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सोमवार, 22 अक्तूबर 2012

दारू और बंदूक के बीच बापू की याद...


अक्टूबर के पहले हफ्ते की बात है। दिल्ली में क़ुतुब मीनार के पास एक क्लब में भारतीय मूल की ब्रिटिश लेखिका मोनिषा राजेश की पहली क़िताब 'अराउंड इंडिया..इन 80 ट्रेन्स' के लांच पर जाना हुआ। चार महीने तक भारत की अलग अलग ट्रेनों में लेखिका के सफ़र का अनुभव इस क़िताब की ख़ासियत थी। मौके पर बतौर मुख्य अतिथि पहुंचे एक पूर्व रेलमंत्री ने बातों बातों में अपनी तुलना महात्मा गांधी से कर दी। उन्होंने कहा कि जैसे गांधी को ट्रेन से उतार दिया गया था, वैसे ही उन्हें भी उतार दिया गया और फिर दोनों 'आज़ाद' हुए। गांधी को इस तरह चटखारे लेकर याद कर रहे मंत्रीजी को सुनने वालों में कुछ वरिष्ठ पत्रकारों के अलावा 25-30 बुलाए गए मेहमान थे। उनके हाथों में बियर की बोतलें भी थी।


गांधी कथा कहते नारायण देसाई
इस कार्यक्रम के चंद दिन बाद ही दिल्ली महात्मा गांधी को एक और ढंग से याद कर रही थी। महात्मा गांधी के प्रिय सचिव रहे महादेव भाई देसाई के पुत्र नारायण भाई देसाई के चिर-परिचित अंदाज़ में चार दिनों की 'गांधी कथा' का आयोजन किया गया था। एक विशाल सभागार में गांधी कथा सुनने का ये अनुभव जितना अनूठा था, उतना ही यादगार भी। दरअसल, ये दिल्ली में नारायण देसाई की आखिरी 'गांधी कथा' थी। सुनने वालों में कुछ नेता, बुद्धिजीवी, पत्रकार और सैंकड़ों लोग मौजूद रहे। हालांकि, पीने को यहां भी बोतलबंद पानी ही था, मगर 'गांधी कथा' के ज़रिए गांधी को दोबारा जीवंत करने की कोशिश काबिल-ए-तारीफ थी।

हम जैसे कोई युवाओं को गांधी का युग देखना नसीब नहीं हुआ। हां, गांधी का इस्तेमाल जगह-जगह देखते आए हैं। सेलेब्रिटी आंदोलनों में गांधी टोपी पहनने से लेकर घूस के लिए गांधी के नोट धराते लोग। आख़िरी आदमी का दुख बांटने के नाम पर लाखों-करोड़ों का फर्ज़ीवाड़ा करते लोग। ऐसे में नारायण देसाई की कही हर बात किसी दस्तावेज़ की तरह ज़रूरी हो जाती है, जिन्होंने सचमुच बापू के साथ लंबा समय गुज़ारा है। आज के संदर्भों के साथ दिल्ली की इस गांधी कथा को जोड़ना बहुत ज़रूरी और दिलचस्प हो जाता है। नारायण देसाई के मुताबिक उस वक्त भी गांधी के साथ आंदोलन में जुड़ने वाले 'चुनिंदा सक्रिय' (एक्टिव फ्यू) युवा ही थे। उन युवाओं के पास समाज के लिए एक विज़न था। वो 'व्यावहारिक आदर्शवादी' थे। मतलब ख़ुद को बदलकर समाज में वांछित बदलाव का सपना देखने वाले। आज हमारे आसपास टीवी या मीडिया ने जिस तरह के 'एक्टिव युवा' खड़े किए हैं, उनके सर पर भी आम आदमी की टोपी दिखती है। मगर, उनका चंपारण कैमरे से दिखाई देने वाली दिल्ली से ज़्यादा दूर नहीं जा पाता और नील के किसान भी बिजली बिल फाड़ने वाले मिडिल क्लास चेहरों से अलग नहीं हो पाते। वो कई रसूख वाले नेताओं पर उंगली उठाते हैं, फिर अचानक शांत हो जाते हैं फिर अचानक आंदोलन का नया शेड्यूल तय कर देते हैं। पुराना आंदोलन चार दिन में ही पुराना पड़ जाता है।

जिस कांग्रेस को खरी-खोटी सुनाने के नाम पर ही कई पार्टियां या लोग सियासत के हसीन सपने देखते नहीं थक रहे हैं, उस पार्टी का मूल चरित्र गांधी के वक्त कैसा था, ये भी जानना ज़रूरी है। लखनऊ अधिवेशन में जब कांग्रेस का अधिवेशन दूसरे कई 'संवेदनशील' मुद्दों पर रखा गया, तब बिहार से आए किसान राजकुमार शुक्ल की बात किस तरह गांधी ने सुनी और बाद में उन्हें मदद देने के आश्वासन को पूरा भी किया, उसकी तुलना मौजूदा राजनीतिक पतन को समझने में मदद करती है। इतिहास की किताबों में ये बातें कई जगह कई बार लिखी हैं। मगर, गांधी कथाओं जैसे आयोजन के ज़रिए उस दौर की प्रासंगिकता पर बहस हो और बिना ज़्यादा प्रचार-प्रायोजन के लोग सुनने भी आएं तो आश्चर्य और खुशी दोनों होती है।

गांधी ने सत्य के साथ किए अपने प्रयोगों में जो भी क़दम उठाए, उसका एक प्रतीकात्मक महत्व भी रहा। उनके आश्रम में तीन चीज़ें ज़रूरी थीं। प्रार्थना, स्वच्छता और चरखे से सूत कातना। प्रार्थना अगर आध्यात्मिक क्रांति का प्रतीक था, तो साफ-सफाई सामाजिक क्रांति का। ठीक ऐसे ही चरखे का प्रयोग स्वावलंबन और आर्थिक आज़ादी का प्रतीक कहा जा सकता है। मौजूदा राजनीति में ऐसे प्रतीक कम से कम मेरे लिए ढूंढ पाना थोड़ा मुश्किल है। ताज़ा प्रतीक लाल बत्ती और बंदूक ही नज़र आते हैं जिससे गांधी की अहिंसा के सिद्धांत का दूर-दूर तक कोई वास्ता नहीं है। मसलन, बापू की जन्मभूमि पोरबंदर का ही ताज़ा उदाहरण सामने है जब वहां के कांग्रेसी सांसद विट्ठल रठाड़िया ने 50 रुपये का टोल टैक्स मांगे जाने पर बंदूक तान कर अपनी 'सहनशीलता' का परिचय दिया। चाल, चरित्र और चिंतन में सभी पार्टियों में ऐसे सांसद रोज़ देखने-सुनने को मिल रहे हैं।

गांधी कथा के दौरान खादी के ज़रिए चले देशव्यापी आंदोलन को भी समझने का मौका मिला। एक बार जब विदेशी सामान का विरोध कर रहे सत्याग्रहियों को पुलिस पकड़कर ले जाने लगी तो एक महिला ने यूं ही एक अजनबी सत्याग्रही को पास बुलाकर अपने शरीर से तमाम गहने उतारकर थमा दिए और कहा कि इसे उसके घर पहुंचा दे। सत्याग्रही ने चौंककर पूछा कि उसे एक अजनबी पर इतना अटूट विश्वास कैसे है। महिला ने हंसते हुए कहा कि ये विश्वास मेरे और तुम्हारे शरीर पर पहनी गयी खादी ने दिया है। और किसी प्रमाण पत्र की ज़रूरत नहीं है। क्या आज खादी पर आम आदमी रत्ती भर भरोसा कर सकता है। जब खादी पहने एक केंद्रीय मंत्री ये कहता मिले कि घोटाले लाखों के नहीं करो़ड़ों के हों, तब मीडिया को उस पर ध्यान देना चाहिए।

क्या आज कोई आंदोलन या कोई हुजूम एक-दूसरे पर इतना भरोसा कर सकता है। हो सकता है, नारायण देसाई की बातें उनके निजी या काल्पनिक अनुभव भर ही हों, मगर हम जिस समाज में विकसित होने का दावा कर रहे हैं, क्या ये भरोसा या सामुदायिक निर्भरता कल्पना से ज़्यादा लग भी नहीं सकते। वो भी उस दिल्ली में जहां छह महीने बाद दो अकेली बहनें मरणासन्न हालत में कमरे से निकाली जाएं या फिर किसी बुज़ुर्ग दंपती के घर में दिनदहाड़े घुसकर उन्हें गोली मार दी जाए और सब कुछ लूट लिया जाए।

गांधीजी ने कहा था कि अगर स्वराज हासिल नहीं हुआ तो वो वापस अपने आश्रम में कभी क़दम नहीं रखेंगे। 15 अगस्त 1947 के बाद गांधी कभी वापस अपने आश्रम में नहीं लौटे। शायद जिस स्वराज का सपना गांधी ने देखा था, उन्हें वो पूरा होता नहीं दिखा। मगर, दिल्ली में उनके नाम पर होने वाली गांधी कथाएं और उन्हें सुनने आने वाली दिल्ली एक उम्मीद जैसी हैं। इन्हें और प्रचार दिए जाने की ज़रूरत है। कला के दूसरे माध्यमों के ज़रिए भी गांधी कथाएं कही-सुनी जानी चाहिए। जैसे महमूद फारूक़ी या दूसरे कलाकार दिल्ली के छोटे-बड़े मंचों पर दास्तानगोई के ज़रिए मंटो या दूसरे मुद्दों को ज़िंदा रखे हुए हैं। नारायण देसाई के साथ मंच पर मौजूद संगीत मंडली ने भी कमाल की मेहनत की थी। तीन घंटे की गांधी कथा को रोचक बनाए रखने के लिए नुक्कड़ शैली में लिखे 'गांधी गीतों' को सुनना बेहद ताज़ा अनुभव था। जहां साबरमती के नीर बधाई देते, जहां खरहा डट कर लोहा ले कुत्ते से...वहां पराक्रमी बापू का आश्रम स्थित है, गांधी का आश्रम स्थित है। क्या ऐसे कठिन गीत लिखना और कंपोज़ करना कोई आसान काम हैं।

आख़िर में एक बात और पूछने या कहने का मन कर रहा है। दिल्ली में कैसे भी साहित्यिक, राजनैतिक या सांस्कृतिक कार्यक्रम हों, दर्शक दीर्घा में कुछ बुद्धिजीवियों के चेहरे कभी नहीं बदलते। वो हर जगह नज़र आ जाते हैं। या तो उन्हें दिल्ली में रहते हुए भी फुर्सत बहुत है या फिर बुद्धिजीवी बने रहना उनकी हॉबी बन गई है।

निखिल आनंद गिरि

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