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शनिवार, 1 अप्रैल 2017

देश के लिए ही सही, 'अनारकली ऑफ आरा' ज़रूर देखिए

आरा एक आदर्श शहर है। खाँटी लोग अगर इस धरती पर जहाँ कहीं भी बचे हुए हैं तो उनमें से एक आरा भी है। यहाँ के लोगों के स्वभाव में अदम्य साहस और दुस्साहस का मणिकांचन योग मिलता है। आरा के लोगों को इस बात का श्रेय दिया जाना चाहिए कि उन्होंने बदलाव को बहुत धीरे-धीरे आने दिया है। पतलून सिलाने के बाद भी अपनी लुंगी को खूँटी पर टाँगे रखा और टी शर्ट के आ जाने को बाद भी गंजी का परित्याग नहीं गया। अंग्रेज़ी भाषा को भोजपुरी के फार्मेट में स्वीकार किया। हिन्दी को भोजपुरी पर हावी होने नहीं दिया।
आरा के बारे में ये सब बातें टीवी पत्रकार रवीश कुमार ने 10 फरवरी 2017 को अपने ब्लॉग पर पोस्ट की थीं। रवीश का ज़िक्र इसीलिए क्योंकि फिल्म अनारकली ऑफ ऑराके क्रेडिट में पहला नाम उन्हीं का आता है। पता नहीं उनका इस फिल्म से या फिल्म के डायरेक्टर अविनाश दास से कितना गहरा नाता रहा मगर आरा के बारे में ये सब फिल्म में कहीं नहीं है। रवीश आगे लिखते हैं -
‘’इस फ़िल्म से एक नया आरा सामने आएगा? मुझे नहीं पता कि अनारकली आरा पर ग़ज़ब ढाएगी या क़हर ढाएगी लेकिन इतना पता है कि आरा आगे निकल चुका है। वो अब लड़ाकू नहीं,पढ़ाकू शहर है।’’

एक नया आरा अविनाश दास ने दिखलाया तो है, मगर वो न तो पढ़ाकू दिखता है, न लड़ाकू। अविनाश दास का आरा एक ठरकी शहर है। जहां के सारे पढ़ाकू छात्र अनारकली का नाच देखते हैं, उन छात्रों के भविष्य का मालिक वाइस चांसलर नाच के वक्त दारू भी पीता है और स्टेज पर चढ़कर अनारकली को छेड़ता है, थप्पड़ खाता है। इस तरह से फिल्म को देखें तो आरा शहर को अविनाश दास के खिलाफ मानहानि का मुकदमा कर देना चाहिए। आरा टाउन थाना के दारोगा को तो अविनाश दास को जेल में डाल देना चाहिए। फिल्म बनाने की छूट में एक पूरे शहर को इस तरह बदनाम कर देना ठीक बात नहीं।
मगर अविनाश दास दुनिया को शायद इसी तरह देखते हैं। यही उनकी ख़ूबी है। यही उनका परिचय। उनका अपना पक्ष इतना लाउड है कि कोई और पक्ष बौना ही नज़र आता है उनके सामने। इस तरह से फिल्म पर अविनाश दास की पकड़ भी ज़बरदस्त है। वो फिल्म को अपनी कल्पना के हिसाब से आगे ले जाते हैं। सभी स्थापित सत्ता-केंद्रों पर हमला बोलते हुए। एकदम लाउड।
फिल्म की कहानी बहुत छोटी है, मगर गीत-संगीत ने उसे संवार दिया है। फिल्म में आरा जितना द्विअर्थी और बुरा नज़र आता है, गीत उतने ही तरल और पवित्र सुनाई देते हैं। रोहित शर्मा का संगीत लाजवाब है। कहीं से नहीं लगता कि ये अविनाश दास की पहली फिल्म है। उन्होंने इस फिल्म की बारीकियों पर बहुत मेहनत की है। जब दिल्ली के एक ढाबे में हिरामन तिवारी अनारकली से कहता है कि देश के लिए बुनिया खा लीजिए तो लगता है अनारकली को देश के लिए अपना दिल हिरामन को दे देना चाहिए। या फिर अविनाश दास को। जिनके लिए दिल्ली घूमने की शुरुआत यमुना के गंदे किनारे से भी हो सकती है।
फिल्म के डायलॉग और गाने बहुत दिनों तक याद रखे जाने चाहिए। मगर वो इतने ज़्यादा हैं कि फिल्म की छोटी सी कहानी पर भारी पड़ते हैं। फिल्म का पहला आधा घंटा तो भारी-भरकम डायलॉग्स और लोकगीतों का चित्रहार जैसा है, जिसमें कहानी अचानक से एंट्री मारती है। हिंदी फिल्मों को अनारकली ऑफ आरासे क्या मिला पता नहीं, मगर भोजपुरी सिनेमा को इस फिल्म के सामने कान पकड़कर माफी मांगनी चाहिए। याद नहीं मुझे कि हाल की कोई भोजपुरी फिल्म इस तरह के सरोकारों के साथ सफलता से आई हो। फिल्म का आखिरी शॉट जहां अनारकली हिसाबबराबर कर कैमरे की तरफ अकेली लौट रही है, न्यू फ्रेंच सिनेमाके क्लाइमैक्स की याद दिलाता है। भोजपुरी के निर्देशकों को भी ये सब सीखना चाहिए।
फिल्म अनारकली पर इतना फोकस करती है कि बाकी सब कुछ गायब हो जाता है। ये नई तरह की फिल्मों में ज़रूरी भी है। अपनी बात को इतना मज़बूती से कहो कि लगे कुछ कहा है। नये निर्देशक ऐसे ही जमते हैं। नई फिल्में ऐसे ही याद रह पाती हैं।
चलते-चलते –
मैं दिल्ली के जिस हॉल में फिल्म को देखने गया था वहां फिल्म लगी तो थी मगर फिल्म का एक भी पोस्टर नहीं था। इस तरह से बिना पोस्टर वाली कोई फिल्म अपने दम पर दूसरे हफ्ते में प्रवेश कर जाए तो बधाई की हक़दार है। मेरे मित्र दिलीप गुप्ता को अनारकली फिल्म में एक्टिंग भी नसीब हुई है, और अनारकली की चप्पलें भी। उनको अलग से बधाई।

निखिल आनंद गिरि

गुरुवार, 29 मार्च 2012

'माय नेम इज़ खान...और मैं हीरो जैसा नहीं दिखता...'

जेएनयू में इरफान खान
इरफान खान का जेएनयू आना ऐसा नहीं था जैसे सलमान खान किसी मॉल में आएं और भगदड़ मच जाती हो। भीड़ थी, मगर अनुशासन भी था। वो ख़ुद चिल्लाने के लिए कम और एक संजीदा एक्टर को सुनने का मूड बनाकर ज़्यादा आई थी। करीब दो घंटे तक इरफान बोलते रहे और एक बार भी धक्कामुक्की या हूटिंग जैसी हरकतें नहीं हुईं। इस भीड़ में मैं इरफान से दस क़दम की दूरी पर अपनी जगह बना पाया था। मैं उस पान सिंह तोमर को नज़दीक से देखने गया था जिसने चौथी पास एक फौजी के रोल में बड़ी आसानी से कह दिया कि ‘सरकार तो चोर है, इसीलिए हम सरकारी नौकरी के बजाय फौज में आए।’ और ये भी कि, ‘बीहड़ में बाग़ी होते हैं, डकैत मिलते हैं पार्लियामेंट में’। गर्मी के मौसम में भी गले में मफलर लटकाए इरफान सचमुच बॉलीवुड की भेड़चाल से अलग दिखते हैं। जेएनयू की उस भीड़ में ही मौजूद कुछ लड़कियों की ज़ुबान में कहें तो ‘अरे, ये तो कहीं से भी हीरो जैसा नहीं लगता।’

सचमुच, इरफान हीरो जैसा कम और एक हाज़िरजवाब युवा ज़्यादा लगने की कोशिश कर रहे थे। जेएनयू में पान मिलता नहीं, मगर बाहर से मंगवाकर पान चबाते हुए बात करना शायद माहौल बनाने के लिए बहुत ज़रूरी था। एकदम बेलौस अंदाज़ में इरफान ने लगातार कई सवालों का जवाब दिया। जैसे अपने रोमांटिक दिनों के बारे में, कि कैसे वो दस-पंद्रह दिनों तक गर्ल्स हॉस्टल में रहने के बाद पकड़े गए और उनके खिलाफ हड़ताल हुई। या कि ‘हासिल’ के खांटी इलाहाबादी कैरेक्टर में ढलने के लिए उन्हें कैसे तजुर्बों से गुज़रना पड़ा। हालांकि, राजनीति या सिनेमा पर पूछे गए कई सीरियस सवालों पर अटके भी और हल्के-फुल्के अंदाज़ में टाल भी गए।

हाल ही में रिलीज़ हुई पान सिंह तोमर में इरफान की एक्टिंग ने उन्हें बॉलीवुड के मौजूदा दौर के सबसे बड़े अभिनेताओं में शामिल कर दिया है। वो एक सेलेब्रिटी तो नहीं, मगर आम और खास दोनों तरह के दर्शकों में बेहद पसंद किए जाने लगे हैं। उनकी आवाज़ की गहराई, बोलने का अंदाज़ और हाज़िरजवाबी जैसे जेएनयू की उस शाम दिखी, वो फिल्मी पर्दे से बिल्कुल अलग नहीं लगी। वो हर जगह एक जैसे ही नज़र आते हैं। हद तक नैचुरल दिखने वाले एक एक्टर। माइक बार-बार ख़राब होने, जेएनयू के सिर के ऊपर से दर्जनों बार हवाई जहाज़ के गुज़रने और जैसे-तैसे सवालों से दो घंटे तक टकराते हुए भी चेहरे पर कोई फिज़ूल का उतार-चढ़ाव नहीं था।

इरफान को सिनेमा में पहचान दिलाने वाले आज के दौर के सबसे काबिल निर्देशक तिग्मांशु धूलिया भी यहां पहुंचने वाले थे, मगर किसी वजह से नहीं आ सके। वो आते तो सिनेमा पर कुछ और सवाल सुनने को मिल सकते थे, और सटीक जवाब भी। दरअसल, मेरे वहां पहुंचने की ख़ास वजह तिग्मांशु को ही एक नज़र नज़दीक से देखना था। एक एक्टर से ज़्यादा ज़रूरी मुझे हमेशा से एक निर्देशक लगता है।

बहरहाल, सिर्फ इरफान के साथ भी भीड़ जमी रही, जिन्होंने बड़ी इमानदारी से कई सवालों पर अपनी राय रखी। इरफान ने कहा कि उन्हें अपने साथ लगा ‘ख़ान’ का टैग किसी बोझ जैसा लगता है। उनका बस चले तो वो अपने नाम से इरफान भी हटाना चाहेंगे और उस घास की तरह सूरज की रोशनी महसूस करना चाहेंगे जिसकी पहचान सिर्फ ज़मीन से जुड़ी होती है। आखिर-आखिर तक प्रोग्राम खिंचने लगा था। हालांकि कार्यक्रम के मॉडरेटर और अविनाश दास और प्रकाश सवालों को बढ़िया मिक्स कर रहे थे ताकि भीड़ वहां बनी रहे। हां, एकाध शुद्ध हिंदी में पूछे गए सवालों को मॉडरेटर साहब जिस तरह मज़ाक उड़ाने के अंदाज़ में मज़े ले-लेकर पढ़ रहे थे, वो भीड़ को भले गुदगुदा रहा था, मगर उस सवाल पूछने वाले को बड़ा हिंसक लग रहा होगा, जिसने दिल लगाकर अंग्रेज़ी होते जा रहे सेलिब्रिटी युग में अपनी भाषाई काबिलियत के हिसाब से एक बेहतर सवाल हिंदी में रखने की जुर्रत की थी।  थोड़ा सा अफसोस मुझे भी हुआ था, लेकिन भीड़ में हर एक का ध्यान तो नहीं रखा जा सकता। वो भी तब जब इरफान के पसंदीदा लेखक कोई और नहीं हिंदी साहित्य के सबसे लोकप्रिय नामों से एक उदय प्रकाश रहे हैं।

(प्रोग्राम के ठीक बाद गंगा ढाबा पर तेलुगू दोस्त प्रदीप मिले तो मैंने बड़ी उत्सुकता से बताया कि आज इरफान ख़ान से मिलने-सुनने का मौका मिला। प्रदीप ने कहा, ‘ओके’...फिर कहा, ’लेकिन, ये इरफान ख़ान है कौन??’ मेरी खुशफहमी दूर हो गई कि बॉलीवुड पूरे भारत का सिनेमा है।)
 
निखिल आनंद गिरि

(ये लेख मोहल्लालाइव पर भी प्रकाशित हुआ है...)

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