शुक्रवार, 29 जून 2012

सच भी सुनिए कभी...

इस शहर की सब आबोहवा,
धूल-मिट्टी और ख़ून के रंग का पसीना
सब आपकी देन है, सब कुछ....

हमें कोई ऐतराज़ नहीं इस बात पर
कि बच्चों के स्कूल में आप ही आए
हर बार सम्मानित अतिथि बनकर..
मासूम तालियों के सब तिलिस्म आपके...
और हमारे लिए सब सूनापन,
अथाह शोर और घमासान के बीच...

हमें तेल की पहचान तो है,
मगर मालिश करने का तरीका नहीं मालूम
इसीलिए फिसल जाता है नसीब...

हमारे रहनुमाओं की कोठियों के आगे बड़े-बड़े दरवाज़े
लोहे की मज़बूत दीवारें ऊंची-ऊंची..
जैसे सबसे ज़्यादा डर आम आदमी से हो....
कभी जाइए उन्हें देखने की हसरत लिए
हाथ में पिस्तौल लेकर संतरी करेंगे स्वागत
लोकतंत्र किसी बंदूक की नली पर जमी धूल की तरह है...

घर-गली के तमाम चेहरे...
अख़बार वाले का नाम और गांव का पिन कोड
भूल जाना सब कुछ
नियम है शहर का..

जिन पेड़ों को आपने रोपे हैं अपने गमले में
वो सिर्फ छुईमुई हैं अफसोस...
जो पेड़ बच गए हैं शहर की सांस के वास्ते...
उनके नाम तक नहीं पता किसी को...

और सुनिए, जब आपको नागरिक सम्मान देने के लिए
पुकारा गया था नाम ज़ोर-ज़ोर से...
तब आप भी टीवी देखने में व्यस्त थे
और ये ख़बर आई थी कि...
छह महीने भूख और दुख से बेहाल...
एक कमरे में मर गईं दो अकेली बहनें

सच कहिए वो आपका मोहल्ला नहीं था?

निखिल आनंद गिरि

शनिवार, 23 जून 2012

कल सपने में आई थी पुलिस...

इधर कुछ दिनों से..
डरावनी हो गईं है मेरी सुबहें...

कल सपने में अचानक बज उठा सायरन,
और मैंने देखा सुबह मेरे घर पुलिस आई थी
मुझे ठीक तरह से याद नहीं
कितनी ज़मानत देकर छूटा था मैं सपने में...

वो बरसों पुराना लिफाफा था कोई,
जिन्हें कभी पहुंचना नहीं था मेरे पास
एक डाकिया आया था कल रात सपने में
सपने में ही आते हैं ख़त आजकल...

कल सपने मे मुझे डांटने का मन हुआ
बूढ़े होते पिता को...
और मैं सुबह से सोचता रहा
मुझे मौत कब आएगी..

अचानक सपने में कोई मर रहा था प्यास से
और मैंने उसे दिखाए समंदर
जिनका रंग ख़ून की तरह लाल था...
मगर फिर भी वो प्यास बुझाकर खुश था...

हां, एक सपना भूख की शक्ल का भी था
जब तुमने इत्मीनान से पकाई थी खिचड़ी
और आधा ही खाकर आ गई मुझे नींद...
मैं भूख से इतना खुश पहले कभी नहीं हुआ,

मैं सच कहता हूं, एकदम सच...
मुझे रात भर नींद नहीं आती आजकल
मगर सपने आते हैं बेहिसाब
सपनों में रोज़ आती है पुलिस
रोज़ आते हैं पिता
और रोज़ आती है प्यास
जिसका रंग लाल है...

वो दफ्तर जहां मेरे पिता जाते हैं हर साल
ये साबित करने कि वो ज़िंदा हैं..
सुना किसी अफसर से लड़ गया था कोई आम आदमी
तब से हर किसी की तलाशी लेता है बेचारा गार्ड

यहां कवियों की भी तलाशी ली जाती है
और इसी बात पर मन करता है
कि अगर नहीं छूटती मुल्क से गुलामी
तो क्यों ने छोड़ दिया जाए मुल्क ही
और उड़ कर भाग जाएं सिंगापुर...
जब जेब में हों इत्ते भर पैसे...
कि भागकर लौटा न जा सके...

निखिल आनंद गिरि

शनिवार, 16 जून 2012

फादर्स डे पर 'फरारी का सवारी' कर आइए...

अगर आप मेरी उम्र में हैं तो मुझे पक्का यक़ीन है कि आपको याद नहीं आपने आख़िरी बार अपने पिता से ज़िद करके अपनी कोई डिमांड कब पूरी की है। कई बार कहते-कहते ज़ुबान लड़खड़ा जाती है क्योंकि हमें लगने लगता है कि हम बड़े हो गए हैं और पिता बूढ़े। हालांकि, ये अंतर पहले भी था लेकिन पहले आप बचपन में थे और पिता युवा। तो ये बचपन बड़ा निर्दोष होता है, जो आपसे ज़िद करवाता है, आपके युवा पिता को लंबी उम्र देता है और हमें भूलने की आदत।

शहरों में कमाने-खाने (नाम कमाना भी शामिल) आए हम जैसों के लिए पिता को तीन घंटे लगातार याद करना पसंदीदा हॉबी नहीं रही। इससे बेहतर हम कहीं फोन या फेसबुक या किसी मॉल में वक्त गुज़ार  देना चाहते हैं। ऐसे ही दर्शकों के लिए विधु विनोद चोपड़ा उन्हीं मॉल्स के भीतर 'फरारी की सवारी' लेकर आए हैं।निर्देशन उनका नहीं है, मगर छाप पूरी है। फिल्म की कहानी से लेकर किरदार 'फादर्स डे' वाली पीढ़ी के लिए ही गढ़े गए लगते हैं। मगर, हर तरह का दर्शक एक बार ये फिल्म ज़रूर देख सकता है।

आपको ताज्जुब हो सकता है कि फिल्म में कोई हीरोइन नहीं है, मगर इसमें ताज्जुब जैसी कोई बात होनी नहीं चाहिए। 'उड़ान' को अब तक आप भूले नहीं होंगे। वो भी बिना हीरोइन के, एक बाप-बेटे वाली ही कहानी थी, मगर इस वाली कहानी से बिल्कुल अलग। वहां बेटा बाप से पीछा छुड़ाकर भाग रहा होता है और यहां बाप बेटे की हर खुशी के लिए भाग रहा होता है। हालांकि, उड़ान का स्तर इस फिल्म से बहुत आगे का था। वो एक चुप-सी गंभीर कविता थी और ये किसी बच्चे की ज़ुबान से बोलती हुई भोली कविता।

'फरारी की सवारी' देखना इसीलिए ज़रूरी है क्योंकि इस फिल्म के पास हमारे समाज ढेरों उम्मीदें हैं। वो चाहती है कि हम किसी के देखे बगैर भी ट्रैफिक सिग्नल तोड़ें, तो जुर्माना ज़रूर भरें। वो चाहती है कि कर्ज़ का इंतज़ाम  उनके लिए सबसे ज़्यादा होने चाहिए जिन्हें सचमुच इसकी ज़रूरत है। जिनकी सैलरी पहले ही ज़्यादा है, उसे कर्ज़ की क्या ज़रूरत। हमारे आदर्शों को ऐसे भोलेपन के साथ फिल्म में रखा गया है कि आपको ये बच्चों की फिल्म लग सकती है। ऐसी आदर्श दुनिया का ख़याल भी सचमुच बचपना ही लगता है, मगर थ्री इडियट्स जैसी स्टारकास्ट के साथ फिल्म बना चुके विधु एक नए निर्देशक राजेश मपुस्कर के साथ अगर भोली फिल्मों पर पैसा लगाने को तैयार हैं, तो उन्हें दाद देने हॉल ज़रूर जाना चाहिए। असली दुनिया में इस आइडियलिज़्म और फीलगुड की तलाश एक बेहतर सिनेमा ही कर सकता है। क्रेडिट कार्ड और नेटबैंकिग के ज़माने में गुल्लक फोड़कर बेटे की खुशी के लिए पैसे इकट्ठा करता मुंबई का एक पिता एक फिल्म की कल्पना में ही मिल सकता है।

क्रिकेट और इससे जुड़े तमाम सपनों को लेकर 'फरारी की सवारी' उतनी ही चंचल फिल्म है, जितना एक बच्चे की नज़र से हो सकती है। शरमन जोशी, बोमन इरानी और नन्हें कलाकार ऋत्विक की तिकड़ी ने इतना इमानदार अभिनय किया है कि आप थोड़े वक्त के लिए बिना किसी अन्ना इफेक्ट के लिए इमानदार होना चाहेंगे। विद्या बालन के नाम एक मराठी लावणी आइटम सांग है, जिसे आप देखना चाहेंगे। लगभग सवा दो घंटे की फिल्म होशियार हो चुके दर्शकों के लिए थोड़ा बोरिंग ज़रूर हो सकती है, मगर बाप-बेटे की दो जोड़ियों (शरमन और ऋत्विक, बोमन और शरमन) के बीच आपको एक न एक बार अपने पिता ज़रूर याद आएंगे। अगले हफ्ते आ रही 'गैंग्स ऑफ वासेपुर' जैसी लाउड फिल्म से पहले मन के भीतर का शोर कम करना बेहद ज़रूरी है।

निखिल आनंद गिरि

सोमवार, 11 जून 2012

वो इंपोर्टेड कमरिया 'शांघाई' की है, भारत माता की नहीं!

यूं तो हिंदी सिनेमा में कहानियों के नाम पर वही फॉर्मूले बार-बार नये पैकेज में परोसे जाते रहे हैं, मगर दिबाकर बनर्जी हमारे दौर के सबसे अच्छे फिल्म निर्देशकों में इसीलिए हैं क्योंकि वो उस फॉर्मूले की पैकेजिंग हमारे समय को समझते हुए कर पाते हैं। उनकी कहानियों में हमारे समय की राजनीति है, उसका ओछापन है, साज़िशें हैं, बुझा हुआ शाइनिंग इंडिया है और चकाचक शहरों के नाम पर होनेवाली हत्याएं और अरबों का दोगलापन भी है। उनकी नई फिल्म ‘’शांघाई’’ में भी वही सब है। हर दौर में ऐसे निर्देशक रहे हैं जिन्होंने अपने समय को पर्दे पर उतारा है, मगर दिबाकर उनसे अलग इसलिए हैं कि अब ऐसा कर पाना साहस का काम है। अब राउडी राठौर, दबंग और झंडू गानों का ज़माना है। और ऐसे में अपने आसपास के समाज को पर्दे पर सीधा-सपाट देखने का रिस्क उठाने वाले बहुत कम हैं। इसी चक्कर में शांघाई महान फिल्म नहीं बन पाई क्योंकि उसे सच को एक ऐसे रैपर में पैक करना था कि हॉल तक दर्शक आएं और बस्तियों या गांवों तक न सही, फेसबुक और ट्विटर तक बात पहुंच सके। दरअसल, ये निर्देशक की नहीं, हमारी कमज़ोरी है कि हम इसी तरह की स्पूनफीडिंग के आदी हैं। जिसमें एक बड़े राजनैतिक षडयंत्र के फ्रेम से छोटी सी उपकथा निकाली जाए और फिर बच्चों की तरह एक-एक हिस्सा साफ-साफ समझाया जाए।

दरअसल, ये फिल्म उन दौड़ती सड़कों के किनारे लगे होर्डिंग्स की जगह टांग दी जानी चाहिए जहां आशियाना से लेकर आम्रपाली तक के एमआईजी या एलआईजी अपार्टमेंट्स आपको लुभाते रहते हैं। ताकि काले शीशे में उधर से गुज़र रही सॉफ्टस्पोकन आबादी को अहसास हो कि वो जिन नए विश्वकर्माओं की शरण में हैं, उनके हाथ दरअसल कई रंग के ख़ून से सने हुए हैं। या फिर, उन छोटी बस्तियों में सेक्स के इश्तेहार वाली उन दीवारों की जगह जहां सोने-चांदी के शहर बसाने वाले मजदूर आज तक अपनी झोपड़पट्टी से आगे नहीं बढ़ पाए। ताकि उन्हें एहसास हो कि वो जिनके लिए अपना ख़ून-पसीना एक कर रहे हैं, वही एक दिन शहर में कर्फ्यू के नाम पर उन्हें  ढूंढ-ढूंढ कर मार डालेंगे।  

पिछले साल अक्टूबर में पंकज सुबीर की एक कहानी पढ़ी थी। इस लंबी कहानी में रामभरोसे छोड़े गए एक शहर की उस रात का ज़िक्र था जब किसानों की आत्महत्याएं रोकने के लिए सूबे के शासकों की प्रायोजित एक हाईप्रोफाइल रामकथा चल रही थी और इसी शंखध्वनि और भक्तिपूर्ण माहौल में एक हत्या इतनी शांति से हुई कि किसी के कानों तक मरनेवालों की उफ तक नहीं पहुंची। तब ये कहानी उतनी अच्छी नहीं लगी, मगर अब लगता है यही कहानी दिबाकर के ज़ेहन में चेहरा बदलकर उतर गई हो। अब लगता है कि ऐसी कहानियां बार-बार अलग-अलग मीडियम से हमारी आंखों के आगे घूमती रहें ताकि हमारी नींद में लोकतांत्रिक ख़लल पड़ती रहे।

कहानी के नाम पर ऐसा कुछ नया नहीं है, जो आपको दोबारा बताया जाए। सेलेब्रिटी आंदोलनों के दौर में आप और हम जिस करप्शन को पासवर्ड की तरह कंठस्थ कर चुके हैं, उसी का एक फिल्मीकरण भर है शंघाई। एक बहुत साधारण सी मर्डर मिस्ट्री जिसे फिल्म के आखिर-आखिर तक सुलझना ही है। मगर, इस कहानी में अच्छाई ये है कि इसके किरदार हमारे असली समाज से हैं। नाम बदल दिए जाएं तो आप इन किरदारों को अपने-अपने घरों में आसानी से पहचान सकते हैं। ये वही चेहरे हैं जो टीवी कैमरों के आगे अलग-अलग झंडों के साथ हमारा हमदर्द होने का भ्रम पैदा करते हैं। और कैमरा ऑफ होते ही अपनी-अपनी मां-बहनों के रेट तय करने लगते हैं। फिल्म में बस इतनी ही चतुराई बरती गई है कि कैमरा ऑफ कर दिया गया है, मगर साउंड रिकॉर्डिंग ऑन ही रह गई है। बस इसी के ज़रिए आप और हम सब कुछ सुन-समझ पाते हैं कि कैसे हमारी लाशों के टेंडर लग रहे हैं और हम खुशी-खुशी अपनी कब्रगाहों में गृहप्रवेश के शंख बजा रहे हैं। इससे ज़्यादा एक फिल्म से उम्मीद भी क्या कर सकते हैं।

फिल्म की कहानी पूरी तरह से फिल्मी और पुरानी भी है, मगर सुख इस बात का है कि आप मज़ा लेने के लिए एक राउडी राठौर (इन जैसी सभी फिल्मों के लिए विशेषण) नहीं, वो कहानी देख रहे हैं, जिसमें आप भी शामिल हैं। एक लड़की के हाथ में सिस्टम को नंगा कर देने वाली सीडी है। वो ऑफिसर तक बदहवास पहुंचती है। ऑफिसर कल वक्त पर ऑफिस में आने को कहकर लौटा रहा होता है, मगर फिर दोनों डर जाते हैं कि कल तक वो लड़की बचे न बचे। क्या हम और आप इस डर के साथ रोज़ नहीं जीते कि क्या पता हम जहां पहुंचना चाहते हैं, वहां हमसे पहले हमारी लाशें न पहुंच जाएं।

शांघाई ज़रूर देखिए। आप राजनैतिक तौर से स्वदेशी विकास के एजेंडे को मानते हों कि ग्लोबलाइज़ेशन के एजेंडे को, इस फिल्म में सबकी हक़ीक़त साफ दिखेगी। एक्टिंग के नाम पर कट्टर राजपूत बने इमरान हाशमी तक को चुम्मा लेने की इजाज़त नहीं है, इसीलिए आप बोर हो सकते हैं। मगर, आप ये ज़रूर जानना चाहेंगे कि आपके हत्यारे कौन हो सकते हैं। और हां, अगर कहीं मरने की आज़ादी हो तो किसी रोशनी वाली जगह में ही मरें वरना शहरों में कई लाशें पहचानने के लिए पुलिस के पास पर्याप्त लाइट तक नहीं होती।

फिल्म के गीतों ने बहुत दिनों बाद देशभक्ति गीतों का एक ख़ास पैटर्न समझने में मदद की है। एक वो दौर था जब संतोष आनंद की कलम के बूते भारत कुमार उर्फ मनोज कुमार मुंह को हाथ से छिपाकर, देशभक्तों को आवाज़ देते थे। फिर सन्नी देओल का दौर भी आया जब चीख-चीख कर ‘’मेरा भारत महान’’ हमारे कानों में उतार दिया गया। और तो और सलमान खान ने नचनिया बनकर भी ''ईस्ट या वेस्ट, इंडिया इज़ द बेस्ट'' का नारा दिया। मगर, उसके ठीक उलट इंडिया बना परदेसके बैनर तले अब इंपोर्टेड कमरिया लेकर नचनिया कमर मटका रही है। मगर, इत्मीनान रखिए, पिज़्जा-पॉपकॉर्न खाइए, ये कमर ‘’शांघाई’’ की है, भारत माता की नहीं। 
डेंगू, मलेरिया..सोने की चिड़िया...बोलो, बोलो, बोलो...भारत माता की जय...
निखिल आनंद गिरि

शनिवार, 2 जून 2012

मैं एक कूटभाषा में लड़ना चाहता हूं...

मुझे रह-रह कर अपना बचपन याद आ रहा है। एक स्कूल जहां रिक्शा घंटी बजाता आता तो हम पीछे वाले डिब्बे में बैठ जाते। रिक्शेवाला दरवाज़े की कुंडी लगा देता और हम चुपचाप शोर मचाते स्कूल पहुंच जाते। कोई हाय-हल्लो या हैंडशेक नहीं। सीधे-सीधे आंखो वाली पहचान। हम रिक्शे में बैठे होते और रास्ते के किनारे एक टूटी-सी कंटेसा कार खड़ी होती। हम रोज़ उसे देखा करते। वो कार आज कहीं नहीं दिखती, मगर वो है कहीं न कहीं। ऐसे फॉर्म (आकार) में नहीं कि उसे छू सकें, देख सकें, मगर एकदम आसपास है। ये कोड लैंग्वेज (कूटभाषा) बचपन की विरासत है हमारे साथ जो हर अच्छे-बुरे वक्त में काम आती है।

मेट्रो में एक चेहरे को देखकर मेरी निगाहें रुक गई हैं। उसके चेहरे में मेरी पहचान का कोई पुराना चेहरा नज़र आ रहा है। वो मुझसे कई क़दम के फासले पर है। मैं उसकी आवाज़ नहीं सुन सकता। मगर, वो चेहरा कुछ कह रहा है। मैं उसे एकटक देख रहा हूं। सामने एक आदमी आकर खड़ा हो गया है। हालांकि, उससे मेरी कोई पहचान नहीं है। मगर, उससे मुझे चिढ हो गई है। फिर कई सारे आदमी सामने आ गए हैं। मैं सबसे चिढ़ने लगा हूं। एक रिश्ते को ढंक दिया है इन सारे अनजान आदमियों ने, जिनसे दूर-दूर तक कोई रिश्ता नहीं। मैं अगर लड़ना भी चाहूं तो किससे लड़ूं। किस कूटभाषा में लड़ूं। क्या लड़ाईयों की कूटभाषा नहीं होती।

स्कूल की एसेंबली में एक लड़की याद आती है। मुझसे बहुत लंबी। दरअसल, मैं ही क्लास में सबसे छोटा। क्लास की लाइन में मेरा हाथ पकड़कर सबसे आगे करती हुई। फिर चुपचाप लाइन में सबसे पीछे जाकर खड़ी होती। उसके सीने पर दाहिनी ओर मॉनिटर लिखा  हुआ। प्रार्थना शुरू होती तो मैं सबकी आंखे देखता, जो मुंदी हुई होतीं। मेरी आंखें लाइन में पीछे मुड़तीं। सबसे पीछे तक। वो लड़की अपने हाथ जोड़े, मगर आंखें खुली हुई। हम एक कूटभाषा में आज भी बात करते हैं, पता नहीं वो समझ पाती है कि नहीं।

मैं अब भी वो कूटभाषा सीख रहा हूं जब कीबोर्ड की दो बूंदों वाला एक बटन किसी ब्रैकेट वाले दूसरे बटन के साथ जुगलबंदी कर ले तो हम मुस्कुराने (स्माइली) लगते हैं या फिर उदास दिखने लगते हैं।  क्या ज़िंदगी में ऐसा नहीं हो सकता। हम जिन्हें चाहते हैं, वो दिखें, न दिखें। मिलें, न मिलें। बात करें, न करें। बस इतना कि ज़िंदगी में उनकी मौजूदगी का एहसास बना रहे। किसी भी आकार में। सॉलिड में न सही, लिक्विड या गैस में ही सही।

निखिल आनंद गिरि

ये पोस्ट कुछ ख़ास है

मृत्यु की याद में

कोमल उंगलियों में बेजान उंगलियां उलझी थीं जीवन वृक्ष पर आखिरी पत्ती की तरह  लटकी थी देह उधर लुढ़क गई। मृत्यु को नज़दीक से देखा उसने एक शरीर ...

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