गुरुवार, 20 अगस्त 2015

क्षणिकाएं

छुट्टी
घर से निकला
घर से छुट्टी लेकर
दफ्तर घर हो गया।
मैं रोज़ नौ घंटे की छुट्टी पर रहता हूं
दफ्तर में।

विकल्प
चुनना एक व्यवस्था की तरह नहीं
व्यवस्था एक मजबूरी की तरह
जैसे हरे और पीले में चुनना हो लाल।
यह रंगों की अश्लीलता नहीं

व्यवस्था का अपाहिज होना है।
निखिल आनंद गिरि

1 टिप्पणी:

इस पोस्ट पर कुछ कहिए प्लीज़

ये पोस्ट कुछ ख़ास है

जाना

तुम गईं.. जैसे रेलवे के सफर में बिछड़ जाते हैं कुछ लोग कभी न मिलने के लिए   जैसे सबसे ज़रूरी किसी दिन आखिरी मेट्रो जैसे नए परिंदों...

सबसे ज़्यादा पढ़ी गई पोस्ट