीदार बनाने का लालच देकर
थाने में ही सामूहिक बलात्कार किया
और फरार हो गया
उसकी जगह किसकी हाथों में डाली गई हथकड़ी?
जिस चौराहे पर एक लड़की का जुर्म बस इतना था
कि वो अकेली चल रही थी रात में
बेरहमी से मसली गई,
कुचली गई और नंगी कर दी गई 
किसके छपे पोस्टर अपराधियों के नाम पर,
एक चेहरा आपका तो नहीं?
व्यवस्था अगर नहीं हो सकती बेहतर
तो बेहतर है बदल दी जाए व्यवस्था
जहां-जहां नहीं पहुंच पाती पुलिस
और बलात्कार आराम से होते हैं
उन शरीफ मोहल्लों में
लाउडस्पीकर लगाकर पहले बकी जाएं गालियां
और फिर वंदे मातरम
और ये भी कि,
औरत की गोलाइयों के बाहर भी दुनिया गोल है।

ये पोस्ट कुछ ख़ास है

मृत्यु की याद में

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