रविवार, 27 फ़रवरी 2011

हम भला कौन सा मुद्दा रखते...

बड़े लोगों से ग़र वास्ता रखते,

आज हम भी कोई रूतबा रखते...

घर के भीतर ही अक्स दिख जाता,

काश! कमरे में आईना रखते...

तीरगी का सफ़र था, मुट्ठी में

एक अदना-सा सूरज का टुकड़ा रखते...

चांद को छूना कोई शर्त ना थी,

झुकी नज़रों से ही कोई रिश्ता रखते...

वक़्त के कटघरे में लोग अपने थे,

हम भला कौन-सा मुद्दा रखते....

दो किनारों की मोहब्बत थी "निखिल"

किसके बूते पर जिंदा रखते...

निखिल आनंद गिरि

रविवार, 20 फ़रवरी 2011

तुम्हें मंदिर की घंटियों में मैंने पाया है...

तुम्हे मंदिर की घंटियों में मैंने पाया है
मैं महसूस करता हूँ तुमको ही अज़ानों में,
अक्सर माँ की लोरी की तरह ही बोल तेरे,
अक्सर घोल देते हैं मिठास मेरे कानों में...
अब मंज़िल ही कोई, और राहगुजर कोई,
हुआ एक भी सफ़र मेरा और ना हमसफ़र कोई,
मैं फिर भी इन उम्मीदों के सहारे चल रहा हूँ,
कि अनगिन वेदना के क्षणों में जल रहा हूँ-
कि तुम इस धूप में भी बरगदों की छाँव बनकर,
कि बनकर तुम किसी झरने का कलकल स्वर ...
सुख, अमर सुख, दे सको मेरी थकानों में.....

मैं अगणित बार खंडित हो रहा हूँ, दिन-प्रतिदिन;
मैं कितनी बार जीते-जी मरा करता हूँ तुम बिन;
बहारें हैं ज़माने में, मेरी खातिर है पतझड़;
इस मायावी दुनिया में खड़ा हूँ हाशिये पर,
मेरी श्रद्धा, मेरा भी प्रेम अब मायावी बनेगा?
दो आत्माओं का मिलन (भी) दुनियावी बनेगा?
सजेंगे आस्था के फूल दुनिया की दुकानों में.....

मैं थक कर चूर हो जाऊं तो सहलाना मुझे तुम,
ये दुनिया जब लगे छलने तो बहलाना मुझे तुम;
ये सौदे, दोस्त-दुश्मन और अय्यारी की बातें;
मेरे बस की नही हमदम; ये दुनियादारी की बातें;
मेरे आँसू यही कहते हैं तुमसे बार-बार
' मुझे लेकर चलो इस मायावी दुनिया के पार'
दफ़न हो जाएँ किस्से भी हमारे दास्तानों में...

तुम्हे मंदिर की घंटियों में मैंने पाया है,
मैं महसूस करता हूँ तुमको ही अज़ानों में,
अक्सर माँ की लोरी की तरह ही बोल तेरे,
अक्सर घोल देते हैं मिठास मेरे कानों में...

निखिल आनंद गिरि

बुधवार, 16 फ़रवरी 2011

लो टाइड थी...

तुमने जो इक सागर जैसा दुख सौंपा था

अनजाने में...
खूब हिलोरें मार रहा है,

बहुत दिनों तक
दिल के सबसे भीतर के खाने में
जज़्ब किया था इस सागर को,
बहलाया भी...
बाहर बहुत उदासी है,
तुम मन के भीतर रहना सागर...

सब कुछ ठीक था,
मगर अचानक,
इक पूनम की चांद रात में
मैंने ये महसूस किया था
मन के भीतर टूटा था कुछ,
लो टाइड थी...
सब्र बांध का टूट गया था...
सागर रस्ता मांग रहा था...
होठों, आंखों के रस्ते से...

मुझको सब मालूम है साथी,
मेरे  होठों का खारापन,
आंखों में कुछ नमक के ढेले...
मुझको सब मालूम है साथी

जब भी तुम ऐसा कहती हो,
मेरी बातों में तल्खी है,
मेरी नज़र में पानी कम है...
तुमने जो इक सागर जैसा दुख सौंपा था..
छलक रहा है,
बरस रहा है...

देखो ना-
हम दोनों ने जो दुख बोया था
कितना बड़ा हुआ है आज....

सोमवार, 14 फ़रवरी 2011

रोटियों के नक्शे बिगड़ जाते होंगे

न चाहते हुए भी,
जब से मासूम पीठों पर,
किताबों का गट्ठर लदा होगा.....
मासूम चेहरों ने बना ली होगी,
बस्ते में अलबम रखने की जगह....

कई बार कच्चे रास्तों पर,
ढेला खाती होगी
आम की फुनगी,
और गिरते टिकोले बढ़ाते होंगे,
प्यार का वज़न...

बिना किसी वजह के,
जब डांट खाते होंगे
बड़े होते बेटे,
प्यार का अहसास,
पहली बार देता होगा थपकी.....

जब नहीं हुआ करते थे मोबाईल,
नहीं पढे जाते थे झटपट संदेश,
आंखें तब भी पढ़ लेती होंगी,
कि किससे होना है दो-चार...
और हो जाता होगा मौन प्यार

ये भी संभव है कि,
अनपढ़ मांएं या बेबस बहनें,
अक्सर याद करती होंगी चेहरा,
तो रोटियों के नक्शे बिगड़ जाते होंगे...

या फिर दाढ़ी बनाते पिता ही,
पानी या तौलिया मांगते वक्त,
अनजाने में पुकारते होंगे कोई ऐसा नाम,
जो शुरु नहीं होता,
मां के पहले अक्षर से....

एक सहज प्रक्रिया के लिए रची गयी रोज़ नयी तरकीबें,
प्यार ने पैदा किये हैं कितने वैज्ञानिक...

ये सरासर ग़लत है कि,
कवि,शायर या चित्रकार ही,
प्यार की बेहतर समझ रखते हैं.....

दरअसल,
जिसके पास मीठी उपमाएं नहीं होतीं
वो भी कर रहा होता है प्यार,
चुपके-चपके....

निखिल आनंद गिरि

बुधवार, 9 फ़रवरी 2011

कच्ची उम्र की लड़कियां...


ये कविता तीन साल पुरानी है...मन हुआ शेयर की जाए, तो कर दिया...

कभी-कभी होता है यूं भी,

कि घर से कच्ची उम्र में ही भाग जाती हैं लड़कियां,

और पिता कर देते हैं,

जीते-जी बेटी की अंत्येष्टि...

हो जाता है परिवार का बोझ हल्का..


और कभी यूं भी कि,

बेटियां करती हैं इश्क

और पिता देते हैं मौन सहमति

ताकि बच सके शादी का खर्च,

बेटियां मन ही मन देती हैं

पिता को धन्यवाद...

और पिता भी दब जाता है

बेटी के एहसान तले....


कच्ची उम्र में मर्ज़ी से

ब्याह रचाने वाली लड़कियां,

सदी का सबसे महान इतिहास लिख रही हैं

इतिहास जिसका रंग न लाल है न गेरुआ,

इतिहास जिनमें उनका प्रेमी एक है,

पति भी एक

और भविष्य भी एक ही है....

उनकी आंखों में सबके लिए प्यार है

आमंत्रण रहित..


आप चाहें तो आज़मा लें,

अंजुरी-भर प्यार का आचमन

सिखा देगा जीवन को

अपना शर्तों पर जीने का शऊर...


कच्ची उम्र की लड़कियां

जो पैदा होती हैं

दो-तीन कमरे वाले घरों में,

दूरदर्शन या विविध भारती के शोर में

नीम अंधेरे में,

लैंप की मीठी रौशनी में

पढ़ती हैं,

कुछ रूटीन किताबें

और पवित्र चिट्ठियां..

शादी कर उतारती हैं पिता का बोझ,

बनती हैं माएं...


सच कहूं,

उनकी छाती में दूध होता है अमृत-सा,

अपना बहाव ख़ुद तय कर सकने वाली ये लड़कियां,

मुझे लगती हैं गंगा मईया...

जो कभी दूषित नहीं हो सकती...


इतिहास उन्हें कभी नहीं भूल सकता,

जिन्होंने अपनी मजबूर मांओं के साथ,

एक ही तकिये पर सिर रखकर सोते हुए,

रचा है नयी सदी का नया इतिहास

धानी रंग में...

निखिल आनंद गिरि

रविवार, 6 फ़रवरी 2011

हम हैं ताना, हम हैं बाना, नाम-पता ना ठौर-ठिकाना...

वो चिट्ठी मेरे सामने ही आई थी जिसमें लिखा था कि आपको 15 फरवरी को साहित्य अकादमी सम्मान दिया जाना है...इस बार उन्हें सरकारी सम्मान मिला था तो टीवी पत्रकार के तौर पर मिलने जाना हुआ। मतलब, उनसे सवाल भी पूछने थे कि साहित्य अकादमी का पुरस्कार मिला तो कैसा लगा वगैरह वगैरह। ऐसा क्यों होता है कि मैं जब भी उदय प्रकाश से मिलता हूं, मुझे परिस्थितिवश रीटेक लेने ही पड़ते हैं। उदय प्रकाश मन ही मन झुंझलाते हैं, सामान्य होते हैं और फिर हमारी मुलाकात ख़त्म होती है।  उदय जी के आलोचक कुंठा में यहां तक कहते हैं कि उदय प्रकाश पूरे जीवन में 6-7 अच्छी कहानियां ही लिख सके हैं और साहित्य में उनका योगदान इतना ही भर है। खैर, अगर वो एक-दो भी कहते तो मैं मिलने ज़रूर जाता।
एक पल को भी नहीं लगा कि देश का सबसे बड़ा साहित्यिक सम्मान मिलने पर उदय प्रकाश खुश हों। ऐसा लगा कि मोहनदास को सरकारी पहचान मिलने में देरी अपनी सब हदें पार कर चुकी है....अब मोहनदास को एक लाख रुपये का नमकीन चेक खुश नहीं कर सकता।
बहरहाल, समंदर के किनारे पांव लटकाने भर से जिस तरह समंदर का पूरा अहसास होता है, वही इस छोटी मुलाकात  से हुआ। अपने पाठकों के लिए पूरा इंटरव्यू पेश है।  साहित्यिक पत्रिका ' पाखी ' ने भी इस लेख को जगह दी है..

निखिल- उदय प्रकाश को पढ़ने और पसंद करने वाली तीसरी पीढ़ी भी तैयार हो चुकी है। इस लिहाज से साहित्य अकादमी सम्मान मिलने में देरी नहीं हुई?

उदयजी– नहीं, ये तो नहीं कहूंगा। देखिए, इस तरह के जो सांस्थानिक सम्मान हैं, या इनकी स्वीकृतियां मैं कहता हूं; अच्छी रचनाओं को हमेशा देर से मिलती है और नहीं भी मिलती हैं। मैं कई बार कहता रहा हूं कि अगर आप अपने समय को व्यक्त कर रहे हैं और सचमुच आपकी रचनाएं, आपका साहित्य विपक्ष का साहित्य है, तो पुरस्कार के बजाय दंड की ज़्यादा गुंजाइश रहती है। तो खुशी है कि इसको एक सांस्थानिक स्वीकृति मिली और मोहनदास पर मिली। ये महत्वपूर्ण यूं भी है कि माना जाता था कि कहानी ऐसी विधा है, जिसको न कविता जैसी हैसियत प्राप्त है और न ही उपन्यास जैसी। तो ये बहुत इनफीरियर(निकृषट) जैसे जेंडर के समय में सोचते हैं ना कि तीसरा जेंडर (हंसते हुए)...उस तरह...तो (कहानी को) ये स्वीकृति, ये सम्मान नहीं था। निर्मल वर्मा को ज़रूर दिया गया था लेकिन किसी एक कहानी पर नहीं, कहानी संग्रह पर दिया गया था। ये पहली बार हुआ है कि एक कहानी को साहित्य अकादमी ने पुरस्कृत किया, और मोहनदास जैसी कहानी को। मैं इस मायने में कहना चाहूंगा; आप सब जानते हैं कि लगभग पिछले दस सालों से कहा जा रहा था कि समकालीन साहित्य के केंद्र में कहानी आ चुकी है, लेकिन ये विडंबना थी कि कहानी को केंद्र में आने के बावजूद, इतना बड़ा उसका पाठक समुदाय होने के बावजूद, इतना बड़ा पब्लिक स्फेयर और इतनी सारी पत्रिकाएं केंद्रित होने के बावजूद कहानी को जो सम्मान और जो गरिमा मिलनी चाहिए थी वो नहीं मिल रही थी, तो ये बहुत बड़ा डिपार्चर है। और ये कभी न भूलें कि साहित्य अकादमी ने इसके पहले किसी कहानी को पुरस्कृत नहीं किया है। खुशी है, बहुत खुशी है। मैं इसको दरअसल पाठकों के ही दबाव के कारण, उनकी आकांक्षाओं की सांस्थानिक स्वीकृति मानता हूं।

निखिल- आप तो कहते भी रहे हैं कि हिंदी के पावर स्ट्रक्चर (सत्ता प्रतिष्ठानों) से खुद को अलग ही रखते हैं, इस संदर्भ में भी पुरस्कार बड़ा है?

उदयजी – हां, इसे हर कोई जानता है कि एंटी एश्टैब्लिशमेंट(establishment) यानी व्यवस्था विरोधी उसके साहित्यकार हैं। मैं ही क्या, प्रेमचंद भी वही थे। मुक्तिबोध भी वही थे। हर लेखक कहीं न कहीं अपने समय की सत्ता व्यवस्था जो होती है, उससे अलग और उसके विपक्ष में जो प्रजा होती है, जनता होती है, नागरिक होते हैं, मनुष्य होते हैं, ये उनके जीवन की विडंबनाओं और उनकी आकांक्षाओं, सपनों की बात करता है और मोहनदास ऐसी ही कहानी है।

निखिल-  मोहननदास एक दलित पात्र को केंद्र में रखकर लिखी गई कहानी है। एक गैर-दलित/सवर्ण लेखक को ऐसी कहानी पर पुरस्कार मिलना क्या कहता है? वो भी तब जब दलित लेखकों का बड़ा समूह सक्रिय है?

उदय जी- (हंसते हैं) देखिए, मैं एक चीज़ बताऊं आपको...इस तरह की जो identities हैं ना, दलित हैं, माने intermediary identities हैं, सवर्ण identities हैं, जेंडर की identities हैं...मैं मानता हूं कि जो ऑथर है, लेखक, उसकी भी अलग आइडेंटिटी होती है। और लेखक से ज़्यादा दलित कोई हो ही नहीं सकता क्योंकि आप खुद देखिए, एक दलित ही अपने आपको पॉलिटिकली एसर्ट(?) कर सकता है। एक माइनॉरिटी ही अपने आप को राजनीतिक रूप से एसर्ट(?) कर सकता है। लेखक आज तक कभी अपने आप को एसर्ट(?) नहीं कर पाया क्योंकि किसी संगठन, समुदाय के रूप में, किसी कास्ट के रूप में वह होता ही नहीं है; लेखक हमेशा अकेला होता है। असंगठित होता है। और इसलिए आप जिसे उदाहरण देखें...आप परसों का उदाहरण ही लीजिए कि ज़फर पनाही, इतने महत्वपूर्ण, इतने संवेदनशील पत्रकार, उनको सज़ा और उनको 20 साल तक फिल्म न बनाने, लिखने की बंदिश, कठोर सज़ा दी गई। आप अपने यहां देखिए, एक चित्रकार बाहर है इस देश से। एक लेखिका, जानी-मानी, एक वाक्य बोलती है, वो भी संवैधानिक बात और उसपे देशद्रोह का मुकदमा चला दिया जाता है। तो लेखक होना और सच कहना ये बहुत कठिन है। इसलिए मैं मानता हूं कि लेखक से ज़्यादा दलित, अगर सच्चा लेखक है तो, और कोई होता नहीं है।

निखिल- आपके पाठक और आलोचक भी, और अब तो सरकारी संस्थान भी, कहते हैं कि आपकी कहानियों में जादुई पोएटिक टच होता है। तो आप पहले क्या मानते हैं खुद को, एक कवि या एक कहानीकार?

उदय – नहीं निखिल जी, मैं कवि ही हूं। और मैंने (हंसते हुए) शुरुआत अपनी रचनाओं की, बचपन में, कविताओं से ही की थी। कविता और पेंटिग से। और मेरा ये मानना है कि; उदाहरण भी देता हूं, दोस्तों से भी कहता हूं कि जैसे कुम्हार कोई होता है, मिट्टी से खेलता है, घड़े बनाता है, चाक पर चढ़ाता है तो उसकी ऊंगलियां जानती है कि ये मिट्टी कैसी है, इसे मैं क्या बनाऊं; लेकिन अगर धोखे से कभी वो कोई कमीज़ सिल दे...और लोग उसको दर्जी कहने लगें(हंसते हैं) तो मैं दोस्तों से कहता हूं कि मैं दरअसल कहानियां लिखता ज़रूर हूं लेकिन मैं हूं कवि ही। और आप पढ़ें, मोहनदास पढ़ें, आप कोई भी कहानी पढ़ें, वारेन हेस्टिंग्स का सांड अपने आप में एक कविता है। और एक ऐसी कविता जो आख्यानात्मक कविता है, इसको पाठकों ने पसंद भी किया है। बड़े पैमाने पर पसंद किया है। और जिन कहानियों को आप जानते होंगे, आलोचक या मठाधीश या आचार्य जिनको कहते हैं, जिनको वो दुरुह या दुर्गम कहानियां कहते थे, उनको इतनी बड़ी लोकप्रियता मिली। आज सारी भारतीय भाषाओं में इनका अनुवाद है, विदेशों में भी अनुवाद है। तो मैं कह सकता हूं कि पहली बार शायद मैं एक ऐसा लेखक हूं जिसकों पाठकों का और सारी भारतीय भाषाओं का और सभी का भरपूर प्यार, साथ मिला। मोहनदास नेपाली में भी अनूदित है। वहां भी ये बेस्टसेलर है। अभी नेपाल से लड़के आए थे। तो उर्दू में, अंग्रेज़ी में, जर्मन में, सारी भाषाओं में, कन्नड़, मलयालम, कोई ऐसी भाषा नहीं है, ओड़िया में है, मराठी में है। मराठी में बहुत लोकप्रिय है। आपने ये भी देखा होगा कि पिछली बार अमरावती में दलितों का सम्मेलन, 25000 दलित, वहां मोहनदास, मोहनदास हो रहा था। तो उन्होंने मुझे जो सम्मान दिया अमरावती में, उसने सचमुच जीवन की एक धारा बदल दी। वो एक मोड़ है मेरे जीवन का, बहुत निर्णायक मोड़ है, कि शायद लेखक होते हुए मैंने सचमुच ईमानदारी से; जो सबसे उत्पीड़ित हिस्सा है हमारे समाज का, उसकी आवाज़ और अंतरात्मा को छुआ है और उसके पीछे कोई राजनीतिक स्वार्थ नहीं था। वो एक कंसर्न था, ऐसी चिंता थी, जो हर लेखक को, हर नागरिक को होनी चाहिए।

निखिल – इसका मतलब आपको पहले ही बड़ी सम्मान दे चुके हैं देने वाले?

उदय – क्यों नहीं, जब मेधा पाटेकर ने किताब ‘एक भाषा हुआ करती है...’ का विमोचन किया तो मैंने लिखा कि मेरे लिए ये अब तक का सबसे बड़ी पुरस्कार है। मेधा जी ने लिखा है कि दलितों और पीड़ितों के जीवन के अनुभवों को वाणी देने वाले उदय प्रकाश की किताब का विमोचन करते हुए मुझे खुशी हो रही है। वृंदा करंदिकर, इतने बड़े कवि, जिनका मैं सचमुच सम्मान करता हूं, उन्होंने ‘अरेबा-परेबा’, जिसके मराठी की किताब का पुरस्कार दिया, वो पुरस्कार जो उन्हें ज्ञानपीठ से मिली हुई राशि थी, से चलने वाला पुरस्कार, बड़ा पुरस्कार माना जाता है, महाराष्ट्र फाउंडेशन का पुरस्कार। आप ‘पीली छतरी वाली लड़की’ को देखिए कि पेन अवार्ड मिला। पेन अवार्ड दिया ही इसीलिए जाता है जो ऑप्रेस्ड राइटिंग ऑफ द वर्ल्ड लिटरेचर, दबाई गई, दमित जो आवाज़ें हैं विश्व साहित्य की, उनको दिया जाने वाला सम्मान है। तो मैं ये मानता हूं कि, देखिए साहित्य सिर्फ भाषा का कौशल नहीं है, साहित्य सिर्फ शिल्प की बाज़ीगरी नहीं है और ये भी नहीं कि आप अभी दलित एरा चल रहा है तो दलितों पर एक कहानी लिख दी, कम्युनलिज़्म और सेक्यूलरिज़्म तल रहा है, तो आपने उस एजेंडे पर एक कहानी लिख दी। इतना आसान नहीं होता कुछ भी लिखना। कविता हो चाहे कहानी हो, जब तक अपने समय के जो वास्तविक संकट और अंतर्विरोध हैं, उनको आप नहीं पहचानेंगे, तब तक आप नहीं लिख पाएंगे कुछ भी।

निखिल – एक लेखक के लिए पढ़ना कितना ज़रूरी है। आपके महतवपूर्ण लेखक, कवि कौन रहे हैं?

उदय जी – बहुत...मैं पढ़ता बहुत हूं। सभी ने प्रभावित किया, सबकी प्रेरणाएं हैं। मैं किसका-किसका नाम लूं, विदेशी साहित्यकार भी हैं, अपनी भाषा के भी, अन्य भारतीय भाषाओं के भी साहित्यकार हैं। सबका योगदान है, आप संस्कार वहीं से पाते हैं। एलियट की बड़ी प्रसिद्ध पंक्ति है...जो उसका कथन है ‘tradition and the individual talent’…जो परंपरा है उसी में अपनी वैयक्तिक प्रतिभा भी प्रकट हो सकती है। अगर हम परंपराओं से परिचित नहीं होंगे तो सिर्फ वैयक्तिक प्रतिभाओं के दम पर उछलने-कूदने से कुछ नहीं होता। जैसे आप सिनेमा बनाते हैं, तो सिनेमा के पीछे 20वीं सदी से लेकर आज तक का पूरा इतिहास। उसमें कई बड़े-बड़े काम हो चुके हैं। आपके पहले तारकोवस्की, सत्यजीत रे, ऋत्विक घटक हो चुके हैं, अब आप उसके बाद बना रहे हैं। तो आपको पूरी परंपरा का, इतिहास का संज्ञान रहना चाहिए और तब आप कुछ नया कर पाएंगे। और आप सोचेंगे कि मैं मौलिक हूं, औप बिना परंपरा को जाने हुए आ जाएंगे तो हास्य पैदा होगा।

निखिल – हिंदी के साहित्यकारों में किन्हें पढ़ना बेहद ज़रूरी मानते हैं?

उदय – मैं तो...हज़ारीप्रसाद द्विवेदी के जो उपन्यास हैं, ज़रूर पढ़ना चाहिए, क्योंकि अलग तरह का पोस्ट-मॉडर्न(उत्तर-आधुनिक) उनका नैरेटिव है। दूसरा, मुक्तिबोध मेरी चेतना के केंद्र में रहे हैं, शमशेर को पढ़ना चाहिए। और अज्ञेय को जिनको लगातार निर्वासित-सा किया गया। आप पढ़के देखिए ‘शेखर एक जीवनी’,उनको पढना चाहिए। प्रेमचंद तो रहेंगे ही रहेंगे। उनको तो अवश्य पढ़ना चाहिए, हर कहानी पढ़नी चाहिए। फिर उसके बाद, आज़ादी के बाद, स्वातंत्र्योत्तर जो काल है, जिनकी जन्मशती हम मनाने जा रहे हैं, बाबा नागार्जुन। क्यों नहीं पढ़ना चाहिए। मैंने हाल ही में एक मैगज़ीन के लिए अंग्रेज़ी में लिखा है, कि बाबा नागार्जुन के बारे में धारणा बना दी गई कि वो पेडेस्ट्रियन पोएट हैं, सड़क में खड़े हुए; तो ऐसा नहीं है। आप सोचिए, जिसने मैथिली में लिखा हो, बांग्ला में लिखा हो, संस्कृत में लिखा हो, जो पाली जानता रहा हो, कितनी भाषाओं का ज्ञाता रहा हो। आइजनआवर, टीटो, नेहरू, मिसेज़ गांधी, रजनी पाम दत्त, चीन-भारत विवाद, इन सब पर जिनकी रिमार्केबल(उल्लेखनीय) कविताएं रही हों, उसको आप कहें कि वो एलिट नहीं है, अभिजात नहीं है, वो जनकवि हैं। आपने उनकी ऐसी छवि बना दी। बाबा नागार्जुन अभिजात के कवि थे, एक ऐसे एलिट पोएट थे, जो पीपुल्स एलीट थे, जनता के अभिजात। तो इसी रूप में देखिए, पुनर्व्याख्याओं की ज़रूरत है, पुनर्मूल्याकंन की ज़रूरत है। कोल्ड वॉर का जो समय था, आप जानते हैं कि इतनी ज़्यादा राजनीति थी कि एक तरफ सोशलिस्ट और एक तरफ कैपिटलिस्ट ब्लॉक है, उन दोनों की टकराहट के बीच जो साहित्य रचा गय, उसमें कहा गया कि ये तो ‘शिविरबंदी’ थी। ये उनके खेमे का है, ये हमारे खेमे का है। और आज भी आ देखते हैं कि तरह-तरह के लेखक संगठन बने हुए हैं, गुट बने हुए हैं, उससे बहुत नुकसान हो रहा है। आप सोचिए, शमशेर को लगभग ये मान लिया गया था कि वो प्रगतिशील नहीं हैं। मुक्तिबोध को तो मनोरोगी तक घोषित कर दिया गया था। लेकिन आज देखिए, मुक्तिबोध, शमशेर, अज्ञेय के बिना आप साहित्य की कल्पना नहीं कर सकते।

निखिल – आप कुछ संगठनों की तरफ इशारा कर रहे हैं। कहीं ऐसा तो नहीं कि राजधानी में पैठ जमाए इन संगठनों की शरण में आकर ही बड़ा साहित्यकार बना जा सकता है, अन्यथा कोई नहीं पूछेगा?

उदय – नहीं, ऐसा बिल्कुल नहीं है। अब मैं कहां से दिल्ली में रहता हूं। आप अपने समय को देखेंगे, समय के परिवर्तनों को देखेंगे, स्वीकृति देर से ही सही होगी ज़रूर। हां आपका कहना बिल्कुल सही है कि जो राजधानियां हैं, जिनमें दिल्ली भी है, और राज्य के जो सत्ता-केंद्र हैं, जैसे लखनऊ, भोपाल, पटना, वहां जो रहने वाले हैं, उनके लिए एक्सेस(पहुंच) हो जाता है। संगठनों से। वो वहीं रहते हैं, संपर्क बनाते हैं, प्रभाव बनाते हैं, गुट बनाते हैं और एक प्रेशर ग्रुप(दबाव समूह) बनाते हैं। ज़्यादातर यही होता है। मैं एमपी का हूं, कई पीढ़ियों से, मगर अब एमपी के लोगों को ये पता चला है, जब साहित्य अकादमी सम्मान मिला है। मगर, राज्य का शिखर सम्मान अब तक नहीं मिला है। शायद ही उस राज्य का कोई सरकारी सम्मान मिला हो। तो, राजधानियों में ज़रूर केंद्रित रहा है, जो दुर्भाग्यपूर्ण है। मैं ये संस्थाओं से भी कहूंगा कि बड़े शहरों, राजधानियों से अलग हटकर जो छोटे कस्बे, वहां के साहित्यकार, लेखक, कवियों पर भी ध्यान दें। और ये शिकायत बहुतों को है। ऐसे कई महत्वपूर्ण लेखक हैं; वैकम मोहम्मद बशीर, जिन्हें मलयालम का प्रेमचंद कहते हैं, वो कहां रहते थे। कोई त्रिवेंद्रम में नहीं रहते थे। छोटी सी जगह भैरप्पा....वसवन्ना, प्रसन्ना, कई नाम हैं। राजधानियों से थोड़ा विकेंद्रण, आपका कहना सही है, होना चाहिए। जानकीवल्लभ शास्त्री हैं, मुज़फ्फरपुर में पढ़े हैं, उनको सम्मान क्यों नहीं मिला। मुक्तिबोध, छत्तीसगढ़ के छोटे से खंडहर में रहते थे और उनको, अगर उस समय नेहरू जैसे लोग न होते, श्रीकांत वर्मा, नेमिचंद जैन, अशोक वाजपेयी, इन लोगों को श्रेय जाता है कि उन्होंने मुक्तिबोध को पहचान दी, केंद्रीयता दी। हम तो नेमिचंद जैन के आभारी हैं, कि मुक्तिबोध रचनावली पूरी की पूरी सामने आई...देश के सबसे अविकसित प्रदेश में पड़े थए मुक्तिबोध, वहां से।

निखिल – मौजूदा साहित्य में क्या संभावनाएं हैं?

उदय जी – निखिल जी, ये प्रतीक्षा का समय है। चीज़ें इतनी तेज़ी से बदली हैं, बहुत तेज़ी से बदली हैं और बदलती जा रही हैं। आप बेसिकली मानें, मोटे तौर पर तकनीक, पूंजी, श्रम; इन तीनों का क्या चरित्र है, क्या भूमिका है, स्वरूप किया हैं, इससे पता चलता है कि समाज कैसा बना, कैसे बदला। मैं बार-बार कहता रहा हूं कि ये जो 80 के बाद का दौर है, जेसे हम ग्लोबलाइज़ेशन कहते हैं, इसमें न सोचें कि सिर्फ नई अर्थव्यवस्था पैदा हुई है, टेक्नॉलॉजी नई आई है। उसने बड़े पैमाने पर समाज को बदल डाला है। इंटरनेट हैं, मोबाइल, आईपॉड हैं, कम्युनिकेशन(संप्रेषण) के दूसरे साधन हैं, कैपिटल-पूंजी फ्री हो गई हैं आवारा हो गई है। पहले वही पूंजीपति थे, जिनके पास बड़ कैपिटल था। अब फोर्ब्स की सूची में वो हैं, जिनके पास कोई उद्योग, फैक्ट्री नहीं हैं। ताज्जुब है। सर्विस सेक्टर जो नया आया है, पुराने श्रमिकों की हालत खराब कर दी है। आप लोग भी हैं; मीडिया, कॉल सेंटर वाले। यह जो वर्ग आया है नया, क्या इसकी पहचान है। हो क्या रहा है, मैं देख रहा हूं कि जो आज के जीवन में मनुष्य के सामने आने वाले संकट हैं, उनके जो अनुभव हैं, उनको व्यक्त करने वाली कहानियां अभी उस तरह से नहीं आई है। कहीं न कहीं एक हैंगओवर है पुराना, खुमारी इतिहास की, अभी उतरी नहीं है। राजनीति कहीं नहीं है। आप पढ़े फुकुयामा को, पोस्ट ह्यूमन फ्यूचर, साफ कहता है आपका जो समय है, उसकी ड्राइविंग सीट पर राजनीति नहीं है। अब वो है पूरी की पूरी कैपिटल और टेक्नोलॉजी और राजनीति जो है उसकी खिदमतगार, सेवक की भूमिका में है। ये न सोचें कि इस समय कोई भारत का प्रधानमंत्री है, मुख्यमंत्री है। ये सबके सब कॉरपोरेट पूंजी के प्रबंधक हैं। सारी नीतियां बन रही हैं। ऐसे समय में अपने मनुष्य के संकट को देखना बहुत बड़ा टास्क है, साहित्यकारों की ज़िम्मेदारी है।

निखिल – अंत में, कवि उदय प्रकाश क्या कहना चाहेंगे?

उदय – (हंसते हुए) मुझे कविताएं तो याद नहीं रहती अपनी, फिर भी कुछ पंक्तियां जो बार-बार कहता हूं...

आदमी मरने के बाद कुछ नहीं बोलता
आदमी मरने के बाद कुछ नहीं सोचता
कुछ नहीं बोलने और कुछ नहीं सोचने पर
आदमी मर जाता है
(ये इंटरव्यू उदय जी के घर पर 23 दिसंबर 2010 को लिया गया था)
 
निखिल आनंद गिरि

बुधवार, 2 फ़रवरी 2011

अकेले में नहीं मिलने वाली लड़कियां....

आप मुझसे प्रेम करते हैं...

तो चलिए मान लिया कि प्रेम करते हैं...

आपकी सभी शर्तें भी मान लीं...

कि ये नहीं कर सकते, वो कर सकते हैं...

अब जितना बच गया है शर्तों में...

उतना ही प्रेम कीजिए मुझसे...
 
देखना चाहता हूं कैसे बांटती हैं अकेलापन...
 
अकेले में नहीं मिलने वाली लड़कियां...
 
 
निखिल आनंद गिरि

ये पोस्ट कुछ ख़ास है

मृत्यु की याद में

कोमल उंगलियों में बेजान उंगलियां उलझी थीं जीवन वृक्ष पर आखिरी पत्ती की तरह  लटकी थी देह उधर लुढ़क गई। मृत्यु को नज़दीक से देखा उसने एक शरीर ...

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